शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

एक थी तरु - समापन सत्र (36 & 37.)


36.

 आज फिर कनाडा से चिट्ठी आई है
जीजा की चिट्ठी पिछले महीने भी तीनों के पास आई थी कि गौतम की पत्नी ,शन्नो या तरु में से कोई कुछ महींनो के लिये वहाँ चली आये.घर और मन्नो की देख-भाल में उनका हाथ बँटा दे .मन्नो का आपरेशन इतने दिन से टल रहा है ,लेकिन अब तो होना ही है .
संजू के बच्चे इतने छोटे हैं कि रीना के जाने का प्रश्न नहीं उठता ..शन्नो और भाभी अपनी गृहस्थियों से अवकाश नहीं निकाल पा रहीं ,उनके अपने-अपने झंझट हैं .मन्नो की बड़ी बेटी तनु यहीं बम्बई में है .पर वह जा नहीं सकती ,उसकी डिलीवरी होनेवाली है .पहले तो जीजा यही सोच रहे थे कि वह आ जायेगी .स्थितियाँ ऐसी बनती गईं कि अब न ऑपरेशन टाला जा सकता है ,न तनु जा सकती है .
रह गई तरु .उम्मीद उसी से लगाई जा सकती है .
 मायके की बात चलने पर तरु के सामने मन्नो का चेहरा आ जाता है .उनके बारे में बहुत सुना है -सिर्फ अम्माँ ही नहीं औरों से भी .जैसा रूप वैसे ही गुण .औ किस्मत भी वैसी ही मिली .जतीन -जीजा के कान्टैक्ट्स बहुत अच्छे हैं ,पैसे की कमी नहीं अपना बिजनेस है .
 तरु के जन्म के बाद अम्माँ बिस्तर से लग गईं थीं,तो मन्नो ने सारा घर सम्हाला था .तरु को बड़े नेह-से पाला था .रात-रात भर उसे लिये जागती थीं .अम्माँ खुद कहती हैं ,उन्होने तो उसके जीने की उम्मीद छोड़ दी थी ,वो तो मन्नो ने जिला लिया .
तरु सोचती है ,कैसी होंगी वे जो उसे मौत के मुँह से वापस ले आईं ,जिनके गुण गाते अम्माँथकती नहीं .जिनकी कढाई -बुनाई का सामान सहेज कर रखा गया था .उनके साथ रहने का मौका ही कहाँ मिलाथा उसे ?अपने होश सम्हालने के बाद का तो उसे कुछ याद नहीं पड़ता .पहले जब आईं थीं तो तरु घर ंमे नहीं थी ,कहीं और भेज दी गई थी .फिर उनका आना जाना भाग-दौड़ जैसा ही रहा .
 मन्नो जिज्जी पत्रों में हमेशा लिखती हैं-तरु के साथ नहीं रह पाई .उसकी शादी जिस अफ़रा-तफ़री में हुई उसमें वे आ भी नहीं पाईं .उसे अपने साथ रखने को ,वे पहले भी कहती थीं ,पर किसी ने भेजा नहीं .
तरु का मन वहाँ जाने को व्यग्र हो उठा है ,पर चंचल और असित का सोचने लगती है .
फिर यह विचार भी कि ,शन्नो जिज्जी या रेणु भाभी जाने को तैयार हो जायें तो  ठीक .अब तो दोनों ने ही असमर्थता प्रकट कर दी है .
 असित के दौरे, उनके प्रमोशन के बाद से काफी कम हो गये हैं . चंचल घर का काम करने के लायक हो गई है .

