मंगलवार, 22 नवंबर 2022

चलो, आज इस महाद्वीप के बहुरंगी आँगन में..

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(पृष्ठभूमि में धीरे धीरे प्रकाश बढ रहा  है ।एक ओर से कुछ युवक और  युवतियाँ - विभिन्न देशों की वेश-भूषा -  में धीरे धीरे प्रवेश करते हैं ।

एक युवती -(एक्शन के साथ ) चलो, आज इस महाद्वीप के बहुरंगी आँगन में

  जहाँ खड़ी है मानवता भारी चिन्ता ले मन में 

संकल्पना विश्व मानव की आशाओं में भर कर !

भारत के सांस्कृतिक दूत से हम आ बसे यहाँ पर !

एक युवक -कितने वर्ष हो गये हमें इस धरती पर रहते भारत के संस्कार और यहाँ का नये प्रकार का जीवन दोनों कैसे मिल रहे हैं।

दूसरा .-कितने देशों के लोग ,कितनी संस्कृतियाँ ,सब मिलजुल  कर एक व्यापक  मानव संस्कृति की रचना कर रहे हैं।लगता है सारी दुनिया यहाँ हिल-मिल कर रह रही है ।

दू.यु.- हाँ बंधु ,मैंने तो इस देश में ही जन्म लिया ।मुझे लगता है सारी दुनिया मेरा घर है उधर भारत इधर अमेरिका बीच की सारी दुनिया को समेटे ज्ञान-विज्ञान और धर्म-आध्यत्म का समन्वय कर रहे हैं   

 यु. जैसे पूरव और पश्चिम का मेल हो गया हो ।एक दूसरे को समझ कर और अपना कर दोनों ही पूर्ण होते जा रहे हैं ।

यु. - हमारे वेदों ने यही कहा है -चलते रहो -आगे बढ़ते रहो -शरीर मन और बुद्धि सदा सचेत रहे और नई चीजों को ग्रहण करती हुई  नई चेतना से पूर्ण रहे ।

पृ .संगीत- चरैवेति दुहरा, वेदों ने ये ही तो गाया है 

सत्य एक है, तू-तू मैं-मैं मिथ्या है माया है ।

यु.. सदा सक्रिय  हो रहे  बुद्धि बस वही युक्ति अपनाई !

नई रोशनी में विचार की स्वतंत्रता भी चाही  .

यु .- सच है , निर्णय को अपना विवेक हो ,प्रखर तर्क वाहन हो ,

धर्म धरा पर सब के सुख औ'मंगल का साधन हो !

नई दिशायें खोजो ,नई विधाओं को स्वीकारो 

नये विचारों से रे मानव, जीवन-जगत सँवारो !

(पीछे से दैड़ते हुये कुछ लोग आते हैं ।शोर की आवाजें आ रही हैं ।आनेवाला व्यक्ति दोनों हाथ उठा कर सावधान करता हुआ )

किन्तु, दूसरी ओर कहीं से उठती काली आँधी ,

मानवीयता  की सीमायें, बर्बरता ने  लाँघी !

इस प्रशान्त सागर से ले अतलान्त महासागर तक ,

उसने अपनी पहुँच बना ली घर औ' चौबारों तक 

(बम लेकर ,हथियार लेकर भागते आते लोग आतंकी आवाजें आ रही हैं - ,हम हवाई जहाजों में बम रख देंगं ।तुम सबको मार डालेंगे ।ये स्कूल कालेज ,अस्पताल मंदिर नष्ट कर देंगे ।इस सारी सभ्यता को मटियामेट कर देंगे  मंच पर हिंसा का वातावरण इस सारी उसभ्यता को, तुम्हारी उपलब्धियों को मटिया मेट कर देंगे।

(ट्विनटावर्स और ट्रेड लेंटर के ध्वंस का दृष्य उभरता है ।   )

मानव की जय-यात्रा के वे ऊँचे पैमाने , और शान्ति-प्रतिमाओं के खंडक दानव मनमाने

  (पृष्ठभूमि में ट्विन टावर और सेंटर, यानों का उडना बम फटने की आवाज़ें ,टावरों का गिरनाऔर बुद्ध प्रतिमाओ के खण्डन के दृष्य )।

निगल गया उनका जुनून ,जाने कितनो की जाने ।  क्षिति का उर विदीर्ण करता , भर विश्व-द्रोह की तानें.

