शनिवार, 24 मार्च 2012

कृष्ण-सखी - 29 .& 30.


**29.
नहीं टल सका युद्ध !
पाँच ग्राम भी देने को तैयार नहीं हुये वे .'युद्ध अवश्यंभावी है ' -आभास था. पर अब स्थिति सामने है. हो गई तैयारियाँ
युद्ध चल रहा है .एक और अविराम युद्ध सबके मनो में .भय? नहीं ,केवल भय नहीं .एक अशान्ति ,अनिश्चितता ,द्विधा और ऐसा कुछ जो स्थिर नहीं रहने देता ,चैन नहीं लेने देता पल भर भी.
अपनों को इस अनिश्चितता की लपटों में झोंक देने का दुख !कौन रहेगा कौन हट जायेगा यह भी ज्ञात नहीं कितना कुछ खो जायेगा ,.ये सारे चेहरे ,सारे नाम ,सारे व्यवहार पता नहीं कितने होंगे कितने नहीं होंगे कहीं नहीं होंगे .क्या होगी उपलब्धि ?क्या मिलेगा राज्य से ?और क्या शेष रहेगा जिस पर नये ठाठ ठनेंगे ?
कौरवों के सेनानायक -भीष्म पितामह .पूरी आक्रात्मकता से विपक्ष के विरुद्ध डटे हैं  गये ,भयानक संहार शुरू हो गया .दोनो पक्ष हताहत हो रहे हैं ,कभी-कोई कम तो कभी अधिक हर दिन एक नया आघात !
बलिष्ठ भुजाओं में वेग भी कम नहीं .पर रण खिंचा चला जा रहा है . अंतर्मन और बहिर्मन के द्विधात्मक प्रत्ययों के बीच तन की स्थिति विषमता कोई नहीं समझ पाता  .लक्ष्य तक पहुँच कर भी प्राप्ति बाधित रह जाती है . दिन बीतते जा रहे हैं  निर्णायक क्षण पता नहीं कब आयेगा !
हर मन में आशंका .पता नहीं कब क्या घट जाये .बस ,एक दूसरे का सहारा !
सब देखे-जाने लोग .एक दूसरे से संबंधित .पक्ष का कोई हत हो या विपक्ष का ,अंतर उद्वेलित हो उठता है .
हर दिन एक नया आरंभ हर संध्या किसी नये विनाश की , निकट संबंधियों के घात की कथा सुनाती निकल जाती है .
*
उस शाम अचानक कृष्ण आये .आते ही बोले ,'सखी मेरे साथ चलों.'
युधिष्ठिर एकदम पूछ बैठे ,'इस बेला ?कोई विशेष कार्य ?'
'बड़े भैया ,यह युद्ध क्षेत्र है, हर बात बताई नहीं जाती ..'
' नहीं, बताना आवश्यक नहीं ,तुम हो न ! शंका काहे की .मैंने तो केवल कौतूहल वश.....'
पूरी बात नहीं सुनी ,कृष्णा की ओर मुड़ कर बोले ,'बहुत शीघ्रता से . बस अपने को वस्त्र से आवृत्त कर लो और चलो .'
याज्ञसेनी ने झटपट पेटिका से स्वर्ण-खचित आच्छादन निकाला और ओढ़ती हुई द्वार के समीप रखे पद-त्राण की ओर चली .
कृष्ण कुछ कहने को हुये पर तब तक वह पहन चुकी थी .
'अच्छा बड़े भैया ,अभी आते है अधिक से अधिक दो घड़ी .'
वे बाहर निकल गये .
पांचाली चुपचाप साथ चली आ रही है .
निकलते-निकलते कृष्ण ने कहा,'आगे युद्ध-क्षेत्र है.मुख पर भी आवरण डाल लो.कोई पहचान ले तो ,अच्छा नहीं लगेगा .और लौटने तक ऐसे ही रहना .'
अवगुंठन डाल लिया पांचाली ने ,'बात क्या है ,यह तो बताओ ..'
'चलती जाओ, सब बता दूँगा ,'
युद्ध-क्षेत्र के किनारे से होते हुये वे  जिस शिविर में पहुँचे.पर्याप्त स्थान समेटे सज्जा-सुविधाओँ से युक्त किसी राज-पुरुष का शिविर लग रहा था. .
द्रौपदी उत्सुक हो उठी ,'किसका शिविर है , हम यहाँ क्यों आये हैं ?'
'आशीर्वाद हेतु पितामह के समीप जा रही हो,पदत्राण बाहर ही ,इधर ,' कृष्ण ने द्वार-पट की ओर इंगित किया .
शिविर के किनारे आड़ में एक ओर उतार दिये पाँचाली ने, फिर बोली,'उधर क्यों खड़े हो ,चलो न !'
' नहीं, मैं यहीं बाहर प्रतीक्षा कर रहा हूँ .तुम जाओ अंदर .द्वारपाल को सँदेशा दो ... .और सुनो , उसे अपना नाम मत बताना .'
आश्चर्य से देख रही है पांचाली .
'राज- महिषियों के नाम और पहचान परिचारकों को नहीं बताई जाती .राज-कुल की मर्यादा है.'
*
शिविर में दिन भर के युद्धोपरांत की विश्रान्ति छायी थी
पितामह काष्ठ-चौकी पर विचारों में मग्न ध्यानलीन-से बैठे थे .
दुर्योधन उनसे कितना असंतुष्ट है वे समझ रहे थे.मन में ऊहापोह चल रहा था -
जब से युद्ध प्रारंभ हुआ है उसे लगता है मैं मन से उसका साथ नहीं दे रहा .वह समझता है मैं चाहता तो यह असंभव था कि उन पाँचों में से कोई हत नहीं होता और. मैं जानबूझ कर उन पाँचो को बचा रहा हूँ .उसे लगता है उन्हें मारने का हर अवसर जानबूझ कर गँवा देता हूँ .
उधऱ दुर्योधन क्षुब्ध .भीष्म पितामह को सेनापति बना कर भी इतने दिन हो गये उसका उद्देश्य पूरा होने के आसार नहीं.उनके प्रहार से पांडवों का बाल भी बाँका नहीं हुआ  और भीम और घटोत्कच ने उसके सत्रह भाइयों का संहार कर दिया.पितामह आखिर चाहते क्या हैं ?
उसे लग रहा था वे हमारे सेनापति बन कर भी उनका पक्ष ले रहे हैं .उनके तर्कों ,कारणों, आश्वासनों का कोई प्रभाव उस पर नहीं होता.
उसके मनोभाव समझ रहे हैं भीष्म !
दुर्योधन उद्धत है अधीरता उसके स्वभाव में है.वाणी पर संयम नहीं रखता ,ऐसी बात कहता है जो दूसरे को चुभ जाये.
उन्होंने पूछ ही लिया .'तुम मुझ पर शंका कर रहे हो , पुत्र ?'
'शंका ?मैं समझ नहीं पा रहा हूँ पितामह .हमने आप पर विश्वास किया है .आप इतने असमर्थ नहीं कि इन सात दिनों में उनका कुछ न बिगाड़ सकें .आप चाहें तो एक दिन में वारे-न्यारे हो जायँ .तात,मैं क्या कहूँ आप हमारे सेनापति हैं लेकिन ..'
'लेकिन ?..ऐसा आक्षेप मत करो .मैंने सदा तुम्हारा साथ दिया है, युवराज ,मेरी कुछ विवशतायें हैं .पर मैं उन्हें बचा नहीं रहा हूँ .तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ ..?
कुछ रुके भीष्म,'
स्थिति बड़ी विषम ,युद्ध का गणित दुरूह होता जा रहा था .
बस पहले ही दिन ,अभी तक एक ही दिन ऐसा हुआ कि  विपक्ष के चुने हुये योद्धा विराट् के कुमार उत्तर और श्वेत खेत रहे थे.
पर बाद में पांडवों की ओर से घटोत्कच साक्षात् काल बन कर प्रतिपक्षी सेना पर टूटा था .भीम तो थे ही .भैरव रूप धरे उतर पड़े संग्राम- भूमि में .कौरवों की सेना में हाहा-कार मचा था .कोई गिनती नहीं कितने योद्धा हत हुये.नित्य-प्रति संध्यायें जब जीवित और मृतों की गणना करती हैं तो कौरव पक्ष ही हानि में रहता है ..आाठवें दिन तक धृतराष्ट्र के सत्रह पुत्र मारे जाते हैं .
' जो हो रहा है वह सामने हो रहा है .कहने से कुछ नहीं होता तात,यदि कुछ कर सकते हों तो कर दिखाइये. जब हमारे लोग ही नहीं रहेंगे तो कुछ हुआ भी तो क्या लाभ..?''
परोक्ष आरोपों का क्या उत्तर दें  भीष्म ?कैसे विश्वास दिलायें दुर्योधन को !
'अच्छा कल देखना मेरा शर-संधान .तुम्हारा संदेह एक चुनौती है मेरे लिये .कल का दिन और फिर तो उनमें से एक भी नहीं बचेगा .पाँच शर आज ही उनके नाम से अलग रख रख देता हूँ .लो,तुम्हारे सामने ही,'
पितामह उठे .चलकर गये जहाँ तूणीर टँगा था .
कुछ देर देख कर छाँटते रहे .पाँच तीक्ष्ण बाण अलग कर लिये .
'ये देखो , ये हैं पाँच ! एक एक के नाम का अलग -अलग.
कल अर्ध-रात्रि में अभिमंत्रित करना रहेगा ,बस. और फिर तुम देख लेना .देखना कौन बचता है इन रुद्र-शरों से . इन से वे बच नहीं सकेंगे . उनका अंत निश्चित है '
मन ही मन की प्रसन्न हो उठा था पर मुद्रा गंभीर ही रखी,बोला ,' देखिये .आ रहा है कल का दिन और उसका अगला दिन भी .'
'अपनी पत्नी को भेज देना ,मेरे समीप,अमोघ आशीष के लिये !'
*
30
हर्ष से फूला नहीं समा रहा दुर्योधन .
अब नहीं बच सकते पांडव . जीत निश्चित है .बस दो दिन और .