 "जिज्जी की बीमारी का सुनकर जाने कैसा लगता है ,"तरु ने कहा था .
 "अब साइन्स काफ़ी आगे बढ गई है और अमेरिका का तो कहना ही क्या !वहाँ जितनी सुविधायें ,जितनी सावधानी मिलेगी उसकी यहाँ कल्पना भी नहीं की जा सकती  तुम बेकार चिन्ता करती हो ."
 इस बार फिर उसने शुरुआत की ,"मुझे तो बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा .अपनी जिन्दगी के लिये मैं उनकी ऋणी हूँ,असित ,वे नहीं होतीं तो आज मैं भी इस दुनिया में नहीं होती --."
 "तो मम्मी,तुम्हीं क्यों नहीं चली जातीं ?मौसी-मौसा इतना तो लिख रहे हैं .तुम्हारी जगह हम होते तो झट् चले जाते .क्यों पापा ,है न ?"
 "हाँ,आज को उन्हें जरूरत है तो किसी को जाना जरूर चाहिये ,"असित ने तरु की ओर देखा ,"तुम्हारे मन पर निर्भर है .जैसा चाहो --."
 "वाह ,मेरा मन क्यों नहीं करेगा ?मैं तो तुम लोगों का सोच कर चुप थी .फिर सोचा शायद कोई और जाने को तैयार हो जाये.'
 "मैं  मना नहीं करूँगा, बशर्ते ,तुम वहाँ जाकर और रुकने को न कहो ....कहीं  वहीं कोई और..'
'बस ,चुप भी करो .'
' हाँ , चंचल को अकेले रहना पड़ेगा और तुम --.'
"अरे ,हम क्या कभी अकेले रहे नहीं ?पिछली बार तो चार दिन अकेले रहे थे ,जब दादी बीमार थीं .सिर्फ रात को महरी आ कर सो जाती थी .मम्मी ,तुम जाओ.अमेरिका रिटर्न्ड  ! वाह , क्या रौब पडेगा मेरी सहेलियों पर  !"
 "वैसे तो रश्मि भी पंद्रह -बीस दिन आसानी से रह सकती है ,राहुल -राजुल को लिखो तो वे भी बारी-बारी से भेज ही देंगे .नहीं तो माँ जी तो हैं ही .वैसे भी आती-जाती बनी रहती हैं ,अबकी से लगकर रह लेंगी ."
 "वह कोई प्राब्लम नहीं .बीच में कितनी छुट्टियाँ पडती हैं,चंचल भी जाकर किसी के साथ रह सकती है .फिर मैं भी तो हूँ ,"असित ने समर्थन दे दिया .
 वह एकदम उमँग उठी .,"तो असित , तुम लिख दो उन्हें -वे  इन्तजाम करें ..मन्नो जिज्जी कितनी खुश होंगी .--."
*
तरु के जाने की तैयारियाँ शुरू .
कोई अपना देश तो है नहीं कि चाहे जब जाओ, चाहे जब लौट आओ .हफ़्तों पहले से बुकिंग और हर तरह की तैयारियाँ . .
चंचल ऐसी मगन जैसे खुद ही जा रही हो .उसने एक लम्बी सी लिस्ट बना ली है  ..
 "मम्मी,ये सामान हमारे लिये लाना है ."
 'ओफ़्फ़ोह चंचल ,तुम्हारा बस चले तो तुम सारा अमेरिका उठवा मँगाओ ,वहाँ से लाना इतना आसान नहीं कि बस गये और खरीद लिया ."
'इसके लिये सबसे अच्छी भेंट क्या होगी मैं बताऊँ ?'
'क्या पापा?'
' कोई योग्य भारतीय लड़का ,जो वहाँ से शिक्षा प्राप्त कर यहाँ आ रहा हो ..'
तरल ने पूरा किया ,'और भारत में सेटल होने का इरादा रखता हो..'
चंचल ने झेंपते हुये कहा ,'आप लोगों को बस यही सूझता है .'वैसे वह सब ख़बर रखती  है कि  कहाँ से पत्र-व्यवहार चल रहा है .

 कुछ फ़र्माइशें वहाँ से भीआई हैं -हरद्वार गंगा-जल ,काँच की चूड़ियाँ ,बिन्दी के पत्ते ,पञ्चदीप आरती ,तुलसी की माला ,सलवर सूट वग़ैरा- वगै़रा .भरतीयों की संख्या वहाँ काफ़ी है और उनके संस्कार भारत की धरती के मोह से मुक्त नहीं होने देते .
 असित के लिये तरु के मन का प्यार उमड पडा है .वैसे तो जब भी वे घर पर नहीं होते उनकी कमी खटकती थी ,वह हर बार तय करती थी अबकी बार उन्हें खूब संतुष्ट कर दूँगी .पर जितना चाव उमड़ता था उतना कर नहीं पाती थी -दुनिया भर के झंझट ,व्यस्तता ,और प्राथमिकतावाले काम .घर में होने पर वैसे भी आवेश ठण्डा ही रहता है .अब मन में जो उत्साह जागा है उसका प्रभाव व्यवहार पर छा गया है ..चंचल का लाड़ भी बढ गया है .उसके मन का सामान वह खुद जाकर दिला लाती है .आगे क्या-क्या करना है सब समझा रही है .
 तरु के भीतर कुछ होने लगा है .
मानवी संबंधों के कौन-कौन से रूप .कैसी-कैसी परिस्थितियां वहाँ के समाज में होंगी ,वह जानने को उत्सुक हो उठी है .वहाँ की जीवन पद्धति कैसी होगी ,तरु सोचती है ,जहाँ इतनी समृद्धि है,इतनी सुविधायें हैं ,उस वर्जनाहीन समाज में ,क्या इसी प्रकार की कुण्ठायें पलती होंगी ?ऐसी विकृतियाँ वहाँ भी होंगी ?कैसे होंगे वहाँ के लोग ?एक ओर यह संस्कृति ,जो व्यक्तित्व की घोर उपेक्षाकर,वर्जनाओं और घुटन का पर्याय बन गई है और जैसा कि सुनती आई है ,ठीक इसके विपरीत वहाँ का उच्छृंखल-संयमहीन और भोगवादी दृष्टिकोण!व्यक्ति ,समाज और परिवार में कितना ताल-मेल है वहाँ ?इन दो छोरों के बीच कोई संतुलन बिन्दु संभव है क्या ?
*
37.
 प्रस्थान का समय जैसे-जैसे पास आ रहा है,तरु की मनस्थिति अजीब होती जा रही है .
 उसके उड़े-उड़े चेहरे को देख कर असित ने कहा ,"तरु, मन न मान रहा हो तो अभी भी लौट चलो ."
 "नहीं , असित , यह कैसे हो सकता है ?जाना तो है ही ."
 "तो निश्चिन्त होकर जाओ,दुविधा से रहित मन से .कौन बहुत दिन रहना है ?तीन -चार महीने निकलते क्या देर लगती है ."

