राग-विराग - 8.
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उस दिन रत्नावली ने कहा था ,'मै हूँ न तुम्हारे साथ.'
'हाँ, तुम मेरे साथ हो.'
पर यहाँ आकर वे हार जाते हैं .अपनी बात कैसे कहें?
नहीं, नहीं कह सकते.
रत्नावली से किसी तरह नहीं कह सकते
मन में बड़े वेग से उमड़ता है - 'यहाँ मैं कुछ नहीं कर सकता .मैं नितान्त लाचार हूँ.
जिस कुघड़ी में जन्मा उसका कोई उपचार नहीं. जो मेरा होगा छिन जायेगा यही देखता आया हूँ. जो मेरे अपने थे काल के ग्रास बन गये .जन्म से भटका हूँ. यही लिखा कर लाया हूँ.'.
मन ही मन कहते हैं ,'नहीं रतन अब नहीं. तुमसे नहीं कह सकता पर तुम्हें खोना भी नहीं चाहता. मैं निरुपाय हूँ.'
और वे चले गये थे ,रतन से बिना मिले.
नन्ददास हैं यहाँ, रतन की खोज-खबर रखते हैं, स्थिति सँभाल लेंगे.
रतन ने कहा था - 'राम ने जो दिया, सिर झुका कर ग्रहण कर लिया, उनकी शरण में जाकर उस सब से निस्तार पा लिया. अब काहे का संताप?'
साथ में यह भी कहा
मैं हूँ न तुम्हारे साथ. तुम्हारा ध्यान रखने को. काहे की चिन्ता?'
और यदि रत्ना भी... नहीं,नहीं. !
और वह उन की थाह पाना चाहती है. मन को पढ़ना चाहती है.
उसकी दृष्टि तुलसी अपने मुख पर अनुभव करते हैं.
'क्या देख रही हो, मेरी विपन्नता?'
'नहीं, देख रही हूँ मेरी पूज्या सास कैसी सुन्दर रही होंगी, सब कहते हैं न कि तुम उनकी अनुहार पर हो. तुम्हारा रंग तो,रगड़ खा-खा कर बाहर घूम-घूम कर कुछ झँवरा गया है लेकिन..वे तो ... '
उस दिन तुलसी जब पूर्व-जीवन की स्मृतियों में भटक रहे थे, बातों बातों में रत्ना के सामने मन की तहें खोलने लगे .
नीमवाली ताई से उन्होंने पूछा था, 'मेरी माँ कैसी थी ,ताई'?
'साक्षात् देवी ,इतने कष्टों में रही कभी शिकायत नहीं.
'तेरे मुख में उसकी झलक है. माँ से बहुत मिलता है रे! मुझे तो उसी का ध्यान आता है तुझे देख कर...'
कई बार बड़े ध्यान से अपना मुख देखते हैं तुलसी. हाँ, दर्पण में देखते हैं,अपने प्रतिबिम्ब के पार खोजते हैं भाल पर सिन्दूर-बिन्दु धारे एक वत्सल मुख को. अंकन झिलमिला कर खो जाते हैं, सब अस्पष्ट रह जाता है.
रत्ना के नयनों में भीगापन उतर आता है.
स्तब्ध रह जाती है, गहन उदासी की छाया मुखमण्डल पर छा जाती है. मौन सुनती रहती है- भूख से व्याकुल बालक जब किसी द्वार याचना करने जाता तो लोगों की आँखों में कैसे-कैसे भाव तैर जाते थे. सहमा सा, अपना हाथ बढ़ा देता, रूखा-सूखा कुछ डाल दिया जाता, उसके लिये वही छप्पन-भोग होता था, बस एक नीम के नीचेवाली ताई प्यार से कुछ पकड़ा देती -'अरे, बाम्हन का छोरा है ,भाग का दोस कि अनाथ बना भटक रहा है.'
लोग कहते, 'अभागा है, माँ तो जनमते ही सिधार गई.'
'अरे, अभुक्तमूल में जन्मा है,जो इसका अपना होगा ,उस पर संकट पड़ेगा.'
बालक सुनता है ,चुप रहता है.
कुछ नहीं कर सकता वह
वे बातें करती है -
'राम,राम, कैसी साध्वी औरत रही. कभी किसी से किसी की बुराई-भलाई में नहीं पड़ी. जैसा था चुपचापै गुज़र करती रही.'