पितामह ने कहा था ,'अपनी पत्नी को मेरे पास भेज देना .उसे अमोघ आशीर्वाद दूँगा .'
ऊंह ,अब क्या दो दिन हैं  बस !
शिविर में अपनी मंडली को आमंत्रित कर विजय का उत्सव मनाने लगा .
सारी रात मदिरा के चषक ,एक से एक बढ़ कर पाँडवों की हँसी उड़ाते वाक्य और रह-रह कर गूँजते ठहाके.
नशे में धुत उसके अव्यवस्थित शब्द ,' कल ही - जा कर ..कह दूँगा भानुमती से ..चली जाये ..अकेली पितामह के पास ..अखंड सौभाग्य का आशीष लेने ....'
जिसके जो मुँह आये बोल रहा था .हँसी के फव्वारे छूट रहे थे
शकुनि ने कहा था ,'अरे भांजे,कुछ बाद के लिये भी छोड़ दो ,मुँह दुख गया हँसते-हँसते .'
कर्ण कुछ सोच-मग्न, ' मित्र , थोड़ा संयम बरत लो .समय से पहले किसी को सूचना न हो कभी-कभी बात बनते-बनते ..'
बीच में टोकता दुर्योधन बोला ,' अब कोई क्या कर लेगा .पितामह के बचन हैं .उनके नाम के पाँच तीर ..'
और वह फिर ठठा कर हँसने लगा .
दुश्शासन ने समझाया 'समझ लो वे पाँचो मृत शरीर पितामह के कक्ष में पड़े हैं .अब वहाँ बचा ही क्या '
सारी रात धूम मची रही .
युद्ध-क्षेत्र के उस शिविर से उस रात वाद्य-यंत्रों और घुँघरुओं के स्वर छन-छन कर बाहर आते रहे . मदिरा में मत्त आधे-अधूरे वाक्यांश शिविर के बाहर तक सुने गये.
सम्मिलित हास्य की फुहारें , विश्रान्त सैनिकों की निद्रा-लीन स्तब्धता को आन्दोलित करती रहीं
 ऐसी बातें कहीं छिपती हैं भला !
*
सेवक ने आकर निवेदन किया - कोई कुल-नारी आई है आपे मिलना चाहती है .
'कौन ?इस असमय? इस क्षेत्र में ?'
'अवगुंठिता हैं ,राजपरिवार की प्रतीत होती हैं ?
पितामह ने संकेत किया आने दो .
कौन हो सकती है?
सुभूषिता नारी ने प्रवेश किया
वे समझ नहीं पाये .
विचार में पड़ गये कौन होगी ? वस्त्राभरणों से सौभाग्यवती प्रतीत होती है .
याद आ गया .ओह ,कितना भूलने लगा हूँ मैं .कल ही तो दुर्योधन से कहा था ,'अपनी पत्नी को मेरे पास भेज देना .
हाँ भानुमती . .वही होगी !
बहुत व्यथित थे .सेनापति बना कर भी दुर्योधन उनका विश्वास नहीं करता .
अवश्य,आशीष लेने भानुमती आई होगी .कहा था मैंने आज का मेरा आशीर्वाद अमोघ होगा.  अपनी पत्नी को अखंड सौभाग्य ग्रहण करने के लिये मेरे पास भेज देना .
इस अंधकार की बेला ,वही आई होगी .कैसा भुलक्कड़ हो गया हूँ मैं .पर अब याद आ गया था उन्हें.
अवगुंठिता नारी पितामह के चरणों की ओर बढ़ी. .
. अनायास उनके मुख से निस्सृत हुआ ',कुल-वधू तुम्हारा मनोरथ सफल हो!'
नारी शीष नत किये है ..पितामह सँभल कर बैठ गये .अंतर सदय हो आया .
वह समीप आई ,झुककर उनके चरण-स्पर्श किये .
वाणी में स्नेह छलक उठा ,'अखंड सौभाग्यवती हो .''अखंड सौभाग्यवती भव !'
नारी ने धीमे से शीष उठाया उस की वाणी फूटी -
'आश्वस्त हुई पितामह !
'' कैसी विडंबना है एक .ओर पतियों के संहार का व्रत दूसरी ओर पत्नी को अखंड सौभाग्य का आशीष . क्या सच मानू क्या नहीं ?'
वे चौंक गये 'अरे, पांचाली तुम ? '
'हाँ ,तात कैसी-कैसी असंभावित स्थितियाँ जुड़ी हैं मेरे साथ ! किसका विश्वास करूँ ,आप परिवार के सर्वाधिक वयोवृद्ध !आपके आशीष को वरदान मानती हूँ ...पर मन में कैसी- शंकायें... मेरे अपने ही जब..' कहते-कहते कंठावरोध हो आया .
किंकर्व्यविमूढ़ से पितामह . क्या बोलें !
'.न जाने क्यों इस परिवार के लिये मैं पराई ही रही .मेरे मान्यजन भी, जब जब मुझे सहारे की आवश्यकता हुई, मुँह फेर गये . ,मेरा साथ किसी ने न दिया .पूज्यवर, आप भी तटस्थ हो गये ,.मैं कुल-वधू हो कर भी....कितनी गई-बीती ...'
आगे सुन नहीं सके हो उठे पितामह ,' ..बस, अब कुछ मत कहो आगे '.
कुछ क्षणों में प्रतिस्थ हो बोले ,'पुत्री,अवगुंठन हटा दो,अब कोई आवश्यकता नहीं उसकी .'
आत्मलीन से हो गये थे ',प्रभु की इच्छा पूरी हो ! '
'जो हुआ ,आपको उसकी अपेक्षा नहीं थी, तात ?क्या मैं ...'
'मैं क्या कहूँ ..जो होना था , हो कर रहा .भ्रम में मैं ही था .मुक्त केश- राशि वस्त्राच्छादित भी पूरा आभास दे रही थी .नीलकमल की सुगंध कक्ष में व्याप्त हुई तब भी मैं बूझ न पाया .नियति अपना खेल ,खेल कर रही .याज्ञसेनी ,तुम्हारा व्यक्तित्व भला पट में छिप सकता है !तुम्हें पहचाना नहीं कैसी आत्मविस्मृति छा गई थी मुझ पर !.'
.' आप पूज्य हैं मेरे, कुछ अनुचित हो गया हो तो परिष्कार कर लीजिये ,मैं अब तक कृपा-पात्री न हो सकी आगे भी ...'
भीष्म के मन में जाने- कौन-कौन सी स्मृतियाँ जाग उठीं , .'बस,बस करो पुत्री ,तुम्हारे साथ जो हुआ ,मैं दुखी हूँ ,लज्जित भी . कितना धिक्कारता हूँ अब भी अपने आप को .'
'बस आपका नेह भरा आशीर्वाद चाहती हूँ तात,और कुछ भी नहीं ,'
जानता हूँ पांचाली ,अपने लिये कभी कुछ नहीं माँग सकतीं तुम .'
द्रौपदी चुप है ,पितामह कुछ सोचते-से.
'तुम विलक्षण हो पांचाली .इतना संयम ,सहनशीलता और कर्तव्य-बोध ,तुम्हारी महती ...'
उद्वेलित-सी वह बरज उठी,' तात ,महत् और महान् ,ये शब्द मेरे लिये नहीं...'
'मिथ्या-भाषण नहीं सच कह रहा हूँ पुत्री,जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ उस स्थिति को
निभाना सामान्य नारी के वश की बात नहीं... .'
कुछ नहीं कहना , सुन रही है चुपचाप.
' तुम्हें जो आशीर्वाद दिया है सच्चे मन से  .पर एक बात तो बताओ ,तुम इस अबेला यहाँ कैसे चली आईँ ,किसने प्रेरित किया तुम्हें यहँ आने को ?'
' क्या फिर कुछ अनुचित हो गया तात ?मुझे बड़ा दुख है कि मेरे पति अपने शील-सौजन्य के कारण सदा मात खाते आये.आप कुल के सबसे मान्य ,आपसे सहनुभुति की आशा ले कर आई थी.'
'पुत्री ,निश्शंक हो कर जाओ .दैव का विधान ! तुम्हें मिला यह आशीष मिथ्या नहीं हो सकता .अब तुम निचिंत हो कर जाओ.रात्रि हो रही है अपने निवास पर जाओ शुभे .'
पांचाली ने दोनों कर जोड़ ,शीश नत कर प्रणाम किया और घूम कर कक्ष से बाहर निकल गई.
कुछ अव्यवस्थित से पितामह रुक न सके,पीछे से बोले 'पुत्री,कोई आया है तुम्हारे साथ ?'
'हाँ ,अकेली नहीं आई हूँ .आप चिन्तित न हों .' कहती हुई वह बढ़ गई.'
*
शिविर के द्वार पर खड़े थे कृष्ण ,काँधे तले पीतांबर में कुछ लपेट कर सँभाले .
पांचाली को आया देख झटपट उसके निकट बढ़ आये, पीतांबर से पदत्राण निकाल उसे देते हुये बोले ' लो पांचाली ,ये सँभाले खड़ा हूँ ,कोई इन्हें पहचान ले तो तुरंत अनुमान कर लेगा कि तुम ...'
पीछे-पीछे शिविर के द्वार तक आ पहुँचे थे पितामह .
'अच्छा तो तुम हो इसके पीछे ?बस , यही जानने को आतुर था कि पांचाली को यहाँ आने को किसने प्रेरित किया !'
'वह साहस नहीं कर पा रही थी आपके सम्मुख आने का ..मैंने ही कहा ,तात के स्नेह में किसी के लिये भेद नहीं है,जा कर देख लो . '
विह्वल से कृष्ण को निहारते रहे थे वे.
'जिसके उपानह पीतांबर में सम्भाले खड़े हो जनार्दन,उसका कोई अनिष्ट नितान्त असंभव है ,'
'जाओ पांचाली, जाओ याज्ञसेनी ! निर्भय हो कर जाओ .और वासुदेव,तुम जिसके साथ उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है .तुमसे क्या कहूँ मैं ? बस ,नतमस्तक हूँ .'
*
(क्रमशः)