 "हाँ .और क्या ? वहाँ वालों को चिट्ठी समय से डाल देना ."
 तरु का मतलब जहाँ चंचल की बात चल रही है .
 "चिन्ता मत करो ,तुम्हारे  आते-आते तारीख भी पक्की हो जायेगी ."
 चंचल बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई .तीनों एक दूसरे को हिदायतें दे रहे हैं .चंचल ने उसके गले में हाथ डाल दिये और सिर कंधे पर रख दिया ,तरु चुपचाप थपक रही है .

 घोषणायें हो रही हैं .तरु को सुनने की फ़ुर्सत नहीं . ध्यान रखने के लिये असित साथ हैं अभी तो .कोलाहल बहुत बढ़ गया है .
 "अब चलो ,बढ़ो तरु !"
 असित ने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया है ,तरु का हाथ असित के हाथ पर टिकता है -वे एक दूसरे को देखते हैं .असित ने बाँह से समेट लिया उसे ,आँखें मूँद तरु ने सिर टिका लिया उस काँधे पर. बस कुछ क्षण , फिर चंचल का गाल थपथपा कर तरु उसे चूमा  .असित की ओर देखा और आगे बढ़ गई  .
असित और चंचल हाथ हिला रहे हैं ,तरु हाथ में रूमाल पकड़े है , हिलाती है .
 कण्ठ में कुछ उमड़ा चला आ रहा है,दृष्टि धुँधला-सी गई है.असित और चंचल छाया-चित्रों-से प्रतीत हो रहे हैं .
लगेज की चेकिन पहले ही हो चुकी है .तरु के पास बचा है बस एक बैग और एक ओवर कोट .कनाडा में बहुत ठंड होगी .
तमाम हिदायतें दे कर असित और चंचल आँखों से ओझल हो चुके है.कस्टम क्लियर हो चुका है ,लाउंज में इंतज़ार कर रही  तरु , चुपचाप बैठी है .
कुछ एनाउंसमेंट हुये . यात्री लाइन लगा रहे हैं .
उसने टिकट और पासपोर्ट पर्स से निकाल हाथ में पकड़ लिये, लाइन में लग गई .
 *
आगे अकेले ही जाना है.हैंड-केरी घसीटते आगे बढ़ रही है
बस ,घुमाव है आगे ,और बहुतसे लोग .सब अनजाने .इन्हीं के साथ होना है .चलती जा रही है ,जैसे सब कर रहे हैं वैसे ही वह भी.
परिचारिका ने सीट दिखा दी .खिड़की से लगी है .चलो अच्छा है.
स्क्रीन पर जीवन रक्षा के तरीके बताये जा रहे हैं ,
बेल्ट बाँध ली ,एकदम झटका लगा. रन वे पर दौड़ पड़ा है प्लेन -कितनी आवाज़ .कान भड़भड़ा रहे हैं -रूई निकाल कर ठूँस ली उसने. पर्स में रख लाई थी,मन्नो जिज्जी ने पहले से काफ़ी-कुछ बता दिया था .
तीन रातों से बहुत कम सोई है .-जाने की तैयारियाँ ,घर के इंतज़ाम ,मिलने आनेवालों का क्रम और मन की उलझन .असित और चंचल को छोड़ कर अकेले इतनी दूर की यात्रा ,इतने दिन बाहर रहना एक अनजाने देश में .
 अब काफ़ी ऊपर उठ गया है प्लेन.
धरती दूर होती जा रही है .
 लगा सब कुछ नीचे छूटा जा रहा है .जीवन की इतनी भूमिकायें निभाने के बाद एक दीर्घ -विराम !
कितनी भूमिकायें - सबके अलग रंग , अलग ढंग.
इनमें मैं कहाँ हूँ ? मन में प्रश्न उठता है ,
भीतर से कोई कहता है -तरु, अभिनय मे अभिनेता कहाँ होता है ?वेश और रंग धुलने के बाद  पात्रता समाप्त हो जाती है ,संबंध समाप्त हो जाते हैं ,रह जाता है केवल रिक्त मन !
 जीवन का मध्यान्तर हो गया है ,आरोपण हट गये हैं.तरु रह गई है यहाँ अकेली -पहचान रहित .
बैक को पीछे झुका कर सिर टिका दिया  उसने .
.शिथिल हो कर यों बैठना भला लग रहा है अंदर हलकी रोशनियाँ रह गई  हैं केवल .
.थकी हुई आँखें मुँद गई हैं .
पता नहीं कितनी देर .
अचानक कान में आवाज आई -'अब परेशान मत होन तरु,रोना मत !मैं नया जन्म ले रहा हूँ ,बिलकुल सोच मत करना .'
लगा किसी ने सिर हाथ पेरा है हल्के से.
'अरे ,पिताजी !'
चौंककर आँखें खोल दीं उसने.
सजग हो कर चारों ओर देखा .सब अनजान यात्री .
हाथ सिर पर गया बैक का कवर सिर पर आ गया था, हटा दिया .
नहीं, यहाँ किसी ने कुछ नहीं कहा .
झपकी लग गई होगी .
पर कैसा विचित्र अनुभव !
फिर वहीं के बारे मे सोचने लगी है तरु .
 वहाँ  जीवन दूसरी तरह का होगा .
 असित और चंचल के लिये टूटता व्याकुल मन अब थिरा आया है .
 प्लेन की खिड़की से धरती की इमारतें घरौंदों सी दिखाई दे रही हैं और लोगों के चलते-फिरते नन्हे आकार -जैसे गुड्डे-गुड़ियों का खेल चल रहा हो .
और ऊपर से घेरे है आकाश का अन्तहीन विस्तार !
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- प्रतिभा सक्सेना.