 टु.- लेकिन ये दुर्दान्त रक्त के प्यासे कब समझे हैं 

रूढ़िग्रस्त ये जीव, सड़ रहे मानों  पर मरते हैं. 

 (एक संत सामने आता है और कुछ लोगों को इधऱ उधऱ करता हुआ कहता है -)

एक चेतना सब जीवों में ,लक्ष्य एक  सबका है

औरों का उपकार पुण्य ,दुख देना पाप बड़ा है 

धरती को कुटुंब मानो रे, धर्म यही बतलाता ,

जीना-मरना यहीं ,हमारा जीवन भर का नाता.


 (युवक-युवतियाँ आगे बढ आते हैं  -)

एक.- इंसानी दिमाग कुण्ठित कर जोंबी रच डाले हैं

 अतिचारो का होता है नर्तन. इनके इंगित पर

भर देते उन्माद कि अपने उल्टे पाठ पढ़ाते,!

 मृत्यु ध्वंस की आग लगाते घूम रहे ये पशु-नर !

(पृष्ठभूमि में स्वतंत्रता की मूर्ति और सत्यमेव जयते का चिह्न उभरता है )

दूसरा -  समता ,स्वतंत्रता ,मानव की गरिमा औ' अनुशासन ,

कुछ न चाहिये इन्हें , प्यास है सिर्फ खून की इनको,

सब को दानव बना रहे  लो सुनो, जुनूनी भाषण,  

(आतंकी नारों और भाषणों की ज़ोर ज़ोर की आवाजें  )


संत - सत्य प्रेम के लिये नहीं तृष्णा का पोषण करने ,

तहस-नहस सब करते बम बन कर आते हैं मरने !


युवती - यहाँ चार बस, वहाँ हरम में मिलें बहत्तर हूरें ,

 यही धर्म सिखलाते उनको नफ़रत भरते मन में - ।

दूरा युवक -

बुद्धि व्यर्थ है, न्याय  भ्रष्ट  है, तर्क पाप है  जिनको ,

सत्य रुद्ध सब ज्ञान त्याज्य और धर्म ख़ब्त है उनको  !

 (युवक-युवतियाँ मिलकर अपने हाथ उठा-उठा कर बोलते हैं -)

हम आज़ाद करेंगे जग को ऐसे हत्यारों से 

कायर ,पापी ,बर्बरता के ध्वंसक हथियारों से !


संत - कैसा मज़हब,प्रेम नहीं ,औरों से घृणा सिखाये 

मानवता से गिरे हुये  , औरों को तुच्छ बताये 

धर्म नहीं जो द्वेष -दुश्मनी सर्वनाश सिखलाये 

जो न शान्ति से जिये कि कोई और न जीने पाये !


एक साथ आ जाओ,धरती का कलंक धो डालो,

बहुत हो गया, रक्तबीज का अब लोहू पी डालो 

शान्ति दूत हो तो क्या ,पशुता सहन करे जाओगे  

समाधान खोजें मिलजुल कर सारे पक्ष  विचारे !

इस जीवन में  अर्थ भरें ,इस जग को और सँवारें 

नापें सागर की गहराई ,बाँटें सुख-दुख सारे !

---  प्रतिभा सक्सेना 


5 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर भाषा और अनुपम सन्देश देती रचना, मजहब के नाम पर अत्याचार और अनाचार कब तक चलेगा, एक दिन तो उसका अंत निश्चित है, आज उनके भीतर से भी कुछ आवाजें उठ रही हैं, लगता है शीघ्र ही समय परिवर्तन होगा

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  2. वाह्ह ..।
    सार्थक संदेश युक्त बेहतरीन नाटक।
    प्रणाम
    सादर।

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