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पहले एक पहेली बूझिये फिर आगे की बात -
'कोठे से उतरीं, बरोठे में फूली खड़ीं.'
इन फूलनेवाली महोदया का तो कहना ही क्या!(इन पर एक पूरा पैराग्राफ़ लिखना अभी बाकी है).
बीत गए वे दिन जब घरों में भोजन बनाना जैसे कोई नित्य का आयोजन होता था.किसी विशेष अवसर पर तो अनुष्ठान जैसा. सुरुचि -सावधानी के साथ विधि-विधान से यत्नपूर्वक बनाना और चाव-भाव से खिलाकर तृप्त कर देने का उछाह . न कोई शार्ट-कट , न रेडी मेड साधन,और न कोई जल्दी-पल्दी.पूरे विधान के साथ ,सधी हुई आँच पर पूरे इत्मीनान से पकाना ,कोई हबड़-तबड़ नहीं. कोई कहीं भागा नहीं जा रहा है.- न पकानेवाले न खानेवाले.
पूरे मनोयोग से तैय्यारी और पूरी रुचि से आस्वादन.
संतोष .और प्रशंसा के दो बोल सुनने को मिल जाएँ तो लगता सारा श्रम सार्थक हो गया. वे दिन कब के बीत गये .
परिवार में 6-7 लोग होते ही थे ,आए-गए भी बने रहते थे. और खुराक,आज से कहीं अधिक .अपने से ही देख लें, कितना खा और पचा लेते थे औऱ अब जैसे डर-डर कर खाते हैं ,
हाँ ,तो जैसे रुचिपूर्वक ,इत्भोमीनान से भोजन पकाया जाता था और उतने ही चाव से परोसा-खिलाया जाता था .खाना अब भी घरों में पकता है पर उन दिनों के साथ ही वह भाव, चाव और स्वाद ग़ायब हो गए है.
न वह आयोजन,न वह व्यवस्था ,वह सामग्री ,वे साधन और वे प्रयास भी अब उसके पासंग भर भी नहीं .अब कहाँ चूल्हा, और धुएँ की सोंधी महक ,अब तो गैस की कसैली गंध,नॉब को खोलते -बंद करते प्रायः ही हवा में तैर आती है.सिल-बट्टा कही दिखाई नहीं देता और न जम कर पीसने वाले. पत्थर की सिल पर पिसे उस ताज़े पिसे मसाले की बात ही और थी,जो मौसमी तरकारियों में सिझ कर जो अनुपम स्वाद देता,ये पनीर ,न्यूट्री नगेट और खुम्भी,जैसी माडर्न चीजों की उसके आगे क्या बिसात! पिसे मसाले कहाँ? महरी या नाइन ,हल्दी भी सिल पर पीस कर नारियल की नट्टी में रख देती ,कि दाल में पड़ जाय.बाकी तो खड़े मसालों के साथ सिल पर पिसेगे ही.
वो अरहर की आम पड़ी चूल्हेवाली दाल जिसमें देसी घी में लहसुन-मिर्च का करारा छौंक लगा हो ,उसके आगे म़ॉडर्न करियाँ फीकी पड़ लगती हैं.हमारे घर लौकी के बड़े-बड़े टुकड़े दाल चढ़ाने के साथ ही डाल कर घुला दिये जाते थे ,जिससे दाल में विलक्षण स्वाद का आ जाता थ. सिल पर पिसी चटनी की तो बात ही क्या !
आज पिसे मसालों के डिब्बे और दुनिया भर के पैकेट अल्मारी में भऱे हैं, पर उन गिने-चुने मसालोंवाला स्वाद खो गया है.हर चीज़ में टमाटर डालने की रीत नहीं थी,सब अपना एक निराला स्वाद लिये थीं तरकारी का रसा कृत्रिम रूप से गाढ़ा न हो कर मसालों की असली गंध में बसी तरावट वाली तरलता सँजोये रहता था.तरकारियों ,और बटलोईवाली दाल के क्या कहने ,जिसे चूल्हे पर चढाने बाद पहला उबाल उतार फेंकना जरूरी होता था. और लोहे के बड़े चमचे में अंगारों पर रख कर बनाया हुआ,दूर तक गमक फैलाता ,देशी घी का तीखी मिर्चोंवाला करारा छौंक बटलोई मैं छनाक से बंद होता देर तक छुनछुनाता,स्वाद की घोषणा कर देता था.
काँसे की थालियाँ, फूल की कटोरे कटोरियों के साथ चम्मच घर में गिनती के रहते थे .वे लंबे गिलास विस्थापित हो गए. भारी पेंदी की पतीलियाँ और लोहे की कढ़ाइयाँ जाने कहाँ खो गईं . कुकर और पैन उपस्थित हैं.नानस्टिक में दो बूँद तेल से काम चल जायेगा.और देशी घी भी लोगों को नुक्सान करने लगा है,अब तो रिफ़ाइण्ड आयल ,रिफ़ाइण़्ड प्रकृति के अनुकूल पड़ता है.
खाना चलते-फिरते फटाफट बनता है ,प्लेटों में परस कर पेट भरने का पूरा इन्तज़ाम होता है.चम्मचों की कमी नहीं .डिज़ाइनदार ,श्वेत ,झमकती फ़ुल,हाफ़ ,क्वार्टर प्लेटों से टेबल सजा है ,छुरी चम्मच,नैपकिन सब उपस्थित फिर भी जाने क्यों मन वैसा नहीं भरता.
लगता है तृप्ति की क्वालिटी अब बदल गई है.
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वाह! आलेख पढ़ते पढ़ते जैसे वे पुराने दिन लौट आये, वाक़ई अब सुविधाएँ ज़्यादा हैं पर भोजन की वैसी पवित्रता और सुगंध जैसे खो गई है, वक्त का काम है बदलना वह बदल ही जाता है
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबीते दिनों की यादों से मन को महका दिया आपने। मैं ख़ुशनसीब हूँ कि मेरी पारम्परिक स्वभाव की तथा पाक-कला में अत्यंत कुशल धर्मपत्नी अब भी कभी-कभी मुझे उन पुराने दिनों में वापस ले जाती हैं। शुक्रिया आपका।
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