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तब मैं बहुत छोटी थी . बात द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद की1947 से पहले की है , जब 40-50 रुपए महीने की आय में 3-4 बच्चोंवाली गृहस्थी मज़े से चल जाया करती थी.दो रुपये में एक सेर घी मिलता था. जीवन बहुत सीधा-सादा था तब .
घर पर हमें माँ पढ़ाती थीं. उस ज़माने की हाईस्कूल पास थीं वे . प्रायः ही रसोई में बैठा लेतीं और अपने काम करते-करते हमारा काम देखती जातीं. हमारा दिमाग़ इधर-उधर भागा कि फ़ौरन एक चपत रसीद.
अंग्रेज़ी के मीनिंग तो याद हो जाते ,हिन्दी ,अपनी भाषा ! लिखना-पढ़ना याद करना कभी मुश्किल नहीं लगा . पर गणित के सवालों से बड़ी घबराहट लगती थी.
'मन लगा कर करोगे तो कुछ कठिन नहीं लगेगा', उनका कहना था,' और जितने सवाल ठीक आयेंगे हर सवाल पर एक पैसा मिलेगा .'
हिसाब ख़ुद रखना पड़ता था -बाकायदा कापी पर लिख कर.और जब कुछ पैसे इकट्ठे हो जाते तो वे उधार कर देतीं .कहतीं , 'मेरे संदूक में सौ रुपये का नोट है .तुड़ाऊँगी तब दे दूँगी .'
उस सौ के नोट ने हमें ऐसा लुभा रखा था कि हम अपने मन को समेट कर पाठ पूरा करने में पूरा ध्यान लगा देते.
उनके संदूक खोलते पर हम वहीं मँडराते ,सौ का नोट निकालें शायद ! पर इत्ती छोटी रकम के लिए इत्ता बड़ा नोट तुड़ाएं . कुछ रुपये इकट्ठे तो होने दो पहले..'
इतना भारी नोट यों निकालना ठीक नहीं , बंद कर के रखना पड़ता है..चलते-फिरते कोई देख ले तो?
मुझसे दो साल छोटा भाई विष्णु और मैं. कितने पैसे इकट्ठे हो गये हिसाब जोड़ कर ही मगन रहते थे .कभी-कभार खुश होने पर कुछ पैसे पकड़ा भी देतीं जिनसे हम लेमनचूस(तब यही कहते थे),और बर्फ़ के गोले खरीद कर खा लेते . पर हाँ , ठीक-ठीक पूरा हिसाब फ़ौरन लिखना बहुत ज़रूरी था.
हमारी पुरानी कापियाँ-किताबें उन्होंने कभी बेची नहीं .हम अच्छी तरह पास हुए क़ीमत वसूल हो गई (मैथ्स में अंत तक मेरे बढ़िया नंबर आते रहे ).अब यही किताबें किसी ग़रीब बच्चे के काम आएँ . वह हिसाब की कापी भी इधऱ-उधऱ हो गई ,कितने पैसे इकट्ठे हो गये (रुपये भी होने लगे थे), यह भी भूल-भाल गये .
आजकल के बच्चे इतने मूर्ख नहीं होते, और न वैसे बहुमूल्य नोट संदूको में धरे जाते हैं. अपनी आँखों देखा नहीं कभी , पर माँ की उस मोदमयी मुद्रा और सौ के नोट की याद कभी-कभी बहुत आती है.
तब मैं बहुत छोटी थी . बात द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद की1947 से पहले की है , जब 40-50 रुपए महीने की आय में 3-4 बच्चोंवाली गृहस्थी मज़े से चल जाया करती थी.दो रुपये में एक सेर घी मिलता था. जीवन बहुत सीधा-सादा था तब .
घर पर हमें माँ पढ़ाती थीं. उस ज़माने की हाईस्कूल पास थीं वे . प्रायः ही रसोई में बैठा लेतीं और अपने काम करते-करते हमारा काम देखती जातीं. हमारा दिमाग़ इधर-उधर भागा कि फ़ौरन एक चपत रसीद.
अंग्रेज़ी के मीनिंग तो याद हो जाते ,हिन्दी ,अपनी भाषा ! लिखना-पढ़ना याद करना कभी मुश्किल नहीं लगा . पर गणित के सवालों से बड़ी घबराहट लगती थी.
'मन लगा कर करोगे तो कुछ कठिन नहीं लगेगा', उनका कहना था,' और जितने सवाल ठीक आयेंगे हर सवाल पर एक पैसा मिलेगा .'
