मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

नव संवत्सर पर ..

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

कथांश - 28.


*
दिन भर भागम-भाग मचाती हवाएँ कुछ शान्त हुई हैं.पेड़ों की लंबी परछाइयाँ खिड़की पर धीरे-धीरे हिल रही हैं .व्यस्त दिन के बाद अपार्टमेंट का ताला खोल कर चुपचाप बैठ गया हूँ.  अब तक छुट्टी होते ही माँ के पास दौड़ जाता था.अब कहीं जाना नहीं होता .
तनय हमेशा  कहता है - ' भइया,हम भी आपके अपने हैं , हमारे पास आ जाया कीजिए.'
 अम्माँ जी ने भी समझाया ,'  छोटी बहन के घर न रहें ,ये पुराने ढकोसले हैं ,कौन मानता है, अब यह सब ?'
  पर मुझे वहाँ उलझन होती है.मैं  स्वाभाविक नहीं रह पाता
यहाँ  मेरी अधिक लोगों से पहचान नहीं, किसी से खास दोस्ती  नहीं.  एक शेखर है ,ट्रेनिंग में साथ ही था .वसु की शादी में भी बहुत सहायता की थी  . तब उसकी ससुराल में भी आना-जाना हुआ था .वही अक्सर अपने घर बुला लेता है .
पिछले रविवार को  तनय  अपने साथ खींच ले गया कि आपकी बहिन बहुत याद कर रही है .
वहीं चर्चाएँ होने लगीं -
सुमति को  दो बार आना पड़ा था.यहाँ साल भर नौकरी की है उसने ,इधर का  कुछ लेन-देन, लिखा-पढ़ी का काम बाकी  था .पारमिता से  मित्रता रही थी, परस्पर सूचनाओं का लेन-देन,चिट्ठी-पत्री अब भी चल रही है. 
 पिछली  बार उस के पिता साथ आये थे.उन्हें लग रहा था पता नहीं आगे कैसे क्या होगा .सीधे मिलकर लड़के से बात करने की हिम्मत नहीं पड़ी . चाह रहे थे यहाँ से कुछ कोशिश हो जाय . उनकी चिन्ता थी पता नहीं कब तक ये लोग अटकाए रखेंगे.मन में शंका भी कि  समय बीतने के साथ कब किसी का मन बदल  जाय - क्या ठिकाना .
 वे  बार-बार सुमति से भी ,वही सब कहने लगते  था.उसने कहा भी - दो महीने को भीतर जिसे माता-पिता दोनों का अंतिम संस्कार करना पड़ा हो उसके मन पर क्या बीतती होगी .उससे ऐसी बात करना ठीक है क्या   ..?ज़रा तो सोचिए.
उसने तो यह भी कहा था -मैंने तो सुना है मौत के बाद एक साल कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता . इतने अविचारी कैसे हो सकते हैं  आप लोग ! आवेग में यह भी कह गई -  सिर्फ मुझसे छुटकारा चाहते हैं या कि मेरा सुख ?
फिर उससे कुछ कहना उन्होंने बंद कर दिया .
 'सब अपनी-अपनी सोचते हैं,' विनय बोले  ,' अभी विनीता के लिए भी लड़का मिला कहाँ है?'
जानता हूँ परोक्ष में मुझसे जानने की कोशिश हो रही है कि मेरा इस विषय में क्या विचार है  .
मुझे सुन-सुन कर  ऊब लगती  है.

रहा नहीं जाता  बोल बैठता हूँ -
' सब तुम्हारा किया धरा है पारमिता,मुझे, दुविधा में डाल दिया तुमने .'

'अरे ,मुझे तो पता भी नहीं था ,वो तो  माँ बीमार थीं . उनका प्रबंध किया था .लेकिन तुम कैसे  पहुँच गए वहाँ..  ?'
' रहा नहीं गया,' विनय ने  खींचा, 'बेकार सफ़ाई दे रहे हो दोस्त, उम्र का तकाज़ा ठहरा,'. .
ऊपर से  और ,
'लड़की देख कर मन मचल गया तुम्हारा और दोष  बेचारी मेरी बीवी को  .'
तनय हँसता हुआ बढ़ आया,' अरे भाभी ,मुझसे पूछो .हाथ पकड़ कर खींचा था भैया ने उन्हें,  ऊपर से चुपके से..-रुपए पकड़ा रहे थे .देख लो सारी झलकियाँ हैं मेरे पास !'
सब मज़ा ले रहे हैं .
 मौका चूकती नहीं पारमिता भी,
'क्यों ,तुमने किस मुहूर्त में ब्रजेश की शादी की बात कही  कि कैंडीडेट चट् हाज़िर हो गया ?'
' इसे कहते हैं वाक्-सिद्धि ?" विनय ने चटका लगाया
वे लोग तो हँसेंगे ही पर मुझे खिसियाहट लग रही है.
'बीमार माँ का ख़याल न होता तो रुकता भी नहीं वहाँ ,फिर वह इतना कर रही थी मेरी माँ के लिए .एहसान का बोझ मेरे ही सिर पर तो...'
' अच्छा तो है यार .लड़की की परख हो गई. हिल्ले से लग जाओगे .'
मेज़ पर चाय लगाती वसु के मुख पर मुस्कराहट छाई है.
*
नहीं ,मुझसे नहीं होगा !
इतना उचाट मन ले कर शादी करना बहुत मुश्किल है.सब के साथ होकर भी सबसे अलग रह जाता हूँ .किसी को क्या दे पाऊँगा.अन्याय नहीं करना चाहता,माँ का जीवन देखा है .पहले अपने मन को साध लूँ. समय चाहिये मुझे ..
मेरी उदासीनता भाँप ली पारमिता ने -
'बस..बस  ज्यादा वैरागी मत बनो ईश्वर ने जो दिया ग्रहण करते चलो ब्रजेश !'
'अरे ,तो उनने मना थोड़े ही किया है .'
मेरे लिए और चारा ही क्या है, अपना बस  कहाँ है !

ओशो का कथन पढ़ा था कहीं -
'जीवन में कुछ भी छोड़ने जैसा नहीं है। छोड़ने जैसा होता तो परमात्मा उसे बनाता ही नहीं.'
और भी -
“तुम कुछ भी ठीक से नहीं देख पाते, क्योंकि हर चीज़ के बीच में तुम्हारी धारणाएँ खड़ी हो जाती हैं।”
मन में प्रश्न उठता है तो क्या इंसान की धारणाएँ बिलकुल व्यर्थ  हैं ,ये भी समय के पाठ  हैं .जीवन के अनुभव और क्या हैं ? सीखना - समझना सहज प्रक्रिया है . कुछ बातों पर उलझन में पड़ जाता हूँ .पूछूँगा विनय से उन्होंने ओशो को काफ़ी पढ़ा है.
हाँ, विचारों की खिड़कियाँ खुली रहना तो ठीक..पर मेरी तो समस्या ही दूसरी है .दिमाग़ चकराने लगता है .
कहाँ तक सोचूँ  ,नहीं सोचना चाहता यह सब !
 कुछ समय के लिए इस सबसे दूर जाना चाहता हूँ .सच में थक गया हूँ ,....अवकाश चाहिए मुझे !
  पर इससे बचत कहाँ ?रहना तो इसी दुनिया में है .
 एक  वक्ष जिसकी आड़ में  संसार के तापों से छाँह पा लेता था ,एक और साहचर्य  मन को गहन शान्ति प्रदान करता हुआ - एक झटके में सबसे वंचित हो गया.बस, इतना ही हिस्सा था मेरा?
स्म़तियों के भँवर में  डूबता  चक्कर खा रहा  हूँ.
माँ ,तुमने मुझे उस अनिश्चित जीवन की भटकन से निकाल कर सही मार्ग पर लगाने को अपना जीवन होम दिया,मैं तुम्हारे  लिए कुछ भी न कर सका.  निरुद्देश्य जीवन को दिशा दे  कर कोई एक जन्म नहीं सुधारा तुमने,कुछ संस्कार ऐसे, जो कितने आगत जन्मों की पूँजी बन जाते हैं .आधार-शिला रख दी तुमने, आगत की भी पीठिका  रच दी . किस तल से उबार कर नई मानसिकता दी ,कि अब उन सतहों का विचार ही मन में विरक्ति जगा देता है.तुम्हारा दिया मनोबल  विषम प्रहरों में मुझे साधे रहता है ,ओ माँ !
सोचता था समय के साथ यह भटकन शमित हो जाएगी .अब लगने लगा  है बढ़ती आयु की पकन के  साथ  एकाकीपन का बोध और तीक्ष्ण हो जाता है.
आज मैं जो हूँ  उसकी रचयित्री एक नारी रही है ,मैं डंके की चोट पर कह सकता हूँ : उस नारी का एकान्त सृजन हूँ मैं -तन से, मन से  आचार-विचार और संस्कार से भी.उसी ने  रचा और सँवारा,  विकसने की सुविधाएँ दीं . मुझे गढ़ने में कोई पुरुष भागीदार नहीं रहा था. जो पाया है उसी की महती साधना का फल है . जहाँ वंचित रहा उसका कारण  पुरुष रहा ,जिसने केवल  अपना अहं पोसने को मेरा जीवन स्वाभाविकता से रहित कर डाला .एक मनोग्रंथि का बीज रोप दिया मुझ में और वहीं मैं निरुत्तर हो कर रह जाता हूँ .वे प्रश्न ,यत्न से सुलाई हुई अशान्ति को जगा देते हैं ,वहाँ मैं कमज़ोर रह गया हूँ. एक और पुरुष  जिसने एक अंकुराते जीवन  को वांछित छाँह से वंचित कर दिया .दुनिया की तीखी धूप ने उसकी सहज स्निग्धता सोख ली .पारमिता के पिता के साथ  मैं  सहज नहीं रह पाता .मन  का  तीतापन ऊपरी सतह तक उमड़ने लगता है .
  सोचता था वे दिन बीत गए,अब आगे का जीवन अपने हिसाब से जीने को  मिलेगा . वह भी  नहीं हो सका , नींव खिसक गई . उस दूसरे ने कर्मक्षेत्र में उतरने से पहले ही मनोरथ विरथ कर दिये .
और अब ,जब सब सँभलता लग रहा था तभी दो महीनों के भीतर  माँ और पिता दोनों की अंत्येष्टि .कैसे -कैसे विषम अनुभव .दूर-दूर तक कोई नहीं ,कि ज़रा-सा सहारा मिल जाय. मेरा  मन अब कहीं नहीं लगता  .कुछ नया करने की इच्छा नहीं रह गई .
कुछ शब्द याद आते हैं-
हर कार्य का क्रम निश्चित है.अपनी सुविधा के लिये बचा कर कहाँ रखोगे ब्रजेश ?.जीवन के हवन-कुंड में अपने हिस्से की समिधा डाले बिना छुटकारा कहाँ ?
डाल ही तो रहा हूँ समिधाएँ  !
 औरों को द्विधा में नहीं रखना चाहता.
बस ,कुछ दिनों को इस सबसे दूर चला जाना चाहता हूँ .
*
  .चुपचाप बैठा देख उस दिन उसने पूछा था ,' इतनी कम अवधि में बहुत-कुछ घट गया ,तुम पर क्या बीती होगी  ?  तुम्हें कैसा लगा होगा?'
'  बस एक खालीपन,अंदर से बिलकुल रीत गया होऊं जैसे  ! कभी-कभी समझ नहीं पाता क्या करना है मुझे  .....'
वहाँ से चलत समय वसु मठरी का एक पैकेट पकड़ा गई थी ,'दीदी ने और मैंने तुम्हारे लिए बनाईं हैं, भइया ...'
 थोड़ी-सी निकाल कर प्लेट में रख लाया  और गिलास में पानी भी.
मेरी वही डायरी मेज़ पर पड़ी है - पंखे की हवा में पन्ने फड़फड़ा रहे हैं.बढ़ कर उठा लिया .
पेन उठा कर बिना लाग-लपेट  अपनी उद्विग्नता शब्दों में उँडेलने  लगा -
  सच में बहुत थक गया हूँ ,अवकाश चाहिए .अलग रहूँ कहीं 
इस धरातल से दूर ,जहाँ रोज़मर्रा की खींच-तान न हो .कोई दूसरा तल हो जहाँ ये सारे प्रश्न न खड़े हों,जहाँ मन को चैन मिले  ,  ,यहाँ का कुछ भी जहाँ मेरा पीछा न करे .
पर कहाँ ?
 ओह ,कहाँ जाऊँ !
रुक कर सोचने लगता हूँ -दुनिया बहुत बड़ी है .एक स्थिति किसी दूसरे छोर तक पीछा नहीं करती होगी .यहाँ से भिन्न ,सब कुछ बदला हुआ जहाँ मिले!
पर कहाँ ?
 .. माँ की इच्छा  नर्मदा-परिक्रमा की थी .वे भी ऊबी होंगी , मन का विश्राम चाहती होंगी ,जो मृत्यु से पहले  उन्हें कभी नसीब नहीं हुआ!
 मेरे  लिए  है कोई जगह .. कुछ दिन ..रह सकूँ !

