,
*
उज्जयिनी या उज्जैन , इस धरती की नाभि , जहाँ स्थित है पीयूष पूरित मणिपुर चक्र . शून्य देशान्तर रेखा का प्रदेश(अर्थात् लंका से उज्जैन एवं कुरूक्षेत्र होते हुए जो रेखा मेरु पर्वत तक पहुंचती है वह मध्य रेखा मानी गई है। ) जिसे परसती कर्क रेखा कोण बनाने का साहस न कर चुपचाप गुज़र जाती है . यही पुण्यस्थल धरती के उत्तरायणगत सूर्य की सीमा रहा है . इसे आच्छादित करता सुविस्तृत महाकाल-वन कब का ध्वस्त हो चुका किन्तु यह अवंतिकापुरी चिर प्राचीना होते हुये भी चिर नवीना बनी आज भी हलचल-कोलाहल से गुंजरित है .सृष्टि के आदिकाल से इसकी विद्यमानता है. महाप्रलय के बाद मानव-सृष्टि का आरंभ इसी पावन भू-भाग से हुआ , जब स्वर्ग के जीवों को अपने पुण्यक्षीण होने की स्थिति में पृथ्वी पर आना पड़ा , तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग का एक खंड (टुकड़ा) भी ले चलें. वही स्वर्गखंड यह उज्जयिनी है. इसका एक नाम अमरावती भी है .और प्रतिकल्पा तो यह है ही -प्रतिकल्प में नवीन हो जानेवाली . यह उदयिनी भी है जिसके सूर्योदय को मानक मान कर इस महादेश के स्थानीय काल निर्धारित किये जाते थे ( कालक्रम में उदयिनी संज्ञा का रूप उज्जयिनी हो गया) और यही इस विशाल भू भाग की काल-गणना का केन्द्र- बिन्दु था. साक्षी है यह वेधशाला ,आज भी जिसकी उपादेयता खोई नहीं है..
कैसा विस्मय कि महाकाल की छत्र-छाया में अमृतोत्सव का आयोजन !
अंतर्विरोधों के क्रोड़ से ही कुछ नये मानक ढल कर निकलते हैं ,चरम बिन्दुओं के मध्य में संतुलन का कोई स्थल निश्चित होता है .अमृतमय वृत्तियों का समायोजन ,अति विशाल स्तर पर उनका संचरण संभव बनाना,उसी के बस का है जो स्वयं विषपायी हो कर सम-भाव से देव-दनुज-मनुज सबके लिये अपने प्रवेश द्वार खोल सके .भेदबुद्धि रहित , नितान्त निस्पृह वही औघड़ ,कालकूट कंठ में धारण कर जीवमात्र के मंगल का विधान कर सकता है
देव -दानवों का संयुक्त श्रम फलीभूत होने पर समुद्र मंथन से निधियाँ प्राप्त होने लगीं.श्री,रंभा ,गजराज,मणि,बाज अच्छी चीज़ें चतुर लोगों ने झपट-झपट कर हथिया लीं. फिर उतराया घोर हालाहल- कालकूट विष !
सब स्तब्ध !क्या होगा इसका ? इसे कौन ग्रहण करेगा ?
सन्नाटा खिंच गया था .
मंथन अविराम चलता रहा .
लो ,फिर कुछ लहरा कर ऊपर उठा - अनुपम , दिव्य कलश !
हर्षावेश के स्वर उठे -यही है,हाँ यही है अमृत-कलश.
सब उसे पाने को लालायित !
लेकिन प्रसन्नता से चमकते मुखों पर चिन्ता की रेखायें खिंचने लगीं. कोशिश यह कि अमृत केवल हम पियें .और कोई नहीं. अपनी श्रेष्ठता के अभिमान में फूले थे वे . बौखला उठे - कलश को लेकर भाग-दौड़ मच गई ,दुनिया भर के छल-परपंच,झूठ-कपट और दादागीरी के दाँव चलने लगे. यहाँ तक कि- तुमने पी लिया तो गर्दन काट देंगे तुम्हारी .
यह कौन सबसे अलग-थलग ,जैसे कोई निधि पाने की लालसा न हो ,सारी उठा-पटक निर्लिप्त भाव से देख रहा है,सोच रहा है - अपने स्वार्थ के लिये क्या-क्या करने को तैयार हो जाते हैं लोग!
शान्त मन से विचार कर रहा है -मंथन के समय सब के सहयोग की आवश्यकता थी ,पूरा हो गया काम तो बदल गया व्यवहार .
पर इनसे कुछ कहना बेकार .देव-दनुज सब एक से - अपने लघु घेरों में आबद्ध !
अरे हाँ ,पहले निकला था विष -उसे ठिकाने लगाना है
विमूढ़-से सब ,एक दूसरे का मुख देख रहे हैं .कौन पियेगा इसे ?क्या होगा इसका?