शुक्रवार, 9 मार्च 2012

कृष्ण-सखी - 27 & 28.


27.
श्री पंचमी - वसंतागम का संदेश !
माघ बीता जा रहा है सूर्य उत्तरायण हो गये. दिवस का विस्तार देख रात्रियाँ सिमटने लगीं. दिवाओं में नई ओप झलकने लगी , दिशायें कोहरे का का झीना आवरण उठा  अपनी मुस्कान छलका  देती हैं .
मौसम  ने  हलकी-सी करवट ली है - वनस्पतियाँ नव-रस संचार से रोमांचित  ,शाखाओं पर नन्हीं अरुणाभ कोंपलों की पुलक . पर ठंडी हवाओँ का स्वभाव अभी  बदला नहीं.बिदा होती  शीत अपने रंग दिखा रही है , हेमंती झोंके पुराने  पात झकझोरते निकलते चले जाते हैं.
पांचाली की श्यामल देह पीली चूनर से आवेष्टित देख भीम ने पूछा  ,'वसंत पंचमी भी कहलाता है आज का दिन .पर अभी सरसों नहीं फूली,वनों में पलाश की दहक  नहीं छाई. न आम बौराये  न कोयल कूकी .कहाँ है वसंत कहीं दिखाई तो नहीं देता  ? .'
अपनी विद्वत्ता का परिचय देते नकुल बोल उठे ,'राजा के आने से पहले उसकी धमक छा जाती है ,देखो न भीम भैया ,वसंत ऋतुराज है ,प्रजाओं से कर वसूलता है ,सब से एक-एक सप्ताह - . तभी न  आगमन की घोषणाएँ मास भर पहले से गूँजने लगती हैं. '
'क्यों षड्ऋतुएँ होती हैं ,चलों एक वसंत को छोड़ दें तो शेष बचीं पाँच. फिर सवा मास पहले क्यों नहीं  ..'
'अरे भैया ,राजा है तो रानी भी है ,रानी से कर लेगा क्या राजा ?वर्षा तो मन मानी है,राजा की रानी है  .जब जितना मन हो घेर लेती है- कभी लंबी कभी छोटी . तुम भीम भैया, हिडिंबा भाभी से कर वसूलोगे ?'
सब खिलखिला कर हँस पड़े .
युठिष्ठिर गंभीर थे .
क्या हुआ बड़े भैया .आप इतने चुप-चुप क्यों हैं ?अब तो आज-कल में अर्जुन भैया भी  आ जायेंगे ,'
'ठीक है कि हमारे भाई ने बहुत सामर्थ्य बढ़ा ली है .हमारे साधन बढ गये हैं .अनेक  शस्त्रास्त्र प्राप्त कर लिये हैं .पर ..'
'पर क्या ?अब अपने राज्य-प्रवेश की  तैयारियाँ करें .'
'सबके मन का संशय अनायास सहदेव के शब्दों में मुखर हो उठा है .
'मुँह धो रखो .मुझे नहीं लगता इतनी आसानी से हमें अपना इतने  दिनों का छूटा राज-पाट मिल जायेगा !'
पांचाली एकदम मौन .
*
कैसी विचित्र स्थितियों में पूरा युग बीता .मन अधीर हो उठता है .
मन में घुमड़ता रहता है कुछ . द्रौपदी लगता है कैसी विचित्र है जीवन की पद्धति! धर्म इतना रूढ़ क्यों हो जाता है .-यह करना है यह नहीं करना .सब बँधी-बँधाया .जैसी स्थिति हो उसके अनुकूल क्यों नहीं कर सकते हम. एक सहज-स्वाभाविक आचरण को इतना उलझा क्यों देते हैं लोग?इतना रूढ़ कि स्वस्थ मानसिकता संभव न रह जाय .एक निर्धारण हर व्यक्ति ,हर काल हर, स्थान पर ,हर परिस्थिति में कैसे उचित हो सकता है? हर जगह एक औचित्य  संभव ही नहीं .
और इसकी आड़ में जब अनैतिकतायें धर्म-सम्मत कहलायें तो पाप क्या कहा जायेगा ?
पर किससे कहे पांचाली ! बस ,वासुदेव के सामने मन के द्वंद्व खोल पाती है .
उस दिन अनायास कह उठी थी -
'क्यों मीत,कोई अपनी वस्तु दाँव पर लगा कर हार जाय  तो उसका अधिकार तो उस पर से गया .अब दूसरा उसे रखे , चाहे छोड़े. फिर से उसकी तो होने से रही .'
खिलखिला कर हँस पड़े जनार्दन ,' पहेली बुझा रही हो या सचमुच गंभीर हो ?.'
'दोनों रूपों में बात वही है. '
'उस समय मुक्त होने का तुम्हें पूरा अवसर था ,उस जीवन से बाहर निकल सकती थीं .'
'बहका रहे हो तुम भी .एक बार विवाह के बाद नारी के लिये कहीं ठौर बचता है क्या ?और एक के कारण दूसरे चारों को दंडित करना अन्याय होता. सोचो तो मीत,.मेरे पाँच पुत्र कैसा जीवन जीते - त्यक्त ,अपमानित !जीवन भर तिरस्कार झेलते हुये .मात्र मेरे कारण ? नहीं , नहीं कर सकती .'
कृष्ण को याद आया मथुरा में कंस के राजदरबार में जाते समय देखा था .कुछ लोग एक बछड़े को अपने शकट पर ले जा रहे थे और गाय उसके पीछे रँभाती-भागती चली आ रही थी .ऊँचे-नीचे पत्थरों से टकराती ,व्याकुल कहीं साथ न छूट जाय. बिना प्रयास  उसे ले जाने के लिये उपाय ढूँढ निकाला था लोगों ने .
मातृत्व ? नारी का सबसे बड़ा वरदान और सबसे बड़ी विवशता भी .
एक गहरी साँस छोड़ी जनार्दन ने .
जानते हैं, दैन्य प्रदर्शन पांचाली के स्वभाव में नहीं.
'सखी ,पत्नी पति की हर दुर्बलता को जानते हुये भी कभी कहती नहीं उससे ?'
'हाँ ,नहीं कहती .पति है वह . रहना उसी के साथ है  .जो संबंध है वह कुंठित हो जाय तो गृहस्थी की गाड़ी खिचखिच करती चलेगी .'
'और पत्नी के लिये, ?.'
'उसके मन की जानने की क्या आवश्यकता ?उसकी निष्ठा पर पति का अधिकार है और सारी क्षमतायें भी उस  के निमित्त..उससे कैसा भय?'
' पांचाली .शान्त हो कर विचार करना .बड़े भैया का अपना स्वभाव है ,किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होते वे. ,वन के अभाव और भवन की सुख-सुविधा में  समभाव रहता है उनका.' .
पांचाली के मन में उठा - देहसुख तो उन्हें भी चाहिये ,उससे कब विरत रहे वे ?
पता नहीं मधुसूदन समझे या  जान कर  चुप लगा गये !.
जानते हैं अपनी बांधवी को - कभी नहीं कहेगी 'मुझसे नहीं होगा यह' .
सब चुपचाप करती चली जायेगी!
*
28
बीत गई अज्ञातवास की भी अवधि .
कैसी-कैसी विषम स्थितियाँ !पूरे बरस एक महारानी, परिचारिका बनी वे सब व्यवहार सहन करती रही .
सुदेष्णा के केश-प्रसाधन का दायित्व रहा सैरंध्री नामधारिणी पांचाली का .और यों तो परिचारिका थी अन्य प्रकार से भी सहायक की भूमिका भी अनायास - आवश्यकता आ पड़ने पर .
 नीलोत्पल की सुवास से गंधित एक आभा-मंडल पांचाली के साथ चलता है ,आश्रयदात्री के कौतूहल को शान्त कर दिया था यह कह कर कि पाँच गंधर्व उसके पति हैं .उन्हीं से कमलगंध का उपहार पाया है .मेरे हित की चिन्ता उन्हें सदा रहती है .अनजाने ही कुछ अपराध हो गया  सो शापित जीवन व्यतीत कर रही हूँ .एक  अवधि के पश्चात मेरे पति मुझे साथ ले जायेंगे .
विश्वास कर लिया सुदेष्णा ने -व्यक्तित्व ही ऐसा जो अनायास प्रभावित कर ले. उसकी बुद्धि और कौशल पर मुग्ध , प्रखरता से चमत्कृत , मन ही मन थोड़ा भय खाती है  . पर सुदेष्णा का व्यवहार संतुलित रहता है -लगभग सखीवत् . किसी विपरीत परिस्थिति में, उसके गंधर्व पति सहायक सिद्ध होंगे इसलिये उससे बनाये रखना चाहती है .
 सैरंध्री की निजी  दिन-चर्या पर कोई आपत्ति नहीं उसे.
कीचक के प्रसंग में भीम के अतिरिक्त किसी को  कानों-कान सूचना नहीं होने दी .जानती थी,बड़े पांडव  शान्त रहने को कहेंगे .और कहीं दासी-धर्म निभाने को उचित ठहराने लगे तो ?..नहीं ..नहीं .उन के निर्णय पर आश्रित नहीं रहना है  .भीम पर विश्वास था ,किसी भी मूल्य पर वह अपनी पत्नी को सुदेष्णा के भाई द्वारा घर्षित नहीं होने देगा .और कामांध कीचक का वध संभव हो सका .
युधिष्ठिर और कुछ  करते-न-करते पर  भीम को कीचक-वध नहीं करने देते .
उनका का मन अगम है . क्या निर्णय लेंगे कोई नहीं जानता .
  अज्ञातवास की दीर्घ अवधि इसी ऊहापोह में बीतती रही -किसी को आभास नहीं कि इस घटना-क्रम पर इन्हें कैसा लगा .हर समय शान्त-गंभीर - दुर्गम से .जिनके साथ हैं उन्हें समझना-समझाना इस सब से ऊपर रहे वे .उचित-अनुचित की उनकी नीति-धर्म सम्मत मान्यता पर किसी का विरोध  सामने नहीं आता.
जयद्रथ को छुड़वा दिया ठीक था ,संबंधी था वह,दुःशला का पति .नहीं चाहती थी वह कि परिवार की अकेली बहिन विधवा हो रहे ,केवल उसके कारण .दंड दे दिया गया  .पर्याप्त हुआ. .
वृहन्नला बने अर्जुन राजकुमारी के नृत्य-शिक्षक बन गये थे .इस रूप में उन्हें देखना द्रौपदी के लिये विचित्र अनुभव था . इस विषम काल में उर्वशी का शाप वरदान बन गया था.
कीचक-कांड पूरा हो जाने के बाद सबको पता लगा ,किसी ने टीका-टिप्पणी नहीं की.
अज्ञात-वास का वर्ष  पूरा हो चला था .
इसी समय कुछ बड़ी घटनायें घटीं जो पांडु-पुत्रों की वास्तविकता उद्घाटित कर गईं .और अर्जुन की शिष्या उत्तरा उनकी पुत्र-वधू बन गई .
अपने आश्रयदाता के उपकार का पूरा मूल्य इन लोगों ने चुका दिया .पांचाली का मस्तक गर्व से ऊँचा हो गया था.
 अब समस्या थी,अपने राज्य की पुनर्प्राप्ति किस विधि  संभव हो ?
कृष्ण का मत था कि वे सीधे हस्तिनापुर न जायँ कि लो ,हम आ गये ,शर्तें पूरी हुईं अब लाओ हमारा राज्य .
नीति यही कहती है कि पहले थाह ले लेनी चाहिये कि उनके मनों में क्या चल रहा है .हम सीधे पहुँच जायँ बिना उनकी मानसिकता जाने .पता नहीं कैसा व्यवहार हो उनका ,
यमुना में बहुत जल बह चुका इस बीच ,उनके विचार किस प्रवाह में हैं पहले इसकी थाह ले लेना चाहिये .
तेरह वर्ष का लंबा समय इस बीच भी कौरव बंधु अपने हथकंडों से चूके नहीं थे.कभी जयद्रथ ,कभी दुर्वासा , जाने कितने उपाय कर डाले  निष्कंटक हो जाने के लिये ,
अब उनके मन में क्या हो कौन जाने .
युधिष्ठिर ने कहा था,'जनार्दन यह कार्य तुम्हारे अतिरिक्त और कौन कर सकता है !'
'ठीक है भइया ,आपका संदेश ले कर जाऊँगा .'
 *
स्वागत-सत्कार के पश्चात् वयोवृद्धों की उपस्थिति में कृष्ण  ने  नीतिपूर्वक अपनी बात रखी.
सभा में सन्नाटा छा गया .सब एक दूसरे का मुख  देख रहे थे .
 उत्तर  दुर्योधन ने दिया ,बोला .'वासुदेव , गायें चराते-चराते अब हमें भी चराने लगे ...'
शकुनि मुस्करा रहे हैं .
'युवराज ,नीति की बात कह रहा हूँ .जो शर्तें निश्चित हुई थीं उन्हीं की बात कर रहा हूँ .'
राज्य के अधिकारी वे कैसे ?हम राजपुत्र हैं . सब  सौ ,बहिन दुःशला सहित एक सौ एक , एक ही पिता की औरस संतान हैं . वे राजा के अंश नहीं ,चाचा पांडु ने पहले ही राज्य त्याग दिया था .अभिशप्त जीवन पा कर वनवास ले लिया था  .संतानहीन थे वे .और वन में ही मर-खप गये .जिन पाँच पुत्रों को ले कर कुंती चाची आईँ उन  सब के अलग-अलग जनक  किसी एक की तो हैं नहीं -कितनों की संततियाँ हैं .
इन पांचों में कोई उनकी संतान नहीं .फिर कैसे अधिकारी हुये राज्य के ?'
कृष्ण बोले ,'कुरुराज महाराज धृतराष्ट्र ने स्वयं उन्हे जो भूमि सौंपी थी उस पर  इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया था उन्होंने ,कितना समृद्ध संपन्न राज्य रहा था ,अपनी सामर्थ्य से राजसूय यज्ञ कर सबका सम्मान और कीर्ति अर्जित की थी .'
'हाँ, की थी तब की थी .समय के साथ सब कुछ बदल गया.'
'सारी शर्तें पूरी कर ली हैं उंन्होने .अब क्या बाधा है ?'
दुर्योधन का स्वर तीव्र हो उठा ,'बाधा ? जो पाया था उसे निभा सके वे ?अपने को उसके योग्य सिद्ध कर सके वे?क्यों नहीं राज कर सके ?.इतने दुर्बल कि राज  द्यूत के पाँसों के अधीन   कर दिया  .विवाहिता सहधर्मिणि को मोहरा बना कर खेलनेवाले कब क्या कर बैठें .कौन दायित्व लेगा उनका? अब बारह बरस जंगलों में  रह कर और  वनवासी हो गये  ,राज को सँभालने का कौशल बचा है उनमें ?.अक्षम सिद्ध कर दिया अपने को  ?अज्ञात-वास में रह कर सब की आँखों से ओझल रहे ,किसीने याद किया उन्हें ? कौन जानता है अब उन्हें,कौन राजा मानता है ?.हम चला रहे हैं शासन .सुव्यवस्था बनाये हैं .अब उनका कुछ नहीं यहाँ .'
धारा-प्रवाह  बोलते-बोलते कुछ रुका  दुर्योधन.सभा पर दृष्टि डाली .
सर्वत्र मौन .सब विचारमग्न !
'सुयोधन ,वे तुम्हारे भाई हैं .पाँच गाँव ही दे दो .उसी से संतोष कर लेंगे वे .'
' भाई ?किस नाते से ?अरे उनका बस चले तो हमें भी अपनी बाज़ी पर दाँव लगा दें वे .राज्य का शासन चलाना कोई खेल नहीं है . द्यूत की क्रीड़ा नहीं है कि बैठे-बैठे दाँव लगाते चले गये .
 भिक्षा माँग रहे हैं पाँच गाँवों की .सामर्थ्यवान ही धरा का भोक्ता होता है .साहस है तो ले लें लड़ कर .इतने वर्षों में सबसे दूर रह कर सारे सहायक खो चुके हैं  .अब कौन उनके साथ खड़ा होगा ?न धन .न लोक-समर्थन ,न सेना .क्या कर सकते हैं वे .जहाँ इतने दिन रहे,वहीं वनों में शान्ति से रहते रहें .'
सब चुप हैं .दुर्योधन के आगे कोई तर्क नहीं चल रहा .कोई सद्भावना काम नहीं कर रही .
'व्यर्थ में युद्ध क्यों चाहते हो सुयोधन .लड़ कर लेने की बात क्यों ?'
वह हँसा .,'हाँ, आयें, हमसे लड़कर ले लें .जो जीत जाये सब कुछ उसका .नहीं तो सुई की नोक बराबर भूमि भी उनकी नहीं .'
 अति गंभीर  कृष्ण के मुख से निकला ,
'किसी प्रकार  कौरव-पांडवों का संघर्ष टाला नहीं जा सकता ?'
महाराज धृतराष्ट्र की ओर देखा  ,पितामह भीष्म पर दृष्टि डाली.
सब मौन !
गहन वाणी में कृष्ण बोले ,'तो युद्ध अवश्यंभावी है .'
*
(क्रमशः)



शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

प्रस्थान से पहले -


लंबे प्रवास पर जाने के पहले  जितना हो सके अपनों मिल लेना ठीक रहता है -फिर पता नहीं  फिर कब संभव हो ! जा रही हूँ मैं भी,तीन दिन के लिये ही सही . महाशिव-रात्रि से अधिक श्रेष्ठ और कौन सा दिन होगा, हरिद्वार जाने के लिये !
प्रकृति  उमा-शंभु विवाह की तैयारियाँ पूरी कर चुकी होगी .हिमालय के वनों में  वसंतोत्सव चल रहा होगा.  जहाँ नव-विकसित दुर्लभ पर्वतीय पुष्पों की सुगंध दिशा-दिशा में व्याप्त हो  मन-इन्द्रियों को आविष्ट कर लेती है . एक बेभान करता सा नशा चढ़ा आता है कि एक अतीन्द्रिय-सा चैतन्य शेष और सारा  आत्म-बोध विलय .ऊंचाइयों पर आरोहण करते हुये उन श्रेणियोंकी परिक्रमा देती  बस में हो कर भी  लगता है  ,उन्मुक्त विचर रही हूँ .एक जगह न रह कर संपूर्ण  परिवेश में व्याप्त हो कर उस  एकान्त रमणीयता का एक अंश मैं !
हिमगिरि की छाया में प्रवाहित सुरसरि का नेह-जल दृष्टिमात्र से ही अंतरतम तक शीतल कर देता है.जीवन के उत्तर-काल में वह सान्निध्य पाने का हिसाब-किताब बैठा लेने भर से कहाँ काम चलता है - सांसारिक बाध्यताओं के आगे  मन-चाही आज तक किसकी चल सकी ?
तो फिर जितना मिले उतना ही सही ! फिर से केलिफ़ोर्निया जाने के पहले एक बार और उस उस अनुभूति को पाने का लोभ  - और अंतर्जाल  से कुछ दिन  छुट्टी !
*

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

कृष्ण-सखी - 25. & 26.


