मंगलवार, 5 जून 2012

कृष्ण-सखी - 43.& 44.

*

43
'एक-एक से बदला लूँगा !'
रह-रह कर अश्वत्थामा की बुद्बुदाहट.
रात्रि के नीरव अंधकार को झकझोरती  घूहुह्घुः-घुहुह्घुः की घहराती हुई ध्वनि गूँज  गई - ऊपर वृक्ष की शाख पर कोई उल्लू बोल उठा था .
  तल में बैठे कृतवीर्य ने जड़ों का सहारा लिये अधलेटे उद्विग्न मित्र से कहा .
'कैसा अपशकुन !पता नहीं और क्या होनेवाला है !'
 "जो हो चुका है उससे अधिक और क्या हो सकता है ? सब इनकी दुरभिसंधि है . पितृहीन कर दिया गया मैं ,क्षत-विक्षत युवराज सारी आशा छोड़ बैठे हैं .'
 अश्वत्थामा की घोर विकलता को कृतवीर्य कुछ धीरज बँधाना चाहते हैं
एक बार नहीं ,दो बार नहीं, कई बार वही कर्कश उलूक-ध्वनि .
दोनों चुप !
 अचानक वह रात्रि-चर पंख फड़फड़ाता उड़ गया .
फिर सुनाई देने लगीं पक्षियों की भयभीत चीत्कारें .
'अरे,रात्रि का अँधियार पा जुट गया यह अपना कार्य साधने में .'
 विकलता से छोटे-छोटे चक्करों में  मँडराते, घबराये पक्षियों की  करुण पुकारें ,
शावकों की दारुण चिचियाहट वाली आर्त रोदन- ध्वनियाँ वायुमंडल विदीर्ण कर रही हैं  .
'रात्रि  में  निद्रालीन पक्षियों का आखेट कर रहा है ... '
कुछ देर विचार-मग्न रहा , अचानक गुरु-पुत्र उठ कर बैठ गया .
'बस ,बहुत हुआ .अब रात्रि व्यर्थ खोने के लिये नहीं है .कुरु-सेना नायक विहीन है .घायल युवराज वहाँ ताल का जल बाँध कर छिपे हैं . चलो ,हमें कुछ करना होगा .'
कृतवर्मा ने पूछा ,'क्या निश्चय किया है मित्र ? .'
  चलो अभी बताता हूँ .'
 दोनों उठ कर चल पड़े .
*
पीड़ा से व्याकुल और भय से त्रस्त दुर्योधन ,ताल से बाहर आने का सोच भी नहीं सकता .कानों में पुकार आई -
'मित्र !'
अश्त्थामा का स्वर था,साथ में कृतवीर्य.
दुर्योधन घिसट आया .बढ़ कर सहारा दिया दोनों ने .
'हम निश्चय कर आये हैं युवराज, ,तुम निराश मत हो  .'
'अब क्या होना है ?
'अभी कुछ भी हो सकता है .
कृतवर्मा बोले ,'अब गुरु-पुत्र को सेनानायक बना दो .फिर हम देख लेंगे .'
अश्वत्थामा बोला ,'मैं करूँगा ,बहुत बदले चुकाने हैं मुझे,तुम्हें सिंहासन पर देखना है .  सामने होने का साहस नहीं था ,तो यह सब किया पखंडियों ने .'
दुर्योधन उसका मुख देखता रहा .
'तुम यह मत समझो कि हम हार गये .मैं तुम्हें विजय दिलाऊँगा .बस अब मुझे सेनापति बना दो .बदला लिये बिना मुझे शान्ति नहीं मिलेगी .तुम निराश मत हो .उन पांचो के सर काटकर तुम्हारे पगों में ला डालूँगा .'
'मैं कर सकूँगा .यह  मस्तक-मणि प्राप्त है मेरा कोई क्या कर लेगा ?'
 दुर्योधन आशान्वित हो उठा.
 तुरंत  अपने रक्त से उसका तिलक कर सेनापति का पद प्रदान किया .
'' बस मित्र अब यह सूचना तात कृपाचार्य को देना है .निश्चिन्त रहो , शीघ्र लौटूँगा !'
वे चले गये
*
विश्रान्त दुर्योधन ,किसी विध चैन नहीं .रात बीत रही है .और दो घड़ियों में भोर का उजास छा जायेगा .
किसी के आने की आहट . वह उत्साह में सारे कष्ट भूल, बाहर निकल आया .एक बड़ी- सी रक्त-सनी गठरी हाथों में ,आँधी के वेग से सामने आया गुरु-पुत्र .विद्रूप, भयानक मुख ,विकृत हास्य- भाव  लिये  .
'अरे अश्वत्थामा  !'
'लों .उन पाँचो के शीष! तुम्हारे शत्रु यमलोक सिधार गये .'
