बुधवार, 7 सितंबर 2011

एक थी तरु - 32. & 33.


32

विपिन के माता-पिता आ गये हैं .उसे साथ लेकर जायेंगे .स्थान परिवर्तन से उसके मानसिक संतुलन पर अनुकूल प्रभाव होने की संभावना है .डॉक्टरों ने आवश्यक हिदायतों के साथ अस्पताल से छुट्टी देने की अनुमति दे दी है .
 "अच्छा है ,यहाँ से चला जाय .यहाँ उसकी जान को खतरा है ,"असित ने कहा ,"फिर माँ-बाप की बात ही और होती है .उसका यहाँ से जाना ही ठीक है ."
शाम की गाड़ी से रिज़र्वेशन हो गया है उनका ..
 असित और तरु अलग से जा रहे हैं विपिन को सी-ऑफ करने .
कहने-सुनने को है ही क्या ?विपिन को शान्त रखना है .,उत्तेजना से बचाना है .सब चुप-चुप से .
वह  बहुत शिथिल - जो कहो चुपचाप  कर लेता है .भान नहीं है शायद कि क्या हो रहा है-दवाओं के असर में . .
पानी ,फल ,बिस्किट सब सँभलवा रही है तरु .
'भाभी ,संकोच मत करना कभी भी कुछ ज़रूरत पड़े तो .

असित बाहर विपिन के पिता से कुछ चर्चा कर रहे हैं ....'
'हाँ ,आप ही लोग तो हैं .दवायें वगैरा यहीं से मँगानी पडेंगी वहाँ  छोटे शहर में .. पता नहीं ....'
'उसकी चिन्ता मत कीजिये हम तो चाहते थे यहीं रहते पर..'
'अब यहाँ रहने का तो सोच भी नहीं सकते ...बस किसी तरह ठीक हो जाये .हमारे बुढ़ापे का एक ही तो सहारा..'
आँखें भर आई हैं .
'ठीक हो जायेगा .थोड़ा समय लगेगा .पर मझे विश्वास है .'
'बस ,भगवान से यही मनाना.'
ट्रेन ने सीटी दे दी .
तरु खड़ी हो गई  ,चलते-चलते विपिन को देखा .एकदम चुपचाप -शिथिल  .
अंतर से हूक सी उठी .
वह नीचे उतर गई .
विपिन के पापा आ गये थे .
गाड़ी चल दी . .
तरु खड़ी-खड़ी एक के बाद एक डब्बों का निकलना देखती रही .साथ में असित .
'अब चलो तरु .'

बिना कुछ कहे-सुने ,रिक्शा कर बैठ गये दोनों .

 असित कोई बात कह रहे हैं .
तरु कभी हाँ-हूँ करती है कभी सिर हिला देती है .उसके दिमाग तक कुछ नहीं पहुँच रहा .असित के उत्तर की अपेक्षा करने पर 'और क्या ' 'अच्छा ' बिना सोचे-समझे बोल देती है .असित इशारा कर कुछ दिखाते हैं उस दिशा में देख भर लेती है ,और सिर हिला देती है .
 किसी बात के उत्तर के लिये असित ने उसकी ओर देखा .
 "क्या कहा तुमने ,मैं सुन नहीं पाई ."
 असित फिर कुछ कह रहे हैं ,वह मन-ही-मन  खीझ रही है - ये आखिर इतना बोलते क्यों हैं  ?
और बोलते भी हैं तो उत्तर की अपेक्षा क्यों करते हैं ?

**33.
चंचल बेटा ,एक गिलास पानी तो पिलाना "
पानी टपकाता गिलास लाकर उसने पकड़ा दिया .
असित ने अख़बार से सिर उठाये बिना पी कर वहीं मेज़ पर रखी चंचल की किताब पर रक दिया.और वहीं पड़ा फ़ुटा जो गिलास रखते समय उनके हाथ से टकराया उठा लिया और और उँगलियों में फँसा कर नचाने लगे .
'पापा,गिलास हमारी किताबपर मत रखिये ,कवर खराब हो जायेगा.'
वे फ़ुटा नचाते अखबार पढ़े जा रहे हैं .चंचल की आवाज़ उनके कानों तक नहीं पहुँची.
,उधऱ आई हुई तरु ने सुनी ,चंचल से बोली,'तुम्हीं उठा कर नीचे रख दो .'
फिर खुद ही उठाया और रखने नीचे झुकी.
नाचता हुआ फ़ुटा सिर से टकराया .तरु ने सिर उठा कर असित की ओर देका ,'ये क्या..?'
तभी असित का ध्यान अख़बार से हटा ,समझे क्या हुआ नोले ,'ईश्वर ग़लती का नतीजा हाथों-हाथ देता है ,देखा तुमने ?.'चंचल हँसी ,'मम्मी ने क्या ग़लती की थी ?'
'ज़रूर की होगी ,नहीं तो फ़ुटा क्यों लगता ?'
'अच्छा तो अब तुम्हें फल मिलता है ..' कहते हुये तरु ने मेज़ पर पड़े कागज़ को गुड़ी-मुड़ी कर गोला बनाया और तान कर असित पर फ़ेंका .
असित ने हाथ से झटका वह चंचल पर जा गिरा .'असली ग़लती तो तुम्हारी थी .'
गोला उसके गाल से टकराया ता ,वह सहला रही थी .तरु ने सहानुभूति प्रकट की 'मुझ पर बस नहीं चला तो उसे छेड़ने लगे धोबी पर बसनहीं चले  तो गधइया के कान उमेठे.'
इसी बीच असितने फिर गोला चंचल पर उछाला
बह बचती हुई घूम कर बोली,'हमें गधइया कहा !'
असित ने ठहाका लगाया और उसे चढ़ाया,'देख लो !और मम्मी-मम्मी कह कर उनसे चिपको जा कर.'
तरु हँस पड़ी,'तुम जित्ता चाहे चढ़ाओं वह भड़कनेवाली नहीं.'ॉ
चंचल समझ नहीं पा रही ,गधइया की बात पर मुँह चढाये या मजाकर माँ से चिपक जाये ?'
*

(क्रमशः)

बुधवार, 31 अगस्त 2011

पुकार .


*
लगभग दो वर्ष बाद भारत लौट रही हूँ ,सानफ़्रान्सिस्को एयरपोर्ट से दो दिन के उबाऊ सफ़र के बाद नई दिल्ली आ कर देश की धरती का परस मिला .
परिचित चेहरे -परिचय कोई नहीं पर भारतीय रंग-ढंग में रँगे लोग नये नहीं लग रहे . .एयरपोर्ट की व्यवस्था बहुत अच्छी हो गई है . अप्रैल बीत रही है ,उतनी गर्मी नहीं लग रही इस बार जैसी हमेशा लगा करती थी .वैसे मौसमों का ढर्रा हर जगह बदल रहा है .सामान उठवाने में लोग आगे बढ़ आते हैं .
रास्ता थोड़ा ऊबड़-खाबड़ है पर पहले जितना नहीं .
वही चिर-परिचित वनस्पतियाँ . सुनहरे झूमरों से लदा इठलाता आरग्वध(अमलतास)आँखें जुड़ा गईं .
गुलमोहर  लाल-लाल हँसी बिखेरते जहाँ-तहाँ खड़े हैं .सड़क के किनारे वही पेड़-पौधे -आक ,धतूरा ,अरंड.शीशम और बबूल ,ऊँचे घने पाकड़ ,जिन पर झूला बहुत सजता है  ..पीपल के चंचल पत्ते और गंभीर खड़े नीम ,और किनारे की घास भी तो. इन्हें देखने को आँखें तरस गईँ थीं.
सब के नाम नहीं मालूम, जैसे आस-पास रहनेवाले बहुत लोगों से देखा-देखी का परिचय है - नाम जाने बिना.  इन सबको खूब पहचानती हूँ  कुछ के नाम भी मालूम हैं ,याद नहीं आ रहे.  मन पुलक उठा .

वहाँ बहुत सुन्दर वनस्पतियाँ थीं सब-कुछ स्वच्छ सुनियोजित .,लेकिन इनका मेरा जन्म का साथ है -लगाव है,इनके साथ पली बढ़ी हूँ .. मन करता है इनके पास चली जाऊँ .बचकानी-सी इच्छा जागती है नन्हीं-नन्हीं शाखें जो कँप रही हैं -रोमांचित-सी.   जा कर हाथों से छू लूँ .
हवा के झोंके बार-बार गंध-भरे संदेश ले कर आ रहे हैं तुलसी की सुवास ,बेला की मदिर गंध इधऱ के घरों के आंगन ,अब आँगन कहाँ ,लान से चुरा कर ले आये होंगे  .  .
हरियाली दिख रही है  चारों ओर .
डर रही थी ,धूल की पर्त ओढ़े सूखे पेड़ इधर-उधर  खड़े होंगे .वैसा कुछ नहीं .हर जगह हर-भरे पल्लव- कर हिलाती डालें  लहरा रहे हैं .अच्छा लग रहा है इन हवाओं का परस,इन राहों का दरस .बहुत दिनों के छूटे अपनों से मिलने को मन उमग रहा है
दो दिन बाद है हरिद्वार का आरक्षण - परम आत्मीय गंगा का सान्निध्य और हिमालय की छाँह पाने  हेतु .अभी नहीं गई तो सांसारिक प्रतिबद्धताओँ में टलता चला जायेगा जाने कब तक .
अभी उधर मौसम भी अच्छा होगा . बौरों से लदे आम या नन्हीं-नन्हीं अमियाँ .  गंगा की जलधार में उत्तरी हिमानियों का स्वच्छ-शीतल जल , मार्ग में पड़ती गिरि की  नेह-धाराओँ से मिलता बहा आ रहा होगा .
शीघ्र ही वर्षा ऋतु आकाश छा लेगी .ग्रीष्म के ताप से विकल वृक्ष  पर्ण- आच्छादन उतार मुक्त स्नान करेंगे ,शाखायें हिल-हिल कर जल बिखेरेंगी.पर्वतों की रुक्ष हुई देह  सिक्त  करती धारायें बह निकलेंगी  . गंगा रजस्वला हो रहेंगी ,तीन महीने तक .उससे पहले ही देव-दर्शन का सौभाग्य पा लूँ .

देवतात्मा हिमालय की दुर्निवार पुकार ,कैसे अनसुनी करूँ . जाना तो वहीं होगा - बारंबार !
**

बुधवार, 24 अगस्त 2011

एक थी तरु - 30. & 31.



30.
तरल का मन विवाह के कार्यों से बार-बार उखड़ जाता है .
एक डर सा बैठ गया  मन में .
बार-बार विपिन का ध्यान आता है .
एक हफ़्ता हो गया कोई खबर नहीं .
आई थी तब स्थितियाँ अच्छी नहीं थी .
बस बुरी-बुरी बातें ध्यान में आती हैं .
अख़बारों में ,कहानियों में जाने कितने ऐसे किस्से पढ़े हैं .ये साधन-संपन्न लोग अपने मतलब के लिये कुछ भी कर गुज़रते हैं -इन्सान का कोई मोल नहीं इनके लिये .फिर विपिन तो अकेला है ,साधनहीन !
 और लवलीन ?सुकुमार सी युवती ,जिसने अभी दुनिया का क्या  देखा ?पाँचवाँ महीना चढ़ चुका होगा,जरा-जरा बात में घबराने लगती है  .
कौन है वहाँ देखनेवाला ?
मायकेवाले उदासीन  ,कहते हैं अपने मन से शादी की है अब तुम जानो .जैसा है अपने आप भुगतो . ससुराल में करने वाला है ही कौन -सास-ससुर और दो ब्याही बहने !भाई को अपनी गृहस्थी से छुट्टी नहीं .
सोच कर  जी उचाट होने लगता है.
अखबार  भी नहीं देख पाती इन दिनों -बाहर ही बाहर आदमियों के पढ़ते  दोपहर होते-होते ,इधऱ़-उधऱ हो जाता है .वैसे ही चीख-पुकार मची रहती है ,बैठ कर इत्मीनान से पढ़े कोई मौका नहीं .
उस दिन  की बात ध्यान आते ही व्याकुल हो उठती है .
किसी लड़की को दरिन्दों ने रौंद डाला ?
.काँप उठती  है तरु -
किसकी बात है ? चुनिया?
 हाँ, विपिन ने ही तो बताया था .
बार-बार  लवलीन का चेहरा आँखों के आगे आ जाता है.

फिर समझाती है अपने को -नहीं, वह नहीं हो सकती .
ये तो रोज़ की खबरें हैं ,जाने कितनी बार ...जाने कितनी स्त्रियाँ .
.बस आगे नहीं सोच पाती..नहीं नहीं ,लवलीन तो किसी के तीन-पाँच में नहीं .उससे क्या मतलब किसी को ?
नहीं ,वह नहीं , यह बिलकुल नहीं हो सकता  ?

डर तो विपिन के लिये है .उसी के पीछे पड़े हैं लोग.
 अब  नहीं रुक पा रही  यहाँ .
निपट जाय शादी औऱ चलें अपने घर .
पर अभी तो दो दिन बाकी हैं .

हे भगवान ,ठीक रखना विपिन को !
*
घर में शादी का माहौल .और दन्नू जैसा कैरेक्टर सामने .कुछ शग़ल तो चाहिये ही ,
होने लगीं चर्चायें .
और सुनो एक किस्सा - सुनाने में राहुल निपुण है ,शुरू हो गया जैसे सामने घट रहा हो .

 तो हुआ ये -
'मामा आये, मामा आये .'
बच्चे चिल्लातेहुये सुशीला के पास भागे .
'कौन मामा ?'
दन्नू मामा ,तुम्हारेवाले .'
आकर देखा दन्नू खड़े सास से बातें कर रहे हैं .
- न बक्सा न बिस्तर,खाली हाथ -.कड़कड़ाते ,ठिठुरते हुये
भरे जाड़े में शरीर पर कोई ऊनी कपड़ा  नहीं .

सास ने सुशीला को आवाज़ लगा कर कहा ,'बिचारे का बकसा चुर गया .उसी में सारा सामान धरा हता .'
मज़ा आ रहा  है सबको .राहुल चालू है -
बड़े विस्तार से दन्नू ने बताया बस ज़रा-सा उठ कर गुसलखाने गये थे ,लौट कर आये देखा बक्सा गायब .
उसके ऊपर धरा हुआ पूरी बाँह का स्वेटर और कोट भी गायब!सबसे पूछा-ताछा ,हल्ला मचाया भाग -दौड़ की सब बेकार !
इसके पास कोट था कहाँ - सुशीला सशंकित नेत्रों से देख रही है .
'अब उसे स्वेटर लाय के देओ,दुलहिन, मार जड़ाया जाय रहा है लरिका .'

सुशीला ने पति का स्वेटर ला कर पकड़ा दिया पहन लिया दन्नू ने .
श्रोता पूरा मज़ा ले रहे हैं.
'ज़रा रुको,राहुल, हम बस एक मिनट में आये '
..श्यामा के दूल्हा ने अल्प-विराम लगवा दिया .

लौटे वे ,फिर कहानी शुरू हुई -
जिठानी का भी तो भाई लगा -उनने आकर सिर पर हाथ फेरा,'कहाँ जाय रहे थे भइया ?'
दन्नू बैठ के रोने लगे .'अरे जिज्जी ,हम तो सरम के मारे मरे जाय रहे हैंगे .जेब न कट जाय इस लै सारे रुपये संदूक में धर दिये थे .अब एक नोट भर बचा है .बच्चन के लै मिठाई तक न लाय पाये .'
उन्होंने जेब उलटी , एक दस का नोट निकाल कर दिखा दिया .

घर के लोग इकट्ठे होकर 'चच् चच्'करने लगे
 .
दन्नू फिर शुरू हुये ,'हमारे जो बड़के भैया हैं उन्हई के दोस्त ने मुरादनगर की मिल में नौकरी लगवाय दी थी...समझ में नहीं आता अब का करें ..
एक मन करता है घर लौट जायँ .'
 मज़ा आ रहा है सबको-समझ रहे हैं दन्नू कौशल
सुशीला की सास ने दिलासा दिया ,'अपसोच न करो बेटा ,कभी-कभी अइसा भी हुइ जाता है .जो तुम्हें चाहिये यहाँ से लै जाओ ,बहिनी का घर सो अपना घर .'
सास ने कह-सुन  कर  कोट दिलवाया ,अटैची और कुछ कपड़े भी निकाले .बिस्तरा  बँधवा दिया सो अलग !-रुपये तो पास में कुछ होने ही चाहियें ,'नई जगह में क्या करेगा बेचारा ,मुसीबत का मारा .'
जिठानी ने भी कहा ,'अऊर का ! सब वापस कर देगा .बहिनी का कौन रखता है !फिर उसकी तो नौकरी लग गई है .मुसीबत में साथ हमीं लोग तो देंगे .'
हफ़्ते भर बाद शुक्लाइन की लिखाई चिट्ठी आई कि दन्नू आठ-दस दिन से लापता हैं .फिर ख़बर मिली कि खाली हाथ घर पहुँच गये हैं .
  अब तो  जिसे देखो दन्नू का बखान कर सुशीला को छेड़ रहा है , अरे अम्माँ ,उनका एक टिपिन काहे नाहीं दै दिया !'
'दादी को सबसे जियादा तरस आय रहा था ,और सौ का नोट पकड़ाय देतीं मामा को ?'
सुशीला के लिये मुँह छिपाने की जगह नहीं .
दूल्हा ने अकेले में चुटकी ली ,'काहे ,तुमने अपने भैया का जस पहले नहीं बताया .हमारी जेब से सौ का नोट कहाँ ग़ायब हुआ था ,अब समझ में आय रहा है .'
रो-रो आती है .बोले क्या बिचारी !
किसी ने रिमार्क कसा ,'कैसा राढ़ा है ,इत्ता पिटता है फिर भी..'