*
  25 .
जुए में हारने के बाद पांडवों ने  काम्यक-वन के लिये प्रस्थान किया. .
भविष्य का आभास सबको होने लगा था. कौरवों की  शक्ति  बहुत बढ़ गई थी .अब अपनी सामर्थ्य बढ़ाये बिना निस्तार नहीं .अर्जुन  अपनी यात्रा पर निकल गये  ! अवसर का उपयोग कर रहे थे - इन्द्रकील पर्वत पर तप  में रत थे -दिव्यास्त्रों की प्राप्ति हेतु .
समय कब रुका है किसी के लिये  .
जीवन बीत रहा है .पांचाली का  सब मान करते हैं ,सुख-सुविधाओं का यथाशक्ति ध्यान भी रखते हैं - अपने -अपने ढंग से. सबसे मधुर संबंध हैं. पर द्रौपदी  के मन के साझीदार नहीं हो सके वे कोई. मन की एक शून्यता किसी प्रकार भरती नहीं. मंथन थमता नहीं .
 अर्जुन के साथ आती थी वैसी तृप्त निद्रा तब से नहीं आई  .दुश्चिंता में निद्रा भंग हो जाती है .पता नहीं उद्विग्न मन लिये कहाँ - कहाँ भटक रहे होंगे !
दैनिक जीवन के अनुबंध निभाते दिन बीतता है . वनवास के प्रारंभिक दिनों में , सब कुछ अव्यवस्थित था ,जीवन बड़ा असुविधा भरा था .धीरे-धीरे गृहस्थी जमने लगी.
गृहस्थी कहेंगे उसे ?   .
आदत नहीं थी ..पर आवश्यकता सब करा लेती है.
सब का भोजन बनाने में पांचाली अति श्रमित हो जाती थी .आवश्यक सुविधाओँ का अभाव और भीम जैसे भोजन-भट्ट !
सहायक सब थे ,जितना जिसका वश था .
एक दिन भीम बोले ,'आज मेरे लिये उतना भोजन मत धरना पांचाली ,मैं नहीं खा पाऊँगा .'
'क्यों?विस्मय से पूछा ' भीम और भोजन के लिये मना कर दें .
'हिडिंबा ने शूकर माँस स्वादिष्ट बनाया था .सब ने आग्रह से खिलाया  मैं अधिक खा गया अब एक समय निराहार रहूँगा  ..'
सब हँस पड़े ,' इतने योजन चलने में सब पच गया होगा .भीम .तुम निडर हो कर भोजन करो .'
'मैं जानती हूँ , मेरा श्रम देख कर कह रहे हो तुम .पर तुम यथेष्ट आहार न लोगे तो मुझे कैसे संतोष मिलेगा  ?ना, , फिर मैं भी उपासी रहूँगी .'
आग्रह पूर्वक जिमाती है  .कोई थोड़ा भी  भूखा रह जाय  ,सहन नहीं कर पाती  वह .
 प्रायः ही भीम-पुत्र आ जाता है .
कितना सरल स्वभावी  है घटोत्कच  ! किशोरावस्था पार कर चुका है -भीम जैसा ऊँचा-पूरा .बल्कि उनसे भी बढ़ कर .स्वस्थ ,परिश्रमी .
पांचाली ने ध्यान से देखा था -हिडिंबा-सुत में भीम की कितनी झलक है !
 वही नेत्र ,वही  स्नेहमय दृष्टि .किसी को सुख देने हेतु कुछ भी करने को तत्पर ,और मुख की भंगिमा बार-बार भीम की झलक मारती हुई .
देखती रह गई थी वह .
उसने बढ़ कर पांचाली से पूछा था ,'तुम मेरी भी माँ हो न ?'
मन कसक उठा - आज को मेरे पुत्र भी मेरे पास होते ...यदि.....!
तुरंत आगे बढ़ अंक में समेटती द्रौपदी बोली थी ,'पुत्र ,यह भी कोई पूछने की बात है .'फिर हँसते हुये  ,'देखो न, मेरा यह पुत्र अब  गोद में नहीं समाता .'
और उसने झट आगे बढ़ पांचाली को गोद में उठा लिया ,'इससे क्या .अब मैं तुम्हें उठा सकता हूँ .'
बिलकुल भीम की तरह -द्रौपदी को लगा .
उसने पूछा था ' कमल-सरोवर में स्नान कर आई हो माँ? नील-कमल की सुगंध छाई है जब से आया हूँ ..'
सब चुप ,भीम चकित - कोई कैसे बताये यौवन- प्राप्त पुत्र को पत्नी के  देह-परिमल की बात !
नटखट बने-से सहदेव बोल उठे,'ये जहाँ रहती हैं योजन भर तक अपनी उपस्थिति ऐसे ही जता देती हैं .'
सब मुस्करा रहे हैं.
' कितनी सुन्दर  है माँ  .' शब्द जैसे अनायास. मुख से निकल पड़े हों ,फिर कुछ सोच कर  'मेरे और भाई कहाँ हैं  ?'
'वत्स ,तुम्हारे पाँचो  भाई अपने मामा और मातामह के पास रह कर उचित शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं ?'
घटोत्कच के आवागमन से वन-जीवन  में विविधता का संचार होने लगा .
इस क्षेत्र में  उसके  अनुभव बहुत व्यापक हैं . अपने   प्रयासों ले  सब कुछ कितना सहज कर देता है .द्रौपदी की अनेक कठिनाइयाँ चुटकी बजाते हल हो जाती हैं .
 पहली बार अपने लोग मिले  हैं भीम के पुत्र को .
दोनों छोटे पितृव्यों के  साथ खूब पटरी बैठ गई है .अब तक सबसे छोटे रहे उन दोनों को भ्रातृ-पुत्र अब मिला है . अपनी विद्याओँ का प्रशिक्षण देने से पीछे क्यों हटें भला !
पुत्र के हाथों हिडिंबा भेंटे भेजती रहती है . 'पहिल-बियाही ' है वह, छोटी भगिनी- समान समझती है  पांचाली को !
*
26.
एक व्यक्ति चला गया है सबके हित के लिये - शक्ति और साधन-संधान हेतु .
शेष सब हैं .हाँ , शेष चार !
 एक बड़ा धीर-गंभीर ,शान्त मौन रहकर  अपनी-सी ही करने वाला .सदा नीति और धर्म का पल्ला थामे .
भीम  संवेदनशील हैं ,सहानुभति है पांचाली से .सदा प्रयत्न करते हैं उसे प्रसन्न करने का .पर उनका स्वभाव -अलग है स्थिर हो कर बैठनेवाले नहीं. चंचल मन ,और फिर आँख ओट तो पहाड़ ओट .दिन में घर पर टिकते ही कितना हैं .पर्वतों-घाटियों  को लाँघते घूमते भटकते हैं वनों में.और हिडिंबा भी तो है न .वहाँ जाना-आना लगा रहता है .
मानसिक स्तर सबका भिन्न है.
पाँच भाई पर परस्पर कितने भिन्न .बस दोनों छोटेवालों में कुछ साम्य लगता है.
जन्म के विषय में कथायें सुनी हैं - उत्सुकता जागती है मन में .पर पूछ नहीं सकती .किसी से ऐसी बात करे - प्रश्न ही नहीं उठता .
जो किसी से नहीं पूछ सकती सखा से पूछ लेती है .और वह बहुत सहजता से सारी उलझन दूर कर देता है.
'तुम्हारी तो बुआ लगती हैं मेरी सासु-माँ .सब जानते होगे तुम .एक बात मेरी समझ में आज तक नहीं आई .बहुत-कुछ  सुनती रहती हूँ पर अनबूझा रह जाता है .'
'ऐसा क्या है ?
 ' सुनती आई हूँ दोनों सासुओं के पुत्र देवावाहन से प्राप्त हैं  .समझ नहीं पाती कैसे.पतियों से कैसे पूछूँ उनके जन्म का विषय में ? और इस प्रकार की बातें परिजनों -परिचारिकाओं से करना शोभनीय नहीं .बस एक तुम से निश्शंक हो कर पूछ सकती हूँ .'
कृष्ण ने बताई सारी बात -
एक बार शिकार खेलते समय झाड़ियों के अंतराल से दिखाई देते हरिण पर महाराज पाण्डु ने शर-संधान कर दिया .
शराघात होते ही मानव-चीत्कार गूँज  गया.
हरिणेों का एक जोड़ा मानव रूप में परिणत होता देख राजा चकित !
 लक्ष्य  पशु को बनाया था  बन गया मनुष्य !
वे किंदम ऋषि थे जो अनायास उभर आई वासना की तृप्ति कर रहे थे - दिन होने के कारण पत्नी सहित पशु रूप धारण कर .
विस्मित सुन रही थी पांचाली अनेक प्रश्न मन में कौंधने लगे थे.
 कृष्ण बता रहे थे -
बहुत विनती की पांडु ने  यह भी कहा कि जोड़ा बनाये पशुओं  पर वे  कभी शर-संधान नहीं करते. वृक्षों के अंतराल से  कुछ स्पष्ट समझ नहीं पाया इसलिये.अपराध हुआ  .
पर मृत्यु से पूर्व उन्होंने शाप दे दिया - वासनापूर्ति के क्रम में,  तुम्हारी भी, तृप्ति - क्षण से पूर्व ही , मृत्यु हो जायेगी! '
चकित-विस्मित सुन रही है .मन में शंकायें जाग उठीं असंतोष  मुखर हो उठा .
'ये ऋषि-मुनि तपस्वी होते हैं ,सांसारिकता से दूर ,फिर इतना अहं क्यों होता है इन में ? दूसरे का दोष देखे बिना शाप दे देते हैं .यह तो अपनी सामर्थ्य का दुरुपयोग हुआ .शकुन्तला ,नल-दमयंती ...और भी जाने कितने निरपराध दुख पाते हैं अकारण ही ,अपनी मानवीय  संवेदनाओँ  कारण ही .'
' जीवन है यह ...चलता है ऐसे ही ..हाँ तो ..अपने दुर्भाग्य से दुखी महाराज पाण्डु ने वन में रहने का निश्चय किया .कुन्ती-माद्री दोनों पत्नियाँ भी साथ चली आईं.
उसके बाद पांडु को जब विदित हुआ कि निपूता होने के कारण उन्हें सद्गति नहीं प्राप्त हो सकती .तो चिन्तित रहने लगे.
बहुत विचार करने के बाद उन्होंने पत्नियों से कहा कि नियोग से ही वे पुत्र उत्पन्न करें .
 'यहाँ बन में कौन ?ये वन के असंस्कृत वासी ?नहीं ,नहीं. सोच कर ही वितृष्णा होती है ,' कुन्ती बुआ चुप न रह सकीं.
'तो तुम्हीं कोई उपाय करो .'
 कुन्ती बुआ ने उचित अवसर जान कर दुर्वासा के वरदान की बात बता दी - ऋषि के दिये मंत्र से 'जिस देवता का आवाहन करोगी मनोकामना पूरी करेंगे .'
'इससे अच्छा और क्या हो सकता है .कुन्ती, मुझे पुत्र चाहिये .'
'.दोनों की सहमति बनी - धर्म का पुत्र चाहिये .
 माद्री को पांडु के साथ छोड़ कुन्ती  देव- आवाहन करने चली गई  '.
द्रौपदी के मन में प्रश्न उठते रहे - आवाहित देवता मनोकामना पूर्ण करेंगे, और  धर्म राज  की संतान पाने का  निश्चय कर लिया ?कैसे ?
वह उलझन में पड़ गई
वे वर देंगे ,या स्वयं ही..  ? मंत्र का प्रयोग किये बिना यह कैसे जाना कि वे स्वयं ..स्वयं ही . . गर्भाधान हेतु उपस्थित होंगे  ...कि   संतान उन्हीं से  ग्रहण करना है. पर  माधव के सामने शंका प्रकट करना  द्रौपदी को शालीनता के अनुकूल नहीं लगा .  वह चुप सुनती रही .
छ समय पश्चात् वे लौटीं .
माद्री ने देखा परम तृप्ति के  संतोष से दीप्त उनका मुख ! जीवन की स्वाभाविक इच्छाओं के दमन से उत्पन्न रुक्षता नहीं ,वन के कठोर जीवन की तिक्षता भी नहीं - नारीत्व की सार्थकता से परितृप्त  वह प्रफुल्ल मुख !जैसे विरस होती  वल्लरी सरस फुहार पाकर लहलहा उठे ,
वे सफला हुईँ .अनोखी आभा से जगमग. जैसे ताल के थिर हो गये जल में तरंगें झलमलाने लगें  .जड़ीभूत हुए जीवन में नये चैतन्य की ऊर्जा  संचरित होने लगे!.
.कुन्ती परिपूर्ण हो कर आई थी .
माद्री चकित देखती रह गई .
*
पांडु ने अनुभव कर लिया कुन्ती तुष्ट है ,प्रफुल्लित है .नारीत्व की सफलता पा ली है उसने .
जो वे न दे पाये , पत्नी ने वह किसी और से पा लिया है .
लाचार थे वे ,पुत्र चाहिये ही था .
युधिष्ठिर जन्मे .
'एक पुत्र पर्याप्त नही ' उन्हें लगा था .
दूसरी बार भीम भैया .
फिर कुन्ती ने कहा था ,'जिठानी जी को सौ पुत्रों का वरदान है .'
सुप्त कामना जाग कर लहरें ले उठी थी , उस चाव भरे मुख-मंडल को देखते रह गये असमर्थ पाण्डु.
कैसे मना कर सकते थे वे .
,'हाँ ,हाँ , संतान प्राप्ति से क्या किसी का जी भरता है !'
और फिर इन्द्र के आवाहन से अर्जुन की प्राप्ति .
माद्री ने हर बार तृप्ति और  संतोष से परिपूर्ण,  नारीत्व की  सफलता से दीपित सपत्नी को देखा था, वह अधिक कुंठित होने लगी थी .
सहानुभूतिवश  कुन्ती बुआ ने उन्हें भी मंत्र -प्रदान किया ,और संतान पाकर वे भी पुत्रवती हुईँ - दो पुत्र  नकुल और सहदेव ..दोनों अश्विनीकुमारों से  .'
'और  श्वसुर जी  वे ..वे कैसे ..?
' दोनों पत्नियाँ मातृत्व की दीप्ति से .दैदीप्यमान ,अपने पुत्रों के साथ प्रसन्न -मगन !
छोटे भाई धृतराष्ट्र के गृह में सौ पुत्रों और एक कन्या का जन्म हो चुका था .
घोर मनस्ताप में डूबे पाण्डु ,ऊपर से संतोष प्रदर्शित करते रहे .लेकिन पुरुष-मन ऐसी विषम स्थितियों  कहीं शान्ति  से रह सकता है?
 विचार उठते रहे  ,इस प्रकार निष्क्रिय पौरुष ले कर जीने से क्या लाभ !अपना बीज वपन कर दूँ किसी प्रकार ,मृत्यु अवश्यंभावी है ,हो जाये तो क्या !संभव है अपना अंश  छोड़ जाऊँ .
कुन्ती बुद्धिमती थी ,माद्री अपेक्षाकृत भोली ,वयस में भी कम .एक दिन कुछ निश्चय कर वे माद्री के साथ वन-भ्रमण के लिये गये .
किंदम ऋषि का शाप फल गया .अकेली माद्री विलाप करती लौट आई .
घोर अपराध -बोध से ग्रस्त थी वह .दोनों पुत्र कुन्ती को सौंप पति के साथ चिता पर चढ़ गई .
सब कुछ जान लिया .पर   पांचाली के मन में कुछ अनुत्तरित प्रश्न रह गये !
**
(क्रमशः)

शनिवार, 21 जनवरी 2012

कृष्ण-सखी - 23 & 24.