  ट्रेनिंग पीरियड् के  एक टूर का ध्यान आया - ट्रैकिंग के लिए हम हिमालयी  क्षेत्र में गए थे.वनों-पर्वतों की वह छाप स्मृतियों में अंकित हो गई है .बहुत सुना था ,प्रत्यक्ष देख लिया. पर्वतराज  कुछ न कुछ देता ही है ,मन को शान्ति ,चेत को विश्राम और सांसारिक तापों से छूट   ..सघन वन, नीरव-निर्जन घाटियाँ  ,निरंतर ऊपर उठती गिरि-शृंखलायें. अवर्णनीय भव्यता और दिव्यता की साकार कल्पना , अधिभौतिक जगत की विलक्षण व्यवस्था , जैसे   जगत की संकुलता  से परे कोई भिन्न लोक हो.
अंतर्मन से कोई पुकार उठा -चलो, वहीं चलो !
यहाँ से दूर चलो. इस तल से ऊपर किसी दूसरी शीतल हवाओंवाली उन ऊँचाइयों पर चलो ... .मन का बौरायापन वहीं शान्ति पायेगा  !
बस, तय कर लिया यहाँ से जाना है .. हाँ,जाना है मुझे !

फिर बता दिया मैंने उन सब को - छुट्टी ले कर जाना है . अभी कुछ मत पूछो ,व्यवस्थाओँ में थोड़ा समय लगेगा . 
बाकी सारे प्रश्न बाद में !
*
(क्रमशः)


गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

'हेलो ,हेलो,' - क्यों करते हैं ?

*
'हेलो ,हेलो,'  क्यों करते हैं ?
टेलिफ़ोन के  आविष्कारक एलेक्ज़ेंडर ग्राहम बेल की मार्गरेट नाम धारिणी एक मित्र थीं जिनका पूरा नाम था मार्गरेट हेलो . पर बेल साहब उन्हें 'हेलो' कह कर पुकारते थे.
 ग्राहम बेल ने फ़ोन का आविष्कार सफल होने पर पहला संवाद किया तो यही नाम उनके मुख से निकला. कहा यह भी जाता है कि बेल साहब ने जल-यात्रा में प्रयोग किये जाने वाला Ahoy शब्द बोला था लेकिन थामस एडिसन को वह 'हेलो' सुनाई दिया.  

 एडिसन महोदय ने सही सुन पाया ,या उनके कान ने कुछ गड़बड़ कर दिया कहा नहीं जा सकता . कारण कि  छोटी उम्र से ही  उन्हें बहरेपन की समस्या से जूझना पड़ा था (बचपन में स्कारलेट फ़ीवर और बार-बार के  कान के संक्रमण का दुष्प्रभाव) . लेकिन ऐसी स्थिति में वे कुछ और भी तो सुन सकते थे . उन्हें बेल साहब द्वारा पुकारा जानेवाला उन महिला का  'हेलो ' नाम ही क्यों सुनाई दिया ? - आश्चर्य !).
एक संभावना यह भी कि बेल ने Ahoy कहने का विचार किया हो पर अवचेतन  में 'हलो' होने के कारण मुख से वही उच्चरित हो गया , और बेल साहब को ,स्वयं ही भान न हो कि क्या बोल गये !
 हम लोग तो बस ,अनुमान ही कर सकते हैं. अस्तु ,जिसे, जैसा ठीक लगे !
तब से  यही 'हेलो' फ़ोन-संपर्क का अवधान बन गया.यह घटना 1876-77 की है. टेलिफ़ोन के प्रचलन के साथ  बेल साहब का यह संबोध भी यथावत् प्रयोग में आ गया . 'हेलो' शब्दोच्चार द्वारा स्वागत किये जाने के कारण 1889 तक वहाँ की केन्द्रीय फ़ोन ऑपरेटर्स 'hello-girls' कहलाने लगीं थीं. 

भाषा-गत उपयोग देखें  तो  1833 में Hello शब्द का प्रयोग अमेरिका की एक पुस्तक ( The Sketches and Eccentricities of Col. David Crockett, of West Tennessee) में  मिलता है जो उसी वर्ष 'लंदन लिटरेरी गज़ेट' में पुनर्मुद्रित हुई थी .लेकिन इस शब्द के व्यावहारिक उपयोग के और  उदाहरण नहीं मिलते. कुछ प्रयोग कहीं दबे-छिपे पड़े हों तो  कुछ कहा नहीं जा सकता .इसलिए  इस 'हेलो' को फ़ोनवाली 'हेलो'  से जोड़ कर देखना तर्क-संगत नहीं लगता.
 बेल साहब की 'हेलो' का व्यापक प्रसार हुआ और इसके  अनेक संस्करण हो गये- किसी से मिलने पर ,आश्चर्य व्यक्त करने के लिए ,किसी को सचेत करने के लिए ,इत्यादि.
बाद में 1960 तक यह शब्द लेखन में भी भरपूर प्रयोग में आ गया और अनेक प्रयोगों में चल गया.  भिन्न देशों के परिवेशानुसार 'हेलो' के कई रूप सामने आए -
वियतनाम,तुर्की,तमिल -A lo!, 

थाई (hān lǒ), 
स्वीडिश - hallå !, 
स्पेनिश- hola !,
फ़्रेन्च, रोमानियन,पुर्तगीज़,पर्शियन फिनिश-अरेबिक- alo,
एस्परेंतो,जर्मन,पुर्तगीज़,पर्शियन,फ़िनिस, अरेबिक,कन्नड़ - haloo?
ख़्मेर,वियनामी - allô
जब चार कोस पर बानी बदल जाती है, तब देशों के अंतराल में ध्वनियों का इतना सा हेर-फेर महत्वहीन है. भाव वही, अर्थ वही, प्रयोग वही और आत्मा भी वही - बेल साहब की 'हेलो'वाली !
इस प्रयोग से पहले 40 वर्षों से भी अधिक अनजान-सी रही 'हेलो' को बेल साहब की मित्रता ने स्वर देकर सार्वदेशिक व्याप्ति प्रदान की - अपने आविष्कार के लिए ग्राहम बेल महोदय को कोई भले ही न याद करे ,उनकी 'हेलो' सबकी ज़ुबान पर चढ़ी रहेगी !

 अपनी मित्र के लिए कोई और, कर सका है इतना ?
*

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

कथांश - 27 .

 सबकुछ ठीक करने का जी-जान से प्रयत्न करता हूँ ,और  एक झोंक में सब पर पानी फिर जाता है .समझ में नहीं आता कहाँ कसर रह जाती है .
 अंतर की शून्यता को झकझोरता  गहन चीत्कार उठता है - माँ , ओ  माँ कहाँ हो ? मन बार-बार उन्हें  ही टोहता है . 

आह ,वे अब कभी नहीं मिलेंगी !
इतने दिन हो गये हो गए -. विश्वास नहीं होता माँ कहीं नहीं है ,बार-बार  लगता है वे यहीं कहीं है
कैसे हो गया यह सब ?
मेरी लापरवाही!
मैं स्वयं वहीं रहता ,ठीक से इलाज कराता तो उन्हें कुछ नहीं होता -दारुण पछतावा रह-रह कर मन को मथता है.
 मैंन  पहले ध्यान क्यों नहीं दिया ? पर तुम ऐसे कैसे चली गईं ,ओ माँ !
 मैं अपने आप में नहीं   ,  चलता-फिरता यंत्र-मात्र रह गया हूँ - अवाक्,स्तब्ध,जड़ीभूत!
अब  मैं क्या करूँ ?
तुम तो चली गईं कि बेटा सँभल गया .अब अपना जीवन सुख से गुज़ार ले जाएगा ,सब कुछ ,सँभालकर चली गईँ पर सुख से गुज़रना होता तो प्रारंभिक पृष्ठों पर ही ऐसे काले अक्षरोंवाली भूमिका नहीं लिख दी जाती.
माँ , जिनने जीवन भर दुख सहे ,मेरे लिए खटती रहीं ... और मुझे  अपने पावों खड़ा कर दिया .जीवन से एकदम निकल गईँ
 चरम निराशा घेर लेती है ,परिवार,मित्र परिजन ,कभी फ़ोन कभी पत्र ,कभी सहानुभूति हेतु वही कहते-सुनते लोग ,उस शोक की डूब में फिर -फिर समा जाता हूँ .
ग़लती मुझसे हुई.मुझे लगा था वे  सँभल रही हैं -  छोड़ कर चला गया.

वैसे एक सप्ताह की छुट्टी और बढ़ाने को कहा मैंने, तो सब ने कहा  - ' तुम जाओ , हम हैं यहाँ.'
और इतना तो अनुमान भी नहीं  था .
राय साब ने कहा था ,'हम सब हैं डाक्टर हैं उनका ध्यान रखने के लिये    तुम
और क्या कर लोगे  ?'
 और मैं चला गया
सब यहीं थे ,सब उनके हिताकांक्षी थे .किसी ने क्या कर लिया ?
अंदर से प्रश्न उठा और तुम होते तो क्या कर लेते - मौत से जीत सका है कोई ?
वसु उनके पास थी. मीता भी उन दिनों वहीं थी ,दिन-दिन भर माँ के पास बैठी रहती थी.खाना प्रायः उसी के घर से बन कर आ जाता ,एक व्यक्ति का खाना .माँ  पथ्य ही लेती थीं . इस बार कुल पन्द्रह दिन ही बीमारी  झेल पाया उनका दुर्बल शरीर !
बीच-बीच में चरम निराशा के प्रहर ऐसा छा लेते हैं कि रोशनी का कोई सिरा नहीं दीखता.
मन करता है माँ के आँचल में मुँह छिपा ,जी भऱ कर रोऊँ .पर अब वह आँचल  नहीं है .आँगन पार करते अरगनी पर सूखती हुई उनकी साड़ी का आँचल सिर से छू जाता था .रुक जाता था मैं. हाथ में थाम आँखों पर रख  कर लगता था शान्ति मिल रही है .अब वह भी मुट्ठी से निकल गया वह छोर अब कभी हाथ नहीं आयेगा .
*
रातों का एकान्त दुःस्वप्न सा छा लेता है.
दो बार तनय अपने साथ बुला ले गया  पर मेरा मन नहीं लगता ,मैं वहाँ  नहीं रहना चाहता .

