राग-विराग 15.
"भौजी, भौजी हो . . . कहाँ गईं? . . देखो तो तुम्हारे लिये क्या आया है?"
साड़ी के पल्ले से भीगे हाथ पोंछती रत्नावली आते-आते बोली, "बड़े उछाह में हो देवर जी, ऐसा क्या ले आये हो?"
देखा, दुआरे नन्ददास खड़े, दोनों हाथों में ग्रंथ सँभाले, रत्ना की गति में वेग आ गया, "तैय्यार हो गई! वाह देवर जी कब से आस लगाए हूँ . . कुछ अंश पढ़े थे, टोडर भैया ने कहा था, प्रतियाँ तैयार करवा रहा हूँ पूरी होने पर, पहले मुझे भेजेंगे . . . " कहती-कहती वह आगे बढ़ आई, दोनों हाथ पसार ग्रहण कर माथे से लगाया . . मुख पर अपूर्व प्रसन्नता छा गई थी।
तुलसी के रामचरितमानस की प्रस्तावना के कुछ अंश और राम-विवाह आदि के कुछ प्रसंगों को रत्नावली ने पढ़ा था और पूरी कथा पढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी।
तब तुलसी पण्डितों के कपट व्यवहार से खिन्न थे और उसे अपने मित्र टोडरमल के पास सुरक्षा हेतु रखवा दिया था। उसकी हस्त-लिखित प्रतियाँ बनवाई जा रहीं थीं, जिसमें पर्याप्त समय लग रहा था। टोडर ने मित्र-पत्नी को आश्वस्त किया था कि जल्द ही एक प्रति उनके पास पहुँचवा देंगे। उन्होंने तुलसी से कह कर नन्ददास के हाथ रत्नावली को भिजवा दी थी।
"पधारो, बैठो देवर जी, अब प्रसाद पा कर जाना। आज तो तुमने सञ्चित मनोकामना पूरी कर दी।"
रामचरितमानस यथा-स्थान पहुँचा कर तुलसी का मन अमित तोष से भर गया - अब कहीं रतन को कुछ उसके मन का दे पाया हूँ. .
"अब तो पुस्तकें ही मेरा साथ निभाने को रह गई हैं," रत्ना ने नन्ददास से कहा था, "अपने को इसी प्रकार लगाए रखा है। नारी हूँ न, मनचाहा घूमने की सुविधा नहीं, किसी से मेल-जोल बढ़ाना मेरे लिए उचित नहीं। मानसिक ऊहापोह ही बचा था। जीने के लिये कुछ सहारा तो आवश्यक है।"
"सच में दद्दू, गीता और पुराण से लेकर अब तक जाने कितने ग्रंथ उन्होंने पढ़ लिये हैं। समय की कमी कहाँ उन्हें, कहीं जाती-आती तो हैं नहीं। भाई -भतीजे अपने साथ चलने का आग्रह करते हैं, भौजी किसी के बुलाए नहीं जातीं। कह देती हैं ’अभी तो एक ढर्रा बना हुआ है यहाँ जब तक हूँ, चलाती हूँ, जिस दिन मुश्किल लगेगा, चली आऊँगी। यहाँ देवर लोग भी सुध लेते हैं, मेरा ख़ूब ध्यान रखते हैं, संदेशे आते-जाते रहते हैं।’ वे कभी कहीं नहीं गईं।"
कोई मुख से न कहे तो क्या, तुलसी जानते हैं वह क्यों नहीं जातीं। एक बार जा कर तो जनम की व्याधि पाल ली, अब किस मन से जाए। यह भी जानती है रतन, कि उस एक घटना के बाद तुलसी उधर की चर्चा भी नहीं करना चाहते।
