लालित्यम्

ललित लेखन -गद्य .


हमारी वाणी

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  • कहानी-कुञ्ज
  • भानमती का कुनबा.

शनिवार, 12 नवंबर 2016

पर मैं और क्या करती ..!

*

यहाँ अमेरिका में लोग जिस तरह अंग्रेज़ी बोलते हैं,कभी-कभी सिर के ऊपर से निकल जाती है.
 रोज़ शाम को टहलने निकलती हूँ.अड़ोस-पड़ोस में कोई साथ का नहीं ,अकेले जाती हूँ .बहुत लोग निकलते हैं . रोज़ राह चलते लोगों से साबका पड़ता है . अधिकतर उसी समय टहलने निकलनेवाले परिचित चेहरे -कुछ नये भी ,स्त्री-पुरुष हर वय के. देख कर निर्लिप्त भाव से नहीं निकल जाते ,एक दूसरे का संज्ञान लेते हैं., शुरू-शुरू में लगता था पता नहीं क्या बोल रहे हैं अब तो चलते-चलते कभी एकाध बात भी हो जाती है .

हाँ, तो पहले जब वे कान से फ़ोन सटाये बोलते तो कुछ ध्वनियाँ कानों तक पहुँचतीं - अजब गुड़े-मुड़े शब्द गुलियाए मुँह से निकलते .ऐसे ही विश करते हैं वे .शुरू में बात को समझना मुश्किल होता था (अब तो सब ठीक). लगता था जाने क्या कह गये.आवाज़ भी साफ़ नहीं .पर सहज सौजन्यमय मुद्रा मन को भाती . सद्भाव का अनुभव होता . औपचारिक अभिवादन के बँधे-बँधाये बोल होंगे .पर मैं अचकचा जाती . इतने अचानक , अब मैं क्या बोलूँ ?

उत्तर देना चाहिये - पर क्या, जब उनकी सुनी ही नहीं? .

सोचा-समझा काम नहीं आता .कभी समाधान अचानक अपने आप हो जाता है.

उन्हीं की टोन में मु्स्कराते हुये मुँह गोल कर बिलकुल हल्की  आँय-बाँय ध्वनियाँ निकाल दीं . अस्पष्ट आवाज़ कानों तक पहुँचेगी ,मिल जायेगा समुचित उत्तर .

जब ताल के किनारे बेंच पर आ बैठती तो अपने उन आँय-बाँय बोलों पर देर तक हँसी आती रहती(अब भी आ जाती है) फ़ौरन सावधान होकर चारों ओर देखती हूँ - यों अकेले हँस रही हूँ कोई क्या सोचेगा?

नहीं ,कोई नहीं ,वो उधर एक जोड़ा बैठा है अपने आप में मगन

पर तब मैं और करती भी क्या ?

*
प्रस्तुतकर्ता प्रतिभा सक्सेना पर 5:28 pm 7 टिप्‍पणियां:

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016

और मैं चुप !

  *
'नानी ,काँ पे हो...?'
'कौन है ?'अनायास मेरे मुँह से निकला,
महरी बोली,'आपकी नतनी ,और कौन ?'
वैसे मैं जानती हूँ कौन आवाज़ लगा रहा है.
और कौन हो सकता है इतना बेधड़क !
पहले चिल्ला कर पूछती है ,पता लगते ही दौड़ कर चली आती है.नानी के हर काम में दखल देना जैसे उसका जन्म-सिद्ध अधिकार हो. 
सोच रही थी मशीन पर बैठ कर उसकी फ़्राक की सिलाई पूरी कर दूँ .
अभी सिर पर सवार हो जायेगी - मेरे और मशीन के बीच में घुस कर खुद चलाना चाहेगी.नीचे के कपड़े को खुद कंट्रोल करना चाहती है .
कहती है ,'हमको भी चिलना.'
मैं रुक जाती हूँ नन्हीं सी अँगुली सुई के नीचे आ गई तो वह तो चिल्ला-चिल्ला कर रोना शुरू कर देगी और पछताऊंगी मैं.
 नाती भी कौन कम है !
 महरी अपनी रोटी एक किनारे रख देती है .वह आता है और रोटी उठा कर भागता है .मुँह लगा कर खा भी लेता है .महरी भागती है उसके पीछे ,देखो ये हमारी रोटी उठा  कर भागे जा रहे हैं ...और झपट कर रोटी ले लेती है .
.पर करूँ क्या मुझे भी तो इनके बिना चैन नहीं पड़ता .
कभी -कभी लगने लगता है मैं उसकी नहीं वह मेरी नानी है.
कहती है लड़कियों आईं हैं ,मैंने कहा लड़कियाँ कहो बेटा , फिर सहज रूप से कहा-हाँ लड़कियों को अंदर बुला लो 
मेरे कहने से क्या होता  सही-ग़लत का निर्णय वह अपनी बुद्धि से करती है 
  उसने सिर टेढ़ा कर ,मेरी ओर देखा ,मन में सोचा होगा खुद लड़कियों कह रही हैं और मुझे मना कर रही हैं
फिर बोली ,'लड़कियों बाहर खेलने बुला रही हैं .'
और मैं चुप !
*
प्रस्तुतकर्ता प्रतिभा सक्सेना पर 5:53 pm 17 टिप्‍पणियां:

