रविवार, 28 फ़रवरी 2010

पकड़ना ट्रेन को --

जीवन जिया जाता है दो प्रकार से -एक तो बिना जोखिम उठाये अर्थात् कोई खतरा मोल लिये बिना जो होता गया उसी के अनुसार अपने को ढालते गये - सुविधापूर्वक जीते गये ।और दूसरा रुकावटें ठेलते हुये ,संघर्ष करते हुये ,चुनौतियाँ झेलते हुये उत्तेजना पूर्ण जीवन-वीरता से जिये !हर तरह के लोग होते हैं दुनिया में ।आप यह मत समझिये कि आधा घंटा भर पहले स्टेशन पहुँच कर ट्रेन का इन्तजार करने के बाद ,जब वह धड़धड़ाती हुई स्टेशन पर आई तो उसके रुकने का इन्तज़ार कर इत्मीनान से सामान चढाया और खरामा-खरामा आराम से ऊपर चढ गये ।जा बैठे अपनी सीट पर !यह तो बहुत साधारण लोगों का काम है ।इसमें कौन बड़ी बात है ?यह ट्रेन पकड़ना नहीं है ।ट्रेन पकड़ना तो एक दूसरी ही कला है ।बड़े साहस का बड़ी हिम्मत का काम है ।वो लोग ट्रेन पकड़ना क्या जाने, मारे डर के जिनकी जान सूखती रहती जो दो दिन पहले से तैयारी करने में जुट जाते हैं ।ट्रेन पकड़ना तो यह है कि ,सीटी पर सीटी बजा कर ट्रेन छूट गई ,पहिये घूम रहे हैं गाड़ी, बढ़ी जा रही है ,उस छूटती हुई को पकड़ना ,असली पकड़ना है ।लपक कर चलती गाड़ी के दरवाज़े का डंडा पकड़ा और ले झटका घुस गये भीतर ।दरवाज़े पास कोई होगा भी तो आदर से हट जायेगा ।लोग विस्मय से देख रहे हैं- कैसा जाँ-बाज़ ,निडर ,एकदम हीरो ! घुस कर इत्मीनान से सीट पर बैठ गये ।
देखना चाहते हैं तो देखिये ,कभी जब बिना कसी स्टेशन के अचानक ट्रेन रुक जाती है और पता नहीं लगता कि कब तक रुकी खड़ी रहेगी ।उस समय का दृष्य देखिये । हमने तो देखा है- भले ही स्टेशन आया हो तो भीलोग नीचे उतरते भय खाते हैं- पता नहीं कब चल दे -डरपोक कहीं के !कायर लोग क्या ख़ाक जियेंगे ! और कुछ लोग आदतन साहसी होते हैं । हर काम निराला !गाड़ी धीमी पड़ते ही प्लेटफ़ार्म आया हो चाहे नहीं ,ऊपर से कूद जाते हैं पानी-आनी से निबट लेते हैं । टहल-टहल कर वहाँ की गति-विधियों का रस लेते हैं ।ऐसे बहादुर लोग गाड़ी जंगल में भी रुकी हो तो घासों पर या मुँडेर ,पत्थर आदि पर इत्मीनान से बैठ कर मुक्त प्रकृति का आनन्द उठाते हैं । कोई एक -दो नहीं अनेक होते हैं ऐसे । कोई एक-दो के साथ, कोई अपने आप में मस्त बैठे मज़ा ले रहे हैं, नई जगह का ,नये वातावरण का। निश्चिंत बैठे रहते हैं मगन । सीटी देती है गाड़ी। उनकी तल्लीनता में कोई खलल नहीं पड़ता ।सीटी बजती है बजती रहे ,हमेशा बजती है ।कोई कहता है -अरे सीटी बज गई ।वे मुस्करा देते हैं ।
लंबी गाड़ी धीरे से हिलती है ,सिसकारी छोड़ती है ,पहिये घूमते हैं ।ट्रेन की गति-विधि को देख कर उनकी आँखों में चमक आती है और शरीर में उछाह ।गति के वेग पकड़ते ही वे फ़ुर्ती से उठते हैं दौड़ कर खिसकते का डंडा पकड़ कर झटके से भीतर घुस जाते हैं । इसे कहते हैं प्रतिरोधों के बीच जीने की आदत।ये आदत हर लल्लू- पंजू के बस की यह बात नहीं है । इसे कहते हैं ट्रेन पकड़ना ! पकड़नेवाले के चेहरे की चमक देखिये,उनका विजयी भाव देखिये । यह साहस कुछ बिरलों में ही होता है बाकी तो दुम दबाये आँखें फाड़े उनको देखते रह जाते हैं। कायर हैं वे जो डर का ले एहसास जिया करते हैं !साहसी होते हैं जो डट के मज़ा करते हैं !
-- प्रतिभा सक्सेना