राहुल  ने  छौंक लगाई -जित्ता पिटता है  उत्ता और मज़बूत होता जाता है .
सब हँस पड़े ..
वाह ,आनन्द आ गया .

'अरे चलो रे ,सब लोग !वहाँ मंडप गाड़ा जा रहा है .'
अब पड़ेंगे हल्दी के छापे !
*
गाने होंगे आज सारी रात .
तैयार हो रहे हैं सब.
चंचल में बड़ा उत्साह है .पहली बार मौका मिला है उसे  घर की शादी में शामिल होने का .

लंबी हो गई है -पतली-सी, प्यारी सी !

'काहे दुलहिन 'माँ जी ने तरु से पूछा,'पजारूी धोतिन के जोड़ा कहाँ धरे हैं /'
'अरे ,'तरु के मुँह से निकला ,'वो पैकेट तो वहीं भूल आई ,उस कमरे में .'
हाय राम. दन्नू के हाथ तो नहीं पड़ गये !
जाकर देखा जस के तस रखे थे .
दन्नू हैं कहाँ ,दो दिन से ग़ायब हैं वो तो !

चंचल को  भी  सजने का शौक है.हर चीज़ चाहिये उसे .दौड़-भाग लगाये है

' मम्मी ,हमारी काजल की डिब्बी तुमने कहाँ रख दी ?'
'मैनें काहे को रक्खी ,मैं क्या लगाती हूँ काजल?तुम्हीं ने कहीं डाली होगी .'
मम्मी की बनारसी साड़ी हाथ में लिये निकल आई है .
'उफ़्फोह ,अब मेरी साड़ी नहीं बचेगी चंचल.तुमसे सम्हलेगी नहीं ,लँहगा क्यों नहीं पहन लेती ?'
'हाँ ,हर जगह वही लँहगा लटका कर चल दें !'
 हवा के झोंके की तरह निकल गई वह .
*
कुछ देर बाद ,श्यामा और तरु बच्चों के साथ बाहर निकलीं .
तरु की निगाहें चंचल और साड़ी पर लगी हैं .,'अरे चंचल,ज़रा ऊँची करो ,..और पल्ला इतना लंबा झाड़ू लगाता चल रहा है .'
'वो इधर खिंच आया होगा ,हमने तो छोटा लिया था मम्मी.'
'ज़रा ढंग से चलो वो उधर से लिथड़ रही है .'
'मम्मी ,तुम तो सबके सामने टोके जा रही हो !'
'सात सौ की मेरी नई बनारसी ,तुम लथेड़ रही हो और मैं टोकूँ भी नहीं ?अभी सैंडिल में उलझ गई तो ज़री नुचने लगेगी .'
चंचल साड़ी सम्हालती आगे लड़कियों में भाग गई .
अब मम्मी के सामने ही नहीं पड़ेगी .

*
उसकी की रंग-बिरंगी, बोलती चमकीली तस्वीरोंवाली किताबें सबके आकर्षण की केन्द्र हैं ,मन्नो ने अमेरिका से चंचल के लिये भेजी हैं .
श्यामा के बच्चे बड़ी उत्सुकता से देख रहे हैं .

दन्नू ने पीछे से आकर झाँका बोले ,'जे का है ?जे तो बहुत बढ़िया किसम की चीज है .'
'हमारी मौसी ने सात समुंदर पार से हमारे लिये भेजी है ,' चंचल ने रौबदार आवाज़ में कहा ,पता है कहाँ है कनाडा ? हवाई जहाज़ से जाओ तो तीसरे दिन पहुँचते हैं .'
'जे तो बहुत काश्टली हुइ हैं.'
एक किताब हाथ में उठा ली दन्नू ने ,उलट-पलट कर देखने लगे .बच्चे एक दूसरे को देखने-दिखाने में लगे हैं
उन्होंने धीरे से कमीज़ के नीचे छिपाने की कोशिश की
'ये क्या कर रहे हो दन्नू मामा ?'श्यामा की लड़की चिल्लाई.
'' अरे ,कुछू नाहीं जरा खुजलाय रहे थे ...' किताब हाथ में पकड़े रहे,' जे वाली हम लै जाय रहे हैं पढ़ के वापस दै जइहैं ,तुम्हारे पास तो इत्ती सारी हैं .'
वे ले कर चलने लगे ,
'नहीं हमारी किताबें यहीं रक्खो, तुम्हें अंग्रेजी पढ़ना आता भी है ' ,चंचल झपटी ,' तुम ले जा कर बेच आओगे .'
बच्चों को बता दिया गया है दन्नू चोट्टे हैं ,उनसे सावधान रहें .
अनसुनी करते हुये वे तेज़ी से चले जा रहे हैं ,चंचल ने पास पड़ी खुरपी उठा ली ,और दन्नू पर तानती हुई पीछे दौड़ी ,'देखो, हमारी किताबें उठाये लिये जा रहा है ..'
उसने किताब वहीं फेंकी और तेज़ी से निकल गया .
अपनी किताब पोंछती -सहलाती ,चंचल बुआ के बच्चों को बताने लगी ,'ये दन्नू बड़ा चोर है .घर का सामान बेच देता है और खूब पिटता है .'
अंदर से आवाज आई ,'अरे तुम लोग तैयार हो जाओ ,बुलावा शुरू होनेवाला है .

'लाओ,किताबें अल्मारी में रख दें ,दन्नू के हाथ पड़ गईं तो समझो गईं .'
*
31.

.इतनी सहन शक्ति कहाँ से आ जाती है इन्सान में ?
तरु बहुत छोटी थी,तब याद करती थी-सी.ए.एन. कैन ,कैन माने सकना .
उसकी समझ में नहीं आता था 'सकना ' क्या होता है .
तरु और उसी के बराबर का  - मोहन,पड़ोस के पोस्ट-मास्टर का बेटा .दोनो बैठे मीनिंग रट रहे हैं .रटते-रटते तरु चुप हो गई .
"याद करो तरु ,नहीं तो डाँट पड़ेगी ."
फिर वे शुरू हो जाते हैं -सी.ए.एन. कैन,कैन माने सकना .
"मोहन ,ये सकना क्या होता है ?"
"ये तो हमें भी नहीं मालूम ."
मैन ,रैट,कैट ,फैट सब समझ मे आते हैं ,पर कैन का सकना क्या होता है ,दोंनो मे से किसी को नहीं मालूम .बस रटे जा रहे हैं
'सकना ' क्या होता है ,यह जानने की उम्र तब उनकी थी भी नहीं .
बड़ा होकर इन्सान जब घबराता है ,सोचता है नहीं ,नहीं कर सकता .तब कोई अदृष्ट व्यंग्य से हँस पडता है
,'नहीं सकता क्या ,यही करना होगा !'
और तब सकना का अर्थ समझ में आने लगता है .

विपिन के बारे में सोच कर वह दहल उठती है .
यह क्या हो गया ,जिसकी कल्पना भी नहीं की थी !
लिली ने किसी का क्या बिगाड़ा था ?वह बेचारी तो क्या चल रहा है यह भी नहीं जानती थी.

*

विपिन के भीतर प्रचण्ड दावाग्नि धधक उठी है .
लवलीन का ध्यान आता है तो  पागल सा हो उठता है .
रात-रात भर चक्कर काटता है,बाल नोचता है ,सिर पटकता है ,चिल्लाता है ,"उसने क्या बिगाड़ा था उनका ?उसने क्या किया था ?
पहले ही घबराती थी .वह इस सब के बीच में थी ही कहाँ ?
फिर रोने लगता है बुदबुदाने लगता है ,"--क्या-क्या अत्याचार किये होंगे तुझ पर ?--सिर्फ मेरी वजह से --मुझे एक बार बतला दे लिली ---मैं एक-एक से बदला लूँगा . तड़पा-तड़पा कर मारूँगा .---एक बार बता जा लिली ,बस एक बार --."
पर उसकी लिली कहाँ है इस दुनिया में ?
विपिन के सिर पर वार कर ,वे लोग लिली को उठा ले गये थे .उसके बाद वह नहीं मिली .दो दिन बाद नहर के किनारे उसकी लाश मिली -नग्न ,वीभत्स !
बदला किस-किस से लोगे विपिन ,यहाँ तो सारी व्यवस्था एक सी है  ?
तरु के मन में प्रश्न ही प्रश्न चीख़ते हैं .
वह हर बार धीरज देना चाहती है ,पर वह कुछ नहीं समझता .
लोग आते हैं पूछते हैं -वह लाल आँखें किये देखता रहता है .
तरु अपने घर ले आई उसे .यत्नपूर्वक रखा ,पर मौका पाते ही विपिन ग़ायब हो गया .
असित दौड-धूप कर रहे हैं ,तरल बहुत उद्विग्न है सब जगह हल्ला मचा है .
पत्रकार हर तरफ विरोध कर रहे हैं ,अखबारों मे अपीलों पर अपीलें निकल रही हैं प्रदर्शन हो रहे हैं ,पुलिस दौड़ रही है ,और सरकार निष्पक्ष पूरी जाँच का आश्वासन दे रही है .
 पर कुछ होगा क्या ?
हल्ला मचानेवाले कुछ कर पायेंगे ?
एक और घर बनते-बनते बिग़ड गया .लवलीन मार डाली गई .विपिन विक्षिप्त सा घूम रहा है .
दोष किसका है ?
अतीत की स्मृतियाँ तरु को बहा ले गईं .विपिन को भूली कभी नहीं थी .पर आज उसके लिये मन में सोया मोह उमड़ पडा है.
*
बुआ कहता था विपिन !
कितना अपनापन पाया था -कितनी सहज सहानुभूति और निश्छल प्रेम  ! कितना विश्वास करता था ,कितना महत्व देता था मुँह से निकली एक-एक बात को ! तरु को लग रहा है -मैंने ही उसे झोंक दिया जलते अंगारों में.

क्या ज़रूरत थी  आदर्शवाद  की पट्टी पढ़ाने की ?
और वह भी जब यह पता हो कि उसे इस घोर भ्रष्टता के संजाल में जीना है ?पैने नखों और विषैले दाँतों वाले पशुओं के बीच  एक अकेला आदमी कैसे जी पायेगा अपने सिद्धान्तों को ले कर ?
उसके विश्वास का क्या प्रतिफल दिया मैंने ?
वह और उसकी लिली .एक दूसरे के अनुरूप ,एक दूसरे के पूरक .कितना शान्त ,संतुष्ट जीवन जी रहे थे ! तरु को सब याद आ रहा है -
उसने विपिन से कहा था ,"तुम पत्रकार हो .तुम अनुचित को संकेतित नहीं करोगे ,अन्याय के विरोध में खड़े नहीं होगे ,तो और कौन होगा ?  इस महाभारत के संजय हो तुम ! निष्पक्ष ,निर्द्वंद्व, सत्यान्वेशी . पत्रकार बन कर  वरदान मिला है तुम्हें , सजग दृष्टा और समर के साक्षी होने का .अपना कर्तव्य करो विपिन .बड़ा दायित्व है तुम्हारे ऊपर !"
"पर ,बुआजी ,सब एक से हैं .हम कुछ करेंगे ,तो हमारा ही पत्ता काट देंगे .."
"नहीं विपिन ,सत्य और न्याय का मूल्य कभी कम नहीं होता .आज के युग में तो और भी नहीं ,क्यों कि ,ये इतने दुर्लभ हैं .ये छोटे-छोटे टुटपुँजिये लोग उन्हें अपने अधिकार मेंकर लें ,और समाज का सबसे जाग्रत  वर्ग ,तुम पत्रकार लोग ,चुप बैठे देखते रहो तो देश का क्या बनेगा ?मैनें तो ऐसे पत्रकार देखे हैं ,जो जान जोखिम में डाल कर झूठ का पर्दा फाश करते हैं .वही सच्ची पत्रकारिता है .पत्रकार जैसा सत्य की तह तक पहुँच जानेवाला प्रबुद्ध ही जब विवेकहीन और पथ-भ्रष्ट हो जायेगा ,तो वही होगा जो आज हमारे देश  मे हो रहा है ."
और आज विपिन सिर पर पट्टियाँ बाँधे पागल सा घूम रहा है ,भ्रष्टाचार का पर्दापाश करने की कीमत चुका रहा है .उसकी प्रिया को गुण्डों ने उड़ाया ,दरिन्दे बन कर   नोच-नोच कर मार डाला .उसका अजन्मी सन्तान को गर्भ मे ही रौंद दिया .
विपिन चिल्लाता है ,"मेरी लिली ,मेरे कारण तुझे लूटा गया ,तुझे नोचा-खसोटा गया .ओ,मेरे बच्चे मैंने तुझे देखा भी नहीं .--उस अजन्मे को दाँव पर लगा दिया मैंने ..."
तरु का मन लगातार धिक्कार रहा है ,'मैंने ही आग सुलगाई थी .एक सुखी परिवार को झोंक दिया उसमें .सब नष्ट कर दिया .मैंने किया यह ,मैं ने .उन लोगों को झोंक दिया  हवन-कुण्ड में और आराम से घर  बैठी ताप रही  हूँ ..'
दर्द करते सिर को वह हाथ से दबाती है .
ओह , क्या करूँ मैं ?--वह कहाँ भटक रहा होगा !
न स्वयं चैन लेती हूँ ,न दूसरों को लेने देती हूँ .
चार दिन बाद असित विपिन को लेकर  लौटे .
"ये ,तुम्हारा भतीजा .वहाँ स्टेशन पर बैठा था .मुझे भी नहीं पहचाना .बड़ी मुश्किल से लाया हूँ ."
तरु को देख विपिन की आँखों पहचान उभरी ,अचानक वह सीने पर हाथ दबा कर झुक गया .
"क्या हुआ विपिन .क्या हुआ तुम्हें ?"
तरु ने उसे लिटा दिया .तकिया सिर के नीचे लगाया और हाथ सीधा करने लगी तो हाथ झटक दिया उसने .दर्द के मारे कराह उठा .
हाथों पर इंजेक्शनके निशान हैं .बार-बार बेहोश हो जाता है .बड़ी मुश्किल से एक गिलास दूध पिला पाई .तब तक असित डॉक्टर को ले आये .
""ये बाँह पर किसका इंजेक्शन दिया है ,बड़ी सूजन है ?"
"विपिन बोलो ,इन्जेक्शन किसने लगाया ?"
बड़ी कोशिशों के बाद ,टूटे- उखड़े शब्दों मे उसने जो बताया उससे पता लगा उसे पकड़ ले गये थे ,कार में डाल कर ले गये थे .कमरे में बन्द कर दिया ,फिर इन्जेक्नश लगाये ,बडा दर्द--आह...
विपिन का चेहरा ज़र्द होता जा रहा है .अटक-अटक कर शब्द मुँह से निकलते हैं ..
"वो कौन थे ?"
"वो पाँच --."
तरु बार-बार सजग कर पूछती है ,"नाम बताओ ,कौन थे ?"
डॉक्टर ने रोक दिया ,"अभी मत पूछिये ,उत्तेजित हो जायेंगे ."
बाद में भी तरु धीरे-धीरे निकलवाने की कोशिश करती रही .
" विपिन ,इन्जेक्शन किसने लगाया ?"
"उनने.उनने--कह रहे थे --कह रहे थे --."
साँस धीरे-धीरे चल रही है .
"इन्हें अस्पताल ले चलिये ."डॉक्टर ने कहा .
डॉक्टरों ने जाँच की .कितनी सुइयां भोंकी हैं .शरीर के साथ दिमाग पर भी असर है .
तरु रो रही है बराबर .असित चुप हैं .एस.पी को ,निशान्त के सम्पादक को फ़ोन किये जाते हैं ..बहुत लोग इकट्ठा हैं . भीड उत्तेजित है .
सब आये और सब चले गये .केस सी .आई. डी को सौंप दिया गया .
कुछ हो पायेगा ?
जहाँ हर चीज पैसे और प्रभाव से तोली जाती हो ,वहाँ न्याय कौन करेगा ?
जो लोग मिलने आते हैं,विपिनसे खोद-खोद कर पूछने का प्रयत्न करते हैं.
तरु  बार-बार रोकती है ,"स्वस्थ हो लेने दीजिये .अभी उत्तेजित होना नुक्सानदेह है ."
बेसुधी मे वह 'लिली,लिली ' चीखता है .उसकी हालत गंभीर है .सीने मे दर्द ,सिर में चक्कर ,बार-बार बेहोशी . मुँह से कुछ शब्द निकलते हैं --एम्बेसेडर कार ,अँधेरा .,हाय ,मार डाला  ,भयानक यातना .कुछ कागजों पर जबरन हस्ताक्रष भी कराये हैं .
कौन हैं यह सब करनेवाले ?
शान्ति -व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदार पुलिस ?जनता का पैसा लूटनेवाला ठेकेदार ?गुण्डों के सरदार ,हमारे नेता ?
कोई अकेला नहीं ,सब मिले-जुले हैं .
अकेला है विपिन ,बस .जो सच का साथ दे रहा है !
*
डॉक्टरों ने व्यवस्था कर दी है ,रात को आराम से सोयेगा विपिन .
तरु का मन उसे कटघरे में खडा कर  उत्तर माँगना शुरू कर देता है
.बहुत दुःसह होती है वह स्थिति !
तुम्हें क्या पडी थी ?
अब उसे कौन सम्हालेगा ?
वह तुम्हारा अपना होता ,तो भी तुम ऐसा ही कर पातीं ?
अपना कोई होता ?
तरु के मुँह पर थप्पड़ सा पडा .विपिन कितना अपना है कैसे बतायेगी? जिसे कोई नहीं समझ सकता कैसे समझाये वह ?
और--- ग़लत को सही कैसे कह पाती ?
किसी भी कीमत पर .चाहे वह स्वयं हो ,असित हो ,बेटी हो ,बेटा हो ?और तब तो अन्दाज भी नहीं था कि इतना कुछ हो जायेगा .अपने पराये की क्या परिभाषा है ?मन को चीर कर तो नहीं दिखाया जा सकता .
भीतर ही भीतर एक अँधड़ सा चल रहा है ..दिमाग ठिकाने नहीं रहता .