शनिवार, 1 अक्टूबर 2016

'यो मां जयति संग्रामे


नवरात्र !
कानों में गूँजने लगता है -

'यो मां जयति संग्रामे, यो मे दर्प व्यपोहति ।

यो मे प्रति-बलो लोके, स मे भर्त्ता भविष्यति ।।'

- बात दैहिक क्षमता की  नहीं - देहधर्मी  तो पशु होता हैं ,पुरुष नहीं . साक्षात् महिषासुर ,देवों को जीतनेवाले सामर्थ्यशाली शुंभ-निशुंभ उस परम नारीत्व को अपने  सम्मुख झुकाना चाहते हैं .
 वह जानती है यह विलास-लोलुप , भोग की कामना से संचालित ,सृजन की महाशक्ति को  शिरोधार्य कर समुचित मान नहीं दे सकता .जानती है अपनी सामर्थ्य बखानेगा , अहंकार में बिलबिलायेगा ,अंत में निराश हो 
देह-धारी पशु बन जायेगा .साक्षात् क्षमता रूपिणी .अनैतिक-बल के अधीन ,उसकी ,भोग्या नहीं बन सकती  ,वह अपने ही रूप में  लोहा लेने सामने खड़ी है.
शक्ति को धारण  करने में जो मन से भी समर्थ हो ,उसे स्वीकारेगी वह - उसे पशु नहीं , पशुपति चाहिये .जो  दैहिकता को नियंत्रित करने में समर्थ हो ,उसकी सामर्थ्य का सम्मान कर उच्चतर  उद्देश्यपूर्ति हेतु,माध्यम बन ,दौत्य-कर्म निभाने को भी  कर्तव्य समझे.

आज भी वही पशु-बल प्रकृति और नारीत्व दोनो पर अपने दाँव दिखा रहा है .

 नवरात्र की मंगल-बेला में नारी-मात्र का संकल्प यही हो कि हम पशुबल से हारेंगी नहीं !
अंततः जीत उन्हीं की होगी क्योंकि ,प्रकृति और संसृति दैहिकता-प्रधान न होकर मानसधर्मी सक्रिय शक्तियाँ  हैं .वहाँ देह का पशु कभी जीत नहीं सकता ,श्रेष्ठता का वरण ही काम्य है और उसी में सृष्टि का मंगल है !
*
इसी के साथ एक प्रकरण गौरा-महेश्वर के दाम्पत्य का -
शिव नटराज हैं तो गौरी भी नृत्यकला पारंगत !एक बार दोनों में होड़ लग गई कौन ऐसी कलाकारी दिखा सकता है जो दूसरे के बस की नहीं और इसी पर होना था हार-जीत का निर्णय ।नंदी भृंगी और शिव के सारे गण चारों ओर खड़े हुये ,कार्तिकेय ,गणेश -ऋद्धि,सद्धि सहित विराजमान ,कैलास पर्वत की छाया में हिमाच्छादित शिखरों के बीच समतल धरा पर मंच बना ।वीणा वादन हेतु शारदा आ विराजीं ,गंधर्व-किन्नर वाद्ययंत्र लेकर सन्नद्ध हो गये ।दोनों प्रतिद्वंदी आगये आमने-सामने -और नृत्यकला का प्रदर्शन प्रारंभ हो गया ।दोनों एक से एक बढ कर ,कभी कुमार शिव को प्रोत्साहित कर रहे हैं ,कभ गणेश पार्वती को ।ऋद्ध-सिद्धि कभी सास पर बलिहारी जा रही हैं कभी ससुरजी पर !गण झूम रहे हैं -नृत्यकला की इतनी समझ उन्हें कहाँ !दोनों की वाहवाही किये जा रहे हैं ।हैं भी तो दोनों धुरंधर !अचानक शिव ने देखा पार्वती मंद - मंद मुस्करा रही हैं।उनका ध्यान नृत्य से हट गया,गति शिथिल हो गई सरस्वती . विस्मित नटराज को क्या हो गया । बहुयें चौकन्नी- अब तो सासू जी बाज़ी मार nले जायेंगी .'
'अरे यह मैं क्या कर रहा हूँ ',शंकर सँभले ,
पार्वती हास्यमुखी ।
'अच्छा ! जीतोगी कैसे तुम और वह भी मुझसे ?'शंकर नृत्य के नये नये दाँव दिखाते हुये अचानक हाथों से विचित्र मुद्रा प्रदर्शित करते हुये जब तक गौरा समझेंऔर अपना कौशल दिखायें ,उन्होने ने एक चरण ऊपर उठाते हुये माथे से छुआ लिया !
नूपुरों की झंकार थम गई सुन्दर वस्त्रभूषणों पर ,जड़ाऊ चुनरी ओढ़े ,पार्वती विमूढ़ !
दर्शक विस्मित ! यह क्या कर रहे हैं पशुपति !
 शंकर हेर रहे हैं पार्वती का मुख -देखें अब क्या करती हो ?
ये तो बिल्कुल ही बेहयाई पर उतर आये पार्वती ने सोचा .
वह ठमक कर खड़ी हो गईं -'बस ,अब बहुत हुआ ,' मैं हार मानती हूँ तुमसे !'
*
पीछे कोई खिलखिला कर हँस पड़ा .सब मुड़कर उधऱ ही देखने लगे .त्रैलोक्य में विचरण करनेवाले नारद जाने कब आ कर वहाँ खड़े हो गये थे।
बस यहीं  नारी नर से हार मान लेती है ।
लेकिन यह गौरा की हार नहीं ,शंकर की विवशता का इज़हार है !