और रतना ने कभी उन्हें उनकी मर्ज़ी के खिलाफ़ चलाना नहीं चाहा।
एक गहरी साँस निकल गई।
नन्ददास कहे जा रहे थे, "भौजी ने त्याग का जीवन बिताया है। किसी से शिकायत नहीं, किसी से लेना-देना नहीं, जो मिला उसी में निभा लिया। अब देह जर्जर हो गई है। अपना कष्ट किसी से नहीं कहतीं। कितनी ही अस्वस्थ हों अपना नेम-धरम, व्रत-उपासना में कमी नहीं होने देतीं। इतनी उमर हो गई कभी किसी से कोई आस नहीं रखी।
"इतनी दुर्बल हैं। बस, अपने मनोबल से चले जा रही हैं मुझे डर लगता है । दद्दू अचानक कहीं . . . "
एकदम धक् से हो गये तुलसी। यह तो कभी कल्पना भी नहीं की थी। बहुत छोटी है वह मुझसे।
और फिर एक दिन अचानक ही चक्कर खाकर गिरने के बाद रत्नावली निढाल हो गई। उसका भतीजा अपनी ससुराल में आया हुआ था, जो नन्ददास के पिता के घर के समीप थी। समाचार सुन कर चन्दहास के साथ ही वह भी आ गया। रत्नावली की इच्छा-शक्ति कहें या तुलसी का अन्तर्बोध, वे अगली सुबह, उपस्थित हो गये थे।
परिवार और परिजनों में रत्नावली का बहुत सम्मान था। सूचना फैल चुकी थी. .
किसी ने कहा, "लो, बे आय गये।"
मुख्य द्वार खुला था, अबाध अन्दर चले आये उस घर में जहाँ विगत जीवन की स्मृतियाँ चारों ओर बिखरी थीं।
शैया पर लेटी क्षीण काया कुछ चेती, आँखें खोलीं, "आ गए?" मुख पर प्रकाश-सा छा गया, लगा रत्ना मुस्कराई ।
जैसे दीप की लौ बुझने से पूर्व दीप्त हो उठी हो।
और फिर वर्तिका की ज्योति शान्त हो गई।
रत्ना की वयोवृद्ध भाभी बोलीं, "हमारी रतन सुहागिन गई है," अश्रु-प्रवाह रोके नहीं रुक रहा, "सोलहों सिंगार सहित, सिन्दूर मंडित हो चुनरी ओढ़े जा रही है। ननद नहीं, मेरी तो बिटिया समान थी वह, मुझसे पहले कैसे चली गई?"
भाई, मुँह फेर कर आँसू पोंछ लेते हैं।
कुछ सूझ नहीं रहा तुलसी को , कर्म-काण्ड में जो बताया गया गया यन्त्रवत् करते गये।
चलते समय चौकी पर उसके लिखे कुछ पृष्ठ, एक दैनन्दिनी और पीली बकुचिया में सैंती मानस की प्रति अपने साथ रख लिये।
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अयोध्या का गुप्तद्वार घाट!
इसी घाट से सरयू में उतर गये थे श्रीराम।
मन अकुला उठता है, . . . कैसा लगा होगा प्रभु को, जानकी माता की याद आई होगी!
हाँ, यहीं से जल-समाधि ले कर . . . प्रभु राम ने वैकुण्ठ-गमन किया था।
तुलसी इस घाट पर घण्टों बैठे रहते हैं। सरयू-जल बहता चला जाता है, लहरों का नर्तन अविराम चलता है। कल-कल ध्वनि के साथ अद्भुत शान्ति वातावरण में व्याप्त रहती है। समीपस्थ अनेक छोटे-बड़े मन्दिर हैं, पर घाट पर कहीं कोलाहल नहीं . . . .