दुर्योधन सारा कष्ट भूल चैतन्य हो उठा.
'देखूँ .देखूँ . भीम का सिर दो मुझे .'
दाँत पीसते हुये उसने सारा बल लगा कर दोनों हाथों से भींचा ,खोपड़ी एकदम तरबूज -सी  पिच गई - तरल बह चला .दोनों कर-तल रक्त सिक्त
निराश हो ,गिरा  दी उसने ,
'नहीं ,नहीं ! यह भीम नहीं हो सकता ....मेरी गदा से टकरा कर भी न टूटनेवाली उसकी हड्डियाँ ऐसे नहीं पिचकतीं .'
उसने झुक कर  ध्यान से देखा ,
'अरे, यह तो सुतसोम का शीष है ,भीम का पुत्र ! '
फिर शेष चारों पर दृष्टिपात किया ,एकदम चिल्ला उठा  ,'अरे .यह क्या कर डाला ?...
ये  पाँचो पांचाली के  पुत्र थे,... बाल हत्या !'
रक्त-सनी ,लोथड़ों  से लिथड़ी हथेलियाँ झटक कर झाड़ने लगा ,घोर वितृष्णा से मुख घुमा लिया उसने .
अश्वत्थामा   हत-तेज -जैसे दमकते दर्पण पर किसी ने फूँक मार दी हो .
' रे पामर, यह क्या किया?  जाओ.चले जाओ यहाँ से ..रहा-सहा भी नष्ट कर दिया तुमने !...
दूर हो जाओ यहां से , खोजते होंगे वे तुम्हें .जाओ ,भागो यहाँ से !'
हताश  दुर्योधन गिरता-पड़ता झील की ओर लौट पड़ा .दुःसह वेहना से कराह उठता था .
विजय श्री पाने की आशा में अभी तक भूला हुआ था , आहत तन अधिक झेल न सका .साँसें उखड़ गईँ. वहीं गिर पड़ा .
*
44 .
ओह,बीत ही नहीं रही ,यह रात कितनी लंबी है !
पांचाली बहुत बेचैन , जैसे कोई  हृदय पर तान-तान कर घूँसे मार रहा हो !
आँखें बंद करती है ,घबरा कर खोल देती है .
सारी रात्रि घोर व्याकुलता में बीत रही है  .
फिर-फिर देकती है - भोर अभी भी नहीं हुआ .
उठ कर शिविर के द्वार पर खड़ी हो गई .
 शिविरों के मध्य के मार्गों पर अँधेरे से ही आवागमन प्रारंभ हो जाता है .
बस थोड़ी-सी की दूरी पर उनका दूसरा शिविर ,पाँचो पुत्र ,धृष्टद्युम्न और अन्य लोगों के रात्रि-शयन हेतु .उसी के सामने बाहर कुछ कोलाहल ,कुछ लोग इकट्टे खड़े, कुछ आते-जाते कुछ देर रुक कर खड़े हो जाते .
बड़ी हलचल सी है.
वार्तालाप के स्वर सुनाई दे रहे हैं .
'यह तो युद्ध-भूमि नहीं .रात्रि में यह क्या हुआ?
'वह आया था उसे देखा मैंने .'
किसी ने पूछा ,'कौन था ?'
'गुरु-पुत्र,वही अश्वत्थामा,उन्मादी सा चिल्लाता चला जा रहा था , 'मेरे पिता ,गुरु थे उनके .झूठ-सच सब एक कर दिया ,द्रोही,कपटी सारा दायित्व उन्हीं का है.तो उनने कहा -चुप रहो .'
 ' किसने कहा ?,'
'कृतवर्मा और कृपाचार्य -साथ थे उसके .'
'हाँ ,अभी कुछ देर पहले मैं जब इधऱ से जा रहा था तो देखा था . वे दोनों  शिविर के द्वार पर खड्ग लिये खड़े थे .मुझे विचित्र लगा .पर राजपरिवार की बातें ,मैं बिना रुके चला गया मुश्किल से डेढ़-दो घटी पहले ..'
 शिविर के द्वार पर उलटे-सीधे  शव पड़े हुये रक्त की धारायें धऱती पर जमी हुई .
'हाँ ,आवाजें मैनें सुनी तो बाहर आकर देखा . मैं झाँका , फिर छिप गया .
'जब कृपाचार्य ने चुप रहने को कहा तो बोला -
  'क्यों चुप रहूँ ?सारे संसार को चीख-चीख कर बताऊँगा कि वास्तविकता क्या है ?हम उन्हें धर्म का गूढ़ ज्ञाता जान कर चुप हो जाते थे .पर वे बड़े चुप्पे ...निकले  गुरु को भी नहीं छोड़ा  झूठ से मार दिया .'
तभी उसने इन  के पाँचों पुत्रों को..'