माँ को गए पूरा महीना भी नहीं बीता कि,एक  धक्का और.
सुना था मुसीबत कभी  अकेली नहीं आती,    देख भी लिया. एक से  उबर भी न पाया  कि फिर सिर पर आकाश फट पड़ा .
उस दिन डाकिये से तार लेते हाथ काँप रहे थे .
  धुँधलाती आँखों  तार पढ़ा ,लिखा था . 'फ़ादर सीरियस .कम इमीजियेटली'
  वे  अस्पताल में एडमिट थे - अचानक आई सूचना सन्न कर गई.
जिनके कारण पग-पग पर कंटकों की चुभन मिली  उन पिता के अंतिम दिनों का साक्षी बनना बाकी था. .वे शराब क्या पीते वही  उन्हें पी गई  ..डाक्टरों की चेतावनी बेकार गई सारा लिवर जर्जर हो गया था खून की उलटियाँ होने लगी थीं.
.वसु की शादी में उन्होंने किसी को बताया नहीं  . विवाह की हलचल में उस ओर किसी का ध्यान भी  नहीं गया .
जा कर देखा व.हाँ का हाल -
बाद में वे उसी पुराने घर में अकेले लौट आए थे . पड़ोसी से चाबी ले कर चुपचाप घर खोला और एक कमरा अपने लिए ठीक कर लिया ..
 कुछ आशा रही होगी  .चाबी दे कर गए थे कह गये थे , ' मेरी पत्नी आये तो दे देना.'
आते ही पड़ोसियों से पूछा था  पूछा था उन्होंने ,'वो  आई थी क्या?'
इतने वर्षों तक उपेक्षित  ,घर की हालत जर्जर  थी .जर्जर वे भी  थे.
पर सब कुछ होते हुए भी जिसकी कभी  कदर नहीं कर पाये उससे वंचित होने का दोष  देते भी किसे  ?
 समझ तो गये ही थे ,पीने की लत ने खोखला कर दिया है अब कुछ दिन के मेहमान हैं बस.
मैं आया तो फिर भी पहचान रहे थे .
'वो भी आई है ?'माँ के लिए पूछा था .
'वे अब नहीं हैं .'
उनकी मुख-मुद्रा अजीब सी हो उठी  .
फिर  वे कुछ नहीं बोले ,जड़ से हो कर रह गए .
बस ,इससे आगे और कुछ नहीं .
पुरुष का भाग्य कौन जानता है .यह भी किसे पता था  पिता के अंतिम दिन इस प्रकार बीतेंगे-.अकेले ,लाचार ,परित्यक्त !
हमारे यहाँ से लौट कर भी वे हास्पिटल में एडमिट हुए थे यह भी पता लगा ,डाक्टरों ने चेतावनी भी दी थी .
 पर वे पीना नहीं छोड़ पाये और अब.डाक्टरों ने जवाब दे दिया तब  तार दिलवाया .
*
मैने वसु को बुला  लिया था ,' पिता से मिलना हो तो फ़ौरन चली आओ .'
अब तक  पिता से कहाँ मिल पाई थी .आये थे तब भावाकुल मन और नयन दोनों भर आए थे.न देख पाई, न पहचान बन पाई .कन्यादान  के समय  देखना संभव कहाँ और बिदा समय की विह्वलता में कहाँ था अवकाश कि पिता से पहचान कर पाती !
  उसके मन का  कोमल वत्सल भाव बना रहे- मेरा प्रयत्न था .बिछुड़न का दुख इतना दारुण नहीं होता जितना उपेक्षापूर्वक  छोड़ दिये जाने का .
वह आई बिस्तर पर पड़ी काया को देखा .
कुछ-कुछ होश रहा होगा उन्हें .  दीवार पर उनकी एक फ़ोटो लगी थी -शादी के कुछ ही दिन बाद की -माँ के साथ खड़े थे,ध्यान से देखती रही.
कहाँ वह और कहाँ यह  - एकदम काला पड़ गया चेहरा,धुँधलाई आँखें. विकृत काया  जैसे-एकदम सिमट- सिकुड़ गई हो -पिता तो अच्छी कद-काठी के रहे थे ..
कहीं कोई समानता नहीं -कोई पहचान नहीं पाई उसने  ,बस हाथ जोड़ कर प्रणाम कर लिया  .
यह घर ?चारों ओर दृष्टि पसार कर देखा था .क्या सोच रही होगी ?
दीवार पर लगा फ़ोटो देखती  रही थी  .'भइया और कुछ नहीं मेरे पास .ये  फ़ोटो ले लूँ.'
'चिन्ता मत कर वसु .इसकी कॉपी मैं तुझे दे दूँगा.'
फिर उसे आश्वस्त करने को कहा ,'ये वाला फ़ोटो यहाँ  लगा रहेगा जब तक यह घर है.और माँ की वह फ़ोटो भी जो मैंने अलग खिचवाई थी इन्लार्ज करवा कर यहाँ  लगानी है ' .
'हाँ भइया , सच में तभी यह घर लगेगा ...'
'माँ के साथ रहा था इस घर में.कछ मीठी-कड़वी स्मृतियाँ गाँठ में बँधी हैं.. सब  ठीक रहा होता तो हम यहाँ पले होते '.
'मेरा मायका न ?'
 'बहन, जहाँ मैं  वहाँ तेरा मायका.इस घर को कैसे छोड़ूँगा .तू जब चाहे यहाँ आना .जब हम साथ होंगे मैं तुझे यहाँ के किस्से सुनाऊँगा.'
फिर मैंने पूछा ,'इस घर की चाबी मेरे पास है .तुझे चाहिए ?'.
'मैं क्या करूँगी ?'...फिर रुक कर बोली ,'
सब कहते हैं लड़की के  दो घर  होने चाहियें -जीवन में ऊब कभी न लगे .
इस घर में मेरे माँ- पिता  रहे थे ..कभी यहाँ आकर दो-चार दिन बिता जाऊँगी .'
' मेरा घऱ तेरा मायका होगा बहन,तेरा मान सदा रहेगा .'
मुझे  बाद में   वहाँ कुछ दिन और रुकना पड़ा था -  घर-बाहर के कुछ काम निपटाना ज़रूरी हो गया था..
*
  पिता के अंतिम संस्कार के बाद लौट कर आया था.
चुपचाप ताला खोला .
सारा घर खाली पड़ा  भाँय-भाँय कर रहा था .अंदर तक घुसता चला गया .कहीं कोई नहीं. सबकुछ अनचीन्हा-सा लगने लगा.बढ़ कर तख़्त पर बैठ गया.
बाहर कुछ आहट
ओह ,दरवाज़ा बंद करना भूल गया.
अरे, वसु आ गई  !
कह रही थी,' पता लगा लिया था कि  तुम वहाँ का काम निबटा कर आ रहे हो .'
वसु को आना ही था , पीछे मीता चली आ रही थी .
'...वहाँ सब की राय हुई इस विषम घड़ी में  वसु  अकेली न रहे .मैं साथ आई   हूँ . बाबूजी को भी देखना था.
 उधर से तनय भी आ रहे होंगे. '
तनय ने राय साब को बताया था -
 ,' अम्माँ ने भाभी को भेजा कि, जाओ वसु अकेली होगी , कोई बड़ा नहीं सँभालनेवाला .इस बार सीधे वहीं जाना..'
उनके मुँह से निकला  था -
'पिता ने सुध नहीं ली पर उसने उनके प्रति  दायित्व पूरा कर दिया .'
'भइया, नहा-धो लो .फिर यहाँ क्या करोगे ?.वहीं चलो बाबूजी ने कहा है यहीं ले आना .'
'अभी कहीं जाने का मन नहीं मेरा.'
'दीदी मैं भी यहीं रहना चाहती हूँ .'
अब तक  इस घर में मुझे कभी परायापन नहीं लगा था.,कहीं बाहर से  भाग-भाग कर यहाँ आने का मन होता था .अब जी बिलकुल उचाट हो गया है
वसु कितनी उदास है . किस प्रकार सांत्वना दूँ .उसे लगता है ,माँ के बिना वह निराधार हो गई .मैने और पारमिता ने बड़ी मुश्किल से सँभाला.
पारमिता को भी माँ  का बहुत  आसरा था.हम तीनों हो बेसहारा हो गए  .
*
केश रहित मुंडित सिर झुकाए बैठा है बिरजू .
उस गहन मौन की घनीभूत उदासी पारमिता का हृदय विदीर्ण किए दे रही है.
'ब्रजेश, मुझसे तुम्हारा चेहरा नहीं देखा जाता .'
'तो तुमसे देखने को कहा किसने ?'
'ऐसे क्यों बोलते हो?.जानबूझ कर क्यों दुखी करते हो?'
'क्या करूँ मैं ?'-एकदम बिखऱ पड़ा,' मैं क्या करूँ . ..अब मेरे करने को बचा क्या .अब तो कुछ नहीं मेरे पास ...'
उसके सामने एकदम हत हो गया.सिर झुकाए  फफक उठा .
पाँव लटका कर तख़्त पर बैठ गई वह भी .
हाथ कंधे पर ले जा कर सांत्वना देना चाहती है,मुँह से शब्द नहीं निकलते ,आँसू की बूँद ब्रजेश के हाथ पर टपक गईँ , उसका  झुक आया सिर .काँधे पर ठीक से साध लिया मीता ने .हाथ से हौले से थपक देती है.
वसु  पास पड़ी कुर्सी पर गहरी उदासी में एकदम चुप पर
अंतर से उठता  आवेग नहीं सँभल रहा उससे. रुक न सकी, बढ़ आई .भाई और मीता दोनों से आ लिपटी. मीता ने गोद में समेट लिया ,
कहने को कुछ नहीं .बीच-बीच में सिसकी से सिर हिल जाता है   निश्शंक  शान्तभाव से मीता हलके-हलके थपकी दे देती  है .
 अंतर से टकराता आकुल रोदन कुछ  शान्त हो चला है...

याद आ रहा है किसी बात पर उस ने कहा था
' विवाह हो जाने से मायके के नाते टूट नहीं जाते .तुमने मुझसे अन्यथा कुछ नहीं चाहा  ,मन का दर्पण स्वच्छ  रहे तो अक्स कभी धुँधलाए नहीं .'
आकुल अंतर आश्वस्त हो चला है - आज तुम में माँ का आभास पा  लिया मैंने .
ओ बहुरूपिणी , तुमसे कैसे उऋण हो पाऊँगा  ! 

*
(क्रमशः)

 

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

कथांश - 26 .

*
वसु माँ के पास रुक गई थी.
तनय का कहना था ,भइया अधिक छुट्टियाँ नहीं ले सकते .तुम्हीं रुक जाओ .माँ कुछ ठीक हो जायँ तो मैं ले जाऊँगा .मैंने कह दिया ,'उसकी चिन्ता न करो ,बाबू ,मैं ख़ुद पहुँचा आऊँगा.'
 राय साब सारी  खोज-खबर लेते रहते थे.उनसे बहुत सहारा था.
 सुमति के जाने के पहले ही उसके पिता से मिलने गया था. चार पुत्रियों का पिता, जिसकी आय का स्रोत साधारण क्लर्की हो, वही हाल था.
पहले स्पष्ट किया मैंने ,'मेरी  बहिन और और आपकी बेटी में   पॉलिटेक्नीक की सर्विस के दौरान मित्रता हुई थी.
उन्हीं ने आपसे कुछ कहने को  मुझे भेजा है. आपकी बेटी जीजा से विवाह करने को तैयार नहीं. उस पर ज़ोर डालने का नतीजा बुरा भी हो सकता है .'