23.
कैसे भूल सकती है उन घटनाओं को जिनने जीवन की धारा को एकदम मोड़ दिया
उस गर्हित कांड के बाद सब कुछ अतीत कर जब वे इन्द्रप्रस्थ के लिये प्रस्थान करने लगे तभी महाराज धृतराष्ट्र के भेजे दूत उपस्थित हुये .
'आपके ताऊ-श्री ने बड़े नेह से आग्रह किया है जो पिछले दिनों हुआ .बहुत अनुचित हुआ  ,उनका मन खिन्न है .चाहते हैं कुछ समय शान्ति -स्नेह पूर्वक साथ में बीते .अनुज का ध्यान आता है तो अंध-नेत्रों से अश्रु-पात होने लगता है .उनका चित्त बड़ा अशान्त है ,बहुत व्याकुल हैं. उनकी हार्दिक इच्छा है कि आप लोग ,अच्छे वातावरण में ,प्रसन्न मन से कुछ दिन उनका आतिथ्य स्वीकार कर उन्हें सुख दें .'
'कृपया रथ लौटा लें . ऐसी विषण्ण मनस्थिति में उन्हें  छोड़ कर न जायँ .'
'वे युवराज दुर्योधन से विशेष असंतुष्ट हैं .'
'हमारा आग्रह नहीं मानेंगे तो स्वयं महाराज आपसे विनती करने पधारेंगे, श्रीमन् !'
पाँचो भाई एक दूसरे का मुँह देख रहे हैं .यह कैसा विचित्र व्यवहार !
युधिष्ठिर सोच-मग्न थे -उन चारों  को फिर से  रुकने की बात अरुचिकर लग रही थी .वे अनेक प्रकार से परस्पर अपने मत व्यक्त कर रहे थे .
और पांचाली स्तब्ध .इतना सब-कुछ हो गया और फिर वही प्रस्ताव !
वह तो पल भर नहीं रुकना चाहती .जाना चाहती है अपने पुर में .बहुत कुछ बीत चुका है उसके ऊपर से  .अपने निवास में रहना चाहती है  जहाँ केवल उसका परिवार हो .चुपचाप शान्ति से बैठकर कुछ विचार करना चाहती है .बार-बार अकुलाते मन को स्थिर करना चाहती है .आतिथ्य ग्रहण करने की मनस्थिति नहीं है उसकी .
अर्जुन ने कहा था ,''फिर वही आमंत्रण ! उनके छल-कपट से कौन अनजान है . कितनी बार उनकी चाल में आ चुके हम लोग .वो तो ये कहो सावधान करने वाले थे तो हम जीवित हैं आज .वे हमें अपने रास्ते हटा कर अपना अधिकार पूरी तरह  निष्कंटक करना चाहते हैं .''
' हर प्रकार से हमें वंचित कर अपना वर्चस्व स्थापित करने की उनकी योजना  है .'
चारों भाई विविध प्रकार से अपनी अनिच्छा-आपत्ति व्यक्त करते रहे ,
युठिष्ठिर सबकी सुनते  रहे .
'कुछ लोग हैं ऐसे ,पर सब नहीं .हमारे प्रति सद्भाव भी तो है लोगों में ,विदुर चाचा तो कभी उनकी ओर नहीं झुके .ताऊ-श्री के हृदय में हमारे लिये नेह ने ही हमें इन्द्रप्रस्थ जैसे समृद्ध राज्य का अधिकार दिया  .और पितामह ,उनके लिये तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता.. '
सबको लग रहा था ,जी नहीं भरा  अभी तक बड़े भैया का .इतना देख-सह कर भी सावधान नहीं हुये .
पांचाली सोच रही है जो ग़लत है ग़लत ही रहेगा .जब बोलेंगे ही नहीं तो चलती रहेगी उनकी मनमानी .
वे लोग इनकी दुर्बलता को जानते हैं - ये उनका विरोध नहीं करेंगे .
उसे  लग रहा था  पता नहीं आगे क्या खेल रचेंगे वे लोग ,और ये धर्मराज बड़े आज्ञाकारी बने ,उन की चाल में आ जायेंगे .
उन लोगों से, जिनने सदा बैर साधा ,चालें खेलीं ,नीचा दिखाया उन्हीं से घिरे रहेंगे वहाँ .हमें क्या करना है ,सब मिल कर निर्णय क्यों नहीं लेते .सहधर्मिणी से,नहीं तो भाइयों से ही  बात कर लें उनका मत ,उनके विचार भी जान लें .
*
24.
सहधर्मिणी ? अचानक ही कुछ चुभ उठा अंतर में .
जब दाँव पर लगा कर हारे  तभी पति होने का अधिकार छोड़ दूसरों को सौंप दिया था  .
धर्मराज बताओगे .दाँव जीतनेवालों से जब  स्वतंत्र कर दिया गया मुझे,  तब  क्या दुबारा  .,अब मैं तुम्हारी क्या लगती हूँ ?
कभी पूछ सकेगी क्या  ?
वे चारों तो  इस प्रश्न के घेरे में आते ही नहीं.
किससे कहे अपनी बात ? बस एक है जिसके सामने मन की द्विधा व्यक्त कर सकती है .
 कृष्ण की बहुत याद आ रही है .
भीम के स्वर कानों में पड़े  ,''सद्भावना पूर्ण मन-रंजन नहीं, खेल नहीं , कुचालें है उन सब की ,दुर्भावनाओं का खुला खेल ,और हमें वंचित करने का पूरा षड्यंत्र . और सब जान कर भी वहाँ हमारे गुरु-जन चुप रहते हैं  .'
अर्जुन भी चुप न रह सके ,' पितामह की तेजस्विता पर ग्रहण-सा लग जाता है .मुद्रा से आभास होता है पर उनका असंतोष कभी मुखर नहीं होता .ताऊ-श्री को अपने श्यालक,शकुनि के आगे कभी मुँह खोलते नहीं देखा ,और दुर्योधन की चौकड़ी के प्रमुख तो उनके मामा-श्री हैं ही  .'  '
'ताऊ -श्री धृतराष्ट्र पुत्र-मोह में किसी की सुनते लहीं ,न तात विदुर की न पितामह की ,खेल खेल नहीं ,चाल है उन सब की .जान कर भी चुप  .'
'कपट-बुद्धि कार्य कर रही हो.फिर भी प्रतिरोध न करें .नीति यह तो नहीं कहती .'
हाँ ,यही हुआ था - आशंका होते हुये उससे विरत होने का प्रयास नहीं किया गया .शान्तिपूर्वक रीति-.नीति-धर्म का पल्ला पकड़े सब कुछ घटने का माध्यम बने रहे .धर्म में बुद्धि का प्रयोग वर्जित है क्या  .रीति-नीति क्या लीक पर चलते जाने से निर्वहित होती हैं ? पांचाली सोच रही थी ,बोलने का अवसर ढूँढती-सी .
अंत में बोल ही दी ,' अगर चुपचाप अनर्थ घटते देखना समर्थ पुरुष का धर्म है तो पाप क्या है ?'
'पाप-पुण्य की गूढ़ व्याख्यायें करने का यह अवसर नहीं ,अभी दूतों की बात पर निर्णय करना है .'
  और कुशल दूत कहते रहे -
'महाराज का कहना है ,आपके साथ जो व्यवहार हुआ कदापि उचित नहीं था ,उसी का निराकरण करना चाहते हैं .'
वे चारों वयोवृद्ध व्यक्ति दूत बने बहुत विनय दिखाते हुएवाग्पटुता से युठिष्ठिर को मना रहे हैं .
एक ओर भाइयों की आपत्तियाँ ,दूसरी ओर दूतों के विनम्र निवेदन ,तात-श्री के आग्रह -अनुरोध का बखान .
 इन्द्रप्रस्थ के महाराज युठिष्ठिर दोनों पक्षों को तोलते परम शान्त .
'हम चरणों में विनत हो कर निवेदन करते हैं .महारानी आप तो साक्षात् करुणा की अवतार हैं .आप ही महाराज युठिष्ठिर को समझाइये .क्या अपने तात-श्री का यहाँ आ कर आपको मनायें आप चाहेंगी? हम बूढ़ों की विनती की लाज रख लीजिये .'
'हम बहुत श्रान्त हो गये हैं ,अपनी नगरी छोड़े कितना समय हो गया .ताऊ-श्री हमारी विवशता समझेंगे .अभी प्रस्थित होने की अनुमति दें ,निकट भविष्य में पुनः दर्शन करेंगे .''.
पति की ओर देखती द्रौपदी का उत्तर था
वाचाल दूत कहाँ माननेवाले ,' अभी महलों में चल कर पूर्ण विश्राम कीजियेगा महारानी ,और उधर ,आपकी नगरी के  समाचार भी पहुँचते रहेंगे . सब सुव्यवस्थित .और महाराज के प्रताप से हर ओर शान्ति सुख छाया है .
 भीम ने आगे बढ़ फिर चेताना चाहा ,'उनके लोभ का कोई छोर नहीं .वे हमें सहन नहीं कर सकते .'
युठिष्ठिर उलझन में,  'पर ये तो ताऊ -श्री ने कहलवाया है .उनसे तो हमारा बैर नहीं .हमारे पूज्य हैं वे .'
,इतना सब हो गया ,क्या रोक सके वे .अब हम क्यों जायें?.'
फिर यह उनकी चाल है -भीम का कहना था .
'जो ग़लत है ग़लत ही रहेगा ..जब बोलेंगे ही नहीं तो चलती रहेगा सबकी मनमानी .'
 क्या अभी भी नहीं भरा जी ?नीतिज्ञ वही -जो समयानुकूल नीति निर्धारित करे .आखिर ये चाहते क्या हैं?
पांचाली प्रतीक्षा में थी कि वे मत जानने को  जब उससे उन्मुख होंगे और  वह स्पष्ट कह देगी ,मेरा मन यहाँ से बिलकुल उचट .गया मुझे विश्राम चाहिये- पूर्ण विश्राम. बहुत थक गई हूँ .अपने घर जाना चाहती हूँ .शान्ति   चाहती हूँ .
पर उन्होंने उधर देखा भी नहीं .
अर्जुन हत्बुद्ध ,भीम नकुल -सहदेव ,बड़े भाई का मुख देखते रह गये थे जब उन्होंने महाराज धृतराष्ट्र का आमंत्रण स्वीकार कर,   हस्तिनापुर में रुकने का  आश्वासन ,दूतों को दे दिया .
 ओह, कैसी  दुराशा !
ये नहीं समझना चाहेंगे .अपने आगे किसी की कभी नहीं सुनेंगे.
 जानते हैं न ,इनका क्या कर सकता है कोई ?
जब अपना ही माल खोटा ,तो परखैया का क्या दोष ?
 एकदम विवश विमूढ़ पांचाली !
और फिर एक दिन क्रीड़ा के नाम पर जुए की फड़ जमी.
  सब देखते रह गये शकुनि के पाँसे पड़ते रहे और बड़े पांडव  वनवास और अज्ञातवास जीत लाये .
इन्द्रप्रस्थ जाने के बजाय पाँडव वन के लिये प्रस्थान कर गये .
राज्य का प्रबंध देखने को कौरव बंधु हैं ही .
द्यूत के पासों पर नचाया जा रहा है पांडवों को .
तभी से बीत रहा है इसी ढर्रे पर सबका जीवन .
सोच कर अस्थिर हो उठती है पांचाली .
 कुछ याद नहीं करना चाहती , सारा कुछ विस्मृति के अतल में डुबो देना  चाहती है .
*
(क्रमशः)



मंगलवार, 10 जनवरी 2012

कृष्ण-सखी .- 21. & 22 .