'क्या पाँचो पुत्रों को ..',
आगे सुनने का धीरज खो बैठी पांचाली ,पीछे घूम कर चीखी ,'पार्थ ,भीम , उठो ,सब उठो! देखो हमारे पुत्रों को क्या हुआ ..?'
वह निकल कर पास के शिविर की ओर भागी .
*
आस-पास ,नीचे-ऊपर क्या है ,कुछ देखे बिना भागती हुई पुत्रों के शिविर के द्वार पर पहुँची .
पट खुले पड़े - सपाट !
 पाँव नीचे बिखरे शवों से टकरा रहे हैं रक्त की कीच पाँवों को सान रही है .उसे कोई  भान नहीं .दृष्टि भीतर लगी उन पाँचो को खोज रही है .
अन्दर बालकों  की शैयाओं  के पास शीष-विहीन पाँच कबंध उलटे-सीधे .कौन सा किसका कुछ पता नहीं . चारों ओर रक्त ही रक्त !
वह उधर धृष्टद्युम्न का औंधा पड़ा शव .
आँखें फाड़े पांचाली खड़ी है !
*
इस ओऱ कोलाहल मचा है .चर्चाएं चल रही हैं.
'क्या हुआ?'
'क्या हुआ उन्हें?'
'शीष काट कर बाँध ले गया पाँचो के .'
'किसी को पता नहीं चला ?'
'--कैसे पता लगता ?रात्रि का समय था सब गहरी नींद सो रहे थे .चढ़ती उमर की नींद .सोते-ही सोते ,चिर-निद्रालीन हो गए .हत्यारा कहीं का !'
आते-जाते लोग रुक जाते हैं .
'कौन ?'  प्रश्न किया किसी ने  .
'वही,द्रोणपुत्र अश्वत्थामा! सोते हुए कुमारों का शिरोच्छेदन कर बदला निकाला है उसने .'
'देखा किसी ने ?'
'आधी रात के बाद .कौन था देखने वाला.?प्रहरी की पहले ही हत्या कर दी .'
'हाँ, देखा है मैंने .लघुशंका के लिये निकला था ,देखा  रक्त टपकाता गट्ठर लिये है हाथ में .केश बिखरे विचित्र -सी मुद्रा. बोलता जा रहा है ,'वंश नाश कर छोड़ूँगा .'
..और भी बहुत कुछ ...मैं तो भाग कर आड़ में छिप गया .'
'पर  वहाँ  का बदला ?यहाँ शिविर में आकर .बालकों से ?'
'देखा भी किसी ने ?'
'कौन साहस कर पाता ?'
'उसके ऊपर तो जैसे  भूत सवार था .इनने  भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर उसके पिता की हत्या करवाई  , दुर्योधन ,कर्ण सबको अनीति से मारा ,आज उसने पूरा बदला निकाल लिया !'
'क्या,क्या?'
 'मैं नहीं , वही ये सब कह रहा था..,यही नहीं और भी बहुत-कुछ .हाँ यह भी कि -
 काहे के धर्मराज ?अनुज-वधू पर हिस्सा बँटाते समय कहाँ था उनका धर्म ?मन की बात पर माता की आज्ञा का पालन. आगे फिर कभी माता की सहमति की भी आवश्यकता नहीं पड़ी .मत कहो धर्मराज !कितने अधर्म के काम किये .आज्ञाकारी भाइयों की अनीति  भी उन्हीं की कहायेगी .'
लोग चुप !
 'वे दोनों भी कह रहे थे -ठीक  कहते हो  ,सारे भाई तो  उनके इशारे पर चलनेवाले , काहे नहीं नीति की सीख दी .वह उनकी पत्नी कहाँ रही थी .उस पर कृपाचार्य ने ठप्पा लगाया अरे. हम सब तो उनके आगे पापी हैं,वे तो दूध के धुले रहे .'
'हाँ बहुतों ने सुना .वह बहुत बातें कहता चला जा रहा था.'
लोग आ-जा रहे थे .चर्चायें चल रहीं थीं.
*
जब पांडव-शिविर में पांचाली की पुकार गूँजी अचानक नींद से जाग गये वे.
 पहले कुछ समझ न पाये .फिर उठ कर चल पड़े .
 पांचाली को तीव्र गति से जाते  देखा.शीघ्रता से पग बढ़ाये.
निकटस्थ शिविर ,कितने शव दिखाई दे रहे थे द्वार के समीप बिखरे .
 महारथी जो उस रात वहाँ सोये थे , सब के शव.
उन सब को हड़बड़ाये हुये आते देख ,लोग इधऱ-उधर हो गये .
वे धड़धड़ाते शिविर में घुस गये.
*
(क्रमशः)