  उनने अपनी विवशताएँ बताईं .बोले,' उसके मन का वहम है ,बड़ा जमाई ठीक-ठाक है .लड़की का दिमाग़ ही चढ़ा हो  तो मैं क्या कर सकता हूँ  ?'
  मेरे समझाने पर  पर कि थोड़ा इंतज़ार करें ,सारे लोग लालची नहीं होते .
वे बोले,

'कहने को सब कह देते हैं ,मौका आने पर कोई  कोई तैयार नहीं होता .तीन-तीन ब्याहने को बैठी हैं उनका भी सोचना है मुझे .लड़केवाले सीधे मुँह बात नहीं करते ..'
'ऐसी बात  नहीं है ...'
वे कुछ तेज़ी पकड़ गये ,मेरी बात काट कर  बोले-
'तो आप ही बताइये साहब,आप तैयार हो जाएँगे ?'
'मैं ..मैं, ' एकदम से मैं क्या बोलता?
'बस करने लगे न मैं-मैं ,..कोई  कमी है मेरी बेटी में ..?
' कोई कमी नहीं, पर मुझे अभी थोड़ा समय है .कम से कम साल भर ..'
 'वह कोई बात नहीं आप  तैयार हों तो  काफ़ी है हमारे लिए . तब तक हम विनीता रिश्ता खोज लेंगे -दो बेटियाँ एक साथ ब्याह देंगे.'
और फिर बात रास्ते पर आ गई
पहले तो उन्हें विश्वास  नहीं हुआ, फिर एक दम विनम्र हो गए .
मैंने कहा ,'  मैं  इससे पहले नहीं कर सकता ,तब तक आपको कोई और मिल जाय तो ...'
'कैसी बातें करते हैं हमारे लिए तो भगवान बन कर आए आप .अगर कोई और मिल भी जाय तो दो और बैठी हैं अभी..'
'जैसा आप चाहें.'
 उस समय इतनी ही बात हुई .
*
सुमति को कुछ  नहीं बताया था मैंने .
बाद में माँ से मिलने उसके पिता ही आए थे .
मिठाई ले कर आए थे ,माँ को नज़राने में इक्यावन रुपये दे गए  . 
उन्होंने मना किया तो कहने लगे ,' अरे हम ग़रीब लोग, समधिन जी ,आपके लिए कर ही क्या सकते हैं .ये तो मान का पान है. हमें उबार लिया आपने .'
बड़े खुश  हो कर गए .माँ संतुष्ट थीं .
 पिता की देखभाल भी मीता की जुम्मेदारी थी  -छुट्टी में  आ पाती थी .
तनय ने वहाँ जाकर सबसे यहाँ की सारी बातें  फूँक दीं थीं.
विनय खुश थे, चलो अच्छा हुआ ,उन्हें लगा सारा कुछ मीता का किया धरा  है
बोले थे ,' ब्रजेश की  माँ को वचन दिया था न  उसने ....'
 *
अकेले में बैठे कभी-कभी बड़ी ऊब लगती है .
 मन बड़ी उलझन में पड़ा रहता है .अचानक ही इतनी घटनाएँ घट गईं .बिना सोचे-समझे बाहरी परिस्थितियों  को साधता मैं, जैसा बना, करता गया .  अब उस पर सोचने बैठा हूँ .माँ ,मीता और वसु तीनों  एक  मत . . चढ़ा दिया सब ने और  मैं बेवकूफ़ियाँ  करता गया.  मेरी बड़ी बुरी आदत है  अपनी ही चलाने लगता हूँ  मीता के साथ तो करता ही था उस दिन उसे  भी अपनी अनुकूलता  में घसीट लिया .वह तो लाचार थी ,मैंने अपनी धुन में  कुछ सोचा-विचारा नहीं .बस माँ को तुष्ट करना चाहा था.  निराशा न हो ,वे उदास न हों उस समय यही पूरा प्रयत्न रहा था.


  मीता का कहा ध्यान में था ,'माँ के संस्कार पाये हैं तुमने .'
एक सुन्दर परिवार- जो  माँ को नहीं मिल सका  उनका सपना था ,जो बिखरे नहीं ,मन जिसमें रह कर प्रसन्न हो . 

उन्होंने कहा था ,' आगे इसी धरती पर तो आना है ,तुम्हें और मुझे भी.
 मुन्ना,  अपने पुरखों के श्राद्ध हम करते हैं ,उनकी सारी अच्छाइयों का फल  हम भोगते हैं तो अपराधों का प्रायश्चित कौन करेगा ?'
इतने दिन से बीमार माँ को दुख न पहुँचे ,उस दिन बस  इतना ही ध्यान  था.

*
  मन कहीं  टिक नहीं रहा.
ध्यान आ गया मीता के पारिवारिक जीवन का .

मैंने व्यस्त हो जाने के बारे में पूछा था , 'नौकरी करके कैसा लगता है ?'
'शरीर की थकान आसानी से दूर हो जाती है ,पर मन ऊबने लगे तो जीवन का उत्साह कम होने लगता है .इस हिसाब से पॉलिटेक्नीक का जॉब  बहुत अनुकूल है . ' 
 हाँ ,जॉब ले कर अच्छा किया उसने .संबंधों  और परिवार की सीमाओं से कहीं थोड़ा   छुटकारा  बहुत ज़रूरी है ,मन के कुछ अकेले कोने ,कभी-कभी अपने लिए एकान्त चाहते हैं . कोई जगह जहाँ कुछ निजीपन बचा रह सके , जहाँ कभी अपने में ही रहने का अवसर रहे ,जहाँ अचानक छा जाते  अनमनेपन का कोई  कारण देना ज़रूरी न हो .कुछ साँसें ,दूसरे वायुमंडल से खींची जा सकें जहाँ .

मैं तुम्हारी स्थिति समझता हूँ ,कितना कठिन होता है घर में रह कर ही अपने को खपा देना ,मुक्ति का कोई रास्ता नहीं दिखता हो जहाँ .

 अब मैं भी सचेत हो गया हूँ .  सोच रहा हूँ .कितना मुश्किल हो जाता है हर समय अपनी मनस्थिति के लिए कोई समाधान किसी के सामने रखना .हमेशा सबके आगे प्रत्यक्ष होना. कभी अपने आप में रहने की सुविधा न हो जहाँ , कितना असह्य हो जाता होगा !
 तभी मेरा मन विवाह के लिए तैयार नहीं होता .
उस दिन लिखते-लिखते  बीच में छोड़ दिया था , डायरी सामने पड़ गई .
खोल कर देखने लगा.

पेन उठा लिया -
नाम लिख दिया था उस दिन तुम्हारा, पर  वक्तव्य मेरा है.
बार-बार तुम्हारा  वह प्रश्न  सामने खड़ा हो जाता है  - किसी से प्रेम करने से क्या अंतर का भंडार रीत जाता है ?प्रेम स्वभाव है .माँ बहन और बेटी में सोचो ज़रा.एक का प्यार दूसरे का हिस्सा कम कर देता है, क्या ?

 हाँ,पारमिता .माँ, माँ रहेंगी ,जो तुम हो तुम रहोगी ,वसु वसु रहेगी .जो,  जो है वही रहेंगा-भाव की भिन्नता है, बस!
अंदर ही अंदर बहुत कुछ उठता  है - संबद्ध-असंबद्ध . जिसका पूरी तरह  व्यक्त हो पाना कठिन  होता है  .थोड़ा चैन पड़ता है जब ,कुछ अपने मन का लिख लेता हूँ  ,पर एक बार में थोड़ा -सा ही  .मैं लेखन पटु नहीं हूँ .पर इससे क्या ?कौन सा किसी के सामने रखना है .अपनी बात अपने तक ही तो - बिलकुल निजी!
 माँ की बीमारी में कितना कुछ घट गया , मैं तब सोचने -समझने  की स्थिति में नहीं था.अब असुविधा अनुभव कर रहा हूँ . ठीक हुआ या ग़लत समझ में नहीं आता .ख़ुद अपना समाधान नहीं कर पा रहा,
 अचानक ऐसा कुछ कर गया कि  अब उससे बचने का उपाय  नहीं . सब को संतोष है ,किसी को क्या फ़र्क पड़नेवाला है ?झेलना अकेले मुझे .मैं ही  रह गया बीच में अकेला.कैसे निपटूँगा ?
 अनमना मन  भटक जाता है   कुछ और नहीं लिख पा रहा . पेन और डायरी  किनारे कर दी.
माँ की चिन्ता लग रही है .उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो रहा  .
वसु है वहाँ, राय साब हैं ,उनका डाक्टर आता है .
 मेरी माँ अपनी ओर से बहुत लापरवाह हैं , हमेशा की आदत है .  कितनी बार कहो -चलो डाक्टर के पास .चट् मना कर देती हैं - ' मुझे वे दवाएँ नहीं पड़तीं ',
देसी दवाएँ और काढ़ों से काम चलातीं हैं .दवा के नाम ,वैद्य जी की पुड़िया उन्हें  ठीक लगती है .डाक्टर की दवाओं से उन्हें उलझन होती है .'
ऊपर से , अपनी जान को दस काम लगाये रखती हैं - किसी को ना कहने की आदत नहीं .
साथ की शिक्षिका की बेटी का विवाह था . ठंड लग  गई , किसी को बताया नहीं .हल्का ज्वर रहा तब भी ध्यान नहीं दिया. कमज़ोर तो थीं ही . अधिक शीत-घाम नहीं झेल पाईँ .खाँसी आने लगी थी  .बाद में 15 दिन बिस्तर पर पड़ी रहीं .
 समझ में नहीं आता  क्या करूँ कि उनका दुख  कम हो .क्या करूँ जिससे वे सुख का अनुभव करें . मेरा  मन बहुत विचलित हो जाता था पर कहता किससे ,और  कहने को था भी क्या/ बहुत चुप्पा-सा हो गया था. मन करता था उनके आँचल में मुँह छिपा लूँ ,आँसू बहा कर हल्का हो लूँ .पर कभी  नहीं कर पाया  .उन्हें दुखी करने का विचार भी गवारा नहीं होता.
माँ की गोद में सिर रख कर कभी रो नहीं सका .उन्हें अपना  दुख दिखाता कैसे ? बहुत बातें , पर कह नहीं पाता था.लोगों के बहुत से व्यवहार बता नहीं पाता था . वह  सब बीत गया , सब बदल गया लेकिन अब भी मन कैसा हो जाता है कभी-कभी .

 मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है -बहुत दिनों तक मन भारी रहता है फिर  अचानक अनायास कुछ याद आता है और अपने आप हँसी आ जाती है .
प्रकृति का यही विधान होगा कि मन का मौसम कुछ बदल जाए , संताप का सातत्य बिलकुल विषण्ण न कर दे.
और कुछ हुआ कि मुझे बैठे-बैठे हँसी आ गई   .कोई देखे तो सोचेगा कैसा मूर्ख , अकेला बैठा हँस रहा है.
जाने कहाँ से भटकती एक पुरानी याद मन-मस्तिष्क में उदित हो गई  -
उस दिन लाइब्रेरी  गया था .पारमिता किसी लड़की के साथ बैठी पढ़ रही थी.
लड़की  उठ कर किसी काम से बाहर गई ,पढ़ते-पढ़ते उसका मुँह कुछ खुला और टेढ़ा दाँत दिखाई देने लगा .इस ओर बैठे मैंने हाथ बढ़ा कर छूना चाहा  उसने  चौंककर सिर घुमाया, बोली ,' ये क्या ? जाने कहाँ का कैसा गंदा हाथ मेरे मुँह में लगा रहे हो ..'
'अच्छा ये बात है .अभी धो कर आता हूँ .फिर तो..'
''चलो हटो...'
 हँसी आई थी उसे भी .मुँह फेर कर छिपाने की कोशिश कर रही थी.
कितने दिन बीत गये.तब हम लोग कॉलेज में थे.
वेतन ले लूँ बस ,मुझे माँ के पास जाना है .
 *
(क्रमशः)

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

हे कृष्ण , यहाँ मत आना तुम !