चुपचाप बैठे तुलसी को लगता है, जल की-धारा गहन हो उठी है। प्रवाह की लय थम सी गई हैं। कुछ वर्तुलाकार होती लहरें वहीं-वहीं घूम रही हैं मध्य में एक विवर बनाती-सी, जो क्षण भर झिलमिला कर जल-मग्न हो जाता है।
कितने बिम्ब बिखर-बिखर कर अतल में विलीन हो जाते हैं।
चतुर्दिक् सन्नाटा छाया है। कहीं कोई नहीं।
अनोखी विरक्ति से तुलसी कह उठते हैं–
"अर्थ न धर्म न काम रुचि पद न चहौं निर्वाण"
मुँदी आँखों से आँसू बह चलते हैं, पोंछने का भान नहीं।
वह अपने भीतर ही खोये हैं। इस घाट से उठने की इच्छा नहीं होती, न रात का भान रहता है न दिन का।
मन जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिरता है।
इतने दिन से अकेले रह रहे हैं लेकिन इतना एकाकीपन कभी नहीं खटका।
सब छोड़ते गये। रहीम गये, टोडर गये और अब रतन भी बिदा ले गई।
मन में प्रश्न उठता है–
’हम सोच लें कि किसी को जीवन से निकाल दिया तो वह सच में निकल जाता है क्या? कभी-कभी लगता है वह गुम हो कर भीतर कहीं बैठ गया है।’
मन ही मन कहते हैं तुलसी, ’तुम आयु पाकर गई हो, अभागिनी नहीं थीं रतन तुम! हमारे प्रारब्ध में यही था।
'पता नहीं मैंने जो किया वह सही था या ग़लत पर उसके सिवा उस समय मैं और कुछ नहीं कर सकता था। ऐसा क्यों नहीं किया-वैसा क्यों नहीं किया—यह सब बाद की बातें हैं। उस समय कुछ नहीं सूझता . . मैं विवश था जो नियति मुझे वहाँ तक लाई थी उस पर मेरा कोई बस नहीं था। मैंने स्वयं को ऐसी स्थितियों में पाया जो मेरे लिये भी बहुत विषम और अबूझ रहीं थीं। उनसे कैसे पार पाया, मैं स्वयं नहीं जानता। पार पाया भी कि अभी भी नियति के पैने दंश मुझे झेलने हैं।
'अब मेरे पास खोने को कुछ नहीं . . . मेरा जीना पता नहीं कितना और है। तुमसे कई वर्ष बड़ा हूँ, बुढ़ापा आ गया है देह क्षीण होती जा रही है। रह-रह कर रोग फेरा लगा जाते हैं। हाथ पाँवों में दम नहीं रहा। कोई नहीं जिसे टेर लूँ। रहूँगा जब तक राम रखेंगे, जैसे रखेंगे। रहना तो पड़ेगा ही। बुढ़ापे में कष्ट झेल-झेल कर लाचार घिसटना जितना कम हो उतना अच्छा। लेकिन वह भी हमारे बस में नहीं।'
वे सोच-लीन हो जाते हैं – ’प्रारंभ से कुछ भी तो अपने बस में नहीं। गुरु-कृपा से कुछ चेता पर सांसारिक व्यवहार में कोरा रहा था, वहीं मात खा गया। जो पाया था, अपने ही आवेग में आ कर गँवा बैठा।'
दीर्घायु पाई थी तुलसी ने। कष्टों से भरा लम्बा जीवन झेलते बार-बार मन में घुमड़ता, ’मैं जनम का अभागा जहाँ रहूँगा अनिष्ट मेरे साथ चलेगा!’
सरयू की लहरों का कलनाद सुनते तुलसी बैठे रहते हैं। काग़ज़ों पर जो पढ़ा था मन में गूँजने लगता है, लगता है रतन बोल रही है, उठती-गिरती लहरों में एक मुख प्रतिबिम्बित होने लगता है। विभिन्न मुद्राएँ अनेक भंगिमाएँ पल-पल बदलती रहती हैं और वही सुमधुर स्वर रह-रह कर सुनाई देने लगता है . .