8 टिप्‍पणियां:

  1. उफ़, कैसी दुखद गाथा है। एक बीज से उगे असंख्य पादप भी उस बीज के गुणों से ही भरे होते हैं। एक अन्याय दूसरे अन्याय को जन्म देता चलता है, और हिंसा प्रतिहिंसा को।

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  2. स्तब्धकारी विवरण महाभारत की गाथा का ....दृश्य साकार हो गया आपके शब्दों में !
    दुर्योधन का एक पल के लिए मानवीय चेहरा भी नजर आया !
    रोचक श्रृंखला !

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  3. रोचक शैली, अच्छा वर्णन!
    इसमें प्रसंग के उतार-चढ़ाव भी हैं।

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  4. uff kitne hridye vidarak drishy prastut ho gaye aankho k aage jo avismarneey rahenge.

    shat shat naman aapke prayaas ko.

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  5. शकुन्तला बहादुर6 जून 2012 को 10:11 pm बजे

    अत्यन्त हृदयविदारक दृश्य ने मर्म पर गहरी चोट की है।"नहि वैरेण वैराणि शाम्यन्ति कदाचन"हिंसा-प्रतिहिंसा की भावना ने विनाशकारी भावना को जन्म दिया।विवेकबुद्धि भ्रष्ट होने पर हिंसा के तांडव से मन काँप सा जाता है।वीभत्स और रौद्र रस का एक साथ उद्रेक अति कुशलता से किया गया है। उस क्षण दुर्योधन की मानवीयता पल भर को सहला जाती है।उफ़.पांचाली की मनोव्यथा कल्पना से परे है। मार्मिक-अभिव्यक्ति !

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  6. अत्यंत मार्मिक एवं हृदयविदारक दृश्य!

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  7. पूर्णत: सहमत हूँ शकुन्तला जी से। इतना ही सोच रही हूँ मानव की चेतना कितनी तरह से आहत और विकृत हो सकती है।अपराधों का अंत नहीं..दुःख की सीमाएँ नहीं।ईश्वर के ह्रदय के निकट रहने वाली द्रौपदी के भाग्य में भी इतने संकट लिखे थे...सोच कर लगता है हम पर जो बीतता है वह तो कुछ भी नहीं है फिर।पता नहीं क्यूँ पर मन कहीं न कहीं आश्वस्त होता है अपने स्वयं के जीवन के लिए।

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