रंबोला को देखो तो माँ का मुख याद आ जाता है, कितना मिलता जुलता है, डील-डौल बाप पर जाता लगता है.' .
'आँखें बिलकुल माँ की पाई हैं.'.
'माँ ,ओ माँ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,' -अंतर चीख़ उठता,' कैसी थी मेरी माँ?'
उदास बालक मन पर भारी बोझ लिये आगे चल देता,
हताशा छा जाती.कहाँ जा कर रहे? क्या करे? ..पेट की आग चैन नहीं लेने देती .
भूल नहीं पाता वे तीखे वचन ,बेधती निगाहें ..
आज स्थिति बदल गई है. वह सामर्थ्य पा गया है उसे साथी मिल गया है .
रत्ना कहती है तुलसी से,'जहाँ अपना बस नहीं, अपना कोई दोष नहीं उसके लिये हम उत्तरदायी नहीं ,उस पर दुःख और पछतावा कैसा?'.
'बचपन पर किसका बस. सब दूसरों के बस में होते हैं .तुम्हारे करने को कुछ नहीं था, तुम्हारा बस चला तुमने कर के दिखा दिया.
'गुरु ने पहचान ली थी तुम्हारी सामर्थ्य.'
'हाँ, आज जो कुछ हूँ उन्ही के चरणों की कृपा है.'
'पात्र की उपयुक्तता भी एक कारण है.'
'तुम में निहित था जो कुछ, उसे सामने ला कर निखार दिया उन्होंने. पारखी थे वे. गुरु का महत्व किसी प्रकार कम नहीं.'
''अब काहे का पछतावा?' .
पर जो बात निरन्तर सालती है वही नहीं कह पाते .
मन ही मन समझते हैं - 'हानि-लाभ,जीवन-मरण ,जस-अपजस विधि हाथ!
अदृष्ट के अपने लेख हैं , वहाँ कोई उपाय नहीं चलता.
किसी का कोई बस नहीं.
कभी तुलसी को लगता है रत्ना को अकेला छोड़ दिया, कैसे क्या करती होगी? अपराध-बोध सालता है. मन को समझा लेते हैं ,बुद्धिमती है. किसी-न किसी प्रकार निभा लेगी, मनाते हैं वह सकुशल रहे.
मेरे मानस में प्रभु राम, माँ-जानकी को नहीं त्यागेंगे ,स्वयं को एकाकी नहीं कर लेंगे. वे चिर-काल साथ रहेंगे, अय़ोध्या के राज-सिंहासन पर और लोक-मानस में, दोनों युग-युग राज करेंगे!
*
(क्रमशः)
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सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 26-03-2021) को
"वासन्ती परिधान पहनकर, खिलता फागुन आया" (चर्चा अंक- 4017) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
आभारी हूँ मीनाजी.
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 25 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका आभार ,दिग्विजय जी.
हटाएंअगली कड़ी का इन्तजार करवाती खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी गाथा रत्ना और तुलसी की, बालपन में न जाने कितने कष्ट सहे तब जाकर उन्हें गुरुकृपा प्राप्त हुई, जिसके कारण वह तुलसी से महाकवि तुलसीदास बन गए.
जवाब देंहटाएंगवेषणआ से युक्त सुन्दर लेख।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर मन को छूती अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंअगले अंक का इंतजार रहेगा।
सादर
विज्ञान की एक कहावत है कि अपवाद सिद्धांतों की पुष्टि करते हैं। हमारे यहाँ एक कहावत है कि जिस पुत्र का मुख माता सदृश हो, वह बड़ा ही भाग्यवान होता है। तुलसी के विषय में इसे अपवाद मानें या सिद्धांत यह तर्क का विषय हो सकता है। बालपन अभावों में अनाथ की तरह बीता - दुर्भाग्य; किंतु एक योग्य गुरु का पारस स्पर्श, एक विदुषी को अर्द्धांगिनी के रूप में मनस्विनी रत्ना को पाना - सौभाग्य।
जवाब देंहटाएंएक बड़ा ही अनिश्चित सा जीवन और उतनी ही अनिश्चित भ्रांतियों का जाल कि जो भी प्रिय उनके सम्पर्क में आएगा वह काल का ग्रास बनेगा! रत्ना का परित्याग और रत्ना की चिंता, उसके साथ बिताए पल...! अजीब डाँवाडोल मनस्थिति का स्वामी!