'तुमने मुझे अपने मानस की प्रति भेजी थी, मैं गद्गद् हो गई। इतनी अनुपम भेंट किसी पति ने अपनी पत्नी को नहीं दी होगी।'
यही तो पृष्ठ के कोने पर लिखा था रत्ना के अक्षरों में।
आगे और भी बहुत कुछ, हाँ कानों में वही ध्वनित होने लगता है–
’....इन दिनों उसी का अवगाहन करती तुम्हारे मानस को थाहने का यत्न करती हूँ।
'तुम्हारे कातर मानस का दर्पण रामचरितमानस, एक विलक्षण रचना है। पढ़ती गई, मुझे लगता रहा, मैं तुम्हारे साथ हूँ, जहाँ तुम हो, मैं हूँ। भौतिकता की भावनात्मक परिणति, तुम्हारी अपूर्व निष्ठा का सबसे सुगन्धित प्रसून!'
सुनसान रात में किसी पक्षी की पुकार गूँज गई। तुलसी चेते।
अक्षरों में वाणी होती है क्या? रह-रह कर कौन बोल जाता है।
रतन बोली कि वे अक्षर स्वरित होने लगे?
हाँ, रतन के सुन्दर अक्षरों में शब्दशः यही लिखा था, तुलसी याद करते हैं और कानों को उसके के प्रिय स्वर का आभास होने लगता है।
घाट पर आई रमणियों के वार्तालाप में, कभी ऐसा लगता है वह बोल रही है। सचेत हो कर सोचते हैं—अरे, वह यहाँ कहाँ?
सरयू की लहरों में कुछ बिम्ब उभरते हैं, लगता है कोई आँखें झाँक गई हैं, कुछ स्वर मुखर हो कर कर्ण-कुहरों में ध्वनित होने लगते हैं–
’तुम माँ जानकी का रूप वर्णन कर रहे थे और मैं, तुम्हारे मन को थाह रही थी। समझ रही थी। देह के सौन्दर्य में कैसी दिव्यता का संचार कर दिया तुम्हारी पावन भावनाओं ने। उसका उपयोग जिस निर्मल निर्दोष मन से तुम करते गये– पढ़ कर लगा नारी तन में कुछ भी ऐसा नहीं जो गर्हित हो। सांसारिकता जहाँ दिव्यता में परिणति पा ले, वहाँ देह एक माध्यम रह जाती है, एक उपकरण बन कर। काया निरर्थक नहीं रही।
’इन अनुभूतियों में, इन वर्णनों में, अपनी विद्यमानता पहचान रही हूँ। तुमने कहा था न..."रतन समुझि जनि विलग मोहि," यहाँ उपस्थित हूँ मैं भी, तुम्हारे साथ—तुम्हारे लेखन में समाहित हो कर। अपने को पहचान रही हूँ, सच, मैं तुमसे विलग नहीं हूँ।'
हाँ, उन पन्नों में जो लिखा था बार-बार पढ़ कर भी नया सा लगता है। रतन का स्वर कानों में समाने लगता है। ज्यों अंतर्मन ने उसका संवाद पा लिया हो।
उसने कहा था, ’तुम्हारे भीतर क्या घटता है मैं समझ रही हूँ, लग रहा है इन अभिव्यक्तियों से बहुत गहरे जुड़ी हूँ । अनेक स्थितियों का अनुभव कर रही हूँ। मैं रामचरित के छन्दों को पढ़ती जा रही हूँ, रोमाञ्च हो आता है, सारी भौतिकता, भावना में ढल गई है, तन्मय हो जाती हूँ। माँ सीता पर बीता लगता है ज्यों मेरा ही बीता हो।
’एक अवधि तक तुम्हारे साथ रही हूँ, उसे अनुभव किया है, आज उसकी निर्मल-शीतल भावमयता में डूबी जा रही हूँ।
’वही प्रेम राम-जानकी के जीवन-कूलों से टकराता, पावन गंगा-सा लहरा रहा है – तृप्त हो गई मैं। कुछ भी आरोपित नहीं सब, अनुभूत, अंतःप्रसूत, हृदय के गहन तल में निष्पन्न मुक्ताओं सा उज्ज्वल, निर्मल!