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत हल्का फुल्का व्यंग्य.....ऐसे तो मुझे संजीदा किस्से पढ़ना ही पसंद है पर ये अच्छा लगा था...मैंने परसों पढ़ा था...मगर कुछ कह नहीं पायी थी....:)

    हालाँकि मुझे भी चलती ट्रेन से उतरना चढ़ना.....पसंद है....मतलब कभी कोशिश नहीं की..मगर कभी समय आन पड़े तो मैं ये कोशिश करने से पीछे नहीं हटूंगी....

    '' पकड़नेवाले के चेहरे की चमक देखिये,उनका विजयी भाव देखिये''
    एकदम सही......:D.....

    बहुत अच्छा अवलोकन है प्रतिभा जी..ऐसा लगा सारे शब्द बड़ी मुश्किल से हंसी रोक कर बैठें हों...और जैसे ही मैं यहाँ से जाउंगी....ये सारे ज़ोरों से हंस पड़ेंगे....:D
    खैर.....कुछ भूले बिसरे से चेहरे भी याद आये....होते हैं ना कुछ सहयात्री.....जिनसे बात तक नहीं होती मगर कुछ न कुछ छाप वो अपनी छोड़ जाते हैं.....

    फिल्म ''border'' का एक संवाद याद आया टूटा फूटा सा.......''बेवकूफी और पागलपन में कुछ तो फर्क होता है ना ,सर ''..बेवजह जान का खतरा लेना...सरासर बेवकूफी है.....और यही तथाकथित लोग...चुपचाप बैठे होते हैं.....जब कोई किसी को ट्रेन में से फैंक रहा होता है....किसी से बदतमीजी कर रहा होता है.....या फिर यूँ ही मज़े के लिए चैन खींच ट्रेन रोक रहा होता है.. :/:/

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  2. aise lekh bhi aapki kalam se padhne ko milenge socha nahi tha...bilkul apke lekho se alag soch ka. lekin ye style bhi achha laga.:)

    aapka ye lekh padh kar apna hi ek vakya yaad aa gaya. kshama chaahungi aapki izazet k bina yaha aapke sath share kar rahi hun.

    ye baat us time ki hai jab me 7-8 month ke pregnancy period me thi aur us time job ke liye ghar se 30 km door office train se up-down karna padta tha...jo ki 8 yrs. tak continue raha.

    agar vo train chhoot jati to next train 2 hrs. k baad aati thi. aur train ko pakadne ka time itna crucial hota tha ki 15 mint.k ander 5 km.distance by auto/ paidal chal kar train pakadna hota tha.

    us din train aakar speed bhi pakad chuki thi aur ham abhi station ki seediyon par...bhaagte bhagte train ka danda hath aaya (jb ki hamari stage 7-8 month ki pragnancy wali) aur paaydaan par amooman ladies baithi thi so pair rakhne ki jagah nahi mil rahi thi. ham the ki done dande pakad k hi latak gaye...sare passengers dekh kar chilla rahe the aur ladies train chhodne ki advise de rahi thi. lekin ham bhi jidd par ki train to ye chhodni nahi...tab kisi lady ne hamare latke hue pairo ko apne hatho se paaydan par tikaya aur ham train k ander.

    aur ye bhaga-daudi ka drama takreeban daily hota tha...lekin us din kuchh jyada hi himmat jutane wala tha.

    hope u understood the situation.

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