प्रतीक्षा है कि आगे कथा कौन सा मोड़ लेती है और क्या क्या रूप दिखाती है। फ़िलहाल तो आनंद-यात्रा है मेरे लिये। प्रणाम माँ!!
वाह। देखिये सलिल जी भी नहीं रोक पाये अपने को आपकी इस सुन्दर लेखनी के आकर्षण से। उनके भी दर्शन हो गये :)
जवाब देंहटाएंतुलसी दास ने निर्णय कर लिया कि राम जानकी को नहीं त्यागेंगे .... अपना भोग हुआ दुःख याद आ गया .... बहुत ज्यादा इंतज़ार करवा दिया इस बार ... अगली कड़ी जल्दी दीजियेगा .
जवाब देंहटाएंहोली की शुभकामनाएँ ... सादर .
संगीता जी,
हटाएंआपकी टिप्पणी का इन्तज़ार कर रही थी,तब से.
आपका स्नेह है ... ये यूँ ही हमेशा रहे ... आपका वरदहस्त बहुत ज़रूरी है मेरे लिए .
हटाएंसुशील जी,मेरे लिये आप भी ,सलिल से कम महत्वपूर्ण नहीं है ,और वे जो मेरे ब्लाग पर आकर लिख गये हैं-मीना जी,दिग्विजय जी ,गगन जी,डॉ. शास्त्री ,और महत्व उनका भी है जिन जिन ने ब्लाग पर आकर पढ़ा ,लेकिन मुझे उनके नाम नहीं मालूम.
जवाब देंहटाएं_/\_ आभार।
हटाएंजी मेरा मकसद था कि सलिल जी एक लम्बे अर्से के बाद ब्लोग जगत में फ़िर से दिखे हैं। कुछ लोगों की कमी इस दुनियां में खलती है जिनकी लेखनी लाजवाब है ।
हटाएंतुलसीदास जी और रत्ना के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा। इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर पृष्ठभूमि पर भावनाओं को सजाया है तुलसीदास के पार्श्व में रत्नावली का अस्तित्व - - अतुलनीय - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर प्रसंग |
जवाब देंहटाएंप्रतिभा दी, तुलसीदास और रत्नावली का चरित्र लेखन बहुत ही खूबसूरती से किया है आपने। अगली कड़ी का इंतजार है।
जवाब देंहटाएंक्या एक और मानस का हंस लिखा जा रहा है??? अफसोस है देर से आई, पर सही आई। पढती हूँ शुरू से। कोटि आभार और प्रणाम 🙏🙏🌹🌹
जवाब देंहटाएंआपकी लेखनी को प्रणाम 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत उत्तम सद्साहित्य रच रही हैं आप...
बहुत शुभकामनाएं 🙏
आपको पढ़ना सदैव सुखद है । हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंतुलसी और रत्ना के मन के अन्तर्तम कोनों में झाँक कर देखने और उसका मनोवैज्ञानिक चित्रण करने में
जवाब देंहटाएंलेखिका को अद्भुत प्रतिभा का वरदान प्राप्त है, जो पाठक को निरन्तर बाँधे रखता है । साथ ही आगे के प्रति जिज्ञासा और उत्सुकता जगाता है । लेखनी में चुम्बकीय आकर्षण है।
बहुत ही बढ़िया लेख, तुलसी जी के जीवन से जुड़ी कई जानकारियां प्राप्त हो रही है, सादर नमन आपको, आपकी लेखनी कमाल की है, अद्भुत, शुभ प्रभात, आप लोगों की पोस्ट के बारे मुझे पता नही लगता, फिर भी अगली रचना के इंतजार में यहाँ आकर झाँक जाऊँगी, हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंआह , उसकी व्यथा वेदना की क्या सीमा जिसने मां को देखा तक नहीं , उसकी गोद में सोने की, उसकी छाती से लगकर ऊष्मा पाने की बात तो बहुत दूर है .. उस अन्तस् की छटपटाहट का आपने बखूबी वर्णन किया है .
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कथा,आपकी लेखनी निरंतर बांधे हुए चल रही है,सादर शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब, हृदयस्पर्शी सृजन...।
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