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भारत की सात पुराण प्रसिद्ध नगरियों में प्रमुख स्थान रखती उज्जयिनी सभी कल्पों तथा युगों में अस्तित्वमान रहने के कारण अपनी 'प्रतिकल्पा' संज्ञा को चरितार्थ करती है. प्राचीन मान्यता के अनुसार, महाकाल स्वयं प्रलय के देवता हैं, " प्रलयो न बाधते तत्र महाकालपुरी". पुराणों का संकेत यहाँ स्पष्ट है.मृत्युलोक के स्वामी महाकालेश्वर इस नगरी के तब से अधिष्ठाता हैं, जब से सृष्टि का आरंभ हुआ था. उपनिषदों एवं आरण्यक ग्रंथों से लेकर वराहपुराण तक आते-आते इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि महाकाल स्वयं भारतभूमि के नाभिदेश में स्थित हैं.ऐसी मान्यता है कि जहाँ कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है वह स्थान महाकाल मंदिर के समीप है. कर्कराजेश्वर मंदिर उसी केन्द्र-बिन्दु पर स्थित है और कालगणना के प्रमुख 'शंकु यंत्र' का मूल स्थान भी इसे ही कहा गया हैं.
महाशिव रात्रि का पर्व बीत चुका. उस दिन बहुत देर उज्जैन की धरती के चक्कर काटती रही .शिप्रा अविराम बहती रही ,लहरें रोशनी में झिलमिलाती रहीं .उसी पथरीले रास्ते पर आगे सीढ़ियाँ चढ़ कर उस तल पर पहुँची जहाँ महाकालेश्वर,माता हरसिद्धि और बड़े गणपति विराजमान हैं.
माँ हरसिद्धि के दर्शन - जहाँ देवी सती की कोहनी गिरी थी. ज्योति-स्तंभों पर वायु की लहरों में लहरती जगमग दीप-शिखाएँ ,गर्भ-गृह में स्थित श्री यंत्र के दर्शन और फिर बारी कवि कालिदास की आराध्या गढ़कालिका की. तांत्रिकों की इस देवी के चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में किसी को निश्चित रूप से कुछ ज्ञात नहीं, माना यह जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है. काल भैरव -को मदिरापान कराते भक्तों को देखने का एक अपना ही अनुभव है.चारों ओर वही कोलाहल -हलचल चिर-जीवन्त नगरी का अविराम धड़कता हृदय - और उन स्पन्दनों को ग्रहण करती मैं .
सूर की पंक्तियाँ हैं - "मन ह्वै जात अजौं उहै वा जमुना के तीर"
- तो फिर यू ट्यूब के दृष्यांकन से उसका हिस्सा बन जाने से कौन रोक सकता है ?
उस धरती, उस आकाश की छाँह, उन हवाओं का सुशीतल परस नहीं मिला तो क्या,
वह आकाश वह वातास नहीं तो क्या, वह साक्षात् नहीं तो क्या - सारे आभास मेरे साथ हैं , जो रह-रह कर उद्बुद्ध होते हैं
वही भव्य आरती ,लगा हमारा जीवन आरती परम लघु लौ है ,जो काल के विशाल चक्र में घूम रही है , धूम्र से आच्छादित हो गई तो क्या !अंतस्थ ज्योति बीच-बीच में आभासित कर जाती है .
उसी महाकाल का एक परम लघु अणु ,इस देह में जीवन बन कर विद्यमान है,अंततः उसी में लीन होना है.जब तक हूँ एकाकी,भिन्न-भ्रमित - फिर भी ,उसकी पुकार दुर्निवार प्रतिध्वनियाँ भरती है , बार-बार मिलने की उद्विग्नता उसी का उद्गार है.
मैं वहाँ नहीं घूम रही तो क्या, वह स्वयं मुझ में घूम रहा है !
