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भारत में सिनेमा और टीवी सीरियलों को प्रदर्शित होने से पहले सेंसर से गुज़रना पड़ता है .पर ऐसा लगता है कि कोई सुविचारित अनुशासन- व्यवस्था,या कला.संस्कृति,भाषा आदि के मानदंड निर्धारित नहीं हैं, जन-सामान्य पर उसका प्रभाव क्या पड़ेगा इसका कोई विचार नहीं, क्या संदेश जा रहा है इस ओर से भी उदासीन. सड़क चलता मनोरंजन और वैसी ही भाषा .इनके गानो और संवादों की सस्ते मनोरंजन वाली छँटी हुई शब्दावली पूरे देश (और विदेशों तक भी)पहुँच कर व्यवहार में आने लगती है .ऐसे उत्तेजक और सस्ते गाने जो संगीत कला को भी कलंकित कर रहे हैं . .
आज के अधिकांश चल-चित्र सामाजिक जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव डाल रहे हैं .मनोरंजन के इन साधनों को नाट्यकला की आधुनिक परिणति मानें तो उसकी भी कुछ मान्यतायें और अपनी कुछ परंपराएं हैं जो समाज के हित-संपादन के लिए निर्धारित की गई हैं .लोक रुचि का विरेचन , परिमार्जन और उन्नयन करने के साथ मानसिक आनन्द के स्थान पर उसे विद्रूप कर मर्यादाहीनता का पाठ पढ़ाया जा रहा है.भाषा भ्रष्ट हो रही है ,बज़ारूपन ,सस्तापन .क्रूरता और भोगवाद सब जगह हावी हो रहा है. यह मनोरंजन का साधन न रह कर बाज़ारवाद का वाहन बन गया है .इन्द्रिय-बोधों को ऐसा ग्रसता हैं कि अनायास अपने प्रभाव में ले लेता है .परिणाम है संस्कार-हीनता और चारित्रिक- गिरावट ,जिसकी कोई सीमा नहीं .
अक्सर ही ऐसे चल-चित्र खूब चलते हैं जो स्वस्थ मनोरंजन देने और समाज में जागरूकता लाने के बजाय मन की विकृतियों को हवा देते हैं और भाषा-भूषा,आचार-विचार पारिवारिक और सामाजिक व्यवहारों की जड़ें खोदते हैं.न सौन्दर्य ,न संदेश ,न सच ,बस उत्तेजित करना और इच्छाओं को हवा देना.
इनके भोंडेपन और उद्देश्यहीनता पर नियंत्रण लगाना क्या सेंसर का काम नहीं है? .मनोरंजन के नाम पर कोई प्रस्तुतीकरण क्या ऐसा होना चाहिये जो सामाजिक और संस्कृतिक , मूल्यहीनता को प्रोत्साहन दे? उसकी स्तरीयता और उद्देश्यपरकता के साथ लोक जीवन पर उसके प्रभाव के आकलन से सेंसर-बोर्ड का कोई वास्ता नहीं?यह भी कि इन्हें पास करनेवालों की समाज और संस्कृति के क्षेत्रों में कितनी पैठ है जो इस पर गहराई से विचार करें.
आखिर सेंसर काहे के लिये है?
अगर आज हम यह प्रश्न नहीं उठायेंगे तो मूल्यहीनता के भंवर में डोलते आज के समाज को बाहर आने में पता नहीं कितनी देर होती चली जायेगी .
मनोरंजन के साथ सन्देश देने का सशक्त माध्यम है सिनेमा , मगर उपयोग उलटे अर्थों में हो रहा है .
जवाब देंहटाएंआपके विचारों से पूर्णरूपेण सहमति!
जवाब देंहटाएंसेंसर का काम तो अश्लील भाषा ,दृश्यों को रोकना परन्तु अब बोक्स्स ऑफिस की सफलता ही मुख्या उद्देश्य .-आप से पूर्ण सहमत हैं डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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बिलकुल सही कह रही हैं आप. जब यह कहते हैं कि वही बन रहा है जो बिकता है, तो यह भी कहना चाहिए कि जो आप बना रहे हैं वही बिक रहा है.
जवाब देंहटाएंथोड़ी भी जिम्मेदारी से अगर काम लें तो कितना अच्छा हो.
सेंसर तो बस नाम का ही है ..... आज कल के गाने सुन कर और संवाद सुन कर लगता ही नहीं कि सेंसर ने पास किया है ...
जवाब देंहटाएंएक औपचारिकता पूरी कर हाथ धो लेते हैं ...."दर्शक अपने उचित विवेक से काम लें"
जवाब देंहटाएंविचारणीय बात लिए आपकी पोस्ट
सेंसर बोर्ड शायद सर्वाधिक उपेक्षित तंत्र है सरकार का ...जो चाहे करे !
जवाब देंहटाएंआपके विचारों से मेरी पूर्म सहमति है। किन्तु....
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी,यदि सभी अपने अपने दायित्वों का निर्वाह पूरी निष्ठा
या ईमानदारी से करने लगें तो चारित्रिक-हनन ही समाप्त हो जाए।
ऐसे सतयुग की कल्पना भी आज मिथ्या प्रवंचना सी ही लगती है।
उत्थान के बाद पतन होता ही है, इसलिए इस समाज का पतन होना ही है। जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा।
जवाब देंहटाएंउन्हें जो अच्छा लगे शायद उसे ही वे सेंसर कहते हैं ....
जवाब देंहटाएंसेंसर को सेंसर करने वाला भी तो कोई हो |
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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लाजवाब...बहुत बहुत बधाई...
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