किसी को नहीं चाहिये ,
पर जो मिला है ,नकारा नहीं जा सकता .
परम शान्त भाव से वह परम योगी सब देख-समझ रहा है .
कोई नहीं लेगा तो क्या जंगलों में उँडेल देंगे ?
ओह ,सारी सृष्टि दहक उठेगी .
कोई नहीं बढ़ रहा आगे !
अरे, अब क्या करें ?
आगे बढ़ कालकूट उठा लिया था उसने
सन्नाटा छा गया ! पात्र उठा कर मुख में उँडेल लिया .आँखे फाड़े देखते रह गये सब
(ओ,रे औघड़, सृष्टि के सारे विष-तत्व समा लेगा तू?)
घूँट कर वहीं रोक लिया उसने,नीचे उतरने नहीं दिया . देखा कंठ नीला पड़ गया था उसका .
चकित ,विमूढ़ वे सब शीश झुका कर-बद्ध खड़े रहे . फिर कृतज्ञता ज्ञापित करते देवाधिदेव के पद पर अधिष्ठित कर दिया .
उज्जयिनी हो , हरद्वार हो, प्रयाग या नासिक - सृष्टि के परम विरोधी तत्वों को स्वयं में समाहित कर ले ,उसी की छत्र-छाया में अमृतोत्सव शोभता है, उसी के संरक्षण में जीवमात्र के कल्याण का विधान संभव है .
उसी परम निस्पृह को उज्जयिनी की सतत उत्तर प्रवाहिनी शिप्रा की लहरें तीन ओर से अर्घ्य समर्पित करती हैं .
अमृतमय शिप्राजल के स्नान,आचमन हेतु सिंहस्थ कुंभ के अवसर पर विशाल जन-समूह उमड़ पड़ता है अनगिन दिशाओं से पल-पल बढ़ी आती जन-धाराओं का फैलाव समेटे यह विशाला नगरी है जहाँ समयानुरूप वेश धारण कर देव-दनुज-गंधर्वों की अदृश पाँतें अमृत-स्नान हेतु उतरती हैं. सिद्ध-साधु-संतों का जमावड़ा,और देश-देशान्तर से चला आता अपरंपार जन-समूह. कितनी भाषायें- भूषायें .एक ही प्रेरणा से संचालित इतनी भारी भीड़ - सब अपने आप में संयत ,आत्म-नियंत्रित.ये परम पुण्य के पल हैं ,कठिन यात्रा का सुफल.
तुम्हारे चरण-तले सब के लिये स्थान है ,सब के लिये खुले हैं तुम्हारे द्वार ,भीड़ पर भीड़ ,अपार जनसागर सबको समा रहे हो.
सिर्फ़ मेरे लिए स्थान नहीं तुम्हारे पास ?
मैं नहीं हूँ वहाँ !.
तुम्हारी इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता - विवश हूँ मैं.
ओ महाकाल ,प्रतीक्षा करती .चुपचाप खड़ी हूँ
जब तुम पुकारोगे ,चली आऊँगी उस पुण्य-भू पर.केवल साधना का संबल ,जब कट जायेंगे कलुष-कल्मष,उदित होंगे सुकृतियों के पल.
जना दिया तुमने कि अभी नहीं पाऊँगी मुक्ति - मोक्षदायिनी पुरी कैसे धरेगी मुझे .पता नहीं कितने जन्मों की रगड़ अभी बाकी है. तुम्हारा दिया निर्वासन पूरा हो तो आऊँ .युग बीत गये बाट देखते अनजान देशों-प्रदेशों में भटकती फिर रही हूँ .उस पावन धरा का परस तभी मिलेगा, तभी उन शीतल लहरों से -तन-मन का ताप मिटेगा.
तभी अंजलि भर शिप्रा-जल माथे चढ़ाने की कामना पूरी होगी.
प्रणाम ,ओ महाकाल .एक परम लघु जीवन-अणु का मौन-वंदन स्वीकार करो!
शिप्रा की लोल लहरों,तुम्हें छू लूँ इतनी सामर्थ्य नहीं मुझमें , मेरे नयनों में समाये तुम्हारे अमृत जल में जो खारापन घुल गया है ,उसे ही अर्घ्य समझ कर स्वीकार कर लेना!
वंदना के बोल कैसे निस्सृत हों ,एक ही उद्गार बार-बार कंठावरोध कर जाता है -
'मैं उतने जन्म धरूँ तेरी उस गोदी में ,
तुम बिन जितनी संध्यायें और सुबह बीतें ........'
.....................
बस इतना ही... आगे कुछ नहीं कहना है अभी .
छंद अधूरा छूट रहा है,रहे .
वह दिन आये तो , . तभी पूरा करूँगी इसे ,और आगे शायद कुछ और भी.....
तब तक आगे के शब्द अनलिखे ही रहने दो !
*
- प्रतिभा सक्सेना.