*
( यह पूर्व लिखित पोस्ट आज पुनः प्रस्तुत कर कर रही हूँ ,क्योंकि आज के परिप्रेक्ष्य में यह और अधिक सार्थक लग रही है - प्रतिभा.)
प्रस्तुतकर्ता प्रतिभा सक्सेना पर 8:42 am 9 टिप्‍पणियां:

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

अललटप्पू.

*
अललटप्पू - जिसने यह शब्द नहीं सुना होगा,पूछेगा - इसका मतलब क्या ?
 मतलब है अटकलपच्चू .
अब यह भी समझ में नहीं आया तो समझाना पड़ेगा. सुनिये -अगड़म्-बगड़म्,अटर-शटर या अट्ट-सट्ट .एक शब्द में चाहें तो ऊलजलूल या ऊंटपटाँग .
 मतलब कुछ कम साफ़ हुआ हो तो और स्पष्ट कर दूँ - अंड-बंड ,अऩाप-शनाप ,बे- सिपैर .अगर बेतुका कहें तो भी कामचलाऊ तौर पर चलेगा .
पहले मैं अललटप्पू सुनती रही थी - कहाँ ?यह नहीं कह सकती - कहीं एक जगह रही होऊं तब तो .आज यहाँ , कल वहाँ .पहले मध्यप्रदेश की माटी सिर धरी , फिर भारत के अन्य प्रान्तों की धूल छानी  और आगे पाँव भारत से बाहर निकल गये - देश-देश का पानी पीने  .
 पर वहाँ अललटप्पू शब्द कहाँ . मुझे अक्सर इसकी याद आती रही . कहीं उपयोग करने का मौका नहीं मिला ,पर कमी खटकती रही.
अब सोच लिया जो हुआ सो हुआ, पर आगे "अललटप्पू" का प्रयोग ज़रूर करूँगी,करती  रहूँगी . एक अच्छा खासा शब्द कहीं भूल में न पड़ जाय .
याद रखूँगी - अललटप्पू !
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प्रस्तुतकर्ता प्रतिभा सक्सेना पर 9:26 pm 11 टिप्‍पणियां:
लेबल: अटकलपच्चू, अललटप्पू, ऊलजलूल .

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

भारतीय रक्त ब्रिटेन के राजवंश तक -

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इंग्लैंड की गद्दी के दावेदार  प्रिंस चार्ल्स की रगों में भारतीय रक्त दौड़ रहा है! 
एडिनबरा यूनिवर्सिटी के जेनेटिसिस्ट, जिम विल्सन ने विलियम के रिश्तेदारों की लार के नमूनो की जांच कर बात इस बात की पुष्टि की है . 

विल्सन के अनुसार डीएनए का R30b प्रकार बहुत दुर्लभ है.अब तक यह सिर्फ 14 लोगों में मिला है. और एक को छोड़कर ये सारे लोग भारतीय हैं. एक नेपाली है. डीएनए रिसर्च से पता चलता है  कि प्रिंस विलियम का संबंध ऐंग्लो-इंडियन लोगों से है. 
ऐंग्लो-इंडियन समुदाय के ज्यादातर लोग दरअसल अंग्रेजों और चाय बगान की मजदूर औरतों के बीच बने संबंधों की संतानें थीं. या फिर ब्रिटिश सैनिकों के स्थानीय भारतीय महिलाओं से संबंध बनने से ये लोग पैदा हुए. लेकिन इन्हें न अंग्रेजों ने अपनाया और ना ही भारतीयों ने. ऐंग्लो-इंडियन औरतों का चटनी मैरी कहकर मजाक उड़ाया जाता था.ब्रिटेन के अखबार टेलिग्राफ की जून 2013 के अनुसार छह पीढ़ियों पहले विलियम की मां डायना के एक पुरखे ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने वाले स्कॉट मूल के थियोडर फोर्ब्स के संबंध एक घरेलू नौकरानी एलिजा केवार्क से रहे थे.अब तक माना जाता रहा  कि केवार्क आर्मेनियाई मूल की थीं और   भारत में रह रही थीं .पर वास्तव में वे आर्मेनियाई नहीं भारतीय थीं..1812  इस युगल की एक बेटी हुई थी - कैथरीन  .
रिसर्चर बताते हैं कि एलिजा केवार्क की बेटी, कैथरीन स्कॉटलैंड लौट आई थीं. वहां से वह अपनी मां को गुजराती में चिट्ठियां लिखा करती थीं. बाद में उन्होंने आबेरडीन में जेम्स क्रोम्बी से शादी कर ली. उनकी पोती ने बैरन फेरमॉय के मौरिस ब्रूक रोश से शादी की. उनकी पोती प्रिंसेस डायना ने प्रिंस चार्ल्स से शादी की और इस तरह यह रक्त शाही परिवार में शामिल हुआ. अब यह  ब्रिटेन के संभावित राजा की रगों में दौड़ रहा है.
¨प्रिंस विलियम के शरीर में भारतीयों में पाये जाने वाले खास तरह के माइटोकांड्रियल डीएनए है। इस डीएनए की खास बात यह है कि यह किसी भी बच्चे को अपनी मां से मिलता है। यह पिता से बच्चे तक नहीं जाता। इसी वजह से यह डीएनए ¨प्रिंस विलियम और ¨प्रिंस हैरी तक ही रहेगा.
( विभिन्न समाचार-सूत्रों  से ज्ञात वक्तव्यों पर आधारित .)
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प्रस्तुतकर्ता प्रतिभा सक्सेना पर 3:41 pm 15 टिप्‍पणियां:

सोमवार, 5 सितंबर 2016

अराल(अरल) सागर सूख गया -

अराल(अरल) सागर सूख गया  -
 कभी दुनिया के समुद्रों में चौथे चौथे नंबर पर रहे  अराल(अरल) सागर का 90 फीसदी हिस्सा, बीते 50 सालों में ,सूख चुका है . यह मध्य एशिया में कजाकिस्तान एवं उजबेकिस्तान के बीच लहराता था। इसके विशाल आकार के कारण इसे सागर माना गया था .स्थानीय भाषाओं के शाब्दिक अर्थ के अनुसार इसका नाम - 'द्वीपों की झील की संज्ञा सार्थक थी।  यह वो  दौर था जब 1,534 द्वीपों वाले इस सागर को आइलैंड्स का सागर कहा जाता था.  55 लाख साल से निरंतर जलपूरित  दुनिया का यह चौथा बड़ा सागर अब सूख कर एक झील मात्र रह गया है.
इस क्षेत्र की नदी अमु दरिया को कैस्पियन सागर की ओर मोड़ने के प्रोजेक्ट के कारण  अराल पूरी तह सूख गया. 
1960 में सोवियत प्रशासन ने इसमें विसर्जित होने वाली दो नदियों - आमू और साइर नदी को मरुभूमि सिंचाई के लिए विमार्गित करने का निर्णय लिया .परिणाम स्वरूप  ये तीन अलग-अलग भागों में बंट गया और  आने वाले 40 सालों में अराल सागर का 90 प्रतिशत जल खत्म हो गया , 74 प्रतिशत से अधिक सतह सिकुड़ गई और आकार भी 1960 के आकार का 10 प्रतिशत रह गया दिन-प्रतिदिन इसका आकार में और कमी आती जा रही है।पहाड़ों पर बर्फ का कम होना भी इसका एक कारण माना जा सकता है , जिसके पिघलने से सागर  में पानी भरता था. 
 ये दुनिया के सबसे बड़ी पर्यावरण आपदाओं में से एक है। 1997 में सूखने के क्रम में अरल सागर चार झीलों में में बंट गया था, जिसे उत्तरी अरल सागर, पूर्व बेसिन, पश्चिम बेसिन और सबसे बड़े हिस्से  को दक्षिणी अरल सागर का नाम दिया गया।किसी समय इसका क्षेत्रफल लगभग 68,000 वर्ग किलोमीटर था। इसके बाद 2007 तक यह अपने मूल आकार के 10 प्रतिशत पर सिमट गया. पानी की लवणता में निरंतर वृद्धि हो रही है और मछलियों का जीवन असंभव हो गया है। 
 अरल सागर तट पर बीते हुए वक्त से बहुत समय तक मुलाकात नहीं की जा सकेगी . जहाँ हलचल-कोलाहल से आपूर्ण, व्यस्त एवं जीवंत बंदरगाह था, यही रेगिस्तान कभी प्राणमय जल-जगत को अपने में धारे ,विशाल सागर बना हिल्लोलित रहता था ,अब उजड़ा दयार है. . अब अवशिष्ट जल की लवणीयता बढ़ती जा रही है .ऊपरी सतह पर नमक की एक पर्त भी दिखाई दे जाती है . हवाओं  में खारापन घुल गया है,धूल का झीना आवरण हर चीज की छुअन में किसकिसाहट बन कर जमा  है .जिस धरती पर सागर की लहरों ने सैकड़ों शताब्दियों अठखेलियाँ की थीं वह रूखी उजाड़ पड़ी है. .आनेवाली पीढ़ियों को अब वहाँ केवल अपार सूखा रेगिस्तान दिखाई देगा . रेत पर टेढ़ा पड़ा लावारिस जहाज़ इन करकराती हवाओं में  कब तक अपने शेष-चिह्न बचा पायेगा कौन जाने.              नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियों में एक उल्लेख आता है  -
तीसरे महायुद्ध के समय एक सागर सूखकर रेगिस्तान बन जाएगा (यह भविष्यवाणी पूरी तरह से "अरल सागर" पर खरी उतरती है जो दुनिया का चौथा सागर होने के बाद अब पूरी तरह से रेगिस्तान मे बदल चूका है)तो क्या अब कोई शंका है कि हम समय के उस क्षेत्र में आ पहुँचे हैं जहाँ तीसरा महायुद्ध सिर पर खड़ा है .
- प्रतिभा सक्सेना
* 
प्रस्तुतकर्ता प्रतिभा सक्सेना पर 12:46 pm 8 टिप्‍पणियां:
लेबल: अमुदरिया, करकराती, बेसिन, विमार्गित, शेष-चिह्न

सोमवार, 8 अगस्त 2016

कोई क्या सोचेगा !