हिसाब ख़ुद रखना पड़ता था -बाकायदा कापी पर लिख कर.और जब कुछ पैसे इकट्ठे हो जाते तो वे उधार कर देतीं .कहतीं , 'मेरे संदूक में सौ रुपये का नोट है .तुड़ाऊँगी तब दे दूँगी .'
उस सौ के नोट ने हमें ऐसा लुभा रखा था कि हम अपने मन को समेट कर पाठ पूरा करने में पूरा ध्यान लगा देते.
उनके संदूक खोलते पर हम वहीं मँडराते ,सौ का नोट निकालें शायद ! पर इत्ती छोटी रकम के लिए इत्ता बड़ा नोट तुड़ाएं . कुछ रुपये इकट्ठे तो होने दो पहले..'
इतना भारी नोट यों निकालना ठीक नहीं , बंद कर के रखना पड़ता है..चलते-फिरते कोई देख ले तो?
मुझसे दो साल छोटा भाई विष्णु और मैं. कितने पैसे इकट्ठे हो गये हिसाब जोड़ कर ही मगन रहते थे .कभी-कभार खुश होने पर कुछ पैसे पकड़ा भी देतीं जिनसे हम लेमनचूस(तब यही कहते थे),और बर्फ़ के गोले खरीद कर खा लेते . पर हाँ , ठीक-ठीक पूरा हिसाब फ़ौरन लिखना बहुत ज़रूरी था.
हमारी पुरानी कापियाँ-किताबें उन्होंने कभी बेची नहीं .हम अच्छी तरह पास हुए क़ीमत वसूल हो गई (मैथ्स में अंत तक मेरे बढ़िया नंबर आते रहे ).अब यही किताबें किसी ग़रीब बच्चे के काम आएँ . वह हिसाब की कापी भी इधऱ-उधऱ हो गई ,कितने पैसे इकट्ठे हो गये (रुपये भी होने लगे थे), यह भी भूल-भाल गये .
आजकल के बच्चे इतने मूर्ख नहीं होते, और न वैसे बहुमूल्य नोट संदूको में धरे जाते हैं. अपनी आँखों देखा नहीं कभी , पर माँ की उस मोदमयी मुद्रा और सौ के नोट की याद कभी-कभी बहुत आती है.
संबल होती हैं ये पुरानी यादें ... जो हर किसी के दिल में रहती हैं ...
जवाब देंहटाएंहर माँ के पास एक न एक नायाब नुस्खा होता है अपने बच्चों को प्रेरित करने का..
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ बदल गया प्रतिभा जी. अब इतना सरल न जीवन है न लोग.
जवाब देंहटाएंमाँ... हमारे लिये हमारी अम्मा का केवल एक प्रेरक वाक्य होता था कि तुम्हारे पिता जी इलाहाबाद में हैं और तुम लोगों की ज़िम्मेवारी मेरे ऊपर है. अगर तुमने अच्छा नहीं किया तो लोग कहेंगे कि माँ ने बिगाड़ दिया. क्या तुम चाहोगे कि तुम्हारी माँ को कोई ऐसा कहे?
जवाब देंहटाएंबस यही सौ का नोट था हमारे लिये... और मेरे ऊपर सबसे बड़ा होने के कारण सभी छोटों के मार्गदर्शन का दायित्व..
लेकिन हमारे एक चाचा थे जो अगर बाज़ार में किसी को मिल जाएँ तो लोग कन्नी काट लेते थे. क्योंकि उनकी जेब में हमेशा एक सौ का नोट होता था (जो किसी ने नहीं देखा) और उनके सारे ख़र्च उस आदमी को उठाने होते थे जो उन्हें नमस्ते कर बैठता था भूल से.
बहुत सी बातें याद आ गयीं!
आपके इस पोस्ट से ढेर सारी यादें ताजा हो गयी .....
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी ! बचपन सामने आकर खडा हो गया । मुँह चिढा रहा है । shaakuntalam.blogspot.in
जवाब देंहटाएंआदरणीया ,मन को भिगो दिया आपके इस संस्मरण ने । पुराने समय में सुविधाओं पर कम और परिश्रम तथा मूल्यों पर अधिक ध्यान दिया जाता था । इतना तो मुझे भी याद है कि जब मैं चौथी कक्षा में थी तब आठ-या दस रुपए का एक किलो घी आता था । सौ रुपए तो सचमुच बडी रकम थी । आज पैसा है पर वह सन्तुष्टि कहाँ जो अपना काम पूरा करने पर माता-पिता की शाबासी से मिलती थी ।
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