’तुम्हारी साधना को प्रणाम करती हूँ।
’मुझे लगता था मेरा नारी जीवन अकारथ हो गया है, सबसे प्रमुख कार्य योग्य संतान देना संभव नहीं हुआ। आत्म का विस्तार करने को साधन न मिले। आत्मोन्नयन का यत्न लगातार करती रही, लेकिन अब जान रही हूँ कि अपने स्तर पर मैं कभी महत्वहीन नहीं रही। इस सार्थकता बोध के लिये, जीवन की संध्या में ही सही, मैं तुम्हारा ऋण अनुभव करती हूँ, उदार हृदय की विशालता को
नमन करती हूँ। अब तक स्वयं को समझने का जतन करती रही अब देख लिया मैंने कि मेरा सीमित अस्तित्व विस्तार पा गया है तुम्हारे मानस की रतन व्याप्ति पा गई है। अब समय आ गया है अपने को समेट रही हूँ।
’जाने-अनजाने अपनी दीन-हीनता को तुमने इतना विराट्, इतना व्यापक कर लिया कि सृष्टि का ऐश्वर्य उसमें प्रस्फुटित हो उठा।’
बहुत धीमे स्वरों में कहती है, ’अपना उज्ज्वल पक्ष तुमने राम जी को समर्पित कर दिया, उनके नाम लिख दिया . . धन्य हो गये तुम और साथ में मैं भी।’
अपने अंतःर्वार्तालाप में खोये तुलसी को समय का भान नहीं होता।
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मेरा क्या? जिनको साथ देना था और जिसका साथ वाञ्छित था वह सब छोड़ गये।
मन में कचोट उठती है – मैंने भी तो उसकी उपेक्षा की।
नन्ददास के हाथ उपदेशों के संदेश लिख कर भेजे थे, उन्हीं में एक था –
"तू गृह श्री हृी धी रतन, तू तिय सकति महान।
तू अबला सबला बनै, धरि उर सती विधान॥"
बड़ी बातें सभी सुना सकते हैं मन को समझे ऐसा कोई है क्या?
एक वार्तलाप अविराम मन ही मन चलता रहता है . .
कभी बड़ी निराशा से भर उठते हैं, शरीर निर्बल और सामर्थ्य सीमित हो तो बार-बार मन का दैन्य उमड़ता है। रोगों ने अपना स्थान चुन लिया है, कंधे जकड़ जाते हैं, हाथ पूरा घूमता नहीं। रात को ऐसा पिराता है कि चैन नहीं पड़ता।
अंतर्मुखी मन जब बहिर्मुखी हो स्थितियों पर विचार करता है तो कोई समाधान नहीं मिलता।
मैंने रामराज्य की परिकल्पना साकार करनी चाही थी। अपने मानस में सँजोई कितनी आशाएँ वहीं समो दी हैं। सब कुछ वहाँ व्यक्त कर दिया। लगता है अब कहने को कुछ नहीं रहा। संसार का चलन देख बड़ी निराशा होती है, न आचार रहा न संस्कार। अब तो बच्चों को सचेत करने की ओर कोई ध्यान भी नहीं देता। भोजन-कपड़े और आश्रय दे कर कर्तव्य पूरा समझ लेते हैं। कुल धर्म और रीति-नीति सदाचार की सीख कौन देता है?