सब्जी छौंकने बैठी थी .चूल्हे पर कढाही रख कर तेल की बोतल उठा लाई और गर्म कढाही पर उँडेल दी .
एकदम खूब जोर से उछलती लपट और मिट्टी के तेल  का तेज़ भभका !
फ़ौरन पीछे हटी तरु .बोतल दूर हटा दी उसने .
ओफ़ ,क्या हो गया है मुझे ? कडुये तेल और मिट्टी के तेल की पहचान नहीं रही ?
जलते-जलते बच गई,साड़ी भी सिन्थेटिक  .कुछ हो जाता तो ?
 लोग दस तरह की बातें करते .कोई कहता - सुसाइड .कोई कहता हत्या .
और मेरी बच्ची ?कौन सम्हालता उसे ?
नहीं -नहीं  !कोई बच्चा ऐसे न जिये जैसे असित या.. बस आगे नहीं सोच पाती .
इन लोगों को मँझधार में छोड़ कर कहीं शान्ति नहीं पा सकती तरल -मरने बाद भी नहीं !


अस्पताल और घर दोनों के बीच चक्कर काट रही है.-
लोग आते हैं ,जाते हैं .तरह-तरह के लोग .बातें ही बातें !
कब तक? कैसे ?
चंचल से काफी मदद मिलने लगी है ,पर उसे भी कालेज जाना ,अपनी पढ़ाई  .असित का सहयोग मिल रहा है .पर उनका अपना काम भी तो है .तरु को मना नहीं करते,रोकते नहीं ,खुद भी जितना हो सकता है कर देते हैं .
विपिन कभी थोड़ा सम्हलता है ,तो कभी एकदम उन्मत्त सा हो जाता है .तब उसे नियंत्रण मे रखना मुश्किल हो जाता है .
सिर का घाव भर आया है,स्वास्थ्य पहले ले ठीक है ,जीवन खतरे ले बाहर हो गया है ,पर मन और मस्तिष्क में संतुलन  नहीं आया .
तरु के मन में निरंतर एक मंथन चलता है -भीतर ही भीतर कुछ उमड़ता घुमड़ता अपने साथ बहा ले जाता है .क्या होगा विपिन का ?इन अपराधियों को कौन दण्डित करेगा ?
अपराधी ?
 हाँ,अपराधी .
मन के दर्पण में उसे अपना ही चेहरा दिखाई देने लगा है-पर दर्पण चटका हुआ है .
चेहरा एक नहीं अनेक हैं -आधे-अधूरे   ,विद्रूप करते से !
*

च्चों को बताने लगी ,'ये दन्नू बड़ा चोर है .घर का सामान बेच देता है और खूब पिटता है .'
अंदर से आवाज आई ,'अरे तुम लोग तैयार हो जाओ ,बुलावा शुरू होनेवाला है .

'लाओ,किताबें अल्मारी में रख दें ,दन्नू के हाथ पड़ गईं तो समझो गईं .'
*
31.

.इतनी सहन शक्ति कहाँ से आ जाती है इन्सान में ?
तरु बहुत छोटी थी,तब याद करती थी-सी.ए.एन. कैन ,कैन माने सकना .
उसकी समझ में नहीं आता था 'सकना ' क्या होता है .
तरु और उसी के बराबर का  - मोहन,पड़ोस के पोस्ट-मास्टर का बेटा .दोनो बैठे मीनिंग रट रहे हैं .रटते-रटते तरु चुप हो गई .
"याद करो तरु ,नहीं तो डाँट पड़ेगी ."
फिर वे शुरू हो जाते हैं -सी.ए.एन. कैन,कैन माने सकना .
"मोहन ,ये सकना क्या होता है ?"
"ये तो हमें भी नहीं मालूम ."
मैन ,रैट,कैट ,फैट सब समझ मे आते हैं ,पर कैन का सकना क्या होता है ,दोंनो मे से किसी को नहीं मालूम .बस रटे जा रहे हैं
'सकना ' क्या होता है ,यह जानने की उम्र तब उनकी थी भी नहीं .
बड़ा होकर इन्सान जब घबराता है ,सोचता है नहीं ,नहीं कर सकता .तब कोई अदृष्ट व्यंग्य से हँस पडता है
,'नहीं सकता क्या ,यही करना होगा !'
और तब सकना का अर्थ समझ में आने लगता है .

विपिन के बारे में सोच कर वह दहल उठती है .
यह क्या हो गया ,जिसकी कल्पना भी नहीं की थी !
लिली ने किसी का क्या बिगाड़ा था ?वह बेचारी तो क्या चल रहा है यह भी नहीं जानती थी.

*

विपिन के भीतर प्रचण्ड दावाग्नि धधक उठी है .
लवलीन का ध्यान आता है तो  पागल सा हो उठता है .
रात-रात भर चक्कर काटता है,बाल नोचता है ,सिर पटकता है ,चिल्लाता है ,"उसने क्या बिगाड़ा था उनका ?उसने क्या किया था ?
पहले ही घबराती थी .वह इस सब के बीच में थी ही कहाँ ?
फिर रोने लगता है बुदबुदाने लगता है ,"--क्या-क्या अत्याचार किये होंगे तुझ पर ?--सिर्फ मेरी वजह से --मुझे एक बार बतला दे लिली ---मैं एक-एक से बदला लूँगा . तड़पा-तड़पा कर मारूँगा .---एक बार बता जा लिली ,बस एक बार --."
पर उसकी लिली कहाँ है इस दुनिया में ?
विपिन के सिर पर वार कर ,वे लोग लिली को उठा ले गये थे .उसके बाद वह नहीं मिली .दो दिन बाद नहर के किनारे उसकी लाश मिली -नग्न ,वीभत्स !
बदला किस-किस से लोगे विपिन ,यहाँ तो सारी व्यवस्था एक सी है  ?
तरु के मन में प्रश्न ही प्रश्न चीख़ते हैं .
वह हर बार धीरज देना चाहती है ,पर वह कुछ नहीं समझता .
लोग आते हैं पूछते हैं -वह लाल आँखें किये देखता रहता है .
तरु अपने घर ले आई उसे .यत्नपूर्वक रखा ,पर मौका पाते ही विपिन ग़ायब हो गया .
असित दौड-धूप कर रहे हैं ,तरल बहुत उद्विग्न है सब जगह हल्ला मचा है .
पत्रकार हर तरफ विरोध कर रहे हैं ,अखबारों मे अपीलों पर अपीलें निकल रही हैं प्रदर्शन हो रहे हैं ,पुलिस दौड़ रही है ,और सरकार निष्पक्ष पूरी जाँच का आश्वासन दे रही है .
 पर कुछ होगा क्या ?हल्ला मचानेवाले कुछ कर पायेंगे ?
एक और घर बनते-बनते बिग़ड गया .लवलीन मार डाली गई .विपिन विक्षिप्त सा घूम रहा है .
दोष किसका है ?
अतीत की स्मृतियाँ तरु को बहा ले गईं .विपिन को भूली कभी नहीं थी .पर आज उसके लिये मन में सोया मोह उमड़ पडा है.
*
बुआ कहता था विपिन !
कितना अपनापन पाया था -कितनी सहज सहानुभूति और निश्छल प्रेम  ! कितना विश्वास करता था ,कितना महत्व देता था मुँह से निकली एक-एक बात को ! तरु को लग रहा है -मैंने ही उसे झोंक दिया जलते अंगारों में.

क्या ज़रूरत थी  आदर्शवाद  की पट्टी पढ़ाने की ?
और वह भी जब यह पता हो कि उसे इस घोर भ्रष्टता के संजाल में जीना है ?पैने नखों और विषैले दाँतों वाले पशुओं के बीच  एक अकेला आदमी कैसे जी पायेगा अपने सिद्धान्तों को ले कर ?
उसके विश्वास का क्या प्रतिफल दिया मैंने ?
वह और उसकी लिली .एक दूसरे के अनुरूप ,एक दूसरे के पूरक .कितना शान्त ,संतुष्ट जीवन जी रहे थे ! तरु को सब याद आ रहा है -
उसने विपिन से कहा था ,"तुम पत्रकार हो .तुम अनुचित को संकेतित नहीं करोगे ,अन्याय के विरोध में खड़े नहीं होगे ,तो और कौन होगा ?  इस महाभारत के संजय हो तुम ! निष्पक्ष ,निर्द्वंद्व, सत्यान्वेशी . पत्रकार बन कर  वरदान मिला है तुम्हें , सजग दृष्टा और समर के साक्षी होने का .अपना कर्तव्य करो विपिन .बड़ा दायित्व है तुम्हारे ऊपर !"
"पर ,बुआजी ,सब एक से हैं .हम कुछ करेंगे ,तो हमारा ही पत्ता काट देंगे .."
"नहीं विपिन ,सत्य और न्याय का मूल्य कभी कम नहीं होता .आज के युग में तो और भी नहीं ,क्यों कि ,ये इतने दुर्लभ हैं .ये छोटे-छोटे टुटपुँजिये लोग उन्हें अपने अधिकार मेंकर लें ,और समाज का सबसे जाग्रत  वर्ग ,तुम पत्रकार लोग ,चुप बैठे देखते रहो तो देश का क्या बनेगा ?मैनें तो ऐसे पत्रकार देखे हैं ,जो जान जोखिम में डाल कर झूठ का पर्दा फाश करते हैं .वही सच्ची पत्रकारिता है .पत्रकार जैसा सत्य की तह तक पहुँच जानेवाला प्रबुद्ध ही जब विवेकहीन और पथ-भ्रष्ट हो जायेगा ,तो वही होगा जो आज हमारे देश  मे हो रहा है ."
*

और आज विपिन सिर पर पट्टियाँ बाँधे पागल सा घूम रहा है ,भ्रष्टाचार का पर्दापाश करने की कीमत चुका रहा है .उसकी प्रिया को गुण्डों ने उड़ाया ,दरिन्दे बन कर   नोच-नोच कर मार डाला .उसका अजन्मी सन्तान को गर्भ मे ही रौंद दिया .
विपिन चिल्लाता है ,"मेरी लिली ,मेरे कारण तुझे लूटा गया ,तुझे नोचा-खसोटा गया .ओ,मेरे बच्चे मैंने तुझे देखा भी नहीं .--उस अजन्मे को दाँव पर लगा दिया मैंने ..."
तरु का मन लगातार धिक्कार रहा है ,'मैंने ही आग सुलगाई थी .एक सुखी परिवार को झोंक दिया उसमें .सब नष्ट कर दिया .मैंने किया यह ,मैं ने .उन लोगों को झोंक दिया  हवन-कुण्ड में और आराम से घर  बैठी ताप रही  हूँ ..'
दर्द करते सिर को वह हाथ से दबाती है .
ओह , क्या करूँ मैं ?--वह कहाँ भटक रहा होगा !
न स्वयं चैन लेती हूँ ,न दूसरों को लेने देती हूँ .
चार दिन बाद असित विपिन को लेकर  लौटे .
"ये ,तुम्हारा भतीजा .वहाँ स्टेशन पर बैठा था .मुझे भी नहीं पहचाना .बड़ी मुश्किल से लाया हूँ ."
तरु को देख विपिन की आँखों पहचान उभरी ,अचानक वह सीने पर हाथ दबा कर झुक गया .
"क्या हुआ विपिन .क्या हुआ तुम्हें ?"
तरु ने उसे लिटा दिया .तकिया सिर के नीचे लगाया और हाथ सीधा करने लगी तो हाथ झटक दिया उसने .दर्द के मारे कराह उठा .
हाथों पर इंजेक्शनके निशान हैं .बार-बार बेहोश हो जाता है .बड़ी मुश्किल से एक गिलास दूध पिला पाई .तब तक असित डॉक्टर को ले आये .
""ये बाँह पर किसका इंजेक्शन दिया है ,बड़ी सूजन है ?"
"विपिन बोलो ,इन्जेक्शन किसने लगाया ?"
बड़ी कोशिशों के बाद ,टूटे- उखड़े शब्दों मे उसने जो बताया उससे पता लगा उसे पकड़ ले गये थे ,कार में डाल कर ले गये थे .कमरे में बन्द कर दिया ,फिर इन्जेक्नश लगाये ,बडा दर्द--आह...
विपिन का चेहरा ज़र्द होता जा रहा है .अटक-अटक कर शब्द मुँह से निकलते हैं ..
"वो कौन थे ?"
"वो पाँच --."
तरु बार-बार सजग कर पूछती है ,"नाम बताओ ,कौन थे ?"
डॉक्टर ने रोक दिया ,"अभी मत पूछिये ,उत्तेजित हो जायेंगे ."
बाद में भी तरु धीरे-धीरे निकलवाने की कोशिश करती रही .
" विपिन ,इन्जेक्शन किसने लगाया ?"
"उनने.उनने--कह रहे थे --कह रहे थे --."
साँस धीरे-धीरे चल रही है .
"इन्हें अस्पताल ले चलिये ."डॉक्टर ने कहा .
डॉक्टरों ने जाँच की .कितनी सुइयां भोंकी हैं .शरीर के साथ दिमाग पर भी असर है .
तरु रो रही है बराबर .असित चुप हैं .एस.पी को ,निशान्त के सम्पादक को फ़ोन किये जाते हैं ..बहुत लोग इकट्ठा हैं . भीड उत्तेजित है .
सब आये और सब चले गये .केस सी .आई. डी को सौंप दिया गया .
कुछ हो पायेगा ?
जहाँ हर चीज पैसे और प्रभाव से तोली जाती हो ,वहाँ न्याय कौन करेगा ?
जो लोग मिलने आते हैं,विपिनसे खोद-खोद कर पूछने का प्रयत्न करते हैं.
तरु  बार-बार रोकती है ,"स्वस्थ हो लेने दीजिये .अभी उत्तेजित होना नुक्सानदेह है ."
बेसुधी मे वह 'लिली,लिली ' चीखता है .उसकी हालत गंभीर है .सीने मे दर्द ,सिर में चक्कर ,बार-बार बेहोशी . मुँह से कुछ शब्द निकलते हैं --एम्बेसेडर कार ,अँधेरा .,हाय ,मार डाला  ,भयानक यातना .कुछ कागजों पर जबरन हस्ताक्रष भी कराये हैं .
कौन हैं यह सब करनेवाले ?
शान्ति -व्यवस्था बनाये रखने की जिम्मेदार पुलिस ?जनता का पैसा लूटनेवाला ठेकेदार ?गुण्डों के सरदार ,हमारे नेता ?
कोई अकेला नहीं ,सब मिले-जुले हैं .
अकेला है विपिन ,बस .जो सच का साथ दे रहा है !
डॉक्टरों ने व्यवस्था कर दी है ,रात को आराम से सोयेगा विपिन .
*
तरु का मन उसे कटघरे में खडा कर  उत्तर माँगना शुरू कर देता है
.बहुत दुःसह होती है वह स्थिति !
तुम्हें क्या पडी थी ?
अब उसे कौन सम्हालेगा ?
वह तुम्हारा अपना होता ,तो भी तुम ऐसा ही कर पातीं ?
अपना कोई होता ?
तरु के मुँह पर थप्पड़ सा पडा .विपिन कितना अपना है कैसे बतायेगी? जिसे कोई नहीं समझ सकता कैसे समझाये वह ?
और--- ग़लत को सही कैसे कह पाती ?
किसी भी कीमत पर .चाहे वह स्वयं हो ,असित हो ,बेटी हो ,बेटा हो ?और तब तो अन्दाज भी नहीं था कि इतना कुछ हो जायेगा .अपने पराये की क्या परिभाषा है ?मन को चीर कर तो नहीं दिखाया जा सकता .
भीतर ही भीतर एक अँधड़ सा चल रहा है ..दिमाग ठिकाने नहीं रहता .

सब्जी छौंकने बैठी थी .चूल्हे पर कढाही रख कर तेल की बोतल उठा लाई और गर्म कढाही पर उँडेल दी .
एकदम खूब जोर से उछलती लपट और मिट्टी के तेल  का तेज़ भभका !
फ़ौरन पीछे हटी तरु .बोतल दूर हटा दी उसने .
ओफ़ ,क्या हो गया है मुझे ? कडुये तेल और मिट्टी के तेल की पहचान नहीं रही ?
जलते-जलते बच गई,साड़ी भी सिन्थेटिक  .कुछ हो जाता तो ?
 लोग दस तरह की बातें करते .कोई कहता - सुसाइड .कोई कहता हत्या .
और मेरी बच्ची ?कौन सम्हालता उसे ?
नहीं -नहीं  !कोई बच्चा ऐसे न जिये जैसे असित या.. बस आगे नहीं सोच पाती .
इन लोगों को मँझधार में छोड़ कर कहीं शान्ति नहीं पा सकती तरल -मरने बाद भी नहीं !