*
भोजन समापन पर है -
मेरा बेटा कटोरी से दही चाट-चाट कर खारहा है .उसकी पुरानी आदत है कटोरी में लगा दही चम्मच से न निकले तो उँगली घुमाकर चाटता रहता है . वैसे जीभ से चाटने से भी उसे कोई परहेज़ नहीं .
बाद में तो  तो यह पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि इस कटोरी में कुछ था भी.
उसके पापा ने कहा, 'बेटा और दही ले लो .
'पापा, दही नहीं चाहिये ,ये लगा हुआ खा रहा हूँ .'
'आखिर कितना चाटोगे ?'
'अभी साफ़ हुआ जाता है.'
ये कोई अच्छी आदत है ,पोंछ-पोंछ कर खाना.कोई देखे तो क्या कहे .
किसी सामने थोड़ी खाता हूँ 
'अरे, पर फिर भी....'
'लगा रहने से क्या फायदा पापा ,बेकार पानी मे धुल कर फिंकेगा.'
ये बात तब की है जब वह हाईस्कूल-इंटर में था .पर मौका लगे तो अब भी वह दही की कटोरी चाटने से चूकता नहीं.
वार्तालाप सुनते-सुनते  वहाँ से टल गई मैं ,इनके बीच में नहीं पड़ना मुझे. और उसकी मौज में बाधा क्यों बनू !
 ऐसी ही कुछ आदतें मेरी भी तो.
 मुझे ज़रूरी नहीं लगता कि खाना  चम्मच से खाऊँ, खास तौर से खिचड़ी ,तहरी और दाल-भात . हाथ से मिला-मिला कर खाने में कुछ  अधिक ही स्वाद आता है ,उसमें हरी मिर्च के बीज डाल लो तो और आनन्द. उँगलियों और अँगूठे से बाँध कर खिचड़ी के कौर बनाने का अपना ही मज़ा है ..फिर उसके  साथ  चटनी - नाम द्योतित कर रहा है चाटने की चीज़ है .-अँगुली घुमाते हुये  जीभ पर जब चटनी फैलती है तब तो परमानन्द.
पर लोग हैं कि बड़ी नफ़ासत से चमम्च के अग्र-भाग में इत्ती-सी चटनी चिपका कर जीभ से पोंछ देते हैं ,जैसे कोई रस्म पूरी कर रहे हों.
हाँ, कढ़ी-चावल और दही-बड़ों की बात और है -बिना चम्मच के अँगुलियों से टपकने का डर.
 कहीं  से आने के बाद बाहर वाले कपड़े बदल कर मनमाने ढंग से बैठना अच्छा लगता है,बाहर के कपड़ों में अपने आप को समेटे रहने के बाद जब विश्राम की स्थिति बनती है बड़ा सुकून मिलता है - अरे,कपड़े हमारे आराम के लिये हैं या हम उनके.
    एक बात और याद आई - ब्रेड-बटर ,पहले हम इसे डबलरोटी कहा करते थे .इसकी शक्ल-सूरत तब इस तरह की कटी-पिटी  नहीं हुआ करती थी.-दोनों ओर किनारे की भुनी सतह तक साबुत. हम अच्छी तरह शक्करवाली चाय या दूध में डुबा-डुबा कर शौक से खाते.  ऊपर- नीचेवाली मोटी तह का स्वाद और मज़ेदार- एकदम मलाई ,
  अब देखती हूँ लोग कटी-कटाई स्लाइसेज़ भून कर मक्खन लगा कर चबाते हैं और चाय पी कर निगलते हैं. मुझे भी अक्सर करना पड़ता है - सभ्यता का तकाज़ा ठहरा .पर अब भी चाय के साथ बिस्कुट (कल्चर्ड भाषा में बिस्किट ) हों, तो कोना पकड़ कर चाय के प्याले में  डुबा कर खाये बिना मेरा मन नहीं मानता .चाय से भीगा विस्कुट इतना मुलायम और सरस कि मुँह में पहुँचते ही घुल जाय ,वह आनन्द दाँतों से कुतर कर चबाने में कहाँ .
मुझे लगता है सभ्य होने में तकलीफ़ें अधिक हैं .फ़ालतू की ज़रूरतें बढ़ती चली जाती है .गिलास या प्याले को ही लजिये चाय के अलग,कॉफ़ी के मग अलग,शर्बत के लिये अलग,सूप के प्याले क्या चम्मच भी अलग ,जैसे सामान्य चम्मच से ग्रहण करने पर उसके तत्व कुछ और हो जायेंगे.  .ड्रिंक का चलन बढ़ गया है  उस के लिये छोट-बड़े गिलासनुमा पात्र. अगर एक ही पात्र में पीयें तो  स्वाद बिगड़ जाता है क्या ?
पर क्या किया जाय सभ्य होने के यही लक्षण हैं .जिसकी जितनी ज़्यादा ज़रूरतें वह उतना सुसंस्कृत-सभ्य. मारे नफ़ासत और नज़ाकत के आराम से जीना मुश्किल .
 दिमाग़ में हमेशा एक डर कि कोई क्या सोचेगा !
*