*21
खांडव वन की परिणति अति रम्य और सुनियोजित, सुस्थापित वैभवपूर्ण नगरी में हो चुकी थी , नाम करण किया गया- इन्द्रप्रस्थ !
सब कुछ सुचारु रूप से संपादित होता रहा.
कृष्ण के साथ विचार-विमर्ष में निश्चय किया गया कि  लोक में प्रतिष्ठा-पूर्वक स्थापित होने के लिये राजसूय यज्ञ का आयोजन हो ,इस भूमि पर गुरुजनों के चरण पड़ें .अपनी  सामर्थ्य से अर्जित इस वैभवपूर्ण नगरी को सब देखें .मान-सम्मान में वृद्धि हो .
समारोहपूर्वक आयोजन किया गया .
देश-देश  के नरेश, महार्घ उपहार ले-ले कर उपस्थित हुये .धन-संपदा का कोई ओर-छोर नहीं कौरवों को सपरिवार-परिजन आना ही था वे तो  घर के ही लोग थे .
बड़ा भव्य आयोजन था !
 वासुदेव कृष्ण को देवपूजा का परम-सम्मान देने के धर्मराज के मत को अधिकांश का समर्थन मिला . दुर्योधन आदि परम असंतुष्ट .पर जब पितामह ने सहर्ष स्वीकार कर लिया ,वे विरोध कैसे करें !
द्वारकाधीश कृष्ण पट्टमहिषी रुक्मिणी के साथ पधारे थे .श्यामल जनार्दन  के संग, नाम के अनुरूप हिरण्यवर्णी आभा से दीप्त रुक्मिणी .सबके नयन उस दिव्य जोड़ी पर टिक गये  .
शिशुपाल ने देखा ,उसके नेत्र रुक्मिणी की ओर से से हट नहीं रहे थे   -मेरी वाग्दत्ता थी यह ,आज मेरे संग होती !मेरी वस्तु को .यह चोर ग्वाला हर ले गया .कैसी अनीति ! कृष्ण का वहाँ होना सहन नहीं कर पा रहा था वह.ऊपर से अग्रपूजा का सम्मान भी उन्हीं को अर्पित.
पितामह भीष्म ,और अन्य पूज्य गुरुजन जहाँ विद्यमान हों, वहाँ एक प्रपंची अहीर का छोरा ,उच्चतम सम्मान का भागी बने ,आक्रोश से भर उठा वह . यह पाखंडी राजा बन गया तो क्या !रहेगा तो वही पशु चरानेवाला ग्वाला , पराई स्त्रियों को बहकाने से कभी चूका है !
  चेदिराज शिशुपाल का संचित आक्रोश फूट पड़ा .यहाँ दुर्योधन की मंडली को  अपने अनुकूल पा उसका साहस बढ़ा .विरोध करने पर उतारू हो गया . खुल कर अपशब्द और गालियों  का कोश खोल दिया .
जनार्दन वचन-वद्ध थे .शान्त रह  मन ही मन सौ तक अपराध गिन -गिन कर क्षमा करते रहे .और हर दुर्वचन के बाद शिशुपाल का साहस बढ़ता गया .सारी सीमायें लाँघ लीं उसने .
कृष्ण ने चेतावनी दी ,';बस ,अब आगे नहीं .'
मद में चूर था शिशुपाल .और उत्तेजित होकर चीखने लगा .
बस ,एक सौ एकवीं गाली उसके मुख से बाहर आई और वासुदेव ने सुदर्शन चला दिया .
इतने कुवचन  सुनते-गिनते ,उद्विग्न-मना जनार्दन से ,चक्र के संधान में  पूरी एकाग्रता नहीं रही .चक्र की तीखी धार  उन की अँगुली से रगड़ती, घायल करती चली  गई .
कृष्ण हाथ उठाये रह गये . फिर सामने ला कर देखा - रक्त रिसने लगा था
 युठिष्ठिर त्वरा से बढ़े कहीं वे बूँदें धरती पर न गिरें ,अनर्थ हो जायेगा !
 भैया का हाथ पकड़ ,अँगुली मुट्ठी में दबाली .
महारानी द्रौपदी विचलित.
आसन छोड़ उठ आईं .'आह, मेरा बांधव !'
युठिष्ठिर हतबुद्ध - कैसे रुके उन बूँदों का प्रवाह?
महारानी ने क्षण भर भी विलंब किये बिना ,चर्रर् से  अपने चीनांशुक का आँचल फाड़ा .
 सारी सभा स्तब्ध !
शिशुपाल का शीश तो उड़ गया पर उसे देखने का अवकाश किसे !
वस्त्र की चीर, फाड़ कर याज्ञसेनी ने बंधु की अँगुली को वस्त्रावृत्त करने लगी .
कृष्ण की आपत्ति को स्वर भी न मिल पाया , कृष्णा ने हाथ पकड़ा और सँभाल कर घाव को  लपेट दिया ..'
'कैसा ऋण चढ़ा दिया, शुभे ' वे  बुदबुदाये किसी ने सुन नहीं पाया.
पाँचाली को लगा पीड़ा के उद्गार हैं .
'बहुत पिराता है, मीत ?'
'नहीं ,परम शान्ति पड़ गई- तुम्हारा नेह !.....पर तुम्हारा मंगल-वस्त्र ? यज्ञ में व्यवधान पड़ गया न !'
'खल-जन कहीं बाधा डलने से नहीं चूकते .पर जहाँ तुम हो कुशल-मंगल में काहे की बाधा !'
कृष्णा भावुक हो उठी .
कहीं नयन न छलक उठें  मुरारी ने सिर हिला कर बरजा उसे .
दृष्टि फिरी सबकी तो देखा ,सुभद्रा  नये परिधान लिये  खड़ी हैं .चित्रांगदा,उलूपी आदि राज-रमणियाँ व्यग्र-सी उसके साथ .
'देवी ,चलिये ' वे तत्परता से पांचाली को लिवा ले गईं- सुपरिधानित करने हेतु .
पुत्रों की मंडली सचेत हो गई थी ,
इरावान ,वभ्रुवाहन ,घटोत्कच ,अभिमन्यु द्रौपदी के पाँचो पुत्र, उन के सहयोगी मित्र आदि सचेत हो गये थे .सबकी दृष्टि इधर ही लगी थी .
राज-महिषी के चीनांशुक की पट्टी- बँधा, दाहिना हाथ उठा कर लहराया कृष्ण ने ,सबको आश्वस्त करने कि सब ठीक है.
  कार्यक्रम फिर चल पड़ा था, जैसे कुछ हुआ ही न हो .

*

22.
 यह तेरह वर्ष का वनवास, एक वर्ष अज्ञातवास सहित -  उत्तरदायी कौन ?.
उधर पार्थ गिरि-वनों की धूल मँझाते  लोक-परलोक एक करते एकाकी  भटक रहे हैं . तपस्या ? दंड ?प्रायश्चित ? या इन अवांछित ,असह्य स्थितियों से दूर चले जाने का बहाना ?
   पूरा परिदृष्य चल-चित्रों सा पांचाली की स्मृतियों में घूम गया -     .
राजसूय-यज्ञ का  समारोह विसर्जित . पितामह ,महाराज, दुर्योधन आदि  ,कर्ण , सभी का  लौट जाना .
अगले क्रम में आतिथ्य ग्रहण करने की बारी पांडवों की  .
हस्तिनापुर से निमंत्रण आया - बहुत दिन हो गये हम सभी भाई एकत्र हो कर आनन्द नहीं मना पाये .,अब कुछ दिन हस्तिनापुर आ कर महाराज धृतराष्ट्र को अपने सामीप्य का सुख दीजिये .
कुछ समय चैन से बीता और एक दिन शकुनि और दुर्योधन ने  द्यूत का प्रबंध कर डाला .धर्मराज कुशल खिलाड़ी थे और द्यूत के व्यसनी भी .राजाओं के लिये द्यूत के निमंत्रण को अस्वीकार करना शिष्टचार के विरुद्ध है .
फड़ जम गई और खेल ही खेल में दाँव चलते रहे. शकुनि के पाँसे  निर्णय करते रहे  जिसकी चरम सीमा थी पांचाली का  चीर-हरण .
पूरा घटना-क्रम पांचाली की स्मृति में घूम गया .
उस चरम निराशा और और घोर अपमान की दारुण स्थिति में भी याज्ञसेनी की विचार-शक्ति कुंठित नहीं हुई थी ,प्रखर बुद्धि , तेज-हत नहीं हुई थी,अनीति और औचित्य पर प्रश्न उठाती  रही थी वह .
धृतराष्ट्र हतप्रभ थे - भीम और  पांचाली की प्रतिज्ञाओं से विचलित. तेजस्विनी कुल-वधू कहीं शाप न दे दे इसका भय और अपनी भी तो साख बचानी थी उनको .उदारता का प्रदर्शन करने लगे .
  नारी ने अपनी लज्जा बचा ली थी , पुत्रों का भविष्य दाँव पर लगा दिया गया था .  कैसे छोड़ देती जीवन भर अपमान सहने के लिये !उन्हें कोई दासी-पुत्र ,या दासों की संतान न कह सके - वस्त्रभूषण रहित, दैन्य ओढ़े ,  बेबस पतियों को दासत्व से मुक्त दिलायी ,उनका राज-पाट वसूला  और अंत में अपने लिये कुछ  माँगने की बात पर  स्पष्ट मना कर ,क्षत्राणी के उपयुक्त स्वाभिमान को हत नहीं होने दिया.
दुर्योधन का कुचक्र कुंठित होगया, सबके शीश झुक गये .
सब-कुछ पुनःपूर्ववत् हो जाये इसका प्रबंध कर लिया था पांचाली ने अपनी प्रपन्नमति , साहस और नीतिमत्ता से ,फिर कैसा व्यवधान आ खड़ा हुआ कि उसका किया-धरा सब बेकार हो गया .और आज वनवास में जीवन बिताना पड़ रहा है .
सब का अग्रज , सबसे अधिक उत्तरदायी था जो व्यक्ति ,निर्णय फिर उसी ने लिया था .
वह समझ नहीं पाती कि उनके मन में क्या है ,या सबसे ही - उदासीन हैं.जो होता है उसे वैसा ही होने दो .
क्या यही धर्म है ?
अनीति होते ,अत्याचार होते देखते रहना नीति है या धर्म ?धर्म अत्यंत  गूढ़ वस्तु है या सहज-स्वाभाविक !.
अगर गूढ़ है सब उसे समझ नहीं सकते तो वह सबके लिये साध्य नहीं हो सकता ! इतना सहज हो कि सर्व-सुलभ, सर्वसाध्य-सर्वमान्य हो सके .सबके कल्याण का सबके सुख का मार्ग प्रशस्त कर सके .सहज प्रस्फुटित हो अनायास अंतर में जागे, सुन्दर संकल्प के समान.
याज्ञसेनी को लगता है वासुदेव धर्मराज के परम मान्य हैं , वे ,उन्हें धर्म की मर्यादा का स्थापक मानते हैं . फिर उनकी तरह विचार क्यों नहीं कर पाते !इन्हीं के  उस बंधु ने कितनी रूढ़ियाँ निश्शंक हो कर तोड़ दीं .नई मर्यादायें रच दीं .एक सहज मानवी दृष्टि लेकर जो उचित लगा उससे विरत नहीं हुआ किसी का कुछ कहना कभी उसके आड़े नहीं आया .
उसने पति से कहा था  ,' नीति की आड़ ले कर जो विकृत खेल खेला जा रहा है उससे विरत तो रह ही सकते हैं .आप की इच्छा-शक्ति को कोई कैसे विवश कर सकता है?'
'बात इच्छा-शक्ति की नहीं ,अगर सद्भाव-पूर्वक सब ठीक हो जाये ,सारा मनोमालिन्य धुल जाय तो सबसे अच्छा .प्रयत्न से क्यों विरत हों हम !'
पांचाली को लगता है कृष्ण ने कितने विरोध झेल कर अनीति पूर्ण मान्यताओं को जड़ से उखाड़ फेंका .और बहुत सहज रहते हुये नये मान स्थापित कर दिये .पर उसने पति से  कहा नहीं - कहीं यह न समझ लें  कि   तुलना की जा रही है या हीनता-बोध कराना चाहती है .
पूरे परिवार को ऐसी विषम स्थितियों और कुत्सित षड्यंत्रों से घिरा देख वे कैसे शान्त रह लेते हैं ,उसे विस्मय होता है .
*


(क्रमशः)

रविवार, 1 जनवरी 2012

कृष्ण-सखी -19 .& 20.