अस्पताल और घर दोनों के बीच चक्कर काट रही है.-
लोग आते हैं ,जाते हैं .तरह-तरह के लोग .बातें ही बातें !
कब तक? कैसे ?
 चंचल से काफी मदद मिलने लगी है ,पर उसे भी कालेज जाना ,अपनी पढ़ाई  .असित का सहयोग मिल रहा है .पर उनका अपना काम भी तो है .तरु को मना नहीं करते,रोकते नहीं ,खुद भी जितना हो सकता है कर देते हैं .
विपिन कभी थोड़ा सम्हलता है ,तो कभी एकदम उन्मत्त सा हो जाता है .तब उसे नियंत्रण मे रखना मुश्किल हो जाता है .
सिर का घाव भर आया है,स्वास्थ्य पहले ले ठीक है ,जीवन खतरे ले बाहर हो गया है ,पर मन और मस्तिष्क में संतुलन  नहीं आया .
तरु के मन में निरंतर एक मंथन चलता है -भीतर ही भीतर कुछ उमड़ता घुमड़ता अपने साथ बहा ले जाता है .क्या होगा विपिन का ?इन अपराधियों को कौन दण्डित करेगा ?
अपराधी ?
 हाँ,अपराधी .
मन के दर्पण में उसे अपना ही चेहरा दिखाई देने लगा है-पर दर्पण चटका हुआ है .
चेहरा एक नहीं अनेक हैं -आधे-अधूरे   ,विद्रूप करते से !
*

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

'ज' के साथ 'जी'.


*
बात उन दिनों की है जब हँसी आती थी तो आये चली जाती  रुकने का नाम नहीं .
और हर बात पर,चाहे तुक की हो चाहे बेतुकी, एक दूसरे की खिंचाई करने की आदत .
मेरी मित्र विशाखा और मैं .नामों को लेकर, उच्चारणों को ले कर अक्सर उलझ जाते.
उन्हीं दिनों हमारे यहाँ एक शिक्षिका आईं - 'गिरिजा देवी शर्मा' . विशाखा ने जब कहा 'गिरिजा जी '.
 लगा कह रही है 'गिरजा जी .'
मुझे हँसी आ गई .
बस, होने लगी बहस .
तय पाया नाम में अगर एक 'ज' आ गया तो आगे 'जी' लगाना उचित नहीं.
और वे 'गिरजा जी' के बजाय 'गिरजा देवी' बनी रहीं  .
 विशाखा के एक संबंधी थे ब्रजेश . अक्सर आ जाते थे .
मैंने कहा तो अब उनके  आगे 'जी' मत लगाना .
'फिर ?'
'बाबू' लगा दो .
बन गई बात .
अब मेरी बारी आई .राजेश ,उसका पड़ोसी , वह तो बचपन से नाम लेती थी.  
चाय बनाई विशाखा ने .
राजेश सुड़क-सुड़क कर  पीने लगा .
हम दोनों ने एक दूसरे को देखा .हँसी बार-बार आ रही थी.
'क्या हुआ ?'
अब क्या कहें उससे !
विशाखा ने मेरे ऊपर डाल दिया ,'इसकी आदत ही ऐसी है.और इसे देख कर मुझे हँसी आ जाती है .'
'राजेश जी ,बात ये है ...'
'क्यों फिर वही..' विशाखा ने टोका ,'फिर तूने जी लगाया ?'
'देखो राजेश तुम्हारे नाम में एक 'ज' है .अब उसमें एकौर 'जी' लग देंगे तो कुछ जमेगा नहीं.  बेतुका लगने लगेगा !'
वह सोच में पड़ गया ,'तो 'जी' मत न लगाओ .'
'फिर क्या लगायें ?'
'कुछ मत लगाओ .'
'कुछ तो लगाना है .तुम्हारी तो अम्माँ भी खाली नाम नहीं लेतीं 'राजेश कुमार' कह के बुलाती हैं ..''
'इत्ता बड़ा कुमार ?ये हमसे नहीं होने का.'
 तो सीधे नाम लो '
'अरे वाह .'
'बस 'बाबू' लगा दे ,और बाबू तो वो हई .'
'हाँ ठीक .अब मैं कहूँगी ,राजेश बाबू .'
-
फिर विवाह के बाद. नये नामों से वास्ता पड़ा ,-
राजू ,अज्जू ,विजय...
जहाँ 'ज' आया ,जी लगाते-लगाते रुक जाती  फ़ौरन बाबू निकल पड़ता मुँह से ,अपने आप ही, अनायास - विशाखा जैसे सिर पर सवार हो .
-
अब विशाखा नहीं है ,पर उसकी बात तो है .
'ज्योति' के आगे 'जी' लगाने में ज़ोर पड़ता है.लगता है कुछ गड़बड़ हो गया  . 'ज्योति जी' -निकलता नहीं मुँह से .'ज्योति बाबू' बिलकुल सही लगता है - संतोषप्रद !
'जीवन जी' और 'जीवन बाबू' ?
मुझे दूसरा ठीक लगता है - नाम में 'ज' है आगे भी 'जी' ,कुछ बेतुका-सा लगता है मुझे तो !

वैसे  जैसे जिसका मन !
***

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

एक थी तरु - 28 & 29.


28 .
अन्दर घुसते ही तरु को  महक लगी जैसे कुछ जल रहा हो .कुछ देर में महक और तेज़ हो गई .
"चंचल , कुछ जल रहा है क्या?"
"नहीं तो मम्मी ."
"बड़ी महक आ रही है ."
"हाँ,हमें भी लग रही है .इनके घर से आ रही होगी ." चंचल ने पड़ोस के घर की ओर इशारा करते हुए कहा .
"अरे ,ये धुआँ भी आने लगा .ये तो अपने घर के अन्दर से आ रहा है .".
"उन्हीं के यहाँ से धुआँ भी आ रहा होगा .मम्मी .अपने यहाँ घुस आया होगा ."
आजकल श्यामा का बेटा सौरभ आया हुआ है .चंचल से खूब पटरी बैठती है उसकी .
चंचल फिर भाग गई सौरभ से गप्पें लगाने .
महक और धुआँ बढता जा रहा है .
तरु से रहा नहीं गया .उठकर भीतर गई .देखा टोस्टर में से आग की लपटें उठ रही थीं .उसने़ फ़ौरन स्विच आ़फ़ किया .
जोर से आवाज लगाई ,"चंचल .ऐ चंचल ."
मम्मी बार-बार आवाज़ दे देती हैं .खेल मे डिस्टर्ब होता है .दो-तीन आवाजें अनसुनी कर चंचल वहीं से चीखी ,"क्या है मम्मी ?"
"क्या है की बच्ची ,यहाँ आकर देख ." उसने माँ को जले हुये टोस्ट निकालते देखा तो घबरा कर बोली ,"अरे, हम लगा के भूल गये ."
"हमेशा यही करती है . टोस्ट लगा देती है और जाकर ही-ही करने लगती है.यहाँ टोस्ट जल कर कोयला हो गये लपटें उठ रही हैं और वह कहे जा रही थी पड़ोस से महक आ रही है ...पड़ोस से धुआँ आ रहा है .."
चंचल क्या बोले ?मम्मी ने कहा था विपिन दादा के लिये टोस्ट भून लो उसने लगा दिये .विपिन दादा चले गये तो वह टोस्ट लगा कर भूल गई .
तरु कहे जा रही है ,"...उस दिन भी फुँक गये थे .मैं न देखूँ तो ये लड़की जाने क्या दुर्घटना कर डाले .---ये ऊपर ही अरगनी पर कपड़े टँगे हैं जिनमें टेरेलीन की साडियाँ और फ्राकें भी हैं --एक बार आग पकड़ लें तो बुझाना मुश्किल ... .
...कल भी यही हुआ दूध उबल-उबल कर गिरता रहा .जल कर भगोना कोयला हो गया,और वह बाहर खड़ी ही-ही- करती रही ."
चंचल विवश सुन रही है .
बिचारी क्या करे .दूध चढ़ा कर सोचती है अभी तो उबलने में बहुत देर है,ज़रा सा चक्कर बाहर का मार ले और बाहर जाकर बिल्कुल ध्यान से उतर जाता है .जब मम्मी चिल्लाती हैं तब होश आता है .
तरु को बड़ा गुस्सा चढ़ा है,
"इतना कहती हूँ पर इस पर कोई असर नहीं .कहा था विपिन के लिये टोस्ट भून ले ,सौरभ के लिये भी.. और भूख खुद को भी लगी होगी  पर ही-ही,खी-खी में उसे खाने का होश कहाँ....
इतनी बार प्यार से समझाया.डाँटा ,,हर तरह से कहा कि दूध चढ़ा कर और टोस्ट लगा कर वहीं खड़ी रहो .पर वह हमेशा चल देती है ... और सौरभ कहाँ है ?"
"बाहर ,बैडमिन्टन खेलने ."
टोस्ट कितने भून लिये ?किसी ने खाये कि नहीं ?"
"अभी कहाँ ?पहले ही तो लगाये थे ."
तरु और बिगड़ी .
चंचल खिसक ली .सामने खड़ी रहेगी तो मम्मी बराबर डाँटती रहेंगी .
चुप होकर तरु ने इन्जार किया .न सौरभ आया न चंचल .अब ये भी नहीं कि दोनों जने कुछ खा लें !
वह उठी  दूध में कार्नफ्लेक्स डाले .
बाहर से बोलने की आवाजें आ रही हैं
उसने आवाज़ लगाई ,"चंचल ."
कोई जवाब नहीं .चंचल ने सोचा मम्मी फिर डाँटने को बुला रही हैं . चुप लगा गई .
"चुड़ैल ,वहां जा कर बैठ गई .बहरी कहीं की .."
चुड़ैल आ कर मुँह फुलाये खड़ी हो गई .
गुस्सा आता है तो आता ही चला जाता है .
"अब क्या कर रहीं थीं ?"
भइया ने बुलाया था .खेल रहे थे ."
"भइया कहे कुएँ में गिर पडो ,तो गिर पड़ना जा के ."
बिचारी चंचल ,क्या बोले !
दो कटोरियों में कार्नफ्लेक्स उसने चंचल को पकड़ा दिये .
वह लेकर झट से चल दी .
भीतर दोनों भाई -बहिन खा रहे हैं .हँसने-बोलने की आवाज़ें बाहर तक  आ रही हैं .

उसने फिर आवाज नहीं लगाई ,दो गिलास पानी अन्दर पहुँचा दिया .
दोनों के ही-ही,खी-खी की आवाजें बाहर तक आती रहीं .
***
पूरे एक सप्ताह बाद असित अटैची लटकाये रिक्शे से उतरे .
आना था परसों ,पर दो दिन पहले अचानक आकर तरु को सरप्राइज़ देना चाहता है .उतावले कदमों से घर की ओर बढ़ते हुए  उसे बंद दरवाज़े पर ताला लटकता दिखाई दिया .
'अरे, 'उसके मुँह से निकला , सात बज रहे हैं ऑफ़िस से तो कब की लौट आई होगी .

आहट सुन कर पीछे के क्वार्टरों से महरी की लड़की शोभा निकल आई .
'बाबू जी ,दीदी तो गई हैं ,'
''कहाँ?'
'एक बाबू जी और बीबी जी आए रहे उनहिन के साथ.'

अटैची रख चाबी निकाली असित ने ,घर की एक चाबी उसके पास रहती है .

ताला खोल कर कमरे में जा बैठा .
पानी लेने उठ कर रसोई में गया ,लगता है आज सुबह से खाना नहीं बना .
न खाना बनने का कोई चिह्न ,न सिंक में जूठे बर्तन.
फ़्रिज खोला ,दो स्लाइस के साथ मक्खन जैम निकाला ,बैठक में ला कर खाने लगा .

फिर उठा- चाय का पानी गैस पर रख आया .दूध है थोड़ा-सा .गैस धीमी कर दी शायद तब तक तरु आ जाय !

वह चाय पी चुका.
तरु अभी भी नहीं आई .सात ,फिर आठ बज गये.
बड़ी खीझ लग रही है -क्यों चला आया बेकार में !

नौ बज चुके देखा तरु चली आ रही है ,. 'अरे ,तुम कब आये ?'

असित का चढ़ा मुँह देख सफ़ाई देती-सी बोली ,' जितेन्द्र का मीना से झगड़ा हो गया ,वह मिट्टी का तेल डाल कर आग लगाने को तैयार थी .वो अपनी बहिन के साथ मुझे लेने आया .'
'हाँ ,तुम्हें औऱों के झगड़े से कहाँ फ़ुर्सत है .हमारी ही ग़लती है जो समय से पहले घऱ चले आए.'

'ग़लत मत समझो .यह बात नहीं .लेकिन कोई बुलाने आए तो कैसे मना कर दूँ .वह तुम्हारा ही दोस्त है .कितनी मदद करता है तुम्हारी ...मजबूरी में रुकना पड़ा..' वस्तुस्थिति पर ध्यान जाते ही वह शान्त हो गया .'
'फिर क्या हुआ सब ठीक है न ?'
'बड़ी मुश्किल से समझाया है .जितेन्द्र की माँ उससे बहुत असंतुष्ट है .हमेशा शिकायतें करती है, उसे भरती रहती हैं.''
'अब बस भी करो. वो जाने उसका काम जाने .जिसे देखो मदद के लिये चला आ रहा है .सब के लिये तुम्हारा घर खुला है एक मेरे लिये छोड़ कर .'
'तुमने कुछ खाया कि नहीं ..'तभी उसकी दृष्टि चाय के प्याले और प्लेट में पड़े ब्रेड की कोरों पर गई .
'अभी खाना तैयार करती हूँ ,भूख लगी होगी तुम्हें .'
वह झट-पट किचेन में जा घुसी .फ्रिज में से गुँधा हुआ आटा निकाला  और अंडे लेने फिर बाहर आई ,असित वैसा ही कुर्सी पर बैठा है .
'अब उठो  न ,हाथ-मुँह धो  कर कपड़े बदल लो .'
आमलेट बना कर पराँठे सेंकते-सेंकते उसने प्लेट असित के आगे रख दी .
'लो शुरू करो .'
'तुम भी आ जाओ .आज सुबह तो खाना बना नहीं था?'
सुबह ,हाँ ,सुबह  -
नहीं बनाया था कुछ . चंचल को स्कूल भेज कर कुछ बनाने का मन नहीं किया .शाम को लवलीन  ,चंचल को ले जाने को कह गई थी,अकेले मन नहीं लग रहा था उसका .

 नौकरी छोड़ चुकी थी तरु .चंचल के साथ ,गृहस्थी के साथ न्याय नहीं हो पाता था .
एक तो ढंग के नौकर नहीं मिलते ऊपर से रोज-रोज की किच-किच .पैसा खर्च हो सो अलग और निश्चिन्ती  का नाम नहीं .असित का प्रमोशन हो गया  ,घर का खर्च अच्छी तरह चल रहा़ है फिर बेकार की दौड़-भाग से क्या फ़ायदा  ?
चंचल स्कूल चली जाती है और असित दौरे पर . घर पर अकेली रह गई तरु . कुछ करने का मन नहीं हो  रहा

अकेले खाना खाने की बिल्कुल इच्छा नहीं .पर अब खा लेना चाहिये,यह सोच कर उठी .खास भूख तो है नहीं .थाली परोस कर क्या करना .उसने फ्रिज में से सब्जी निकाली रोटी पर रक्खी और कौर तोड़ती हुई कमरे में आ गई
कद्दू की सब्जी !
पिता को तरु की बनाई कद्दू की सब्जी बहुत अच्छी लगती थी. बहुत साल पहले की एक घटना मस्तिष्क में कौंध गई --
तरु चौके में बैठी ,कड़ाही से कटोरे में सब्जी निकाल रही है ,बाहर किसी के आने की आहट हुई .जाली में से दिखाई दिया पिताजी ते़ज़-तेज़ कदमों से आ रहे हैं .
कुण्डी खटके इसके पहले ही वह दरवाज़ा खोल आई .
"तरु ,तुमने आज कद्दू की तरकारी बनाई है न ?"
"हाँ ,पिता जी ."
वे चौके के दरवाजे पर खड़े हो गये .तरु ने दाल छौंकने के लिये चमचा अंगारों पर रख दिया .
"रोटी सेंक चुकीं ?"
"बस सेंकने जा रही हूँ ."
तरु ने थाली परसी .पहली रोटी सेंक कर थाली में रखी और थाली उन्हें पकड़ा दी .
अम्माँ पूजा कर अपने कमरे से बाहर निकल रही हैं
"आ गये तुम !जानती हूँ , कोई बिना खाये कैसे रह सकता है."
पिता चेहरा स्याह पड गया है .
"अम्माँ." तरु चिल्ला पडी .
"चुप रह ! बड़ी खैरख्वाह बनी है ."
हाथ का टूटा हुआ कौर उन्होने थाली में ही फेंक दिया है ,"रोटी मैं नहीं खाता , वह मुझे खाती है ."
वे थाली पटक कर चले गये .
तरु रोटी सेंक रही है .आँसू टप-टप कर गिर रहे हैं .वह बाँहे उठा कर पोंछ लेती है फिर रोटी बेलने लगती है .
ऐसा घर होता है ?उसने सोचा था ऐसा घर मुझे नहीं चाहिये .वे भूखे लौट गये ,परसी हुई थाली फेंक कर .यह नरक है .मुझे नरक नहीं चाहिये .
कद्दू की सब्जी वाला कौर हाथ में पकडे तरु कुर्सी पर बैठी है .आँसू भरी आँखों की दृष्टि धुँधला गई है .हाथ उठाकर ब्लाउज की बाँह से  आँखें पोंछ लीं .