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7 टिप्‍पणियां:

  1. कैसा विवरण है!
    मन सोचना चाहता है कि आगे क्या होगा, हुआ होगा तरल के साथ।
    और असित? चंचल?
    कहानी रोकती नहीं है।
    समापन करके भी नहीं करती सी है।
    अपनी-अपनी समझ से, इच्छा से तरल के भविष्य को देखने-बुनने के लिए स्थान देती है। पाठक आपने हिसाब से सोचने के लिए स्वतंत्र है।
    उपन्यास के साथ-साथ चलते चलते मन में समा जाने वाले पात्र तरल, असित, तरल की अम्मा-बाबूजी, विपिन, शन्नो, चंचल सब रहेंगे मन में।

    आपका बहुत बहुत आभार इस उपन्यास के लिए।

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  2. अंत पढ़कर भी नहीं लगा कि कुछ शांत हुआ है मन में कहीं।आगे पढ़ने की और जानने की अभिलाषा होती ही है अभी भी। सामान्यत: ऐसे समापन मन को शांति ही देते हैं परंतु जिस तरह के भावनात्मक मोड़ इस कहानी में आये हैं उन्हें देखते हुए अंत इतना सुखद होगा मुझे इसकी आशा न थी।बहुत अधिक सोच विचार कर लिया था मैंने शायद ...अथवा अपने अनुभवों का प्रतिबिंब मात्र देखना चाह रही थी आपकी नायिका के जीवन में।

    आपके उपन्यास से मैं सहेजूंगी दो लोगों को (तरल और उसके बाबूजी को..उनके भी ऊपर उनका अटूट स्नेह और नाता रहेगा।) और तरल के हृदय की वेदना और अंतर्द्वंद को।

