मंगलवार, 27 अगस्त 2019

आस्थावान या आस्थाहीन?

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मुझे याद है उन दिनों, की जब मोहल्ले के मंदिरों में सुबह-शाम झाँझ-मझीरे बजाकर आरती होती थी ,आस-पास के बच्चे बड़े चाव से इकट्ठे हो कर  मँझीरा बजाने की होड़ लगाए रहते थे.नहीं तो ताली बजा-बजा कर ही सही आरती गाते थे . उनके आकर्षण का एक कारण वह ज़रा-सा प्रसाद भी होता था- प्रायः ही बूँदी के या इलायची दाने , परम संतुष्ट भाव से दोनो हाथों से सिर चढ़ाकर जिस आनन्द-भाव में वे बाहर निकलते थे ,अपने आप में एक दृष्य होता था.
धर्म का आधार नैतिकता है ,उस के दस लक्षण इसी के परिचायक हैं.लेकिन धर्म और नीति के पुरोधा अपने-अपने ढोल पीटने की धुन में समाज को दिशा देने का  कर्तव्य  भूल जाते हैं .और माता-पिता एवं शिक्षक कक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाने को योग्यता का मानदण्ड बना लेते हैं .यह तो पढ़ने-लिखनेवाले बच्चों की बात हुई ,जिन्हें शिक्षा पाने की कोई सुविधा नहीं ,उन  पर भी ध्यान देना भी ज़रूरी है. समाज को विकृतियों को बचाने के लिये प्रारंभिक अवस्था में उनको सही संस्कार मिल जाएँ तो अनेक विकृतियों से बचे रहने की संभावना बनी रहती है. आगत पीढ़ियों को  उचित संस्कार देकर ही विचलन से बचाया जा सकता है .

एक बात और -
 मूल देवताओं से हट कर नये-नये आश्रयों  की संख्या  में इजाफ़ा होता जा रहा है . लोग किसी नये पीर,संत या देव की सूचना सुनते ही दौड़ पड़ते हैं . स्वार्थ-सिद्धि की सिफ़ारिशों के लिये एक नया ठीहा जो मिल गया! कितनी तत्परता से नये-देवताओं की उद्भावना और स्थापना हो जाती है.सामान्य जन बिना विचारे ही ऐसे प्रयोगों के लिये उत्साहित रहता है.कैसा स्वार्थी विश्वास कि अपनी मूल मान्यताओं को भुला कर नये ठिकानों में समाधान  खोजते फिरते हैं. समझ में नहीं आता इसे आस्थावान होना का कहा जाय  या आस्थाहीन!
इस दौड़ में अपनी परंपराएँ और उनकी शुचिता की बात भुला दी जाती है .अभी पिछले दिनों विष्णु-पत्नी लक्ष्मी को कुछ समय पहले उदित हुए एक नये देव के चरणों में बैठा दिया गया था(बाद में  विरोध के स्वर उठे थे )लेकिन अपनी सुदृढ़ परंपराओं का विदूषित होना किसी का मन कैसे सहन कर लेता है,
गीता के गायक,कर्मशील  कृष्ण को तो हमारे पुराणकारों ने ही लंपट-लफंगा बना डाला, उसकी परिणति क्या होती चली गई ,सर्वविदित है .राधा एक गुमान भरी प्रदर्शन-प्रिय युवती रह गई जिसके पीछे गली के लड़के लगे रहते हैं  ( याद कर लीजिये सिनेमा का गाना जिसा पर लोग हाव-भाव के साथ नाचते हैं )ऐसे उपक्रम समाज को पतन की ओर ले जा रहे हैं ,राधा-भाव की ऐसी दयनीय परिणति,और ऐसी  कुत्साओं के समावेश से,धर्म की भावना  तमाशा बन जाती  है .
हर संप्रदाय या धर्म के कुछ अपने नियम-अनुशासन होते हैं ,जिन्हें उसके अनुयायी शिरोधार्य करते हैं,भारतीय परंपरा मे विकसित,जैन और बौद्ध धर्म बहुत बाद में आये लेकिन उनमें भी नीति-नियमों का अनुशासन मान्य है ,पर हमारे समाज का एक बड़ा भाग किसी नियमन  को नहीं मानना चाहता,उनका मज़ाक उड़ा कर अपने आपको उससे ऊपर समझ लेता है .

 धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर खुली छूट मिलने के स्थान पर कुछ अनुशासन होने चाहियें जिससे कि बिना सोचे-समझे कैसे भी कुछ करने की मनमानी न हो .कैलेण्डरों में और निमंत्रण पत्रों ,में देवी-देवताओं के चित्र ,और अब तो स्टिकर्स का भी प्रयोग होने लगा है,जो बाद में बेकार हो कर कूड़े  में फिंक जाते हैं, पाँवों के नीचे आते हैं और गंदगी में पड़े रहते हैं. ऐसी स्थितियों पर  रोक लगनी चाहिये.
धर्म में आती जा रही इस अराजकता पर ,सामान्य जन बिना सोचे-विचारे ,केवल अपनी सुविधा के लिये  दौड़ पड़ता है ,उस पर भी अंकुश लगना ही चाहिये . मनमानी न हो ,समाज जाग्रत हो, इसके लिये  समुचित प्रयत्न होने  वाञ्छित हैं .

 ऐसी एक संहिता की भी आवश्यकता है
 जिसमें धर्म का सर्वजन-सुलभ, सहज  निरूपण हो,जिसे सामान्य व्यक्ति ग्रहण कर सके,जिसे कोई विरूप न कर पाये., नैतिकता शिक्षा पर समुचित बल हो    समय-समय पर उसका व्यावहारिक आकलन और सुधार भी होता रहे.
 कुंभ जैसे अवसरों पर धर्माचार्य मिलकर  समुचित विचार और समीक्षा कर लोगों का मार्ग-दर्शन करें तो कितना अच्छा रहे ..
  लोग गंभीरता से अपनी आस्था पर जमे रह सकें तो विचलन की संभावना न रहे ,क्योंकि
धार्मिक परिप्रेक्ष्य व्यक्ति के ही नहीं सामाज के मानदंडों को भी प्रभावित करते हैं .
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6 टिप्‍पणियां:

  1. विचारणीय पोस्ट..हरेक को अपने स्तर पर इस अराजकता को दूर करने के लिए जो सम्भव हो करना ही होगा. समय बदल रहा है आज कल तो मोबाइल पर ही आरती व भगवान के दर्शन हो जाते हैं.

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  2. सार्थक लेख। परिभाषायें भी वोट बना रही हैं :) शाशन के लिये अनुशाशन की ही जरूरत नहीं बची है बाकि जैसा कर सकें।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (30-08-2019) को "चार कदम की दूरी" (चर्चा अंक- 3443) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. बहुत विचारणीय लेख,प्रतिभा दी।

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  5. गहरी व्याख्या लिए इस लेखन हेतु साधुवाद आदरणीया ।

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