आज भी उसे स्वप्न आता है -पिता आये हैं ,चुपचाप खडे उसकी ओर देख रहे हैं
"पिताजी ,खाना ."वह कहती है . और वे लौट कर चले जाते हैं .वह आवाज नहीं दे पाती .चुपचाप देखती रहती है .कितने घरों मे ,कितने लोग ऐसे भूखे रहते होंगे ?बिना किसी से कहे ,बिना किसी के जाने ,यों ही तिल-तिल कर समाप्त हो जाते होंगे ?
ये कैसे व्यवहार हैं दुनिया के ,जहाँ जीवन भर साथ रह कर भी आदमी एक दूसरे को समझ नहीं पाता ?अकेले बैठे-बैठे तरु को लगने लगा है सारा जीवन व्यर्थ बीता जा रहा है .लेखा-जोखा करने बैठती है ,कुछ भी हात नहीं आता .उसने कभी सोचा था जिन्दगी का क्या है ,यों ही बीत जायेगी .दूसरे की जान का जंजाल बन कर घर क्यों बसाया जाय १पर घर के लोग पीछे पडे ,असित को लेकर मन दुर्बल हो गया और अब यह गृहस्थी .क्वाँरी रहती तो भी सबकी सुनती ,इतराती किसके बल पर ?रूप उसके पास था नहीं ,स्वभाव सदा का ऐसा ,जिसकी सदा आलोचना ही सुनती आई -सोच समझ कर बोलना नहीं आता ,लट्ठ सा मारती चलती है .
पर जो लगता है वही तो कहती है .अगर न कहे और कुछ और बना कर कह दे तो भीतर -भीतर कुछ कचोटता रहता है,अन्दर ही अन्दर उफान साउठता रहता है .उस स्थिति को वह किसी तरह सहन नहीं कर पाती .सारी दुनिया धिक्कारती रहे वह चुप सनती है  पर अपने ही भीतर से उठती धिक्कार उससे सही नहीं जाती .
मन क् उद्वेग बार-बार जागता है.तरु को बराबर लगता है,जिसने हमे दुनिया मे सिर उठा कर जीने योग्य बनाया ,हमने उसे जीने नहीं दिया .समने कोशिस की होती तो वे इतनी जल्दी न मरते .यह क्या उनके मरने की उम्र थी ?
भीरे-धीरे मौत की ओर बढते हुये उनके कदमो को देखा है तरु ने  .मृत्यु से पहले ही उनकी जीने की इच्छा समाप्त हो गई थी .गड्ढे मे धँसी आँखें और निष्प्राण सी देह .अच्छा हुआ जो मर गये वे .उस कष्टमय जीवन से मुक्ति पाली उन्होने ..नहीं तो कितना और घिसटते ?
उसकी समझ मे आ गया है कि जीवन के सुख बहुत सतही होते हैं और दुख अपने मे पूरी तरह डुबो लेने मे समर्थ .
  और अम्माँ !उनका अन्त भी कैसा हुआ !आधे शरीर को लकवा मार गया था .जुबान बन्द  हो गई थी .हमेशा कुछ नकुछ कहती रहने वाली जीभ पूर्णतः शान्त हो गई थी .आँखों से देखती रहती थीं ,इशारे करती रहती थीं ,कभी समझ मे आते कभी नहीं ,जितने दिन घसटीं साक्षात् नरक .न स्वयं को चैन न दूसरों को . भाभी को क्यों दोष दे .उन्होने जो किया बहुत किया ,कोई दूसरा शायद उतना भीन करता .उस अन्तिम सप्ताह मे तरु ने एक दिन उनके साथ बिताया था ..फिर वह चली गई थी और उसे तार द्वारा हा ही उनकी मृत्यु की सूचना मिली थी .अन्त काल मे उन्होनेयाद किया होगा .शायद किया हो १मस्तिष्क सारी शक्तियांतो पहले ही जवाब दे गईँ थी
तरु की कहीं नहीं चल सकी थी .उसके ऊपर भीकितने आरप लगे थे .मां कुपित रहतीं थीं ,बहिनअसंतुष्ट.विवाह के ाद शन्नो की तरु से उम्मीदें और बढ गईं थीं .उन्हें लगता था वे तो अब मेहमान बन कर आती हैं ,तरु को उनकी हर तरह से खातिर करनी चाहिये ,आराम देना चाहिये .वे कहती भीथीं मै आती हूं पर इसे अपनीपढाईऔर घूमने से ही छुट्टी नहीं -घर का काम किसी तरह निपटा दिया और चल दी .
"कहाँ जाती है रोज-रोज ?घर मे नहीं बैठा जाता ?"शन्नो जवाब तलब करतीं तो वह कुछ नहीं बोलती .
तरु आवारा है ,घंटों घर से बाहर रहती है ,किस-किस के साथ जोड दिया था उसका नाम उन्होने .घर मे रिस्तेदारों के आने पर तीखी -तीखी आलोचनायें होतीं .रिश्तेदार थे कौन /मौसी ,मामा और उनके बाल-बच्चे .वे तो बहुत पहले से ही तरु को अपनी नजरों से रृगिरा चुके थे .अब वह उनकी परवाह नहीं करती थी .
उसे वह सब बद -दिमाग और स्वेच्छाचारी कहते थे ,पर उसने कभी सफाई देने का प्रयत्न नहीं किया उसे लगता था सफाई देने से वह और नीचे गिर जायेगी .
हां ,रोज जाती थी वह .दो आठवीं की ट्यूशने की थीं उसने ,मीना ने दिलाई थीं .कुल तीन महीने वह ट्यूशनकर पाई थी ,बिना किसी को बताये .बताने पर घर मे हल्ला मच जायेगा ..पर पिता की भी कुछ जरूरतें हैं यह कोई नहीं समझता !
तरु बता देगी तो अम्मआँ नाराज होंगी ,कहेंगी हां ,तुम्हीं तो एक लगी हो उनकी !मेरे लिये तो आज तक कुछ नहीं सोचा ,और रुपये उनके पास चले जायेंगे .अपने मायकेवालों के लिये अभी बहुत कुछ करना है उन्हे .शन्नोकहेंगी -मेरे बच्चों के लिये कभी कुछ लाने का मन नहीं हुआ तेरा ?
पिता की चाय की आदत थी .जब मां आस-पास नहीं होतीं  तो चुपके से बना कर दे आती वह .वे तरु के लाने पर मना नहीं कर पाते थे चाय उनकी कमजोरी थी ,उनकी तलब थी उनकी शक्ति थी .पर मां बहुत कटु थीं .कुसी बात पर तिनक कर बोलींथीं ,"तुम अपनी चाय छोड सकते हो ?"
"तुम्हें इतनी ही दुश्मनी है तो वह भी छोड दूँगा ."उन्होने भी ताव मे आकर कहा था .
तलब लगती है तो उन्हें कितना कष्य होता है तरु जानती थी परवे जिद के मारे पीते नहीं थे . दो-चार बार फपनेदफ्तर जाते समय उन्होने तरु से पूछा था ,"एकाध रुपया है तुम्हारे पास ?"
उन्हे मालूम था ,गौतम भइया जब-तब तरु को कुछ दे जाते हैं .जब तक रहे वह पकडा देती थी पर अब कुछ नहीं है उसके पास .पिता की जेब मे कुछ पडा रहे तो अच्छा है .वे चाहें तो चाय पी सकते हैं ,चाहें तो रिक्शा ले सकते हैं .वे एक बार रास्ते मे गिर पडे थे ,उन्होने बताया नहीं पर उसे मलूम है .
उसी बीच मौसी अपने लडके नवीन के साथ आई थीं .नवीन उससे कुछ बडा था .तरु की आलोचना सुनकर उसने जानना चाहा था .
नवीन का समाधान कर रही थी वह .घर आकर रहनेवाला वैसे भी घर की स्थितियों का अन्दाज लगा लेता है ,उससे सब कुछ तो छिपा भीनहीं सकती थी .
उसे धीमे-धीमे बता रही थी ,मां की कठोरता के बारे मे नहीं ,पिता की जिद के बारे मे नहीं ,वह बता रही थी आजकल मै खाली हूँ ,कई साथिने भी अच्छे-खासे घरों की होकर ट्यूशन करती हैं .
बातों के बीच मेअम्मांकी जरदार आवाज आईथी ,"बेशरमकहीं की ,नवीन से घुट-घुट कर क्या बातें किया करती हो ?समझ लिया कि हम लोग बेवकूफ है !"
मौसी ने तेज स्वर मे नवीन को आवाज दे ली थी .जब उसने तरु की वकालत की तो बात और बिगड गई .मौसी ने तिरस्कार से कहा ,"भाई को भी नहीं छोडा ."
अगले दिन नवीन वापस लौट गया था .चलते-चलते वह शन्नो को बता गया था ,"वह ऐसी नहीं है .उसने बच्चों की ट्यूशने की हैं इसमे क्या बुराई है ."
शन्नो ने तरु से पूछा ,"कितने रुपये कमा लिये ?मेरे बच्चों के लिये तो कभी कुछ किया नहीं .ट्यूशन की थी तो कह कर करती .बहाने बनाने और झूठ बोलने मे तू शुरू से होशियार है ."
फिर सन्देह भरी द-ष्टि से देखते हुये बोलीं थीं ,"अच्छा ,मीना का भाई नहीं होता था वहां ?"
"मीना का भाई ?वह तो उनबच्टों की बहनविभा से मिलने आता था .अब उनदोनो की शादी हो रही है ."
"तू चाहेगी भी तो तुझे लिफ्ट देगा कौन ?"
शन्नो हमेशा चुभनेवाली बात कहती हैं .पर तरु से कुछ कहते नहीं बनता ,वह चुपचाप उठ कर चली जाती है ,इन झूठे आरोपों का खण्डन कर अपले को और कितना गिरा ले!वह हमेशा की अडियल है शन्नो ठीक कहती हैं .
मुझे कोी नहीं चाहता पर इसमे मेरा क्या दोष !तरु सोचती है पर समझ नहीं पाती .,जो ठीक समझ कर करती है वह भीसबको गलत लगने लगता है .
पर पिता ?उन्हें कुछ हो गया तो? कहो जिसे कहना हो कहो ,पर मेरे पिता का कुछ अनिष्ट न हो !
पर अनिष्ट कहां रोक सकी थी ?कुछ नहीं कर पाी तरु .जो सोचती है कभी नहीं होता .उनकी निर्बलता बढती गई ,वे बिस्तर पर पड गये ,उन्होने खाना-पीना बिल्कुल बंद कर  दिया  उठना मुँह धोना कुल्ला करना छोड दिया .बोलना छोड दिया ,सुनना छोड दिया और तरु बेबस देखती रही .उस असह्य स्थिति का साझीदार तब कोईनहीं था ,फिर अब उसकी स्मृति का साझा करके क्या होगा ?
डॉक्टरों का क्का ?कोई भीबीमारी बता देंगे ,दवा लिख देंगे ,उनके बूते का कुछ नहीं .
जिन्गीमे क्या -कुच जायेगा पहले से कुच मालूमनहीं पडता .बडी-बडी घटनायें अनायास ही घट जाती हैं .मनजाने कितनी योजनायें बनाता है ,उन्हे साकार करने को एडी-चोटी का जोर लगा दिया जाता है ,पर सारे किये धरे पर पानी फेर देनेवाली घटनायें अनायास ही घट जाती हैं .तरु का मन सुन्न सा हो गया है
भीतर से कोई पूछता है ,"किसी के सही गलत का निर्णय करनेवाली तू कौन ?तूने क्या किया ?मां को फालिज गिरा तेरे ही कारण .?
वह अपने से कहती है -मै अपराधी हूं ,मै पापी हूं ,हाँ ,पापी हूँ !
---------

'फिर तुमने क्या खाया ?'असित का स्वर सुन वह चौंकी-सी वर्तमान में लौट आई .

असित  उत्तर की प्रतीक्षा में. .

'रखा था .शाम का काफ़ी बच गया था.फिर अकेले के लिये बनाने का मन नहीं हुआ .तुम शुरू करो ,बस मैं अभी आई .'
वह फिर चौके में जा घुसी .

खा-पी कर सोते-सोते ग्यारह बज गए .
'मुझे घर चाहिये और तुम चाहिये .तुम नहीं होतीं तो मुझे घर अच्छा नहीं लगता .तरु, मुझे हर पल तुम्हारा साथ चाहिये .बाहर से भटक कर आता हूँ तुम्हारी बाहों में शान्ति पाने के लिये .तुम सिर्फ़ मेरी हो और किसी की नहीं '
'हाँ ,मैं सिर्फ़ तुम्हारी हूँ .'
'तुम्हें अपने से बिलकुल अलग नहीं रहने देना चाहता ....'असित तरु को अपने में समेट लेना चाहता है ,'तरु तुरइया ..'
'तरुइया क्या होती है ,जानते हो ?'
'क्या?'
'तुरई को लोग तरुइया भी कहते हैं .'
'सच में तुम तरुइया होतीं तो मैं तुम्हें खा जाता.तरुई..तुरई.तुरई ..'
यों ही लेटे-लेटे ,असित का सामीप्य. अनुभव करते वह बहुत बातें करना चाहती है .बहुत-कुछ है कहने को उसके पास ,बहुत कुछ असित से पूछना है .पर बात करने का अवकाश वह नहीं देता .इस समय नहीं ,बिलकुल नहीं .तरु के बोलने पर मुँह बंद कर देना उसे आता है .
***


राहुल के तिलक से शादी तक के लिए भी मकान मालिक से इधऱ के दो कमरे और एक बराम्दा ले लिया गया है .इसी के पाँच-सौ रुपए माँग लिये उन्होने - सिर्फ़ पन्द्रह दिन के .
माँजी ने ना-नुकुर की पर सबकी सलाह हुई कि कहीं और जाने में परेशानी बहुत होगी और खर्च अलग से, सो यहीं ले लिया जाय .सामान उठाये-उठाये इधर-उधऱ भागना तो नहीं पड़ेगा .इस खिड़कीवाले कमरे के उस तरफ़ शुक्लाइन का चौका है ,और पीछे एक कुठरिया जिसमें उनके बक्से धरे हैं .
उनकी बड़ी बेटी सुशीला जब से ससुराल से आई है उसे हिदायत दे दी गई है -गहना-गुरिया उतार के संदूक में मती धरियो .कहूँ दन्नू के हाथ परिगौ तो हम तो मुँह दिखाबे के लायक नाहीं बचिंगे .
और सुशीला हर बखत झुमकी, कंगन ,हार और अँगूठियाँ पहने रहती है .
एक दिन घर के सब लोग कहीं गये थे ,सुशीला चौके में खाना बना रही थी.आँगन से दन्नू कमरे में जाते दिखाई दिये .सारे घर का चक्कर लगाने के बाद सुशीला से पूछा कौन ,कहाँ गया है ,कब तक आयेगा.
फिर वे चुपचाप कुठरिया में जा घुसे .
थोड़ी देर बाद सुशीला का ध्यान गया  - जे दन्नू इत्ती देर से कुठरिया में का कर रहा है?
तवा उतार कर वह उधर गई.
देख कर सन्न !
'जे का कर रहे हो , दन्नू?चोरी कर रहे हो,?..हाय..हाय हमार बकसा .'वह चिल्लाई.
चीख की आवाज़ सुनकर रश्मि दौड़ी ,पीछे-पीछे तरु भी चली आई.
दन्नू सुशीला के बकसे से जूझ रहे थे .बड़ी करुण दृष्टि से ताकने लगे .

ताला मज़बूत था उसे तोड़ने की कोशिश उनने नहीं की ,ढक्कन के साइड की एक कील निकाल दी थी ,और उसे उचका कर बकसे में हाथ घुसा दिया था.लेकिन भारी ढक्कन ऊपर उठा नहीं  हाथ बीच में फँस गया .दूसरे हाथ से दन्नू दूसरा जोड़ खोलने के चक्कर में थे ,उधर फँसा हुआ हाथ बाहर निकल नहीं रहा था ,पीरता जकड़ा हाथ फँसाये जस के तस बैठे रह गये .
'चोट्टा कहूँ को ,काहे तोड़ रहो है हमार बकसा ?'
परिश्रम से लाल मुँह घुमा कर दन्नू बोले ,'जौ बकसा कैसो टूटो धरो है .हम सँभार रहे हते सो हाथ फँस गौ. हाय..हाय टूटो जात है .'
'अच्छा होय टूट जाय हाथ ! बकसा अपने आप जाय के जूझ गौ तुझ से ,हरामी ,चोर दुस्मन कहूँ को ..'
सुशीला ने भुनभुनाते हुये ढक्कन उचकाया .
हाथ खींच कर सहलाते हुये दन्नू बाहर भागे .
रश्मि और तरल हँसते-हँसते दोहरी हो गईं.
***
आज शुक्लाइन सफ़ाई पर तुल गई हैं.
इधऱवाले कमरे में भारी-भारी धन्नियां रखी हैं और ईंटं सीमेन्ट की बोरियाँ वगैरा भी.
कोई नहीं आता इधऱ .

इधर से तरु को आवाज़ देकर उन्होंने कहा ,'दुलहिन ,नेक धन्नी उचकाय देओ,नीचे मार दलिद्दर जमा है .ऊपर को खंड बनन की नौबत ही नाहीं आय रही है .मार घुनाय जाय रही है लकड़ी .'
उन्होंने झाड़ू से नीचे का कूड़ा खींचा तरु हाथ से ज़ोर लगा कर धन्नी उचकाये है .
कूड़े के साथ फड़फड़ा कर आते नोट देख तरु चौंक कर बोली,' अरे,अरे ,यह क्या ?चाची जी आपके यहाँ धन्नियों के नीचे नोट रखते हैं ?'

धन्नी के नीचे से निकले मुट्ठी भर नोट देख शुक्लाइन ने आँखें फाड़ दीं .
.
हँसी को तरु ने भरसक दबा लिया
.दस-दस के पाँच-छः के दो-दो के ,एक-एक के नोट बिखरे पड़े थे .
'उसई हरामजादे की करतूत  है,' खिसियाई-सी चाची बोलीं ,'उहै है जान को दुसमन .मरत भी तो नाहीं अभागो .हियन छिपाय के धरे हैं.'
 दन्नू के लिये मुँह से गालियों और बद्दुआओं की बौछार  फूट पड़ी.
झाड़ू डाल कर फिर खींचा तो कुछ नोट और चिल्लर और निकली.गिने कुल सड़सठ रुपये सैंतालिस पैसे .
'हाय सुसीला ,' सिर पीट लिया शुक्लाइन  ने.
सुसीला के दूल्हा की जेब से उसई ने चुराय के धरे हैं .माता खायें ,हरामी के कोढ़ फूटे .कौन पापन को फल है जो हियन आय के पैदे भओ है ...'
सुशीला के दूल्हा जब बिदा कराने आये थे तो बाहर टँगे उनके कोट की जेब से सौ का नोट ग़ायब हो गया था .इधर-उधऱ सबसे पूछा ,ढूँढा पर नोट न मिलना था न मिला .
सुशीला समझ गई पर नई-नई शादी ,बिचारी क्या कहे !
उलटा उसने अपने दूल्हा से ही पूछा,'नोट धरो थो कि कहूँ और निकरवाय आये ?'