*
ओ कृष्ण ,तुम मत आना  !
यहाँ मत आना तुम !!
गला फाड़-फाड़ कर  टेर रहे हैं जो पाखंडी ,अपन- स्वार्थी ,उनके शब्दों पर मत जाना.
ये  लोग अपने स्वार्थ और सुख के लिए पगलाए जा रहे हैं .  न्याय और सत्य के पक्ष में जिन कायरों की वाणी मौन हो जाती है ,खड़े होने का दम नहीं रहता  ,मत सुनना उनकी पुकार , वासुदेव , तुम मत आना !

पूछो ,उनने स्वयं अब तक  क्या किया ?युगों से अन्याय होता देखते रहे ,सहते रहे. प्रतिरोध क्यों नहीं कर पाये?
ये कायर , पलायनवादी हैं. अन्याय के ये हिस्सेदार  चीख-पुकार मचाने के सिवा और कर क्या सकते हैं !
गोविन्द, तुम तुम द्वारकाधीश हो कर भी दीनबंधु बने रहे ,यश-निन्दा से निरपेक्ष ,सुख-दुख में समभाव जीवन भर अविश्रान्त भावेन कर्मशील रहे ?ये सब  अकर्मण्य हैं अपनी हैं लिप्साओं के अधीन ?तुम्हें भी रिश्वत देने पर उतारू हैं -प्रसाद चढ़ायेंगे,रोये-गायेंगे ,नाचेंगे मंदिरों मे छप्पन भोग लगा कर अपनी जिह्वा तृप्त करेंगे. तुम्हारा नाम ले कर  भोग के सारे साधन जोड़ेंगे  ,केवल अपनी तृप्ति के लिए .  किसका भला हो पाया है आज तक उससे ?
 पूछो इनसे किस दीन की सहायता की ?क्या लोक-सेवा की, किस दुखी का दर्द दूर किया?गहन विषाद में डूबे  परम सखा को  कर्तव्य पालन हेतु जो ज्ञान दिया वह मानव-मात्र को दिशा-बोध देता सार्वकालिक संदेश  बन गया , उसका पाठ करनेवाले बहुत होंगे , बाल की खाल  निकालनेवाले व्याख्याकार  भी कम नहीं  पर उसे जीवन में धारण करनेवाले कितने हैं ? आचरण में उतार लिया होता तो न द्विधा-ग्रस्त होते ,न ग्लानि-गलित आत्महीनता के भाजन  होते . मन का समत्व- भाव उन्हें हर विषम स्थिति में साध लेता ,दैन्य-प्रदर्शन की नौबत ही न आती.पर  ये बौद्धिक कलाबाज़ियों वाले लोग धर्मराज बने ,अपने पक्ष में तर्क ढालने में निपुण हैं .
इन आस्था विश्वास हीनों का क्या उपचार करोगे ?
क्या करोगे ,यहाँ आ कर ?
*
इन लोगों के  करे-धरे कुछ नहीं होता .तुमने मानवीयता का जो सहज-पावन रूप  निरूपित किया था ,इन्हीं लोगों ने उसे इतना विकृत कर दिया .तुमने दिखा दिया था.नारी-नर का  संबंध इतना स्वस्थ और उन्नयनकारी भी हो सकता है ,वह उनकी उनकी मानसिकता से  परे रह गया , वह  इनकी   मनोवासनायें जगाने का माध्यम बन गया  .  केवल  विकृत रूप ही इनके पल्ले पड़ते  हैं .  नारी की लाज ढाँकनेवाले को ,विवस्त्राओं के बीच चित्रित कर रहे हैं .तुम्हारे सारे अर्थ अपनी वासनाओँ के आरोपण से  गँदला दिये इनने . नारी शरीर पर मनमाना अधिकार मान कर चलने लगे . इनकी  मानवीय संवेदनाएँ कुंठित हो गई हैं  इनकी कुतर्की मति के आगे जीवन के यथार्थ  और सारे  आप्त वाक्य  बेकार हो गये  हैं . और तो और तुम्हारी बाल सखी राधा ,इन के विकृत  मनोरंजन का साधन बन गई - सह पाओगे तुम ?इस वातावरण में रह पाओगे तुम ?नारी-विहीन कर दो संसार को और इस विकृत नर-वंश को   मनमानी करने के लिए छोड़ दो, वैसे ही जैसे अभिशप्त यदुकुल को अपनी परिणति पाने के लिए   छोड़ दिया था .
तुम्हें बरजते मन बहुत दुखता है गोविन्द ,यह दोहरी चुभन   मेरी  वाणी में तीखापन और,शब्दों में  कटुता भर रही  हो तो  क्षमा करना, क्योंकि तुम अंतर्यामी हो ,किसी के मनोभाव तुमसे छिपे  नहीं!
इन्हें क्यों लगता है कि तुम चले गये हो ? अंतर के शुभ संकल्प जगा कर  मन का कलुष धो लेंगे जिस दिन ,उस दिन स्वयं जान  लेंगे कि तुम निरंतर साथ रहते आए हो .इन्हें स्वयं अनुभव करने दो वासुदेव ,अपने से प्राप्त अनुभवों की गाँठ बहुत मज़बूत होती है ,खुलती नहीं कभी .इसलिए हे  नटवर , तुम इन  के दंद-फंद में पड़े बिना इन्हें सच का साक्षात्कार करने दो .
रे कलाधर , इनकी कलाकारियों पर रीझ कर सामने आने का सोचना भी मत .
 मत आना मुरली धर ,तुम यहाँ बिलकुल  मत आना !
*

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

कथांश - 25.

*
सुबह आँगन से आवाज़ दे कर मुझे चाय का कप पकड़ा दिया था सुमति ने .
कोई विशेष बात-चीत नहीं हुई .
दोपहर में मुझे थाली परोस कर दे गई .
एक रोटी और माँगी थी मैंने. सब्ज़ी सिर्फ़ आलू की थी ,माँ का सारा काम सँभाले है और क्या करती .यही बहुत है .
सुमति रसोई से बाहर चली गई थी .मुझे लगा खाना नहीं खाया है .
'आपने खाना नहीं खाया ?
वह एकदम चौंक गई
,'खाना ..हाँ खा लूँगी .'
ऊपर कपड़े सुखाने गई थी वह ,माँ की दवा के लिए गिलास लेने गया .
रसोई में बर्तन खाली पड़े थे.रोटी का डब्बा  मँजने के लिए  रखा था .सब्ज़ी की कढ़ाई कटोरे भी .
'अरे ये क्या ! खाने को कुछ है ही कहाँ?'
इधर-उधर  ताक-झाँक करने लगा -
 आटे के डब्बे में मुट्ठी भर आटा ,और दो छोटे-छोटे आलू सब्ज़ी की टोकरी में .
 हद है ,  अपने आप  भूखी रही ,मुझे खिला दिया .
वो सीढ़ियाँ उतर रही थी ,'आपने खाना नहीं खाया ?'
'खाऊँगी थोड़ी देर में ..अभी भूख नहीं है. '
' क्या खायेंगी, वहाँ कुछ है भी? माँ बीमार पड़ी हैं,कौन लाता घर का सामान? मुझे खिला दिया आपने और ... कल भी लगता है यही किया .,मुझे बताया भी नहीं ..!'

उधर से कोई उत्तर नहीं.
'मैं भी कैसा बेवकूफ़ हूँ ,मेहमान का ध्यान नहीं रखा ..'
'मान न मान मैं तेरा मेहमान ..सिर पड़ गई  हूँ  मैं तो.. .'

 'प्लीज़ ऐसा न कहें आप ही तो सब कर रही हैं ,माँ की देख-भाल घर के सारे काम..मैं तो बाहरी जैसा होगया  ..' 
वह फिर भी चुप रही.
'आप जरा लिस्ट बना दीजिए  बाज़ार से क्या-क्या सामान आना है ..'
'मैं ?मैं बना दूँ .'
'प्लीज़ ,मैं तो यहाँ रहता नहीं .कभी हफ़्ते-दो हफ़्ते में एकाध दिन को आता हूँ ,वैसे भी सब माँ करती रहीं या वसु ,मुझे कोई अंदाज़ नहीं ...'
कुछ न कहने का मतलब 'हाँ' ही समझा जाता है .

बाद में लिस्ट पकड़ा दी थी सुमति ने-
चीनी -चाय,आटा चावल अरे, सब कुछ आना है .कुछ था ही नहीं ..कैसे चलाया होगा तीन दिन !'
फिर उसने कहा-
'सुनिये, अब मुझे भी जाना है आप सँभालिये यहाँ  ..'
'और माँ को ..?पारमिता  तो आप को सौंप गई हैं ..'
'तब आप नहीं थे .'
'पर इतना सब मैं कैसे..करूँगा  .और आप कहाँ जायेंगी ?'
'चली जाऊंगी ,माँ -बाप तो हैं न ..'
'फिर वे जीजा से शादी करने का... .'
'देखी जायगी ..'
मुझे पता था नौकरी है नहीं ऊपर से वे लोग पीछे पड़े हैं जीजा से शादी कर लो.'
'आप साफ़-साफ़ क्यों नहीं कह देतीं ?"
'क्या साफ़ कह दूँ ?जितना कह सकती थी कहा. ,पर वे लोग ज़िन्दगी भर मुझे सिर पर बैठाये रखेंगे.?पढ़ लिख कर और मूंग दली है उनकी छाती पर ..'
'तो फिर  आप उनसे ..'
'मैं करूँगी या नहीं ,आप क्यों परेशान है .मेरी अपनी बात है ..'
 इसी ने पारमिता से कहा था ,ऐसे आदमी के साथ घुट-घुट कर मरने से अच्छा एक बार सुसाइड कर ले.मैंने चट् कह दिया 
'अरे वाह ,यहाँ से जाकर सुसाइड किया तो फँसेंगे तो हम! .पुलिस इन्क्वायरी और जाने क्या-क्या...नहीं..नहीं ,.. मैं नहीं जाने दूँगा ऐसे .'
'जाने कैसे नहीं देगें ?.

'ठीक है. तो मैं भी चलता हूँ साथ .आप उन से नहीं कहेंगी तो मुझे कुछ कहना है उनसे
'क्या कहना है ?
'जो कहना है खुद बात कर लूँगा .'
 'नहीं, फ़ालतू में किसी को बीच में नहीं डालना है मुझे.'
'तो  मैं चला जाता हूँ ,यहाँ  आप आप सँभाल लीजिये ..'
'अरे वाह,ये अच्छी रही',
फिर बोली -
' आप भला  क्या कहेंगे,  सुनेगा कौन वहाँ आपकी ..?'
मुझे हँसी आ गई ,' खूब सुनेंगे मेरी बात , मैं लड़का हूँ न !आप नहीं जानतीं मुझे ....'
पता नहीं कब से खाना भी नहीं खाया होगा, मुझे खिला दिया ऊपर से मैंने सुना  दिया ' मैं लड़का हूँ.'

