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यह अक्ल नाम की बला जो इन्सान के साथ जुड़ी है बड़ी फ़ालतू चीज़ है. बाबा आदम के उन जन्नतवाले दिनों में इसका नामोनिशान नहीं था. मुसम्मात हव्वा की प्रेरणा से अक्ल का संचार हुआ, परिणामस्वरूप हाथ आई ख़ुदा से रुस्वाई. इसीलिये इंसान को अक्ल आये यह कुछ को तो बर्दाश्त ही नहीं, उनका कहना है इंसान को खुद सोचने-विचारने की जरूरत ही नहीं . ख़बरदार! अपनी अक्ल कहीं भिड़ाई तो समझो गए दोज़ख में. और अक्ल के पीछे लट्ठ लिये घूमते हैं.
मुझे अक्ल की दाढ़ ने बड़ा परेशान किया था. जब अच्छी तरह सिर उठा चुकी तब पता लगा. समझ में नहीं आता जब अक्ल आने की उम्र होती है तब यह क्यों नहीं निकलती.पढ़ाई और एक्ज़ाम का समय था तब हाथ नहीं आती थी बाद मे अचानक निकल कर तमाशे दिखाने लगी .
अति सर्वत्र वर्जयेत् - मानी हुई बात है. अक्ल बढ़ेगी तो कुछ न कुछ गज़ब करेगी. तो इस अक्ल की दाढ़ को क्या कहा जाय? अचानक कोई चीज़ बढ़ जाय तो बैलेंस बिगड़ जाता है. केवल अक्लमंद हो यह किसी के बस में नहीं - बैलेंस बराबर करने को बेवकूफ़ियाँ लगी-लिपटी रहती हैं.सामने आने से कितना भी रोको ,जरा ढील पाते ही पाते ही प्रकट हो जाती हैं .
फ़ालतू की अक्ल ही सारी खुराफ़ातों की जड़ है जीना हराम कर देती है औरों का और अपना भी अचानक बाढ़ आती है तो दिमाग़ का बैलेंस बिगड़ने लगता है, अनायास अजीब वक्तव्य मुखर होने लगते हैं. एक उदाहरण लीजिए- छत्तीसगढ़ के एक मंत्री महोदय का बैग चोरी हो गया. नाराज होते हुए उन्होंने कह डाला, ‘‘मोदी जी रेलवे में मंत्रियों के बैग चोरी करवा रहे हैं। 100 दिन के कार्यकाल पूरे होने की ये उनकी उपलब्धि है.'' यही कहलाता है- अक्ल का विस्फोट .
वैसे तो दिमाग़ की कमी नहीं इस दुनिया में,ढूँढ़ने चलो हज़ार मिलते हैं, अपने बिहार की खासूसियतें तो जग-ज़ाहिर हैं. वहीं के एक मुख्यमंत्री जी की ज़ुबान ज़रा फिसल गई ,फिर क्या था ,मीडियावाले तो इसी ताक में रहते हैं. ले उड़े. तमाशा बनने लगा तो महोदय भड़क गए, 'बोले हमें गलत ढंग से पेश किया गया.' खिसियाहट में पत्रकारों को उचक्का कह डाला.यों उनका कथन ग़लत भी नहीं था -ये लोग भी तो कच्ची-पक्की हर बात उचक लेते हैं. मंत्री जी आवेश में थे ही, आगे कहते चले गए,'हम तो लात खाने के लिए ही बैठे हैं, कोई इधर से मारता है तो कोई उधर से..' ज़ुबान कुबूलती चली गई. सच ही तो बोल रहे थे - बेचारे!
जानवरों में नहीं होती . कैसी शान्ति से रहते हैं .और ये फ़ालतू अक्लवाले !कभी इधर की कमी निकाली कभी उधर की चूक. न अपने को चैन, न दूसरों को चैन लेने दें. .
अरे, पर मैं ये सब क्यों कहे जा रही हूँ? दुनिया जैसी है, वैसी रहेगी हमारे रोने-झींकने से कोई बदल थोड़े न जायगी.
अपने को क्या!
कबीर सही कह गए हैं -
'सुखिया सब संसार है खाये अरु सोवे ,
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै.'