'हाँ,हाँ खूब धरो थो ,सुबे दन्नू के सामने धरो थो .'
तब तो हुइ गौ कल्याण ,सुशीला ने मन -ही-मन सिर पीट लिया .वह चोट्टा काहे को छोड़ेगा .पर चुप लगा गई .

दन्नू की करतूतें सब के मनोरंजन का साधन बनी हैं .
असित कहते हैं ,'जैसी कमाई बाप की वैसे ही तो जायगी .दूसरों का ख़ून चूस-चूस कर दौलत जोड़ी .तभी तो लड़के उड़ा रहे हैं .कोई भी ढंग का न निकला ..अब तो बहुयें भी आपस में खूब लड़ती-झगड़ती हैं .हमेशा कुछ-न-कुछ कोहराम मचा रहता है .
इधर बहुत दिनों से पिटे नहीं हैं दन्नू .आने दो शुक्ला जी को फिर उधेड़े जायेंगे .
**

29..
 *
मिले-मिले घर ,ऊपर से इधर शुक्ला जी के पोर्शन में अबाध आवागमन -आपस में  एक-दूसरे का पूरा हाल पता रहता है.मेहमान अभी कोई खास नहीं बस श्यामा का परिवार वह भी पूरा नहीं .माँजी की एक बहिन भी आई हैं.तरु की जिम्मेदारी बढ़ गई है .उसका काम अधिक तर इस कमरे में ही चलता है ,जोशादी के लिये लिया गया है . उसके कमरे से लगा हुआ है और इधर सामने चतबूतरा ,-सब दिखाई सुनाई देता है - बस खिड़की का परदा   ज़रा- सा खींचने  भर की देर है .

.मकान-मालिक शुक्ला जी ने सुबह-सुबह दन्नू की जम कर धुनाई की और गरियाते हुये बाहर चबूतरे पर निकल आये ,
 इतवार का दिन है नहीं तो साइडवाले मकान के बाहरी कमरे में ध्यानू मास्टर लड़कों को ट्यूशन पढ़ा रहे होते ' शुक्ला जी से 'जै राम जी' के बाद दोनों बाहर चबूतरे पर पड़ी बेंच पर जम गये .
'देखा आज का पेपर ?नैनीताल के एक इँग्लिश स्कूल में हिन्दी फ़िल्म देखने पर दसवीं के पाँच स्कूली छात्रों को स्कूल से निकाल दिया गया .और उनमें गूजरमल मोदी का एक पोता भी है .'
'अउर का होयेगा ,' शुक्ला जी हथेली पर तंबाकू रगड़ते बोले ,'सुसरे अँगरेज चले गये औलाद छोड़ गये .हिन्दी बोलने पर सजा मिलती है .चले जाओ किसी कॉन्वेंट स्कूल में हिन्दी बोला बच्चा कि पड़ी एक छड़ी .न माँ ,माँ रहे न बाप,बाप .आपुन सब भुलाय जात हैंगे .'
और मास्टर साहब ?
बड़ी-बड़ी शिकायतें हैं उन्हें सरकार से ,समाज से ,शिक्षा प्रणाली से .पर सुनता कौन है यहाँ उनकी !बस कह-सुन कर भड़ास निकाल लेते हैं .बोले ,'अरे, सब सरकार की कमज़ोरी है ,किसी देश में ऐसा हो सकता है क्या ?'
'सरकार-उरकार क्या होता है ,'मुँह में तंबाकू दबाये शुक्ला जी शुरू हुये ,'वोट पक्के रहें इनके ,ये लोग पहले ही अलग-अलग बाँट कर कुछ को मनमानी छूट दिये रहते हैं जिसमें उनके सारे वोट इन्हई को मिलें .'
सब्ज़ी का झोला पकड़ेउधरवाले वर्मा जी दिखाई दिये ,उन्हें भी पुकार लिया गया .
'नहीं भई ,अभी बैठेंगे नहीं,नहाया भी नहीं है कहते-कहते वे भी वहीं आ जमे ,'किसके वोट गिने जा रहे हैं मास्साब?'

जवाब दिया शुक्ला जी ने ,' अरे वोट हम का गिनेंगे ?ऊ गिनेंगें सुसरे जो सबका ठीका लिये बैठे हैं .उहै तो खरीद रहे हैं .'
'खरीद काहे उनके हितन की रच्छा कर रहे हैं .'

ध्यानू मास्टर थोड़ा तेज़ पड़े, 'सिर्फ़ उनका हित न ! देश का काहे में हित है सो कोई नहीं देखता .'

'अपना तर गये तो समझो देश का उद्धार हो गया. ' वर्मा जी ने आगे बढ़ कर चबूतरे के नीचे पान की पीक थूकी .,'कोउ नृप होय हंमे का हानी  !साले सब एक से हैं जैसे साँपनाथ उइसेइ नागनाथ.'

'सेक्यलरिज़म तो खाली नारा है ,अलग-अलग वर्गों को अलग-अलग लालच देते हैं रोज़गार भी संप्रदाय के आधार पर बाँट दें इनका बस चले तो .सब को अलग-अलग के सिर पे चढ़ाये ले रहे हैं इकतीस साल बीत गये अभी निपल लगा के दूध पिलाये रहे हैं जाने अपने पाँव पे कब खड़े हो पायेंगे .'
-बोलते-बोलते मास्टर का मुँह लाल पड़ गया था .
'और खुद का हैं ?अपने मतलब पूरन के लै  जो बीच में आय जाये उसई  को ठिकाने लगाय देते हैं .सुसरे .इन्सान की जान की कोई कीमतै नहीं .'

'वो देखो न कल के  पेपर में रहे ,जो इनकी पोल खोले उसे कैसे उखाड़ देते  हैंगे ..'
 .
तरु कान लगा कर सुनने लगी .
'गुंडागीरी की तो हद है .ऊ केस भया था बड़े-बड़े लोगों की फँसत भयी . फिर एक अपहरण अउर हत्या !'

तरु हाथ में पैकेट पकड़े वैसे ही खड़ी ,कान उधऱ ही लगे हैं
'गरीब मेहरिया की आबरू कहूँ सुरच्छित नहीं.'
  मन में अजीब सी हलचल होने लगी .
दो-तीन लोग एक साथ बोल देते हैं -कुछ समझ में नहीं आ रहा.चुनिया के केस  की बात है क्या?
'दुस्मनी होय आदमी से ,खींची जाय मेहरिया ..'
'इहै होता है दुनिया में .करै आदमी भरै मेहरिया .''

जी धक् से हो गया .
नहीं , वह नहीं हो सकती .उसकी किसी से क्या दुश्मनी !
एकदम लिली का ध्यान क्यों आ गया.
औरत ब्याही हुई होगी नहीं तो लड़की कहते न.
तो भी .वह नहीं हो सकती .धमकियाँ विपिन को मिल रही हैं . लवलीन की किसी को क्या दुश्मनी .



उसने आगे बढ़ कर पैकेट मेज़ पर रख दिये .


इतने में गली से आगेवाली सड़क पर कुछ हल्ला उठा .लोग खड़े होकर देखने लगे .
चबूतरे से झुक कर सड़क पर झाँकते वर्मा जी बोले ,' अभी सब्ज़ी खरीदते सब ठीकै-ठाक था .'
वर्मा जी सब्ज़ी भूल थैला साइड में रख कर बैठ गये शुक्ला जी ने बनियान की जेब से चूने-तंबाकू की डिबिया निकाल ली.
'जीप, टैक्सी ,स्कूटर,बैंड-बाजा सब है .अरे ,लड़िकन का जलूस है !'
'डीएवी कालेज का इलेक्सन है ,दोनउ उम्मीदवार जान की बाजी लगाय दिये हैं .पिछलीबार तो छुराबाजी भई थी.'सूचना देनेवाले शुक्लाजी हैं ,'अबके गोलियाँ तो एक बार चल चुकीं ,आगे देखो का होय?'
'कालिजन का चुनाव और सहर भर में हल्ला ...',वर्मा जी ने फिर पान पीका .
'पढ़ाई-लिखाई सब भाड़ में ,अभै से नेतगीरी सीख लेत हैंगे.कोई इनसे पूछे वोट देनेवाले -लेनेवाले उसी कालिज के फिर काहे दुनिया भर में फैन मचाये हो ?पाप का पैसा है ,लुटाय रहे हैं .'

मास्टर जी ने स्पष्टीकरण दिया ,' कराता है नेता .वो पार्टीवाले इन्हें संरक्षण देते हैं और स्कूल कालेज में अपनी पालिटिक्स चलाते हैं .यहाँ भी वोई होता है ,गुटबंदी ,मारपीट और गुंडई.'
'अभै से से टिरेनिंग दे रहे हैं कि बेटा आगे येई करना है .'
मास्टर का लड़का डी.ए.वी. से बीएस .सी. कर रहा है -जुलूस की आवाज़ सुन बाहर निकल आया .
'काहे बबुआ ,ई सब का करवाय रहे हो ?और कऊन-कऊन हैं इन लोगन में ?'
'हम लोग साइन्साइ़ के हैं हमारे पास इतना टाइम ही कहाँ ?प्रतापसिंह,और सुमेर  दोनो ही मैदान में हैं -बराबर की टक्कर है .सुमेर ने तो चालीस हजार लगा दिये .'
वर्मा को ताज्जुब हुआ ,'बाप ने इत्ता रुपैया दै दिया ?'
'उसे कांग्रेस का सपोर्ट मिला है .अभी एक मकान बेचा था उसी का पैसै मिला सो इलेक्शन में लगा दिया '
'अरे चालीस हजार खर्च किये ,'मास्टर ने बात समझाई,'जीत गये तो समझो आ गये राजनीति में ,फिर तो पचासगुने कमा लेंगे .लग्गू-भग्गू अभी से साथ लग जायेंगे .सारे दंद-फंद अभी से सीखते चलेंगे .'
'काहे,तुम किसे वोट दे रहे हो बबुआ?'
'हम तो सुमेर को ही देंगे ,कह रहा है जीत गये तो छात्रों के हित के लिये लड़ेंगे .,पोस्टों में रिज़र्वेशन खतम करायेंगे .छात्र-वृत्ति योग्यता और आर्थिक स्थिति के हिसाब से मिलेगी ..और भी बहुत से प्लान्स हैं '
'करा लिये भइय़े,करा लिये .सब करा लिये .,'वर्मा जी उठकर खड़े हो गये ,'सरू-सुरू में सब ऐसे ही डकराते हैं .'
और अपना झोला उठा कर चल दिये .
बताइये चाचा जी ,एक तिहाई कोटा रिज़र्व हो जायेगा तो हम लोग क्या करेंगे ?
इसीलिये लड़के इतना शोर मचा रहे हैं .'

तरु का मन उधऱ ही लगा है -पर उस बारे में कोई बात नहीं हो रही .टॉपिक ही बदल गया है

क्या सुना था अभी थोड़ी देर पहले ?

इतने दिन हो गये  चुनिया के केस को चलते , वही या फिर कुछ हुआ   ?
फिर किसी लड़की को .....
.स्तब्ध-सी  बैठी है .
बाहर  वार्तालाप चल रहा है , आवाज़ें कान तक पहुँच रही हैं कि नहीं !

'लड़कों  इसमें नहीं पड़ना चाहिये ,'ध्यानू मास्टर ने ज़ोर से कहा ,'तुम अपनी पढ़ाई लग कर करो ,तुम्हें औरों से क्या ?'
'हमें कुछ क्यों नहीं ,बाऊ जी ?हम फस्ट डिवीजन लायें ,तो भी हमें कोई नहीं पूछेगा और वो चार साल में सरकारी मदद से थर्ड ले आये तो पहले नौकरी उन्हें मिलेगी ,पहले प्रमोशन उनका होगा चाहे करना-धरना कुछ न आये .ज्यादा तो हमें ही मतलब है .'
मास्टर जी की पत्नी कूड़ा फेंकने निकली थीं ,वहीं रुक कर सुनने लगीं .
उन्होंने लड़के की बात पर प्रतिक्रिया व्यक्त की ,'ये तो बहोत गलत बात है .'
शुक्लाजी और मास्टर जी चौंक कर उधर देखने लगे ..
वे कह रहीं थीं ,'लायकियत पे देना चाहिये काम .ये क्या कि वो ऐसी जात के हैं तो वो ज्यादा सगे हो गये .और हमारे बच्चे लायक हो कर भी नालायक हो गये !'
'वजीफ़े उन्हें अलग से ,उमर में छूट अलग से ..'बबुआ ने जोड़ा .'
मास्टर जी को बड़ा नागवार गुज़र रहा था ,पर चुप लगाये रहे .मास्टरनी को अपने होनहार पूत पर बड़ी उम्मीदें थीं .सरकार की नाइन्साफ़ी सबसे ज्यादा उन्हें खटकी ,'हमारे बच्चे पैसा लगाय के मेहनत करके पढ़ें और सब बेकार जाय,फिर ये करेंगे क्या ?'
' डंडे चटखायेंगे ,बेकार घूमेंगे. अऊर का ?' शुक्ला जी अपनी बीती बोले .
'वो थर्ड डिवीजन में हो के अच्छा काम कर लेंगे ? मास्टरनी के मन में द्विविधा थी.


'लड़के कह रहे हैं आग लगा देंगे .'बबुआ ने सनसनीखेज़ सूचना दी .

मास्टर जी चौंक गये ,'कहां लगा देंगे आग?'
'ये हमें नहीं मालूम. पर  कह रहे थे कुछ करेंगे ज़रूर.'
'तुम मत पड़ना इस सब में .तोड़-फोड़.आगज़नी,लूट-पाट,क्या होगा इससे ?'
शुक्ला जी तंबाकू दबाये सुनते रहे .
'फिर काहे से होगा ?ये लोग तो इलेक्सन के पहले ही वादे करके वोट माँगेंगे ,और फिर हमारा क्या होगा ?'
'तुम चुपचाप पढ़ो बैठ के ,'मास्टर जी रोष में आ गये ,'चलो अंदर ,तुम इस सब में नहीं पड़ोगे .'
बबुआ को घर चलने का इशारा करते हुये वे उठ पड़े .
मास्टरनी पहले ही चल दी थीं ,पीछे-पीछे जाता हुआ बबुआ कह रहा था ,'किसी को कुछ नहीं करना तो कौन आगे आयेगा क्या ? क्या फ़ायदा इस पढ़ने-लिखने से ?.हमारे लिये कोई कुछ नहीं करेगा ,हमें अपने आप लड़ना पड़ेगा .'

मास्टर जी अंदर जा कर आँगन में खड़े हो गये और अंदर आते लड़के को डाँटा ,'अच्छा ज्यादा ज़बान मत चलाओ ,हमारी अपने बाप के आगे बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती थी.अभी किसी लायक नहीं तब ये हाल हैं .'

'अरे , तो क्या कह रहा है ,'माँ ने बेटे का पक्ष लिया ,'भुगतना तो उसी को पड़ेगा ...और अपनी सोचो सुराज के पीछे तुमने नहीं पढ़ाई छोड़ी ?नहीं तो आज मास्टरी करते न झींकते होते .'
'मास्टर जी की दुखती रग छू दी थी उनने ,एकदम बौखला गये ,'तुम और ओरी ले ले के बिगाड़ो.कहो जा के लगाये आग गिरफ़्तार होये जाके ,फिर मुझसे मत कहना लाओ छुड़ा के .'
'काहे गिरफ़्तार होगा शान्ति से सब समझ जायेगा .'
मन का आक्रोश दबाये लड़का चुप खड़ा रहा .

अंदर से आवाज आई ,'दुलहिन हो ..कहाँ बैठ गईँ जाय के?'
अरे, मैंतो भूल गई ,माँजी बुला रहीं  थी .
'आई'.वह हड़बड़ा कर चल पड़ी . पैकेट वहीं रखे रह गये .


*
(क्रमशः)

रविवार, 31 जुलाई 2011

एक थी तरु - 26 & 27.