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भारत की सात पुराण प्रसिद्ध नगरियों में प्रमुख स्थान रखती उज्जयिनी सभी कल्पों तथा युगों में अस्तित्वमान रहने के कारण अपनी 'प्रतिकल्पा' संज्ञा को चरितार्थ करती है. प्राचीन मान्यता के अनुसार, महाकाल स्वयं प्रलय के देवता हैं, " प्रलयो न बाधते तत्र महाकालपुरी". पुराणों का संकेत यहाँ स्पष्ट है.मृत्युलोक के स्वामी महाकालेश्वर इस नगरी के तब से अधिष्ठाता हैं, जब से सृष्टि का आरंभ हुआ था. उपनिषदों एवं आरण्यक ग्रंथों से लेकर वराहपुराण तक आते-आते इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि महाकाल स्वयं भारतभूमि के नाभिदेश में स्थित हैं.ऐसी मान्यता है कि जहाँ कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है वह स्थान महाकाल मंदिर के समीप है. कर्कराजेश्वर मंदिर उसी केन्द्र-बिन्दु पर स्थित है और कालगणना के प्रमुख 'शंकु यंत्र' का मूल स्थान भी इसे ही कहा गया हैं.
महाशिव रात्रि का पर्व बीत चुका. उस दिन बहुत देर उज्जैन की धरती के चक्कर काटती रही .शिप्रा अविराम बहती रही ,लहरें रोशनी में झिलमिलाती रहीं .उसी पथरीले रास्ते पर आगे सीढ़ियाँ चढ़ कर उस तल पर पहुँची जहाँ महाकालेश्वर,माता हरसिद्धि और बड़े गणपति विराजमान हैं.
माँ हरसिद्धि के दर्शन - जहाँ देवी सती की कोहनी गिरी थी. ज्योति-स्तंभों पर वायु की लहरों में लहरती जगमग दीप-शिखाएँ ,गर्भ-गृह में स्थित श्री यंत्र के दर्शन और फिर बारी कवि कालिदास की आराध्या गढ़कालिका की. तांत्रिकों की इस देवी के चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में किसी को निश्चित रूप से कुछ ज्ञात नहीं, माना यह जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है. काल भैरव -को मदिरापान कराते भक्तों को देखने का एक अपना ही अनुभव है.चारों ओर वही कोलाहल -हलचल चिर-जीवन्त नगरी का अविराम धड़कता हृदय - और उन स्पन्दनों को ग्रहण करती मैं .
सूर की पंक्तियाँ हैं - "मन ह्वै जात अजौं उहै वा जमुना के तीर"
- तो फिर यू ट्यूब के दृष्यांकन से उसका हिस्सा बन जाने से कौन रोक सकता है ?
उस धरती, उस आकाश की छाँह, उन हवाओं का सुशीतल परस नहीं मिला तो क्या,
वह आकाश वह वातास नहीं तो क्या, वह साक्षात् नहीं तो क्या - सारे आभास मेरे साथ हैं , जो रह-रह कर उद्बुद्ध होते हैं
वही भव्य आरती ,लगा हमारा जीवन आरती परम लघु लौ है ,जो काल के विशाल चक्र में घूम रही है , धूम्र से आच्छादित हो गई तो क्या !अंतस्थ ज्योति बीच-बीच में आभासित कर जाती है .
उसी महाकाल का एक परम लघु अणु ,इस देह में जीवन बन कर विद्यमान है,अंततः उसी में लीन होना है.जब तक हूँ एकाकी,भिन्न-भ्रमित - फिर भी ,उसकी पुकार दुर्निवार प्रतिध्वनियाँ भरती है , बार-बार मिलने की उद्विग्नता उसी का उद्गार है.
मैं वहाँ नहीं घूम रही तो क्या, वह स्वयं मुझ में घूम रहा है !
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भाषा में गजब की पकड़ है शानदार पोस्ट
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-12-2018) को "जातिवाद में बँट गये, महावीर हनुमान" (चर्चा अंक-3182) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभारी हूँ,आ.शास्त्रीजी.
हटाएंउज्जैन की धरती को रूबरू देखने का सौभाग्य नहीं मिला पर आपकी कलम ने जैसे वहाँ पहुँचा ही दिया..जीवंत लेखन..
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