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यह अक्ल नाम की बला जो इन्सान के साथ जुड़ी है बड़ी फ़ालतू चीज़ है. बाबा आदम के उन जन्नतवाले दिनों में इसका नामोनिशान नहीं था. मुसम्मात हव्वा की प्रेरणा से अक्ल का संचार हुआ, परिणामस्वरूप हाथ आई ख़ुदा से रुस्वाई. इसीलिये इंसान को अक्ल आये यह कुछ को तो बर्दाश्त ही नहीं, उनका कहना है इंसान को खुद सोचने-विचारने की जरूरत ही नहीं . ख़बरदार! अपनी अक्ल कहीं भिड़ाई तो समझो गए दोज़ख में. और अक्ल के पीछे लट्ठ लिये घूमते हैं.
मुझे अक्ल की दाढ़ ने बड़ा परेशान किया था. जब अच्छी तरह सिर उठा चुकी तब पता लगा. समझ में नहीं आता जब अक्ल आने की उम्र होती है तब यह क्यों नहीं निकलती.पढ़ाई और एक्ज़ाम का समय था तब हाथ नहीं आती थी बाद मे अचानक निकल कर तमाशे दिखाने लगी .
अति सर्वत्र वर्जयेत् - मानी हुई बात है. अक्ल बढ़ेगी तो कुछ न कुछ गज़ब करेगी. तो इस अक्ल की दाढ़ को क्या कहा जाय? अचानक कोई चीज़ बढ़ जाय तो बैलेंस बिगड़ जाता है. केवल अक्लमंद हो यह किसी के बस में नहीं - बैलेंस बराबर करने को बेवकूफ़ियाँ लगी-लिपटी रहती हैं.सामने आने से कितना भी रोको ,जरा ढील पाते ही पाते ही प्रकट हो जाती हैं .
फ़ालतू की अक्ल ही सारी खुराफ़ातों की जड़ है जीना हराम कर देती है औरों का और अपना भी अचानक बाढ़ आती है तो दिमाग़ का बैलेंस बिगड़ने लगता है, अनायास अजीब वक्तव्य मुखर होने लगते हैं. एक उदाहरण लीजिए- छत्तीसगढ़ के एक मंत्री महोदय का बैग चोरी हो गया. नाराज होते हुए उन्होंने कह डाला, ‘‘मोदी जी रेलवे में मंत्रियों के बैग चोरी करवा रहे हैं। 100 दिन के कार्यकाल पूरे होने की ये उनकी उपलब्धि है.'' यही कहलाता है- अक्ल का विस्फोट .
वैसे तो दिमाग़ की कमी नहीं इस दुनिया में,ढूँढ़ने चलो हज़ार मिलते हैं, अपने बिहार की खासूसियतें तो जग-ज़ाहिर हैं. वहीं के एक मुख्यमंत्री जी की ज़ुबान ज़रा फिसल गई ,फिर क्या था ,मीडियावाले तो इसी ताक में रहते हैं. ले उड़े. तमाशा बनने लगा तो महोदय भड़क गए, 'बोले हमें गलत ढंग से पेश किया गया.' खिसियाहट में पत्रकारों को उचक्का कह डाला.यों उनका कथन ग़लत भी नहीं था -ये लोग भी तो कच्ची-पक्की हर बात उचक लेते हैं. मंत्री जी आवेश में थे ही, आगे कहते चले गए,'हम तो लात खाने के लिए ही बैठे हैं, कोई इधर से मारता है तो कोई उधर से..' ज़ुबान कुबूलती चली गई. सच ही तो बोल रहे थे - बेचारे!
जानवरों में नहीं होती . कैसी शान्ति से रहते हैं .और ये फ़ालतू अक्लवाले !कभी इधर की कमी निकाली कभी उधर की चूक. न अपने को चैन, न दूसरों को चैन लेने दें. .
अरे, पर मैं ये सब क्यों कहे जा रही हूँ? दुनिया जैसी है, वैसी रहेगी हमारे रोने-झींकने से कोई बदल थोड़े न जायगी.
अपने को क्या!
कबीर सही कह गए हैं -
'सुखिया सब संसार है खाये अरु सोवे ,
दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै.'
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अपन को भी कोई मतलब नहीं है :)
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-10-2019) को " सभ्यता के प्रतीक मिट्टी के दीप" (चर्चा अंक- 3496) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमैंने अभी आपका ब्लॉग पढ़ा है, यह बहुत ही शानदार है।
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