26.
'अरे ,भाभी तुम यहाँ छिपी खड़ी हो , मैं सब जगह ढूँढ आई,' कहती हुई रश्मि पास आ गई, 'अकेली खड़ी-खड़ी ,क्या कर रही हो ?'
 'बाहर चबूतरे पर बडा मज़ेदार डिस्कशन हो रहा था . तीन-चार लोग थे ,बाद में मास्टरजी और उनका लड़का भी आ गये थे .'
 'चबूतरा पालिटिक्स हमरे यहाँ की खासूसियत है . हर मसला चाहे कहीं का, कैसा भी हो ,पहले चबूतरे पर ही डिस्कस होता है .'
 'हमारे यहाँ भी .हम जब छोटे थे रश्मि ,1947 से पहले की बात है,तब गान्धी जी का आन्दोलन ज़ोरों पर था. हमारे चबूतरे पर भी ऐसी ही गर्मागर्म डिस्कशन्स हुआ करते थे .आज सुन कर मज़ा आ गया .तब लोगों में जोश था .निष्ठा थी,कुछ उद्देश्य था .. हाँ ,.....मास्टर जी के लड़के का नाम क्या है ?'
 'बबुआ का ?अरुण चन्द्रा .मास्टर साहब ने अपने नाम के आगे से जाति तभी निकाल फेंकी थी .स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ कर कॉलेज छोड़ दिया था.इनके भाई,चाचा वगैरा बड़ी अच्छी- अच्छी जगहों पर हैं.यह बिचारे रह गए .अब ल़ड़के को इस सब मे पड़ने से मना करते हैं . कहते हैं पढ़ो- लिखो ज़िन्दगी बना लो .....तुमसे कहना तो मैं भूल ही गई भाभी,माँजी तुम्हें कबसे बुला रही हैं .सामान की लिस्ट बनाई जा रही है आज शाम तक सारा ताम-झाम धर्मशाला में पहुँच जाना है .'
 तरु को मालूम है धर्मशाला सिर्फ तीन दिन के लिये मिली है .वैसे काफी बड़ी और खुली हुई है ,कमरे भी काफ़ी हैं .रश्मि की बिदा के बाद ही खाली कर देनी होगी .छोड़ते ही अगली पार्टी आ जायेगी .इन दिनों बहुत शादियाँ हैं,
 घर में मेहमान काफ़ी आ गये हैं .हलचल बढ़ गई है.
आनेवाले अपनी-अपनी निगाह से तरल को तोल रहे हैं .अलग -अलग झुण्ड बना कर लोग छोटे-मोटे कामो में लगे  हैं ,साथ में बातें भी चल रही हैं .
लड़कियों में उत्सुकता है ,असित भैया ने लव- मैरिज की है -ऐसा क्या है भाभी में ?
 'ऐसी सुन्दर तो नहीं है !'
'देखने में साधारण होते हुये भी अच्छी लगती है .'
'व्यवहार खूब अच्छा है .'
'खूब बातें करती हैं .'
'काम भी तो डट कर कर रही हैं .'
 लड़कों का कहना कुछ और है -,'सिर्फ गोरा रंग ही सबकुछ नहीं .काली  तो बिलकुल नहीं ,कुछ गिरता रंग ,पर बोल-चाल, व्यवहार कितना अच्छा है .बार-बार मिलने-बोलने का मन करता है .'
'ढंग भी खूब है ,ऐसा कि घर बाहर हर जगह निभ जायें .प्रभाव पड़ता है कि मिले हैं किसी से .'
 ' हाँ ,कुछ है जो अपनी तरफ खींचता है .'
 'मन का साथी मिल जाय तो क्या बात है !'
 तरल चुनौती सी खड़ी है सबके सामने .कुछ-कुछ रिमार्क कानों में पड रहे हैं .
 'लड़का इतना हैण्डसम . बीबीऔर बढ़ कर मिल सकती थी?'
 'चलो, जो है सो ठीक है.असित भाई कौन गोरे हैं उनसे तो साफ़ ही है रंग.'
तरल को खुद लग रहा है शादी के बाद उसका रंग काफ़ी खुल गया है .
' मिला-जुला  तो कुछ भी नहीं .'.'किसी बड़ी-बूढ़ी का रिमार्क था ,'भई कुछ जमा नहीं ,पता नहीं काहे पर रीझ गया !'
 'पागल हुई हो लव मेरिज में कुछ मिलता है ?बस लड़की मिलती है .'
 तरु को याद है असित ने कहा था ,'तुम मुझे अच्छी लगती हो .तुम्हारे बिना मै कैसे रहूँगा ?'
 वह सोच लेती है और किसी को अच्छी लगूँ, न लगूँ क्या फ़र्क पड़ता है !

 पास के कमरे से आवा़ज़ें आ रही है ,'अब लाला काहे को पहचानेंगे !अब तो सब भूल गये .जब इन्टर व्यू देने आये थे हमारे पास ,तो इनसे कहते थे -दादा हमे टाई बाँधना सिखा दो .इन्हीं ने सिखाया था ढंग-सहूर .पर अब काहे को याद होगा !'
 बाहर आँगन से तरल सुन रही है .खूब ठसकेवाली जिठानी हैं ,फुफुआ सास की बहू.पढी-लिखी नहीं तो क्या हुआ ,पैसा तो है .सबको कुछ न कुछ सुनाते रहने का अधिकार है उन्हें !
 'रहने दो भाभी ,' किसी ने टोका , 'बाहर आँगन मे तरु भाभी हैं.'
 'हैं तो हम क्या करें ,' उन्होने इठलाकर कहा ,'तब भाभी- भाभी करते मुँह नहीं थकता था असित लाला का .मैं कोई झूठ बात कह रही हूँ क्या ?अब कोई नहीं पूछता कहाँ दादा ,कहाँ भाभी .'
 रश्मि ने तरल के पास आकर बताया था ,'इनकी ऐसी ही आदत है,हरेक से कुछ न कुछ शिकवा है इन्हें.चाहती हैं सब इनके गुन गाते इनके चारों तरफ घूमते रहें .'
 तरु का उत्साह फीका पड गया .
असित ने बताया था - जाता था तो कभी खाली हाथ नहीं जाता था ,घी ,खोया .आम .अमरूद भर-भर कर पहुँचाता रहता था .तब लाला-लाला करते पीछे घूमती थीं .अब दादा का प्रमोशन हो गया है न,रुतबा बढ गया ,ऊपर की आमदनी के ज़रिये बन गये .तब तो कहीं जाना होता था तो  मुझे लिख देती थीं .टिकट के पैसे भी मैं कभी नहीं लेता था .पहुँचा आता था सो अलग .नौकरी लगने पर सबसे पहले उन्हीं को उनकी पसन्द की साड़ी खरिदवाई थी .और मैं करता था तब - इनके मान का भूखा था न !

'पर उस सब को उनने अपना अधिकार समझ लिया .अब पोस्टिंग दूर हो गई तो नहीं जा पाता ,तब से बड़ी शिकायतें हैं. वे चाहती हैं और सबको छोड़ उन्हीं के हिसाब से चलूँ ,सौतेला- सौतेला याद दिलाती रहती थीं . पर अब मेरा भी तो कुछ  फ़़र्ज़ है .
असित को याद है- आते- जाते कुछ न कुछ लेकर ही उनके घर रुकता था ,बस एक बार एक हफ़्ते रहा था ,जब पिता का दूसरा ब्याह हुआ था .पर कहती फिरती हैं सौतेली माँ के मारे हफ़्तों हमारे पास पड़े रहते थे.

 तरु का मन ऊबने लगा है-पहले की विपन्नता और असहायता की याद दिला-दिला कर लोग अपनी कृपा से तरु को अवगत कराना चाहते हैं .
'ऊँह .क्या करना है मुझे.इन सबसे ! चार दिन बाद सब अपने-अपने घर होंगे .बस रश्मि की शादी अच्छी तरह निपट जाये, ' यही मना रही है तरल .
 'भाभी ,तुम्हें पता है ,ये लोग सगापन दिखा-दिखा कर ,फुसला-फुसला कर तुम्हारे बारे में टोहती रहती हैं .थोड़ी सी बुराई कर दूँ तो मगन हो जायेंगी .'
 'तो कर दो न .उनके मन की भी हो जाये .'
 'अरे, फिर एक की दस इधर -उधर लगायेंगी ,और बढ़ा-चढ़ा कर तुम्हारे कान भरेंगी .'

 रात को तरु ने असित से कहा था ,'सुनते हो ,मैंने तुम्हें बहका  लिया है .'
 'कहने दो उन्हें ,'उसे अपने में समेटते हुये कहा असित ने,'मुझे तुम्हारे सिवा और कोई नहीं चाहिये था .'

 इस स्पर्श के साथ एक और स्नेह भरा स्पर्श तरु के मन को छू जाता है ,जिसका आकर्षण कभी कम नहीं होगा , अपने मन में ही दोहराता है-'अब मुझे कुछ नहीं करना ' .यही तो असित ने कहा था ',तुम बहुत कर चुकीं ,अब मुझ पर छोड़ दो अब तुम्हें कुछ नहीं करना है .'
 हाँ, असित तुमसे मुझे दुखों ने जोड़ा है ,सुख के स्वप्नो ने नहीं .यह लेई इतनी कच्ची नहीं  कि जरा से ताप से खुल जाये .
एक आश्वस्ति जो अंत तक सम्हाले रहेगी !
निश्चिन्त पलकें मुँद जाती हैं .
***
25
मकान मालिक शुक्ला जी के घर से ज़ोर-ज़ोर से आवाजें आ रही हैं .
 'आज तो हड्डियाँ तोड़ के  रहूँगा ...ले हरामी ....'
 'हाय, हाय रे अब नहीं करेंगे. बाबूजी ...अब कभी नहीं ...'
 'नहीं समझेगा कभी तू .आज तुझे ठिकाने लगा कर रहूँगा .'और मार-पीट के साथ-साथ हाय-हाय की आवाजें .
 'हाय अम्माँ ,हाय बाबू ,हाय हाय रे मर गया ...'

 तरु और रश्मि बरामदे में निकल आई हैं .
 'कैसी बुरी तरह मार रहे हैं !'
 'वह है ही चार-सौ-बीस. भाभी ,यही है इनका तीसरे नंबर का लडका दन्नू !जब आते हैं दो-चार बार भूत उतार जाते हैं .पर वह भी एक ही बेशरम है .उधर वो गये इधर ये फिर चालू .

 चीख़-पुकार और मारने की आवाज़ें बराबर आ रही हैं .
 'ऐसे मारने से तो बच्चे और बिगड़ जाते हैं .'
 'बच्चा?बच्चा नहीं,अठारह -उन्नीस साल का साँड  है.उसकी शुरू से यही आदतें है .'
 रश्मि उसके किस्से सुनाने लगी -
छोटी बहिन गर्ल-गाइड्स में थी ,उसकी यूनिफार्म का नेवीब्लू दुपट्टा आया  .शाम को उसने तह लगा कर हैंगर पर टाँग दिया .सुबह पी.टी के लिया जल्दी पहुँचना था .वह तैयार होकर दुपट्टा उठाने आई तो देखा दुपट्टा हई नहीं .
 'काहे अम्माँ ,तुमने धर दौ का? हियाँ अरगनी पे टाँगो हतो '
 'हम काहे धरिहैं ?हुअँनई परौ हुइयै .'
 इधर उधर चारों तरफ ढूँढा.दुपट्टा कहीं नहीं .
 अरगनी की लहदी टटोली,गन्दे कपडों की गठरी ,सन्दूक,छान मारा ,गुसलखाने में भी नहीं .दुपट्टा कहीं हो तो मिले !
 'हमेसा देर हुइ जात हैगी .आज टाइम से तैयार हुइ गईं तो दुपट्टा सुसरो गायब .'
 वह हल्ला मचा रही थी .
अम्माँ भी ढूँढने में जुट गईं .
 दन्नू से बड़े मन्नू ताव खाते हुये बिस्तर से उठे ,'सम्हाल के धरो नाहीं जात है किसऊ से .जइये कहाँ? हियनई हुइयै .'
 उनने बिस्तरों को भी  उलट-पलट डाला .
दन्नू पड़े सोते रहे . किसी ने जगाया भी नहीं .
बहिन ने रोना शुरू कर दिया
 'नेक सो दुपट्टा है .कहूँ दबिगौ हुइयै ',मन्नू ने सांत्वना दी .
 गठरी फिर उल्टी गई,अरगनी की लहँदी बिखेरी गई ,बाहरवाला सन्दूक खखोला गया .दुपट्टा नहीं मिला .
 हार कर मन्नू नया लेने चले .
 मोहल्ले की दुकान पर नेवीब्लू दुपट्टा माँगते ही दुकानदार ने झट एक तह लगाया हुआ प्रेस किया दुपट्टा पकड़ा दिया ,' जहै तो लियो बाबूजी ,कल दन्नू बेच गये हते .'
 कह कर दुकानदार ने खीसें निपोर दीं .
 आश्चर्य से मुँह खुला रह गया मन्नू का ,'दन्नू बेच गये हते !'
 'हाँ!आय के कहन लगे-नओ दुपट्टा है ,एकौ बार ओढ़ो नाहीं गौ .अब जा कलर की जरूरत नाहीं है .'
 'साला चोट्टा ,औने-पौने दामन पे बेच गओ बहिनी को दुपट्टा .'दुकानदार से कुछ कहने से क्या फ़ायदा ,लाकर पटक दिया बहन के सामने .
 'हियाँ कहाँ मिलिहै दुपट्टा ?सामई को दन्नू बेच आये हते .'
 'दन्नू बेच आये हते ! 'माँ ने कपाल पीट लिया .फिर सोच कर बोलीं ,'पर बे तो साम ई से घर नाहीं हते .रात दस बजे आये और खाय के सोय गये .'
 दुपट्टा बेच के सनीमा देखन गओ हुइयै ,सुसरा. चोर कहूँ को ,नालायक .है कहाँ ?दन्नू ,अबे दन्नू ...'
दन्नू की ढूँढ पडी अभी-अभी तो सो रहे थे .जैसे ही सुना भाई दुपट्टा खरीदने जा रहे हैं चुपके से सरक लिये .
 'आउन देओ सुसरे को ..जइयै कहाँ ..'गुस्से में मन्नू चिल्ला रहे थे.
 'बहिनी को दुपट्टा भी नाहीं छोड़ो .कैसो हरामी पैदा भओ है .खून पियन के लै जनमो है राक्सस...'माँ बड़बड़ाती रहीं .
 रश्मि और तरु बातें करती चबूतरे पर निकल आई हैं .
 किताबें लादे पड़ोस की उमा ने आकर अपना दरवाजा भड़भड़ाया -उमा का घर आगे सामने की तरफ़ है .दरवाज़ा खुलते ही उमा उत्तेजित-सी अपनी माँ से कह उठी .'अम्माँ ,वह जो गुण्डा बस में लड़कियों को परेशान करता  था , जिसे पुलिस पकड़ ले गई थी ...'
 रश्मि और तरु चबूतरे के उस ओर के कोने पर पहुँच गईं .
 'उमा, किसे पकड़ ले गई पुलिस?'
 'एक गुण्डा था ,खूब छेड़ा करता था बस में लडकियों को,गंदी-गंदी बातें बकता था ,एक दिन एक लड़की की चुन्नी खींच ली . अगले दिन वह अपने भाई को बुला लाई ,तो गुण्डे  ने उसके छुरा भोंक दिया .तब पुलिस पकड़ ले गई थी .'
 'अच्छा !'
 'आज फिर वह बस स्टैंड पर खड़ा था .सबको धमका रहा था कि एक-एक को देख लेगा .'
 उमा के पिता बाहर निकल आये थे .
 'छोड़ दिया होगा कुछ ले लिवा कर .या किसी नेता का पालतू रहा होगा उसी ने छुड़वा लिया होगा .उमा, तुम किसी के बीच में मत पड़ना .अब तुम रिक्शे में जाया करो .'
 'पर बाऊजी ,वो लोग जो बस से जाती हैं वे कहती हैं- हम रोज रोज तीन- तीन रुपये रिक्शे के लिये कहाँ से देंगे ?"
 'उँह ,तुम्हें उनसे क्या करना ?तुम अपनी देखो .'
 उमा चेहरा तमतमा रहा था .
***
"कैसा अभागा शहर है.कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब कोई हत्या ,अपहरण.बलात्कार या दुर्घटना न होती हो ! लोगों की इतनी हिम्मत कैसे पड़ती है !"
 तरु ने अखबार पढ़ कर मेज़ पर रख दिया .
 "पैसा ,पद ,प्रभाव ,तीनों की मिली भगत है ," विपिन बताने लगा,"ये ठेकेदार ,एम.एल .ए .और थानेदार तीनों मिले हुये हैं ,बुआ जी .
डे़ढ़-ढाई लाख का ऐशगाह बनवाया है उसने .उसकी निगाह गाँव से आई एक मज़दूरनी पर थी .पहले लालच देता रहा ,जब नहीं मानी तो राम सरूप ने अपने गुण्डों से उड़वा लिया .उसका आदमी रिपोर्ट लिखाने गया तो थानेदार ने लिखी नहीं ,उसे धमका कर भगा दिया .उल्टे औरत पर तोहमत लगा दी -किसी से फँसी होगी ,भाग गई हम क्या करें ?'
"हमारे ही गाँव की बात हमसे छिपेगी भला ! उसका आदमी रोता हुआ गाँव गया .वहाँ के पुराने जमीदार बड़े सज्जन आदमी हैं.उनकी बिटिया यहीं ब्याही है ,कभी आपसे मिलायेंगे ,बुआ जी .अब तो पूरा गाँव इनके खिलाफ़ है़.और हमारे पास तो पक्के सबूत हैं ,एक नहीं तीनों के खिलाफ़ ."
 विपिन की बात तरु बड़ी रुचि से सुन रही है .
 "थानेदार तो खुद साला चोर है .उसके एरिया में चोरी- रहजनी होती है ,उसका हिस्सा उसके घर पहुँच जाता है .गुण्डों को राजनीति में संरक्षण मिला है .कोई किस्सा उभरता भी है तो ऊपर  का ऊपर दबा दिया जाता है .ग़रीब आदमी बिचारा साधनहीन ,उसे डरा-धमका कर चुप कर देते हैं ये लोग .ज्यादा गड़बड़ की तो मार दिया जान से ..बस इनका रास्ता साफ़.अबकी  तो हमने सोच लिया है  अपने गाँव की मदद करनी है. "
 "तुम अकेले क्या-क्या कर लोगे विपिन ?"
 "अकेले कहाँ?बुआजी .पूरा गाँव साथ है .सब गवाही देंगे .ऐसे तो जब वो लोग हल्ला मचाते हैं ,ये भ्रष्ट लोग झूठी वारदातों मे उसे फँसा देते हैं .बिचारे की जिन्दगी चौपट कर देते हैं .तबाही मचा रक्खी है .चुनिया की बात को अब दबाया नहीं जा सकता .चुनिया नाम है उसी औरत का .पता नहीं जिन्दा है या मार डाला इन राक्षसों ने ."
 "तो इतने दिन तुम यही सब करते रहे .वही मैं कहूँ कि विपिन आजकल है कहाँ !लवलीन से पूछा उसे भी पूरी बात नहीं मालूम ."
 "पूरी बात कैसे बतायें उसे ?वह डरती है .कहती है तुम्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूँगी ? मायकेवाले तो वैसे ही खफ़ा हैं.पर हम डर कर कैसे बैठ जायें ?"
 "तुम उसे हमारे यहाँ भेज दिया करो .अकेली परेशान होती होगी ."
 "बुआ जी कोई एक दिन थोड़े ही है ,यहाँ तो ज़िन्दगी ऐसे ही बीतनी है .वैसे सब बता भी दें पर आजकल उसकी तबीयत ऐसी ही चल रही है ..उससे कह दूँगा आपके पास चली जाया करे ."
*
 अख़बारों में चुनिया अपहरण काण्ड ज़ोरों पर है .
कितने बड़े-बड़े लोग इन्वाल्व्ड हैं .निशान्त की बिक्री बढ़ गई है .
हर जगह वही चर्चायें .विपिन का नाम बार-बार सामने आता है .उसके पास टेप मौजूद है .
इधऱ चुनिया की लाश मिल गई है .एम.एल.ए.ठेकेदार और थानेदार बुरी तरह फँस गये हैं .
 तरु को आज कल बिल्कुल चैन नहीं पड़ता .लवलीन को दिन चढ़े हैं .ऊपर से आये दिन विपिन को मिलने वाली धमकियों से वह उद्विग्न रहती है .विपिन किसी की नहीं सुनता .वह तुल गया है .
तरु समझाती है तो कहता है  ,"बुआ जी , आप ही तो बताती थीं कि पत्रकार का कर्तव्य क्या है .अब पीछे हटने को मत कहिये .'
 हफ़्ते भर बाद फिर आया विपिन .
 "देखा बुआ जी ,ये चिट्ठी आई है .कैसे धमकाते हैं .लिखते हैं हमारे बीच में मत पड़ो वरना अंजाम बहुत बुरा होगा ."
 ले कर पढ़ा तरु ने .और भी बहुत कुछ लिखा है चिट्ठी में .
 "ये तो लिख कर भेजा है .कहलवा भी चुके हैं कई बार .पूछते हैं कितना पैसा चाहते हो ?खरीदना चाहते हैं हमें, .पढ़ा ?बुआ जी ,हम पर पीत- पत्रकारिता का आरोप लगा रहे हैं ,और साले खुद क्या हैं ?वो हमारी बहन के नौकर की लड़की है .हम नहीं छोड़ेंगे .हम कई बार उससे पहले भी मिल चुके हैं .हमसे भइया जी ,भइया जी कहती थी .बड़ी नेक लड़की थी बुआ जी .अभी उमर भी अठारह -उन्नीस की ही थी ."
 असित कहते हैं , 'विपिन को समझाओ .यह सब ठीक नहीं वह अकेला पूरी व्यवस्था से कैसे जूझेगा ?हर कदम पर उसकी जान को ख़तरा है '.
 पर विपिन नहीं मानता .अख़बार में फिर उन तीनों के कच्चे-चिट्ठे खोले गये .मशहूर गुण्डों-बदमाशों के नाम और उनकी करतूतें प्रकाशित की गईं .
विपिन को जो पत्र लिखे गये थे वे भी छपाकर सार्वजनिक किये गये ,उनकी दी  गई धमकियों से अवगत कराया गया .
सब का श्रेय विपिन को .
  लवलीन रोई-धोई ,तरु फिर विपिन के घर पहुँची ,होनेवाले बच्चे की दुहाई दी.असित ने लाख समझाया .विपिन पर कोईअसर नहीं पड़ता .वह थानेदार को भी नहीं बख्शता .तीनों की करतूतें सामने आ रही हैं .चारों ओर थुड़ी-थुड़ी हो रही है .
 सम्पादक ने कई बार इशारा किया -यह क्या कर रहे हो ?इन लोगों से भिड़ने से पहले अच्छी तरह सोच लो .हर तरह का ख़तरा हो सकता है .
 पर विपिन पर एक नशा-सा सवार है ,जैसे जुनून सवार हो गया है उसे .
 बस एक ही बात दोहराता है ,"अब पाँव पीछे नहीं देना है.सारी दुनिया जान ले विपिन बिकनेवाला नहीं है अब पीछे लौटना नहीं है ,सोचना नहीं है .अब बस करना है ,कर डालना है .."
 ठेकेदार थानेदार एम.एल.ए. तीनों अपने-अपने ढंग से उसे साधने की कोशिश कर रहे हैं .
 विपिन किसी तरह काबू में नहीं आ रहा .
वह हँसता है,"ये लोग कहाँ किसी से दबते हैं .अपने खिलाफ़ तथ्य सिद्ध होने पर कहीं के नहीं रहेंगे इसलिये दबते हैं .अब तक लालच दे रहे थे ,खुशामद कर रहे थे अब धमकी पर उतर आये हैं .पर हमने जो काम हाथ लिया है उसे अधूरा नहीं छोड़ना है .आप डरिये मत बुआ जी ,लिली को  भी समझा दीजिये.हम सब से निपट लेंगे .तब आप कहेंगी - ऐसे होते हैं पत्रकार !"
 तरु को लग रहा है उसकी फेंकी  चिन्गारी सुलग उठी है ,अब अंगारों को धूल डाल कर बुझाने की लाख कोशिश करे , कुछ नहीं होने वाला .
***
*
27.

