बहुत पुरानी , घोर बचपन की बातें याद आ रही है.
मुझसे पाँच वर्ष छोटे भाई का जन्म तब तक नहीं हुआ था. पिताजी का ट्रांस्फ़र होता रहता था - उन दिनों हमलोग तब के मध्य-भारत के एक कस्बे अमझेरा में रहतेथे. हमारे घरके सामनेवाले घर में एक लड़की मेरे बराबर की थी, नाम था सरजू, जिसके साथ मैं खेला करती थी .अक्सर ही वह अपने धर से बिना किसी को बताए ही भाग आया करती थी .कभी-कभी उसकी माँ आवाज़ लगाती ,'सरजूड़ी, नाँगी-पूँगी काँ फिरी रई छोरी?'
हमलोग ऊपर के तल पर रहते थे, नल नीचे था. नीचे से सरजू आवाज़ लगाती,' मुन्नी आई जा!' और नल खोलकर नहाने खड़ी हो जाती.तब मुझे मुन्नी कहाजाता था.
मै भी उतरकर नहाने लगती.उसकी एक आदत थी वहाँ पड़ा कोई भी लोटा गिलास उठाकर उसमें पानी भरती और 'ले देख केसो मजो आवे कह कर मेरे कानों में उँडेलने लगती,अपने भी डालती थी.कानों में डुम.डुम बोलता था पानी
फिर हमलोग बाल ओंछते (काढते) .तब ऐसे प्लास्टिक के कंघे हमारे घर नहीं आते थे लकड़ी की कंघियाँ होती थीं.मै जब कंघी में फँसे बाल निकलती सरजू मेरे हाथ से बाल लेकर फिर उसी में फँसा देती कहती - अच्छे लगते हैं. उसकी मां उसे टोंकती थी -सरजूड़ी ,यो काईं करे?
एक और बात.जब उसकी माँ हमारे घऱ आती या मेरी उसके घऱ जातीं, हम लोग छोटी-छोटी थीं, माँ के साथ लगी रहतीं विशेष रूप से जब वे किसीसे मिलने जातीं. तब तो जरूर ही. .तो थोड़ी देर बैठने के उपरान्त जब घर की मालकिन बीच में उठती तो मेहमान कहती .अरे बहनजी, बैठिये कोई तकलीफ़ मत करिये,और दूसरी कहती नहीं नहीं कुछ तकलीफ नहीं बस जरा सा कुछ.
सरजू का मुँह बन जाता उसे तकलीफ़ न करने की बात बिलकुल अच्छी नहीं लगती थीफिर वह जब मेरे साथ होती तो कहती -मुन्नी जब हम आएँ तो तुम खूब तकलीस(तकलीफ) करना.उसे लगता वो खिला-पिला रही तो ये क्यों मना कर रही हैं.
किसी के घर जाकर बैठकर खाना पीना किसे नहीं भाता! लेकिन लोग मना करते हैं बेकार में. बार-बार कहते हैं (विशेष रूप से महिलाएँ) तकलीफ़ मत करो,तकलीफ़ मत करो! अरे, अपने मज़े के लिए ही तो किसी के घर जाया जाता है, और कौन रोज़ -रोज़ जाते हैं. किसी ने अपने आप तकलीफ़ कर ली तो क्या! दूसरे का क्या बिगड़ा? यही तो सरजू को नागवार लगता था पर उसके बस में क्या था ही क्या? कुछ बोल तो सकती नहीं वहाँ .बस मुझसे ही कह सकती थी.
और भी तमाम बातें मुझे बताती रहती थी अपने घर की बातें भी. प्रायःशुरू करती ...जब पन्नादादा जी के पेट में रहा.. अब जो उसकी जी (माँ को यही पुकारते थे वे भाई-बहन) कहा करती थी ,वह झूठ थोड़े ही होगा. अपने बड़ों से ही सीखते हैं हम हाँ, पन्नालाल उसके बड़े भाई का नाम था.
चर्चा काफ़ी लंबी हो गई. क्रमबार कुछ याद भी नहीं.
चलो इतना ही काफ़ी!