धर्म-गुरु, अपनी-अपनी साधने में लगे हैं। समाज किधर जा रहा है किसी को चिन्ता नहीं। सबको अपनी पड़ी है। न बाप-बाप बन पाया न बेटा बेटा। सब अपनी-अपनी राह जा रहे हैं कोई चेतानेवाला, राह दिखानेवाला नहीं।
समाजिक विसंगतियों और उथल-पुथल से खिन्न तुलसी के मन को राम जैसे निस्पृही नायक में युग का त्राणकर्ता परिलक्षित हुआ जिस का सारा जीवन जन-कल्याण के हेतु समर्पित रहा. राजा थे राम, राज-धर्म पूरी तरह निभाया। जहाँ व्यक्तिगत संबंध आड़े आये वहाँ राज-धर्म जीत गया।
एक गहरी साँस लेते हैं तुलसी।
घोर अंधकार में एक प्रकाश किरण झलकी।
और तुम, जिसके लिये सब कुछ त्याग आये वह तुम्हारे साथ है, उसे पुकारो।
लगा वह कह रही है, ’किसी और के आगे दैन्य क्यों, अपने परम समर्थ स्वामी को पुकारो, अपनी विनय उन चरणों में धर दो , वे ही समाधान करेंगे. .
’सारे सभा-जनों के बीच प्रभु के दरबार में अर्ज़ी लगेगी तो उसे बिना विचारे नहीं रहेंगे।'
राम का दरबार, दीन की अर्ज़ी?
तीनों बंधु, पवन-पुत्र, सभी देवता सभा में विराज रहे होंगे, अर्धासन पर माँ जानकी सुशोभित होंगी।
वहाँ उन सामर्थ्यवानों के बीच मेरी क्या बिसात!
तो क्या? अंतर्मन की पुकार निष्फल रहेगी?
मैं, सबसे अनुनय करूँगा।
और जगन्माता सीता करुणामयी हैं। विनती करूँगा अनुकूल अवसर देख, प्रभु राम से मेरी चर्चा कर दें। तभी मैं अपनी अर्ज़ी सामने रख दूँगा।
उस दरबार की मर्यादा के साथ, सभी को सादर प्रणाम करते हुए, अंतर्निहित भावों से रच कर अपनी विनय की पत्रिका उन चरणों में धर देनी है मुझे . .
हाँ प्रभु, यह तुलसी भी कम मुँह-लगा नहीं है, अपनी-सी करेगा ज़रूर!
परम धुनी तुलसीदास ने सोच लिया, सो सोच लिया। अब वह श्रीराम के दरबार में अपनी अर्ज़ी (विनय पत्रिका) पर सही करवा कर ही दम लेगा, इसके लिये उसे प्रत्येक जन की चिरौरी क्यों न करनी पड़े!
(समाप्त)
अपनी दीन-हीनता को कोई इतना व्यापक बना ले कि सृष्टि का सारा सौंदर्य उसमें समाहित हो जाए तो वह अमर हो जाता है, जैसे तुलसी हो गये हैं और जैसे रतन हो गयी है। समापन अंक भी हृदय को गहराई तक छू जाता है और साधना के कई सूत्र भी देता जाता है। बहुत बहुत अभिनंदन और शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंनमन आपकी लेखनी को।
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ ,कामिनी जी.
जवाब देंहटाएंदोनो अंतिम कड़ियाँ एक साथ पढ़ीं । शायद अपनी अन्तरात्मा से संवाद बहुत कुछ प्रश्नों का उत्तर दे देता है । आपकी इस श्रृंखला से बहुत कुछ जानने को मिला । आभार ।
जवाब देंहटाएंअद्भुत लेखन,मंत्रमुग्ध हूँ।
जवाब देंहटाएंबेहद भावपूर्ण चित्रण। आपकी लेखनी की सराहना के लिए शब्द नहीं।
प्रणाम
सादर।
बहुत सरस सुन्दर व सुगठित रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा लेखनी
जवाब देंहटाएंनिःशब्द हूँ मन के भावातिरेक से...
जवाब देंहटाएंशुरू में कुछ कड़ियाँ पढ़ी थी आज समापन अंक पढ़ा पर अब वापस सभी छूटा हुआ पढ़कर ही चैन मिलेगा.... अद्भुत लेखन
कोटिश नमन🙏🙏🙏🙏
I have to thank you for the efforts you’ve put in writing this site.
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी !! आपकी अगली पोस्ट का इंतजार नहीं कर सकता!
जवाब देंहटाएंgreetings from malaysia
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