और चिढ़ कर बोल गई ,' हुँह ,लड़के ?  हाँ, समाज के विधायक तो वही हैं .सारा कर्मकांड, लड़कियों के मत्थे ठोंक ,हाथ झाड़ कर चल देते हैं.' 
मैं चुप रह गया .
वैसे माँ की सेवा खूब कर रही है . देखा था कुर्सी पर बैठे-बैठे  सो गई .
पर उससे क्या कहूँ लिस्ट ले कर बाज़ार निकल  गया .
*
 लौट कर देखा वसु तनय के साथ आई है . मीता से माँ की बीमारी का सुन रुक नहीं पाई .
'अरे भैया तुम यहीं हो ! अच्छा हुआ मैं राखी यहीं ले आई.'
 जब राखी बँधवाने जा रहा था  ट्रेन का एक्सीडेन्ट हो गया था 12 घंटे लेट.. तब जा ही  नहीं पाया .
वह कह रही थी,'मुझे तो रोना आ गया  उस दिन ,फिर  अम्माँ ने कहा भगवान को धन्यवाद दो  तुम्हारे भाई कुशल से हैं , राखी यहीं मंस कर रख लो जब  मिलें बाँध देना ..'
'तनय कहाँ हैं?'
' दीदी के घर गए हैं बाबूजी से मिलने .'
अपने बैग में से एक पैकेट निकाला उसने एक नारियल-गरी का गोला ,उस पर तिलक किया हुआ ...'
'ये क्या ?'
  तब इस पर तिलक किया था  भइया के नाम का ...वैसे आज भी करूँगी...'
सुमति खड़ी हँस रही है , पहली बार उसे यों देखा -  कितना कम हँसती है,कह रही थी 'ये अच्छा !भाई का माथा नहीं तो   टीका गोले पर कर लिया . अच्छा उपाय !'
' और आप क्या करती हैं ?'
'भाई नहीं है मेरे ,' वह उदास हो गई . 
माँ जैसे सोते से जागी हों,
'अब  मेरे सामने बाँध दे राखी वसु ,अभी -अभी  राखी बीती है.'
' तो फिर पूरी विधि से बाँधूँगी .'
कुछ लेने रसोई में गई ,खाली थाली लिए चली आई
'वहाँ आटा चावल कुछ नहीं, आप कैसे क्या करती हैं ..'
'मेरा पेट भरती रहीं ये,  ख़ुद अनखाये रह कर ...आज तो बिलकुल ..'
अचानक बीच में टोक दिया गया ,तीखी आँखों देखते उसका हाथ हिला ,जैसे बरज रही हो, 'ऐसा कुछ नहीं ..'
मैं विस्मित देखता रह गया.
'ये सब सामान आ गया है अब .' और कहता भी क्या?
वसु ने बाकायदा ज़मीन पोंछ कर चौक पूरा ,कलश भर लाई ,बड़ा-सा पटा रख दिया
'लो भैया बैठो.. .'
'पैंट पहने हूँ इस पर नहीं बैठ पाऊँगा.'
'चल खड़े-खड़े बाँध दे ' माँ इन सब मामलों में बिलकुल रिजिड नहीं हैं.
मैं पटे के आगे खड़ा हो गया
'तू अकेला ?भाई-भाभी जोड़े से राखी बाँधते हैं अपने  यहाँ तो  .'
 सब चौंक कर माँ का मुँह देख रहे हैं .
'रिवाज़ तो यही है हमारे वहाँ भी ' वसु धीमे-धीमे हँस रही है.
 क्या करता ,माँ से कुछ कहते नहीं बना. हाथ पकड़ कर ..सुमति को साइड में खड़ा कर लिया.
वह झिझकी ,पर चुपचाप वैसी ही खड़ी रही ,बस पल्ला खींच कर सिर ढँक लिया था.
 इतने में तनय आ गया ,'अरे, यहाँ तो अच्छा-खासा ड्रामा चल रहा है ,वसु ,रुको ज़रा, ...अपना कैमरा ले आऊँ .'
वसु खुशी के मारे 'अरे एक राखी और लाती हूँ , ' कह कर अंदर दौड़ गई ,'

वसु को आगाह कर दूँ ,सो उसके पीछे-पीछे चला गया.
रेशम की डोरी निकाल रही थी वह ,' देखो वसु ,सीरियसली मत लेना ,माँ के कारण करना पड़ रहा है.'
,'भइया ...अपना काम निकाल कर हाथ झाड़ लोगे? वह भी हम लोगों जैसी है ,और  इस समय बहुत बेबस .' .
कहते-कहते उसकी मुद्रा  रुबासी हो आई थी.
अपने पर बड़ी शर्मिन्दगी लगी ,'ऐसा कैसे सोच लिया तूने .?.' कहते-कहते अपना ही स्वर कमज़ोर  लगने लगा था .
मैं, फ़ौरन जहाँ से आया था जा कर वहाँ वैसा ही  खड़ा हो गया.
'भइया, आप भी न..,'अपना रूमाल निकाल कर  तनय ने मेरा  सिर ओढ़ा दिया '
'तुझ से तो वो समझदार है ,' सिर ढँके सुमति को देख ,माँ का कमेंट आया था ,'सब लापरवाह हैं बकसे में से अच्छी साड़ी निकाल कर इसे काहे नहीं पहना दी ?'

देने के लिए और कुछ तो था नहीं ,मैंने जेब में से रुपये निकाल कर आड़ से उसकी ओर बढ़ाये ,सुमति ने हाथ बढ़ा कर पकड़ लिए ..
(बाद में पता लगा ये भी तनय ने कैमरे में कैद कर लिया).

बहन ने दोनों के भाल पर  रोली-अक्षत का शुभांकन और कलाइयों पर राखी बाँधी. उसने सिर झुकाए हाथ बढ़ा कर  चुपचाप बँधवा ली.
वसु जब हम दोनों पर वार-फेर कर रही थी  उड़ती-सी दृष्टि  सुमति पर गई उसकी आँखें भरी-भरी सी लगीं ..मन जाने कैसा होने लगा.
 उसकी ऐसी माधुर्य से पूर्ण,  सौम्य मुख-मुद्रा पहली ही बार देखी .भीतर   से कचोट - उठी पता नहीं दुनिया में सजह रूप से रहने के अवसर इतने दुर्लभ क्यों हो गए हैं !
पग-पग पर प्रताड़ना झेलती, हमेशा 'तुम लड़की हो' की चेतावनियाँ पाती लड़की को जब अचानक  सहज स्वीकृति और स्नेह सत्कार मिले  तो अंतर के आवेग की उमड़न  कैसे रुके  !
मेरे पकड़ाये रुपये उसने थाली में रख दिये ,तो हम दोनों को देख वसु मुस्करा उठी थी.
विधान संपन्न होने पर उसने वसु के चरणों में झुकना चाहा .
उसे  गले लगाते वसु -धीरे से कान में बोली ,' अभी नहीं.'
आज मेरी समझ में आया बहन छोटी भी मान्य होती है - ठीक ही है.

'वसु, उसमें बिस्किट के पैकेट हैं और कुछ नमकीन मिठाई भी .देखना इनने पता नहीं कब से कुछ खाया नहीं ,मेरा ही पेट भरती रहीं ....' मैंने उसकी ओर देखे बिना कह ही डाला.
 पटाक्षेप में माँ ने कहा था ,,'लेटे-लेटे किसी के पाँव नहीं छूते ,मैं उठ कर बैठ जाऊँ, तब छूना .'
सहारा दे कर बैठाना चाहा पर उनकी  हिम्मत नहीं पड़ रही थी.
*
( क्रमशः)

शनिवार, 1 नवंबर 2014

कथांश - 24.


*
रमन बाबू के 'माया-भवन' (माया उनकी पत्नी का नाम) में रौनक हो गई थी .विनय तो वहीं अपने स्नातकोत्तर कालेज में  खुश थे  अब  पारमिता भी  वहीं पॉलिटेक्नीक में पढ़ाने लगी . तनय का दो जगह  सेलेक्शन हो गया.-देखो कहाँ ज्वाइन करे .वसु सब के साथ वहीं थी.
 उसी से हाल-चाल मिलते रहते थे.
रमन बाबू और मायादेवी आराम से ज़िन्दगी गुज़ारने के आदी थे. गाँव का एक आदमी,आउट हाउस में रखा  था .घर का काम सँभालने को  महरी-महराजिन पहले से थीं .
मीता को पूरी फ़ुर्सत थी अपना काम करने की .
उस के ज्वाइन करने से पहले एक और नियुक्ति हुई थी -बिलकुल टेम्परेरी  . लाइब्रेरी एसिस्टेन्ट, मेटर्निटी लीव पर गईं  ,कह गईं  अब साल  पूरा कर के आऊँगी ,उनके स्थान पर , अस्थाई नियुक्ति कर ली गई  वह टर्म समाप्त होने को थी . लड़की थी सुमति .अकेली . अक्सर ही मीता साथ ले आती.
उस दिन चाय पर उसी की चर्चा चल रही थी .
 विनय पूछ रहे थे ,' पर ऐसा हुआ क्या  था ?'
'क्या करे बिचारी सुसाइड करने जा रही थी.'
वे  चौंके,'अरे क्यों .'
'बड़ी उलझी कहानी है ...'
'पर तुम्हें कैसे पता सुसाइड का?'
' इसकी टर्म खतम हो रही है .इधर कई दिन से परेशान थी मुझे पता था, तो कल इसके कमरे पर चली गई कि शायद कुछ मदद कर सकूँ.
दरवाज़ा खोला इसने. रोई-रोई लग रही थी . हड़बड़ी में उठी थी ,मुझे बैठा कर एकदम अंदर चली गई -एक कागज़ जल्दी से किताब में घुसा दिया था मेज़ के कोने पर टेढ़ी पड़ी  किताब साड़ी के पल्ले में फँस कर  नीचे जा गिरी. कागज़ निकल कर दूर जा पड़ा.उठाया तो  देखा -सुसाइड नोट !रो-रो कर यही लिख रही होगी .
'बाप रे !' विनय के मुँह से निकला
'पर बात  क्या ?'
 चार बहनों में दूसरे नंबर की है ये ,भाई कोई नहीं .माँ-बाप पढ़ाना नहीं चाहते थे .अपनी ज़िद में पढ़ा किसी तरह .
उनके तो बड़ी के लिए लड़का ढूँढने में ही तलवे घिस गए, जमा-पूँजी खर्च हो गई .ऊपर से तीन-तीन और .पढ़ा- लिखा लड़का देखो तो उसके दिमाग नहीं मिलते .
ये सोच रही थी अपने पाँव पर खड़ी हो जाऊँगी पर नौकरी कहाँ धरी आजकल?
 ब्याही बड़ी बहिन की  पिछले साल मौत हो गई ,  छोटा बच्चा छोड़ गईँ . वे सब चाहते हैं इसे जीजा से ब्याह दें - सारी समस्यओं का हल . वह  तो  तुला बैठा है . इसकी कोई नहीं सोचता
अब  ये घर जाने को बिलकुल तैयार नहीं .वो लोग जबर्दस्ती जीजा को पल्ले बाँध देंगे . ये कहती है घुट-घुट कर नहीं जीना,मर जाऊंगी पर उस आदमी से शादी नहीं करूँगी .
मैंने कहा - यहीं रुक जाओ .
बोली -यहाँ कहाँ रहूँ ,नौकरी खतम.कल से क्या करूँगी?'
घोर अरुचि के आदमी के साथ ज़िन्दगी भर गुज़ारूँ ,मुझसे नहीं होगा.हाँ बच्चा पाल दूँगी ,अलग से  .'
'तो..?', विनय ने पूछा था ..,'क्या करेगी अब ? ..'
वसु बताती रही थी - मैं श्रोता-मात्र .
याद पड़ता है एकाध बार वहाँ आते-जाते उस लड़की को देखा था

*
फिर पारमिता ने ही सजेस्ट किया था -
' मैं जा रही हूँ  .पिता अकेले हैं महीने-पन्द्रहवें देख-सुन आती हूँ -एकाध दिन रह लेती हूँ.  चलोगी  मेरे साथ ?'
' कहीं नहीं जाना, एक फ़ालतू का बोझ हूँ सब के लिए .'
'अरे ,मेरे पिताजी हैं बस,बड़े ख़ुश होंगे . न अच्छा लगे तो ज़हर की शीशी तो  रखी है आकर पी लेना .'
कह-सुन कर मीता उसे लेकर मायके आई थी.
वहाँ पता चला माँ की तबियत खराब .देखने गई  सुमति के साथ ,
 दिन निकल गया .फिर मीता बोली ,'कैसे अकेली छोड़ूँ इन्हें.तुम घर जाओ सुमति ,मैं यहीं रहूँगी .बाबूजी जी को बता देना .'
'नहीं दीदी ,आप जाइये मैं रह जाती हूँ .सँभाल  लूँगी यहाँ का.'
थोड़ी बहस के बाद तय हुआ कि मीता लौट जाय सुमति माँ को पास रहे.
क्या करती पारमिता भी? न उन्हें ऐसा अकेले छोड़ सकती न रुक सकती  ..नई नौकरी  छुट्टी भी नहीं.
वह बोली, ' ठीक है, मैं रुक जाऊँगी .'
मीता ने चैन की साँस ली.माँ को भी जाने क्या समझा दिया उसने .'
*
मैं तो यों ही चक्कर लगाने आया था ,माँ के हाल-चाल लेने.
उस लड़की को देखा ,समझ गया वही है.
कुछ अजीब उसे भी लगा होगा .पर सँभाल लिया था उसने .
रसोई से उसने कहा,
'माँ को  दवा देनी है वहीं सिरहाने रखी है.'
मैं  शीशियों के लेवेल देख रहा हूँ प्रेस्क्रिप्शन देख कर गोली निकाली
आहट पा कर माँ ने आँखें खोलीं ,'ले आया ,मुन्ना तू ?'
'हाँ, लाया हूँ न ' मैंने गोली आगे बढ़ाई ,वे तो कुछ और देख रही थीं हाथ नहीं बढ़ाया ,'
 'माँ तुम्हारे लिए ..'