प्रस्तुतकर्ता प्रतिभा सक्सेना पर 6:49 pm 18 टिप्‍पणियां:
लेबल: द्योतित, नज़ाकत., नफ़ासत, मग, मौज

सोमवार, 16 मई 2016

महाकाल की धरती पर अमृत महोत्सव -

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  * 
उज्जयिनी या उज्जैन , इस धरती की नाभि , जहाँ स्थित है पीयूष पूरित मणिपुर चक्र  .  शून्य देशान्तर रेखा का प्रदेश(अर्थात् लंका से उज्जैन एवं कुरूक्षेत्र होते हुए जो रेखा मेरु पर्वत तक पहुंचती है वह मध्य रेखा मानी गई है। ) जिसे परसती  कर्क रेखा कोण  बनाने का साहस न कर चुपचाप  गुज़र जाती है    .  यही पुण्यस्थल  धरती के  उत्तरायणगत सूर्य की सीमा रहा है . इसे आच्छादित करता सुविस्तृत महाकाल-वन कब का ध्वस्त हो चुका किन्तु यह अवंतिकापुरी चिर प्राचीना होते हुये भी   चिर नवीना बनी आज भी हलचल-कोलाहल से गुंजरित है .सृष्टि के आदिकाल से इसकी विद्यमानता  है. महाप्रलय के बाद मानव-सृष्टि का आरंभ इसी पावन भू-भाग से हुआ ,  जब स्वर्ग के जीवों को अपने पुण्यक्षीण होने की स्थिति में पृथ्वी पर आना पड़ा , तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग का एक खंड (टुकड़ा) भी ले चलें. वही स्वर्गखंड  यह उज्जयिनी है. इसका एक नाम अमरावती भी है .और प्रतिकल्पा तो यह है ही -प्रतिकल्प में नवीन हो जानेवाली . यह उदयिनी भी है जिसके सूर्योदय को मानक मान कर  इस महादेश के स्थानीय काल निर्धारित किये जाते थे ( कालक्रम में उदयिनी संज्ञा का रूप उज्जयिनी हो गया) और यही इस  विशाल भू भाग की काल-गणना का केन्द्र- बिन्दु था. साक्षी है यह वेधशाला ,आज भी जिसकी उपादेयता खोई नहीं है..

कैसा विस्मय कि महाकाल की छत्र-छाया में अमृतोत्सव का आयोजन !
अंतर्विरोधों के क्रोड़ से ही कुछ नये मानक  ढल कर निकलते हैं ,चरम बिन्दुओं के  मध्य में  संतुलन  का कोई स्थल निश्चित होता है .अमृतमय वृत्तियों का समायोजन ,अति विशाल स्तर पर  उनका संचरण संभव बनाना,उसी के बस का है जो स्वयं विषपायी हो कर सम-भाव से देव-दनुज-मनुज सबके लिये अपने प्रवेश द्वार खोल सके .भेदबुद्धि रहित , नितान्त निस्पृह वही औघड़ ,कालकूट कंठ में धारण कर जीवमात्र के मंगल का विधान कर सकता है
देव -दानवों का संयुक्त श्रम फलीभूत होने पर समुद्र मंथन से निधियाँ प्राप्त होने लगीं.श्री,रंभा ,गजराज,मणि,बाज अच्छी चीज़ें चतुर लोगों ने झपट-झपट कर हथिया लीं. फिर उतराया घोर   हालाहल- कालकूट विष !
 सब स्तब्ध  !क्या होगा इसका ? इसे  कौन ग्रहण करेगा ?
सन्नाटा खिंच गया था  .

मंथन अविराम चलता रहा .
लो ,फिर कुछ लहरा कर ऊपर उठा - अनुपम , दिव्य कलश ! 
 हर्षावेश के स्वर उठे  -यही है,हाँ यही है  अमृत-कलश.
 सब उसे पाने को  लालायित !
लेकिन प्रसन्नता से चमकते  मुखों पर चिन्ता की रेखायें खिंचने लगीं. कोशिश यह कि अमृत केवल हम पियें .और कोई नहीं. अपनी श्रेष्ठता के अभिमान में फूले थे वे .  बौखला उठे  - कलश को लेकर भाग-दौड़ मच गई ,दुनिया भर के छल-परपंच,झूठ-कपट और दादागीरी के दाँव चलने लगे. यहाँ तक कि- तुमने पी लिया तो गर्दन काट देंगे तुम्हारी .
यह कौन सबसे अलग-थलग ,जैसे  कोई निधि पाने की लालसा न हो ,सारी उठा-पटक निर्लिप्त भाव से देख रहा है,सोच रहा है  - अपने स्वार्थ के लिये क्या-क्या करने को तैयार हो जाते हैं लोग!
शान्त मन से  विचार कर रहा है -मंथन के समय सब के सहयोग की आवश्यकता थी ,पूरा हो गया काम  तो बदल गया व्यवहार .
पर इनसे कुछ कहना बेकार .देव-दनुज सब एक से - अपने लघु घेरों में आबद्ध !