 बहुत सी रहस्यमय अनुभूतियां ,विभोर करती ध्वनियाँ ,कोमल रंग,सुकुमार अनुभव और अनेक सुहानी महकें ,जो बचपन में हमें मिले हैं अगली पीढियों को नहीं मिलेंगे ,क्योंकि दुनिया अब बहुत बदल गई है .
 अनेकानेक अनाम पंछियों का संयुक्त कलरव ,जिनमें कुछ ध्वनियों का अपना अस्तित्व होता था ,अब सुनने को नहीं मिलता .
तब लगता था दुनिया में अनेक प्रकार के प्राणी निवास करते हैं,वनस्पतियों के निराले संसार मे आश्चर्यजनक विविधता थी .हर मौसमकी अपनी गंध,अपना स्पर्श,अपने रूप ,रस और ध्वनियाँ थीं.अब वह सब नहीं लगता ..सब तरफ आदमी ही आदमी दिखाई देते हैं या सड़कें और मकान .चाँदनी तो आज के जीवन से ही गुम गई, ,उसकी जगह बिजली की कृत्रिम रोशनी ने ले ली है .
रात्रियों के नित नये रूप कहीं खो गये हैं .चाँद-तारों का अनोखा संसार आँखों से ओझल रह जाता है.
 पीछे के बाड़े में  करौंदों के झुण्ड से उठती एक लम्बी संगीत की तान-सी आवाज जिस पक्षी की थी तरु उसे देखते ही पहचान लेती थी
 स्वर्ण चंपा पर लगातार ' ठाकुर जी,ठाकुर जी' रटनेवाली चिडिया की झलक भर मिलती थी और सघन वृक्षों के पत्तों से आती क्रीं-क्रीं,चीङ्-चीङ् ,,ट्यू-ट्यू और बहुत सी कर्ण-मधुर ध्वनियाँ वातावरण में अवर्णनीय माधुर्य भर जाती थीं .पता नहीं किस पक्षी की आवाज ,जैसे कोई घडा भर -भर कर उँडेल रहा हो .गिलहरीका  दोंनो पाँवों पर  बैठ कर हाथों में कोई छोटा सा फल पकडे,दाँतों से चिट्-चिट् करती खा रही होती और तरु की आहट पाते ही भाग जाती ,जैसे तरु उसका फल छीनने आई हो .
भोर से साँझ डूबे तक प्रकृति की संगीतमय ध्वनियां!सारा परिवेश जीवन्त सा प्रतीत होता था .
 अब वह सब कुछ नहीं है .सडकों पर दौड़ते वाहनों का प्रतिदिन बढ़ता अनवरत शोर,हर घर में गूँजते रेडियो के वही-वही फिल्मी गीत ,कान फोड़ू लाउडस्पीकर या चक्कियों और मशीनों की अविराम एकरस आवाज़ !आरती की बेलामें मन्दिर की घंटियों की प्रिय ध्वनि अब सुबह-शाम कानों में नहीं पडतीं .प्रसाद तो शायद अब कोई बाँटता ही नहीं
.रास्ते के आस-पास तक छाया फैलाये घने वृक्षों की सघन-श्याम आकृतियां  ,परछाइयों की रोमांचित करती अनुभूति,बादल और आकाश के रंग,अब जीवन से दूर हो गये हैं .
.सारे रहस्य खुल जाने के बाद कौतूहल ,माधुर्य,चाव, रोमाँच सब खत्म हो गये .अब जीवन एक सीधी सपाट कोलतार की सडक पर अविराम दौड़ है .
 शाम होते-होते आकाश में काफ़ी नीचे तक धुआँ-सा घिर आता है जिसमे बिजली की रोशनी धुन्ध के बीच तीर से चलाती है .बचपन सब कुछ बडी सहजता से स्वीकार लेता था पर अब हर जगह एक प्रश्न-चिह्न खडा हो जाता है .सारे संबंध अपना अर्थ खोते जा रहे हैं .हर जगह रिक्तता और तिक्तता भरती जा रही है .

 कभी-कभी बड़ी भयंकर ऊब लगने लगती है तरु को.
ऐसी मनस्थिति से मुक्ति पाने के लिये सुहास चन्द्रा ने मायके हो आने का सुझाव दिया था -थोडा चेन्ज हो जायेगा और फिर मन हल्का हो उठेगा .
 मायका ?माँ-बाप ही नहीं तो मायका कैसा ?भाग्यशालियों को नसीब होता है मायका !
 मेरे लिये ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ कुछ दिन मुक्त मन से चिन्ताहीन होकर बिताये जा सकें .अब तो अदले-बदले वाले रिश्ते हैं .मनों में कहीं गुञ्जायश नहीं .जितना वह करेगी उसके हिसाब से बदला चुका दिया जायेगा ,या संभव है उससे लोगों को शिकायत ही रह जाय !
 शन्नो की एक बात तरु के मनमे बडी गहरी चुभी है -'गौतम मेरे कहने पर तुझे बुलाता है ,बता कर शन्नो ने यह भी जोडा था ,'वह मेरे बच्चों को इतना चाहता है,मुझे इतना मानता है ,तू बीच में अडंगा डालने आ जाती है

 गौतमकी पत्नी के साथ हुये अनुभव,जो कभी सुखद नहीं रहे मन को और खिन्न कर देते हैं .गौतम के औपचारिक बुलावे आते हैं पर तरु जाना हमेशा टाल देती है .कितने वर्ष बीत गये ,किसी शादी ब्याह में चलती-फिरती मुलाकात हो जाये तो हो जाये .बस.
 और संजू के घर का हाल ! इस हाथ दे उस हाथ से लेने की इच्छा करे .पर लेने की इच्छा न हो तो इस बेकार के हिसाब -किताब को चलाये रखने की जरूरत ही क्या है ?और जहाँ जा कर सिर्फ परायापन लगे वहाँ जाने से क्या फ़ायदा ? कुछ दिन भी काटने मुश्किल हो जाते हैं .
  इन हिसाबी संबंधों से मन ऊब गया है .
ऐसी कोई जगह नहीं इस दुनिया में -जहाँ इस भागम-भाग से कुछ समय को निवृत्ति मिल सके ?इस रोज-रोज के क्रम से कहीं कुछ अल्प-विराम मिल सकता है क्या ?असित और चंचल ,बाजार और घर ,बाहर और भीतर और इन सबके बीच चक्कर खाती तरल !
 "अरे मौज से रहो ,तुम्हें परेशानी क्या है " असित कहते हैं ,फिर जोड़ देते हैं ,"मुझ लगता है तुम्हें आराम से रहने से  एलर्जी है ."
 सही कहते हैं वे !
तरु सोचती है ,कोई कुछ नहीं कर सकता .ये तो मेरी अपनी बनाई नियति है !

बने -बनाये खाँचों मे अगर कोई फिट न हो पाये तो बेचारे असित क्या करें ?

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27.

 ' बुआजी आज का पेपर पढा ?"
अभी कहाँ पढ़ पाया विपिन .कोई खास बात ?"
 विपिन के पाँव जमीन पर नहीं पड रहे हैं .
 "अब सब सालों की समझ मे आ जायेगा कि हराम के पैसों से खरीद लें ,ऐसा सस्ता नहीं है विपिन !"
"वो जो ठेकेदार था न,जिसने ढाई साल में अपना महल खडा कर लिया और पुल में ऐसा मेटीरिल लगाया कि पन्द्रह लोगों की बलि लेकर छः महीनों में बैठ गया ,उसकी पोल खोली है हमने .उसकी राम स्वरूप से मिली-भगत है ,वही एम,एल. ए., ,उसने फिर से एक ठेका दिला दिया .पर अब हम प़ड गये हैं पीछे .हमें भी दाना डालने की कोशिश की थी पर हम नहीं आये उसके फन्दे में ."
तरु की आँखें चमक उठीं ,"अरे सच !इतना बडा कदम उठा लिया तुमने विपिन !कहाँ है अखवार देना ज़रा ."
 पढ़-प़ढ कर तरु की बाँछें खिली जा रही हैं ,विपिन की छाती फूल उठी .
पर तरु विचार मग्न हो गई .
 "विपिन, बडा ख़तरा मोल ले लिया तुमने .अब हर समय तुम्हें सावधान रहना पड़ेगा .मुझे तो बडी चिन्ता हो रही है ."
 "आप क्यों डरती हैं ? खुश होइये .हम सच बात सामने ला रहे हैं .फिर झिझक काहे की ?इन्हे तो यों चुटकी में उड़ा देंगे ."उसने चुटकी बजाई ,"जन-मत खिलाफ़ हो जाये तो ये साले कहीं के नहीं रहेंगे .और यहाँ क्या धरा है हमारे पास?/रोज कमाना ,रोज खाना ,कोई लेगा तो क्या लेगा ?"
 तरु को चुप दख वह फिर बोलने लगा ,"सम्पादक सुसरे की पहले तो हिम्मत नहीं पड़ रही थी छापने की .हमने सीना तान कर कहा-बेशक हमारा नाम दे दो .जब प्रमाण मौजूद हैं तो पीछे हटने से क्या मतलब ?"वो बोला -जुम्मेदारी तुम्हारी है ,विपिन बाबू . हमने कहा -लाओ हम अपने हाथ से लिख दें अपना नाम .--यह तो पहला कदम है ,बुआ जी .अभी  आगे-आगे देखिये .अभी एम.एल ए. के यहाँ से बुलावा आयेगा .हम भी कम नहीं हैं ..सब टेप कर लेंगे .हाथ में सुबूत होगा फिर दबना किससे ?"
 "आज यहीं खाना खाकर जाना विपिन ,अपने फूफा की भी सलाह ले लो ."
 "अरे ,आप नाहक घबरा रही हैं .पीछे हटने के लिये कदम नहीं बढाता ,अपने विपिन को इतना कच्चा मत समझिये .आप तो बस आशीर्वाद दीजिये कि सत्य पर डटा रह सकूँ ."
 विपिन ने झुक कर उसके पाँव छू लिये ,उसके सिर पर हाथ रखते तरु का मन जाने क्यों कच्चा हो आया ,अन्दर  कुछ वेग से उमडा और गले में आ कर अटक गया .
  उसे चलने को तैयार देख तरु ने कहा "अभी बैठो विपिन ." कुछ और कहना चाहती थी पर क्या कहे कुछ निश्चय नहीं कर पाई .
 "नहीं ,बुआ जी .लिली अकेली होगी आजकल उसे जाने क्या हो गया है .मुझे देर हो जाती है तो घबराने लगती है .और हम ठहरे पत्रकार ,देर- सवेर तो होता ही रहता है .--अच्छा ,अब चलने दीजिये .
 विपिन जा रहा है .पीछे-पीछे निकल आई है वह .दरवाजे पर खड़ी विपिन को  निहार रही है .
 इसी विपिन ने एक बार कहा था ,"एक बार उछाल दो किसी को ,फिर देखो हमेशा को दबा रहेगा .हमेशा डरेगा कि कोई ऐसी-वैसी बात साथ न जुड़ जाय .--इन लोगों की पोल तो हमें मालूम है.जब चाहें एक खबर छाप दें और इनका डब्बा गोल ."
 "वे भी तो अपना स्पष्टीकरण देते होंगे ?"
 'छपने ही कौन देता है उनका ?और उस पेपर में  तोछप नहीं सकता ."
 "और जनता ?"
 "जनता की खूब कही आपने ! अरे ,जनता क्या समझे .उसने तो जो पढ़ लिया सो ठीक .किसी के बुरे प्वाइन्ट्स लोगों के गले जल्दी उतरते हैं,बुआ जी.  और आस-पास के दो-चार लोगों ने असलियत जान भी ली तो उससे फ़रक नहीं पड़ता .कभी तो  लोग कहने लगते हैं-बडा साफ़-सुथरा बनता था अब खुली असलियत !बुराई पर विश्वास जल्दी जमता है लोगों का .स्पष्टीकरण दिया भी जाये तो वह लीपा-पोती समझा जाता है ..."
हाथ हिलाता घूम कर चल पड़ा  वह.

जनतंत्र का सच्चा चित्र खींच देता है विपिन !

पीछे-पीछे  दरवाज़े तक आई हुई तरल ,सोच में डूबी  उसे जाते  देखती  खड़ी रह गई.

*
(क्रमशः)