'मुझे लगा  सपने में हूँ  ,पर तू सच में लाया है . आज  खुश कर दिया तूने ... '
उनका चेहरे पर चमक  आ गई थी.

'अरे, पानी के बिना दवा कैसे लेंगी ,' गिलास पकड़े सुमति चलीआ रही थी.

'मुन्ना, तू भी ऐसा ही है किसी को बताया तक नहीं ,'देखती रहीं फिर बोलीं ,'अच्छी है ,पढ़ी-लिखी तो होगी ही.'
पता नहीं माँ कैसी गफ़लत में हैं -बुख़ार चढ़-उतर रहा है.
बोल रहीं थीं-'कैसे  सादे कपड़ों में घूम रही है ..मैंने वसु के साथ ही गोटे की साड़ी बनवा ली थी .वही निकाल दे .अरे ,लगे तो नई नई है ...
.. मुझे तो कोई कुछ बताता ही नहीं .दो दिन से मीता थी घर में उसने भी कुछ नहीं कहा..' फिर सोचती सी बोलीं ,'..शादी कब हुई ?'.
 मैं हड़बड़ा गया मुँह से निकला-
 'हुई कहाँ ?'
' ओ, तो दिखाने लाया है .अच्छी है. बहुत प्यारी .बिलकुल  घर मिलताऊ ..'
वह चकराई-सी वहीं रुक गई - तो ये मुझे कल तक मीता समझती रहीं थीं.
मैंने बढ़ कर ताप अनुभव किया ,'बुखार कम लग रहा है अभी  !"
'हाँ, ठीक से बोल भी रही हैं ..'
'पर इन्हें कुछ कन्फ़्यूज़न हो रहा है ..'
वे कहे जा रहीं थीं ,'मेरी तो आधी बीमारी भाग गई मुन्ना ,तूने खुश कर दिया ! मैं अब ठीक हूँ .'
'आराम करो माँ .दवा खा लो .'
वह रसोई में चली गई.
मैं गया तो चुपचाप खड़ी थी.
'असल में मेरी माँ को कुछ पता-अता है नहीं .उनकी बात का बुरा मत मानियेगा..'
'सो तो मैं भी देख रही हूँ . '
*
(क्रमशः)

 


शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

कथांश - 23 .

*
वसु की बिदा के बाद पापा ने मुझसे कहा था ,'मैं  जा रहा हूँ ,अपनी माँ को भेजने की  तैयारी कर रखना.' 
 उनकी बात सुन कर चौंक गया ,मैं ,माँ को अपने पास रखने का सोचे था.
'उनकी तैयारी ? आपने बात कर ली ?'
'उसमें बात क्या करना ,जायेंगी क्यों नहीं ?वहाँ घर है फिर मै भी अब ठीक नहीं रहता....  '
'अभी तो उनकी सर्विस बाकी है ..'
'अरे क्या सर्विस !प्री-रिटायरमेंट लीव ली जा सकती है. वैसे  लोग पहले भी रिटायरमेंट भी ले लेते हैं .अब तुम भी चले जाओगे तो....'
इतने में चाय ले कर माँ आ गईँ ,' किसके जाने की बात?
 'तुम्हारी ..चलो अब. अकेली यहाँ कहाँ पड़ी रहोगी ?'
 'पड़ी हूँ यहाँ मैं ?ये मेरा घर है ..यहाँ से कोई मुझे निकाल नहीं सकता .वहाँ क्या है मेरा ?'
' मैं तो ख़ुद  कह रहा हूँ - अपने घर चलो .इस उमर में सबको सहारा चाहिए होता है.'
'किस उमर में नहीं चाहिए होता ?  तुमने बिना औरत के काम चला लिया क्या ? और मैं जब भरी जवानी में यहाँ पड़ी रही -ऊपर से बच्चों को सँभाला  तब किसी ने  सोचा ?तब भी मैंने पूरी कोशिश की थी ,वहाँ तुमने नहीं रहने दिया  .अब मेरा घर यही है .दिन-रात एक कर  जड़ें जमाईं हैं .मैं यहीं रहूँगी..'
'मान रहा हूँ गलती हो गई पर अब सब ठीक हो जायेगा..'
'और वह कहाँ है ?'
'मुझे उससे कोई मतलब नहीं ,ऐसी फ़ालतू औरतें ....'
'देखो, बेकार दोष मत दो उसे .कोई ब्याहता तो थी नहीं .जो तुम्हारा पट्टा पहने रहती '
'तभी तो तुमसे कह रहा हूँ अपने घर चलो '
'मेरी अब कहीं और जाने इच्छा नहीं . फेरे लिए थे उसका भरना अब तक भरती रही .कभी अपना ध्यान भी नहीं आया कि मेरी अपनी ज़रूरतें भी हो सकती हैं .अब निश्चिन्त हुई  तो फिर....'
'तुम समझती क्यों नहीं ..? '
लगा अभी चिल्ला पड़ेंगे ,माँ के ऊपर गुस्सा होने की पुरानी आदत !
ओह ,अब भी अपना ही अधिकार समझे बैठे हैं  ,माँ के चेहरे पर वितृष्णा झलक उठी. ..
वे बीच में बोलीं ,'बेकार गुस्सा मत दिखाना  ,यहाँ कोई तमाशा  खड़ा नहीं किया जाएगा .चार लोगों में मेरी इज्ज़त है.. .'
वे चुप हो गए थे
'वहाँ मेरे लिए क्या है जानती हूँ .यहाँ मेरा काम है, मेरी  पहचान है ,.और तुम  ?..किसी को बता कर आए हो कि बेटी की ब्याहने जा रहा हूँ ?"
कुछ बोले नहीं , कुछ किया हो तो बताएँ भी .
वे अपनी ही कहती रहीं ,' हाँ, तुम हमारे साथ आ कर  रहना चाहो  तो यहीं चले जाओ . '
  तभी महरी की पुकार  आई  .वे चली गईं थीं
बाद में मौका देख कर मैंने पूछा था ,'माँ  मेरे साथ  तो चलोगी न ? '''आता-जाती रहूँगी मुन्ना, पर  रहना यहीं चाहती हूँ . अजानी  जगह ,कुछ करने-धरने को नहीं, किसी से जान-पहचान नहीं . नई नई जगहों के नये ढंग . अब नहीं कर पाऊंगी . यहाँ पुराने लोग हैं  - सब देखा जाना है ,साथ के हैं सब  .समझते हैं  ,अब तक साथ दिया है माधुरी है,हरषी है मेरी ही उमर की .तीरथ करूँगी,और जो भी अपने को भाए .'
फिर पूछ बैठीं ,
'तुझे भी यही लगता है कि मुझे साथ चली जाना चाहिये था.'
'नहीं माँ .तुम्हारा मन न माने तो बिलकुल नहीं ...?'
'मुन्ना, ये सब बातें मैने वसु के आगे कभी नहीं खोलीं .उसके सीधे-सरल मन में क्यों बाप के लिए कड़ुआहट भर दूँ  .उसने अभी  देखा ही क्या है ..उसके साथ निभा लें तो अच्छा ही है .ससुराल में लड़की के बाप के नाम को जानते-पूछते हैं सब.'
*
उस दिन माँ का मन बहुत संतप्त था.
पिता ने जिस अधिकार से उनके  जाने की बात उठाई , उन्हें गहरे चुभी थी.
.बेटी की बिदा से उत्पन्न रिक्तता में उनका अतीत उमड़-घुमड़ कर  टकरा रहा था .
उस रात पहली बार वे मेरे सामने रोई थीं .
वसु चली गई थी. घर में  खालीपन छाया था. उनका संताप से भरा  मन  कुछ कहने को आकुलाया  होगा  .
 बेटी का ब्याह एक बड़े अनुष्ठान के समान संपन्न  किया था उन्होंने ,पूरी निष्ठा से कि, कहीं कोई त्रुटि न रह जाय .
कन्या-दान में बाप आ गए थे . माता-पिता गठबंधन से बैठे - पूरी विहित भूषा में रहीं वे ,सिंगार के साथ  विधि-विधान से सिन्दूर-टीका  उसी का उपादान रहा था.सच में उनका मन प्रसन्न था .कहीं कोई कसर न रह जाये पूरी कोशिश  रही थी .उनके ही शब्दों में ,'बेटी को किसी बात की जवाबदेही न करनी पड़े .मैंने पूरी ड्यूटी निभाई.'

अब तक का किया-धरा सफल हुआ था . बेटी को  ऐसा घर- वर मिला  जैसा उनकी स्थिति में  सोचना भी मुश्किल था .उनकी खुशी का पार नहीं .सारी औपचारिकताएँ तुष्ट मन से पूरी करती रहीं.
 पर सब कुछ अच्छी तरह निबटाकर भी उनका मनउन बोलों से बिंध गया था जो बाद में सुनने को मिले .वसु नहीं थी ,घर ,उस स्निग्ध माधुर्य से रहित  जैसे काटने को दौड़ रहा था .