अरे हाँ ,पहले निकला था विष -उसे ठिकाने लगाना है
  विमूढ़-से सब ,एक दूसरे का मुख देख रहे हैं .कौन पियेगा इसे ?क्या होगा इसका?

 किसी को नहीं चाहिये ,
पर जो मिला है ,नकारा नहीं जा सकता .
परम शान्त भाव से वह परम योगी सब  देख-समझ रहा है .

कोई नहीं लेगा तो क्या  जंगलों में उँडेल देंगे ?
ओह ,सारी सृष्टि दहक उठेगी  .
कोई नहीं बढ़ रहा आगे !
अरे, अब क्या करें ?


आगे बढ़  कालकूट उठा लिया था उसने
सन्नाटा छा गया ! पात्र उठा कर  मुख में उँडेल लिया  .आँखे फाड़े देखते रह गये सब
(ओ,रे औघड़, सृष्टि के सारे विष-तत्व समा लेगा तू?)
घूँट कर वहीं रोक लिया उसने,नीचे उतरने नहीं दिया .  देखा कंठ नीला पड़ गया  था उसका .


चकित ,विमूढ़
वे सब शीश झुका कर-बद्ध खड़े रहे  . फिर कृतज्ञता  ज्ञापित करते  देवाधिदेव के पद पर अधिष्ठित कर दिया  .
उज्जयिनी हो , हरद्वार हो, प्रयाग  या  नासिक -  सृष्टि के  परम  विरोधी तत्वों को स्वयं में समाहित कर ले ,उसी की छत्र-छाया में अमृतोत्सव  शोभता है, उसी के संरक्षण में जीवमात्र के कल्याण का विधान संभव है .
उसी परम निस्पृह को उज्जयिनी की सतत उत्तर प्रवाहिनी शिप्रा की लहरें  तीन ओर से अर्घ्य समर्पित करती हैं .
अमृतमय शिप्राजल के स्नान,आचमन हेतु  सिंहस्थ कुंभ के अवसर पर विशाल जन-समूह उमड़ पड़ता है अनगिन दिशाओं से पल-पल बढ़ी आती जन-धाराओं का  फैलाव समेटे यह विशाला नगरी है जहाँ  समयानुरूप वेश धारण कर देव-दनुज-गंधर्वों की अदृश पाँतें अमृत-स्नान हेतु उतरती हैं. सिद्ध-साधु-संतों का जमावड़ा,और देश-देशान्तर से चला आता अपरंपार जन-समूह. कितनी भाषायें- भूषायें .एक ही प्रेरणा से संचालित इतनी भारी भीड़ - सब अपने आप में संयत ,आत्म-नियंत्रित.ये परम पुण्य के पल हैं  ,कठिन यात्रा का सुफल.
तुम्हारे चरण-तले सब के लिये स्थान है  ,सब के लिये खुले हैं तुम्हारे द्वार ,भीड़ पर भीड़ ,अपार जनसागर सबको  समा रहे हो.

 सिर्फ़ मेरे लिए स्थान  नहीं तुम्हारे पास ?
मैं नहीं हूँ वहाँ !.
तुम्हारी इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता - विवश हूँ मैं.
ओ महाकाल ,प्रतीक्षा करती .चुपचाप खड़ी हूँ
जब तुम पुकारोगे ,चली आऊँगी उस पुण्य-भू पर.केवल साधना का संबल ,जब कट जायेंगे कलुष-कल्मष,उदित होंगे सुकृतियों  के पल.

जना दिया तुमने कि  अभी नहीं पाऊँगी मुक्ति -  मोक्षदायिनी पुरी कैसे धरेगी मुझे .पता नहीं कितने जन्मों की रगड़ अभी बाकी है. तुम्हारा दिया निर्वासन पूरा हो तो आऊँ .युग बीत गये बाट देखते  अनजान देशों-प्रदेशों में भटकती फिर  रही हूँ .उस पावन धरा का परस तभी मिलेगा, तभी उन शीतल लहरों से -तन-मन का ताप मिटेगा.
तभी अंजलि भर शिप्रा-जल माथे चढ़ाने की कामना पूरी होगी.
प्रणाम ,ओ महाकाल .एक परम लघु जीवन-अणु का मौन-वंदन स्वीकार करो!
शिप्रा की लोल लहरों,तुम्हें छू लूँ इतनी सामर्थ्य नहीं मुझमें , मेरे नयनों में समाये तुम्हारे अमृत जल में जो खारापन घुल गया है ,उसे ही अर्घ्य समझ कर स्वीकार कर लेना!
वंदना के बोल कैसे निस्सृत हों ,एक ही उद्गार बार-बार कंठावरोध कर जाता  है -


'मैं उतने जन्म धरूँ तेरी उस गोदी में ,
तुम बिन जितनी संध्यायें और सुबह बीतें ........'

.....................