    पूरे उपन्यास में बीच बीच में कहीं कहीं तरल के मन की वेदना इतनी अधिक कुशलता से लिखी आपने कि एक दो बार मुझे अपनी उस इच्छा पर बड़ा क्रोध आया था जब मैं सोचती थी कि मेरा नाम भी किसी कथा-कहानी में आया करे। क्यूंकि आँखें सहसा ही भीग जातीं थीं।तरल के हृदय की पीड़ा मेरे मन तक पहुँच कर मुझे भी अव्यवस्थित कर दिया करती थी। नाम का बहुत महत्त्व तो नहीं ही होता मगर फिर भी प्रथम अनुभव के तौर पर एक संयोग ही था मेरे लिए...जिस कारण से मैंने अपने आप को सदा ही बहुत अधिक जुड़ा हुआ पाया तरल और तरल के चरित्र को बल देने वाले समस्त पात्रों से।
    ये मेरे जीवन की पहली ऐसी कहानी या उपन्यास है..जिसका अंत मैंने अंत के समय पर ही पढ़ा..सबसे पहले नहीं। मगर प्रतिभा जी..अनुभव अच्छा नहीं रहा ...अंत पहले पढना ही मुझे सुखद लगता है..शायद अंत के अनुसार मुझे स्वयं को तैयार करने का समय मिल जाता है। :(

    बहुत बहुत आभार प्रतिभा जी...उपन्यास के लिए! उन नितांत नवीन अनुभवों के लिए भी जो अपने नाम के कारण मुझे होते रहे ...मैं हमेशा याद रखूंगी :)

    मैं miss करूँगी तरल को...जब तक आप पांचाली नहीं शुरू कर देतीं...या ध्यान और कहीं नहीं बंटता तब तक..!

    शुभकामनाएँ !!

    :)

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  3. .

    उपन्यास के पात्रों से एक जुड़ाव सा हो गया है। कथा के समापन हो जाने से इनसे दूर होने का जी नहीं चाहता । काश असित ,चंचल और तरु का साथ बना रहे पाठकों से .... बेहतरीन उपन्यास के लिए बधाई। चंचल से विशेष लगाव है क्यूँकी वह मेरी कहानियों की भी नायिका होती है।

    .

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  4. शकुन्तला बहादुर1 नवंबर 2011 को 7:28 pm बजे

    प्रतिभा जी,उपन्यास का नामकरण तो कीजिये। कथा के व्यापक फलक के साथ मन उड़ता चला गया था। समाप्ति पर भी देर तक उन पात्रों के प्रसंगों में ही डूबता उतराता रहा। पात्रों के विविधता लिये चरित्रों के मनोवैज्ञानिक चित्रण का निर्वाह बड़ी ही सूक्ष्मता और कुशलता से हुआ है। कथा समय और समाज को साथ लेकर चली है,अत:पाठक को पात्रों से आत्मीयता की अनुभूति होने लगती है।
    तरु के कनाडा जाने के साथ कथा का अन्त स्वाभाविक है,किन्तु
    पाठक देर तक सहयात्रियों जैसे लगने वाले पात्रों को भूल नहीं पाता है। इस रोचक प्रभावी उपन्यास के लिए आपको हार्दिक बधाई!!

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  5. शकुंतला जी की टिप्पणी बेहद खूबसूरत है।

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  6. शकुन्तला जी,
    आपकी टिप्पणियाँ बहुत सटीक और सार्थक होती हैं ,मैं उपकृत हुई .
    *
    उपन्यास का नाम अभी सोच नहीं पा रही हूँ .अभी तो आप एक महीने भारत में रहेंगी ,इन्टरनेट से दूर, कोशिश करूँगी कि तब तक
    कोई सही नाम खोज लूँ .
    मैं आभारी हूँ !

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  7. सच बात तो यह है की आपके इस उपन्यास की कहानी ने इतना प्रभावित किया की दिल किया की आपके हक़ की सराहना तो आप को अवश्य ही मिलनी चाहिए और तभी से मैंने काफी कड़ियाँ पढ़ लेने के बाद फिर से पहली कड़ी से प्रतिक्रिया देनी आरम्भ की....हालाँकि मेरे लिए इतना समय निकालना बहुत मुश्किल होता है....लेकिन मुझे सुकून है की मैंने आपके हक़ के प्रति कोई अन्याय नहीं किया है.
    सादर
    अनामिका
    *
    आप को ये कमेन्ट इसलिए अलग से दिए....ताकि आप चाहें तो इन्हें पोस्ट करें या अपनी धरोहर के रूप में अपने पास रखें...ये चोइयेस आपकी है.
    ****
    अनामिका ,
    ये कमेंट्स ही तो मेरी निधि हैं - मूल से ब्याज अधिक प्यारा होता है - जोड़ने से कैसे वंचित रह सकती हूँ .
    ऐसे सहृदय और अध्ययनशील पाठक जिसे मिलें उसका लेखन धन्य है !

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