*

19
*
'दुर्योधन तो जैसा है सब जानते हैं ,पर वे धूर्त शकुनि मामा ! सदा आग में घी डालते रहते  हैं .योजना-बद्ध नई-नई चालें ,सबमें उन्हीं का हाथ है.'
बड़ा असंतोष है भाइयों के मन में.कृष्ण के सामने मुखर हो ही जाता है .
'यहाँ आकर यही तो कर रहे हैं. राज-वंश की जड़ें खोदने का काम. बहिन ब्याही है, उसका हित भी नहीं देख पा रहे ,' सहदेव ने अपना संशय प्रकट कर दिया .
'बहिन ब्याही है तभी तो ..,'
 कृष्ण ने दीर्घ श्वास छोड़ा ,'वही बहिन जिसने आते ही आँखों पर पट्टी बाँध ली ..जिसने न पुत्रों का मुख देखा न पति का .'
'विचित्र कथा है .कैसे सारा जीवन बिताया होगा एक पत्नी और माँ ने पति की आँखों में झाँके बिना ,उसकी मुखमुद्रा का अवलोकन किये बिना. और सबसे बड़ी बात -पुत्रों पर वात्सल्य-दृष्टि डाले बिना .उनकी बाल-लीलाओं का ,उनके क्रम-क्रम से बड़ी होती अवस्थाओँ का ,क्रीड़ा-कलोल का आनन्द नहीं लिया .कैसा पत्नीत्व और कैसा मातृत्व !'
'यही तो दुख है गांधार नरेश, शकुनि का .'
माधव कुछ देर चुप रह इन लोगों के मुख देखते रहे .
'अपनी रूप-गुण संपन्न भगिनी के सुखी जीवन के विषय में क्या-क्या कल्पनायें की होंगी ,और जब लाचार एक अंधे से व्याहना पड़ा तो लाड़-प्यार में पली ,एक राजकुमारी जिसने भावी जीवन के कितने सपने सँजोये होंगे  उस पर पर जो बीत रही थी  क्या भाई उदासीन रह पाया होगा ?'
'फिर अपनी सोचता हूँ मैंने क्या किया .अपनी लाड़ली बहिन के  लिये .मैंने ,उसका हरण करवा दिया था.इसीलिये कि  अनचाहा दाम्पत्य न भोगना पड़े.'
'हाँ ,मुरारी .'  द्रौपदी ने हुंकारा दिया .
सब चुप हैं .
' क्यों पांचाली ,धृष्टद्युम्न ,तुम्हारा भाई .वह भी तो चुपके-चुपके आया था तुम्हारे पीछे ,पता करने  कि मेरी बहिन को ले कर यह ब्राह्मणपुत्र कहाँ जाता है .क्या तुम्हें तुम्हारे भाग्य पर छोड़ कर निश्चिंत हो सका था वह.कहे चाहे कुछ नहीं बहिन के दुख में भाई का मन तड़पता है.'
'तो क्या गांधार-राज की स्वीकृति नहीं रही थी इस विवाह के पीछे ?'
'स्वीकृति ?'गोपेश ने दुहराया ,'उसकी भी एक कहानी है ,'
 भीम उत्सुक थे ,'क्या हुआ था ,भइया  ?'
'काशिराज-कन्याओँ की गाथा तो जग विदित है .उनके नियोग की बात भी कोई दबी-छुपी नहीं .तात भीष्म के संरक्षण में वे पुत्र युवा हुये तो उनके विवाह की चिन्ता हुई .पितामह ने पात्रियों की खोज शुरू की . इधर तो सबको विदित था कि बड़े कुमार जन्मजात दृष्टिहीन हैं .किसी राजवंश को संदेशा न भेज सके . सुदूर गांधार देश की सर्वगुण-संपन्ना ,परम सुन्दरी ,राजकन्या .की ख्याति उन्होंने सुनी थी और यह भी कि अपनी तपस्या के बल से उसने सौ पुत्रों की माता होने का वर पाया था .उनकी महत्वाकाँक्षा जाग उठी .ज्येष्ठ कुमार के विवाह हेतु तुरंत प्रस्ताव भेज दिया .'
सब सुन रहे हैं .
'इनके अंधत्व से अनजान गांधार नरेश सुबल ने कुरु- वंश से जुड़ना तुरंत स्वीकार लिया.बाद में ...  विवाह के समय देखा..वर अंधा . .
वज्रपात हो गया था सारे परिवार पर  ! हैरान - परेशान पुर-जन  .हर जगह वही चर्चा...'
'हाँ, मैने सुना था -
 गांधार से आई एक दासी बता रही थी वे विवश थे ,पितामह के आदेश की अवहेलना करते तो  सर्वनाश को आमंत्रण देते .राज्य और प्रजा के संकट का निवारण करने को बेटी की बलि चढ़ा दी .
उधर उत्सव की तैयारियाँ हो रहीं थीं, आँसू भरे नयनों से नारियाँ मंगल गीत गा रहीं थी. उनके मन पर क्या बीत रही थी- कौन जानता है ,कन्यादान के समय माता-पिता के मुख पर छाई व्यथा को केवल उन्हीं के लोग समझ रहे थे . वर-पक्ष तो आनन्द मगन था .ऐसी कन्या जिसकी कामना कोई भी श्रेष्ठ समर्थ नरेश करे , ब्याह दी गई एक जन्मान्ध को ,जिसका व्यक्तित्व ही पराङ्-मुख था.'
' और तभी से शकुनि के मन में गाँठ पड़ गई .अपनी बहिन के लिये ,उसका साथ देने ,राज-पाट छोड़ कर यहाँ पड़ा रहता है .देख रहा है अपनी भगिनी और भागिनेयों का सुख ,इस परिवार के प्रति उसके मन में जो वितृष्णा भरी है वही करवा रही है यह सब .'
'गांधार कन्या तो बोलती कुछ..?'
स्तबध थी राजकुमारी . चिन्ता और दुख से हत  माता-पिता को देखा.अपनों के सर्वनाश का कारण नहीं बनना चाहती थी  उसी ने कहा ,'तात अब जो हो रहा है होने दीजिये ,मेरे लिये विधि ने यही लिखा होगा .एक मेरे कारण सब पर संकट न आये .'
भाई शकुनि बहुत उग्र हो उठा..
विनती -चिरौरी कर , प्रजा परिजन, माता-पिता का वास्ता दे कर उसे शान्त किया किसी तरह.
बहिन ने अपनी शपथ दिला दी ,'.मुझे स्वीकार है ,शान्ति से होने दो सारे कार्य.'
भाई ने सोच लिया आज कर लें मनमानी ,मैं भी देख लूँगा .कैसे चैन से रहते हैं .
'आग जल रही है मेरे भीतर. ऐसे शान्त नहीं होने की ..'
'भइया, मेरे घर का चैन नष्ट करोगे ?'
''पगली बहिन ,तेरे लिये और तेरी संतान के सुख के लिये कुछ भी करूँगा ,आज से यही मेरा व्रत .'
उद्विग्न राजकुमार कु-समय देख चुप रह गया
अंधे के साथ वधू-वेष में अपनी प्यारी बहिन को देख उसका हृदय विदीर्ण हो गया ..उसी दिन उस ने ठान लिया कि बहिन के हितों की रक्षा उसका दायित्व .और वहाँ  वह एक-एक को देख लेगा . निपट लेगा जो भी उसकी राह में आयेगा .काँटा निकालने को हर दाँव खेल जायेगा वह .'
'हाँ ,मित्र,समझ रहा हूँ ,' अर्जुन जो अब तक मौन थे .
पहली चोट तो यह कि अंधत्व के कारण ताऊ-श्री सिंहासनासीन न हो सके ..यहाँ भी गांधारी हार गई .'
'लेकिन इसमें हम-लोग कहाँ आते हैं ,हमारा क्या दोष ?'
'दोष किसका - पूरा वंश उस अन्याय का भागी है बंधु .उन राजकन्याओँ  का क्या दोष था ,जिन्हें हर अधिकार से वंचित रखा गया ?
  मनमानी की यह लंबी गाथा चली आ रही है -गांधारी भी अपवाद नहीं .'
काल-चक्र रुका है कभी!
*
 बाद में ब्याह कर आई  कुन्ती बुआ ने पुत्र-लाभ किया, गांधारी वहाँ भी मात खा गई .उसके पुत्रों के लिये युवराज का पद भी अलभ्य हो गया !
अपने भागिनेयों का वही एक  सगा बना रहा. माता-पिता की स्नेह- दृष्टि तो दूर,  कभी उनका लाड़-दुलार भी नहीं मिला उन्हें ,स्वाभाविक परिवार कहाँ मिला ! दास-दासियों से वह सब नहीं मिल सकता जो माता-पिता के सान्निध्य में मिलता  .'
मामा से अपनत्व मिला था ,उन्हीं ने जो संस्कार डाल दिये.प्रारंभ से द्वेष के बीज रोप दिये .'
'अंधे को और क्या सूझता ,सौ पुत्र पैदा करने में लगे रहे.'
'और एक पुत्री भी तो..'
पालन-पोषण का दायित्व दास-दासियों का . .
शकुनि के लिये सब-कुछ असहनीय हो उठा था.
'और उसके लिये हम सब अपने थे ही कब ?किसी भी कीमत पर भागिनेयों के हित-संपादन के लिये ही आया था.उसी ने दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओं को जगा कर सदा उसे उकसाया है .'
वातावरण भारी हो उठा था.
'बचपन से खिलाता आया है .अब भी वही खिला रहा है उन सब को .'
*
20.
पांडवों को अपने मार्ग से हटाने का पूरा प्रयत्न किया गया पर विधि का विधान कुछ और ही था.तात विदुर की बुद्धि सब भाँपती और निराकरण करती रही .पितामह सब जानते - देखते  विवश रहे..
लाक्षागृह की घटना भी इसी योजना का अंग थी.
स्वयंवर में पांचाली को जीत कर आये पांडवों का भारी स्वागत किया गया, लेकिन मनों में जो मालिन्य घुला था वह कहाँ धुलता .ऊपरी दिखावा चलता रहा .
दुर्योधन को युवराज पद दिया जा चुका था  .
अब बीहड़ खांडव वन का आधिपत्य पांडवों को दे कर चलता करो .
सब के पीछे शकुनि की चाल काम कर रही थी .
मामा-भांजे की सलाह पर स्वीकृति की मोहर भर लगवाना शेष रह जाता  ,जिसके लिये राजा धृतराष्ट्र का पुत्र-मोह पर्याप्त था .
और पितामह भीष्म ? उनका  सिंहासन के प्रति निष्ठा का व्रत .सिंहासन पर धृतराष्ट्र विराजे हैं ,और उनके साथ युवराज  दुर्योधन .मतान्तर का प्रश्न ही नहीं उठता !
 कर्ण, दुर्योधन के उपकारों के बोझ तले ,उसका मित्र बना सदा उसके अनुकूल रहने को बाध्य .अर्जुन की प्रतिद्वंद्विता में जानबूझ कर उसे  नीचा दिखाया जाता रहा .द्रौपदी के अपमान का दंश अंतर में समेटे ,कौरवों के अनुकूल रहना उसकी विवशता थी.  दुर्योधन साथ न देता तो इस मंच पर कहाँ होता वह ?
एक बार युवराज बनने के बाद उन लोगों ने निश्चय कर लिया कि अब किसी भी प्रकार राज छोड़ना नहीं है.
इन पांडवों को क्या अधिकार कि कुरुवंश के राजसिंहासन पर बैठें ?अधिकार तुम्हारे पिता का था ,चलो किसी कारणवश छोटे भाई को दे दिया ,लेकिन वे तो विरक्त हो वन को चले गये वहीं मर-खप गये .फिर तो सिंहासन तुम्हारा था .
वे पाँचो ?कोई अपने पिता का पुत्र  नहीं ,किस-किस की संतान .किसी एक की भी नहीं . कहाँ रहे वे कुरु कुल के वंशज?तुम ,सुयोधन अपने पिता के पुत्र हो .राजा के अंश हो उन्हीं के वंशज !
और हमारे पितामह ?वे उन्हीं की ओर झुके रहते हैं .रहा वह अहीर छोरा कृष्ण ,कहीं टिक कर रहने का ठिकाना नहीं .कौन सा गुण है उसमें ,जनम का कपटी .पता नहीं लोग क्यों सिर चढ़ाये रहते हैं ?'
' भाई दिन-रात बहिन को देखता है.  कैसे स्वाभाविक रह सकता है ?'कृष्ण का कहना था,'अपने ढंग से उनका हित- संपादन कर रहा है .'
 दुर्योधन-मंडली की योजना क्रियन्वित होनी ही थी .
खांडव वन --बीहड़ प्रदेश .किसी के रहने योग्य स्थान था क्या ?
पर धृतराष्ट्र ने बड़े प्रेमपूर्वक ,बहुत सद्भावना जताते हुये .पांडवों को वह स्थान प्रदान कर दिया .
युधिष्ठिर ने सदा के समान नत शीश ताऊ-श्री का आदेश शिरोधार्य किया .
पर कृष्ण जैसा बांधव जिसके साथ हो उसके काम रुके हैं कभी !
*
(क्रमशः)