बस इतना ही...  आगे  कुछ नहीं कहना है अभी .
छंद अधूरा छूट रहा है,रहे .
वह   दिन आये तो   , . तभी पूरा करूँगी इसे ,और आगे शायद कुछ और भी.....
तब तक आगे के  शब्द अनलिखे  ही रहने दो  !
*
- प्रतिभा सक्सेना.



प्रस्तुतकर्ता प्रतिभा सक्सेना पर 1:08 am 14 टिप्‍पणियां:

मंगलवार, 29 मार्च 2016

सुना आपने ?

 *
सुना आपने -  पानी के पुराने बिल माफ़ और बिजली के रेट आधे !
समझदार थे वे, जिनने बिल नहीं चुकाया . नियमों को मान कर चलेवाले  मूर्ख निकले?
 मज़े से उपभोग करो  ,मूल्य चुकाने नाम कन्नी काट जाओ .अब  बिजली का दाम भी कम हो  गया डट कर फूँको.देखो न ,बिजली-पानी के लिये शोर मचा रहे हैं लोग और हम अपने लोगों को खुली छूटें दे रहे हैं.
कुछ तुम्हारी जेब से तो जाता  नहीं , काहे चिल्लाय रहे हो , आ जाओ हमारे साथ तुम भी .
लोक  तत्काल फ़ायदा देखता है - ये उनमें लोकप्रियता पाने का हमारा फ़ार्मुला है .
कौन कहता है इसे  मुफ़्तखोरी ? ये तोहफ़ा है , हमारी जनता के लिये  .हमें चुना है  प्रसाद तो पायेंगे ही.
समाज में सुव्यवस्था और सदाचरण लाना हमारा काम कैसे ? हमें तो अपने आगे का इन्तज़ाम करना  है !
-
हमारा मुँह का तक रहे हो !
देखो भई ,तुम्हें समझाये  दे  रहे हैं -लिखे-पढ़े हो समझ जाओगे  . प्रान्तों की संसाधन-संपन्नता भिन्न है  भौगोलिक कारण हैं. सबके भंडार अलग-अलग हैं . हमारा कोई दोष नहीं उसमें.भेद सब  ऊपरवाले का किया-धरा है . रही बात एक  देश ,एक राष्ट्रीयता  की - उसे  बाँट दिया हमने , जितना हिस्सा जिसके हाथ लगे ! सबकी अपनी सुविधा-दुविधा, हमने क्या सबका ठेका लिया है ?
*


.

प्रस्तुतकर्ता प्रतिभा सक्सेना पर 4:52 am 4 टिप्‍पणियां:

सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

अरे, राम कहो ...


*

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राम कहो ...
मेरे पति की आदत थी हमारी नन्हीं-सी बेटी की छोटी-सी  गोद में किसी प्रकार सिर टिका कर कहते थे 'निन्ना आ रही है 'और वह दोनों हथेलियों से थपक-थपक कर लोरी गा कर सुलाने लगती थी.कभी ऊँ-ऊँ करेके रोने का नाटक करते तो लाड़ लडाना शुरू कर देती थी.
केवल मेरी बेटी नहीं मैने अन्य बालिकाओं में भी यही वात्सल्य उमड़ते देखा है जैसे  प्रकृति प्रदत्त उनके स्वभाव में हो .इसमें वे बड़ा-छोटा नहीं देखतीं. 
इसलिये जब स्मृति ईरानी ने उस छात्र के लिये 'बच्चे' शब्द का प्रयोग किया तो मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा .उम्र में काफ़ी छोटा होगा सो वात्सल्य प्रकट कर दिया ,  उस छात्र (आदमी कहूँ क्या?)की आपत्ति देख  कर  कुछ विचित्र लगा पर पर लक्षण  देख कर  मामला समझ में आने लगा. 'मातृवत् परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्ठवत्' वाली उक्ति इस कोटि के लोगों को बेकार की बात लगती है. मुफ़्तखोरों को ऐसी बातें बकवास लगती हैंजो उनके मौज-मज़े में थोड़ा भी खलल डालें.परायी स्त्री में मातृभाव देखना उनके लिये वैसा ही  है जैसे गधे के सिर पर सींग ' खोजना.दूसरों की गाढ़ी कमाई पर मौज करना ऊपर से गुर्राना उनकी आदत है . जैसा  अन्न  वैसा ही  मन .सारी बेतुकी बहस उनकी छूछी बौद्धिकता की उपज है .
 हे  स्मृति, -तुम सुन्दर हो ,युवा हो (मुझे लगती हो ), जम कर बोलती हो और वह भी सोच-समझ कर कि साधारण दिमाग़वाला तक  कन्विंस हो जाय .
क्यों कुछ लोगों की बोलती बंद करने पर उतारू हो ?और तुम्हारे लिये हो  मातृभाव की स्वीकृति या सम्मान ,उन लोगों में जो प्रतिद्वंद्वितापूर्ण  महिषासुरी भाव से भरे हों ?
 अरे , राम कहो !  

*
- प्रतिभा सक्सेना.







प्रस्तुतकर्ता प्रतिभा सक्सेना पर 6:36 am 9 टिप्‍पणियां:
लेबल: छूछी, निन्ना, बोलती बंद.
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