माँ अकेली रह गई थीं .उनका मौन रुदन मुझसे  देखा नहीं जा रहा था. पर मैं विवश ,कुछ नहीं कर पाया.धीरज देने को कुछ बोलता रहा पर उन्हें सांत्वना हो ऐसा कुछ नहीं था मेरे पास  कहने को .
अब तक कभी ध्यान नहीं गया था ,उस  दिन माँ बहुत थकी लगीं ,बहुत शिथिल -सी !
 उन्हें अब  मन का चैन चाहिये, विश्राम चाहिये!  जीवन-क्रम में थोड़ा बदलाव, कुछ नयापन आए तो फिर से  चेत जागेगा -मुझे उनके लिए लग रहा था . 
पर मैं तो  दो दिन और हूँ , फिर  चला जाऊंँगा . माँ को तो यहीं रहना है !
इनके लिए कुछ  परिवर्तन ज़रूरी है .कुछ दिनों के लिए कहीं घुमाने ले जाने से, मन बदलेगा यही सोचता रहा .
*
बाद में मीता ने उनसे पूछा था,'उस दिन आपको देख कर बहुत अच्छा लग रहा था ..अब ऐेसे ही खुश-खुश रहिये, माँ '
वे मुस्करा दीं .
 उन्होंने कहा था -लोगों का  एक ही प्रश्न- पति ले जा रहे थे उनके साथ क्यों नहीं गईँ?कुछ ने पूछ भी लिया  सुहागिन हो कर रह रही हो ,फिर अकेली काहे के लिए?
' दूसरे के लिए कहने में  किसे ज़ोर पड़ता है माँ ,उनकी चिन्ता ही किसे  है  ?'
'औरतें तो और भी...मंडप में पाँव धरते ही  मैंने देख  लिया था - आँखें फाड़-फाड़ कर देखती स्त्रियाँ एक दूसरी दूसरे से कानाफूसी  रहीं थीं . वही जो पराये औगुन खोज कर अपने गुन दिखाने में  पीछे नहीं रहतीं-अच्छी ,पढ़ी-लिखी, औरों पर अपने ही निष्कर्ष लादने को तुली  दूसरी औरत पर आक्षेप करने से कब चूकती हैं ? उद्देश्य ये कि उसे  नीचा दिखा कर अपनी श्रेष्ठता जताना !'
  और पति  ? हाँ ,फेरे लिए थे   , .मेरी बेटी के बाप  -लाचार थी  .निभा दिया मैंने.'
 'समझ रही हूँ माँ ,और कोई समझे न समझे .मैं आपको समझती हूँ .आपने ठीक किया .'
पारमिता के अपनत्व  भरे व्यवहार से  माँ को सदा  मनोबल मिलता है .
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि स्त्री हो तो  उसके वैवाहिक परिप्रेक्ष्य पर ध्यान क्यों टिक जाता है ?अगर विवाह-चिह्नों की बात न हो ,तो आजीविका हेतु कार्य करनेवाली स्त्रियों में  विधवा,विवाहिता और सुहागिन में क्या कोई भेद रहता है?
यह भी कि पति की हर ज़रूरत पत्नी के पल्ले बाँध दी जाय  या समर्थ हो कर भी संतान  का माँ पर निर्भर हो रहने का चाव उमड़ता रहे ,यह उसके प्रति प्यार नहीं केवल अपना सुख देखने का स्वार्थ लगता है मुझे .वह कहे नहीं चाहे , और सबके सुख में अपनी सार्थकता खोजती रहे , पर एक व्यक्ति होने के नाते,अपने लिए भी थोड़ा जी सके इतना अवकाश कोई क्यों नहीं छोड़ता ?
- पर यह मेरी सोच है ,दुनिया अपनी  सुविधा से चलती है 
हाँ,उसकी बात पर माँ ने कहा था-
'अब अपने हिसाब से जीना चाहती हूँ . किसी के कहने का डर  नहीं .बच्चे सँभल गए ,वे खुश रहें !मेरे जैसे और लोग भी हैं ,कुछ और मत सोचना, .मेरे साथ की टीचर्स ,जिनने जीवन को झेला है ,उनकी अपनी कहानियाँ है .एक-दूसरे को समझते हैं और एक दूसरे का सहारा है .अब  दुनिया देखने का चाव जगा है .कुछ तीर्थ आदि भी . ..'
उनमें एक परिवर्तन लक्षित था  .माथे पर धीमी रह जानेवाली बिंदिया चमकने लगी थी.
*
 'चलो माँ ,कहीं चलें  कुछ दिनों के लिए ,कहीं सैर कर आएँ .'जाने से पहले ,मैंने प्रस्ताव रखा था.
'चलूँगी मुन्ना, पर अभी तो यहाँ का सारा पसारा समेटना है .'
लगा जैसे अपने से ही बात कर रही हों,' अभी पूरी निश्चिंती कहाँ ? तेरा जीवन भी ढर्रे पर आये तो चैन पड़े मुझे.'
'जरूर आएगा माँ '
'सच में ! ' उनके तो चेहरे का भाव बदल गया ,'तू  तैयार है शादी को   ?'
'सब कुछ करूँगा जो करना चाहिये .'
तब  अपने मन की बात कह डाली उन्होंने,' हाँ , मेरा नर्मदा मैया की परिक्रमा  का मन है .इधर से निपट कर वही करना चाहती हूँ  .'
 'अकेली ?'
'अकेली कहाँ ? साथ होते हैं कितने यात्री . समान भाव ,समान चर्या .अपना-पराया कुछ  नहीं -यहाँ का बीता यहीं छोड़  ,आगे बढ़ चलते हैं  ... उतने दिन दुनिया के झंझटों से मुक्ति मिलती हो  शायद ...  !'
चकित -सा  उनका मुख  देखे जा रहा हूँ.
' ..पुष्पी और सुधा  दोनों साथ चलने को कह रही हैं, और दो-एक जन भी...'
'मैं भी चलूँ ?'
अभी नई नौकरी है ,..इतनी छुट्टी कहाँ ?'
हाँ , ठीक कह रही हैं वे .
 मैं भी तो जाना  चाहता हूँ , कब से सोच रहा हूँ .
 जाऊँगा !
पर जाऊँगा अकेला ही , मुझे किसी का साथ नहीं चाहिये अब ! 
*
(क्रमशः)

सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

कथांश - 22.

*
 वसु के विवाह की तारीख तय होने पर माँ ने कहा था
'मुन्ना, मेरा एक कहा मानेगा ?
मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि के उत्तर में बोलीं
'शादी में पिता का होना बहुत ज़रूरी है उन से बात कर.'
 'वे अब वहाँ नहीं रहते ..'
'तुझे कैसे पता?
'पता लगाया था मैंने ..मकान में कब से  ताला पड़ा है. '
'जरूर आते होंगे मकान है तो  ,पड़ोस में पता किया? .'
'नहीं.'
'मुझे जाना होगा.'

 ' ऐसी-वैसी कोई बात न निकल आए  ,बोलनेवालों की कोई  कमी है यहाँ ?बेटी  ब्याहने जा रही हूँ .  उसका मुख उजला रहे और मेरा भी . पिता हैं तो उन्हें ,होना चाहिये .मंडप में बैठी बेटी का हाथ सौंप जायें. उनके हाथ से कन्यादान हो जाये तो सारा किया-धरा सकारथ हो जाये .'
' पर तुम वहाँ जा कर क्या कर लोगी ?"

' पहचानवालों से मिलूँगी , पता करूँगी ,उनके साथ के लोगों को जरूर पता होगा . सिर उठा कर जी सकें मेरे निर्दोष बच्चे ... मैं  जाऊँगी. उनसे कुछ नहीं चाहती  पर उसके लिए बुलाना होगा  .'
गईँ थीं माँ .
ऑफ़िस के पुराने दोस्त से उनका पता मिल गया .उन्हीं से  'कोई खास बात हो तो ख़बर दे देना 'कह गए थे..
माँ को पता चलीं  तमाम बातें .. वह औरत उन्हें चाट गई .खूब पीने लगे हैं  आते हैं छठे -छमाहे .सभी  से कटे-कटे रहते हैं .
माँ ने ही चिट्ठी-पत्री की  .
मुझे दी थी चिपका कर डालने को ,मुझसे रहा नहीं गया   खोल कर देख  ली .
कुछ खास नहीं .ऊपर ' श्री मान जी '

एकाध औपचारिक लाइन के बाद लिखा था -
दुनिया की आँखों में जो प्रश्न होते हैं ,क्या उत्तर दें ?इन  निर्दोष बच्चों को कैसा कुंठित जीवन मिला है  .लड़के ने  मेरी लाज रख ली .लायक निकला .
अब बेटी ब्याही जा रही है किस्मत से  घर-वर अच्छा  है पर वह सिर उठा कर जी सके ,कोई दाग उसके माथे पर न  रह जाए . शान्ति से जी सके बस, यह चाहती हूँ .मेरी तो निकल गई अब इन बच्चों को वो सब न झेलना पड़े.

 एक बार आकर शकल दिखा जाओगे तो सब को भरोसा हो जायेगा ,मैं लाख करूँगी तो भी लोगों के मनों में शंका रहेगी.तुम सामने  खड़े भी हो जाओगे तो सब विश्वास कर लेंगे .मेरी मजबूरी है, इन बच्चों के लिए ही ज़िन्दा हूँ ,..
कुछ नहीं चाहूँगी ,कुछ नहीं कहूँगी ,मेहमान बन रहना अपनी मर्जी से .बस एक विनती -उसे मत लाना यहाँ .उस अतीत को सबसे दबाए हूँ .वह मुझसे नहीं सहन होगा .तुम्हारी ये बातें किसी से कह भी नहीं सकती ,कि कहीँ तुम्हारा बेटा होने के नाते उसके आचरण पर भी लोगों को शंका रहे ... . '
आगे कुछ विशेष नहीं
नीचे केवल  'ललिता '- माँ का नाम !
माँ के लिए बहुत लगता रहा था ,अब भी लगता है.
*
वे आए थे ,विवाह से  एक दिन पहले  .

पहचान में नहीं आ रहे थे , देह घिस गई थी -एकदम हाड़-हाड़ .
रस्में शुरू हो चुकी थीं .वसु मंडप तले पटे पर बैठी थी ,  सुहागिने तेल चढ़ाने का उपक्रम कर रहीं थी . जैसे ही सुना  - 'पिता जी आए हैं ' - मामा की लाई  पचिया पहने ही उठ कर भागी .'पापा ,मेरे पापा..'..आगे गला रुँध गया , आवाज़ नहीं निकल रही आँखों से आँसू बह रहे हैं .
 आँखें धुँधला गईं पर जो नया व्यक्ति आया है उसे पहचानने की जरूरत किसे ? 

वही आया है आज  है जिसके लिए अंतर से  टेर उठती रही . जा कर लिपट गई .' आ गये पापा,
कितना तरसी हूँ  ...अब मत जाना ,पापा ..' हिलक-हिलक कर रो उठी.

'सब लोग हमें  कैसे देखते  थे ,हमारे पास कोई जवाब नहीं ..' था वह हिचकी ले-ले कर बोल रही थी, ' कितना बुरा लगता था पापा...'
'मैं भी बहुत पछताया हूँ बेटा '

ध्यान से देखते रहे  बेटी का मुख,'' अपनी माँ  की पूरी छाप ,न कोई कहता तो भी पहचान लेता. '
'माफ़ करना  बेटा , तुम सब के साथ बड़ी नाइंसाफी की .फल भुगत रहा हूँ ....' सीने से लग गई थी वसु रोए जा रही थी लगातार .
मुझसे देखा नहीं जा रहा था.मन का रोका हुआ  बाँध सबके सामने फूट न पड़े !
आँखें छिपाता चला आया वहाँ से .

अरे ,पारमिता क्यों यहाँ खड़ी रो रही है ?हाथ में  कटोरी लिये .
आँसू पोंछती बोली,' मैं खुश हूँ ,कितना अच्छा हुआ !'
मंडप में जा कर बोली,' ये उबटन , दूल्हे का  छुआ हुआ दुल्हन के लिए . हमारे यहाँ यही  लगता है  तेल के बाद .'..
नाउन आईं थीं बुलाने,' बिटिया चलो, तेल को मुहूरत निकरो जात है..'

सब ने कहा -अब तो आ  गये हैं. इत्मीनान से मिलना बात करना .

किसी ने  देखा नहीं था, उत्सुकता  सभी को थी . 
'बिटिया का कन्यादान  करने आए हैं ,आखिर को बाप हैं !'
 बड़ी मुश्किल से समझा कर वसु को भेजा गया  ,भीगी आँखों के साथ धुली हुई मुस्कान उसके मुख पर खिल उठी थी.
*
 उन्होंने कहा था.' कैसा दिमाग फिर गया था मेरा. ..'
 नाउन आकर पंडिताइन से बोली .'.आज कबूले हैं बाबू. उन पे कौनो टोना कर दिया गया रहे ! ।"
 महरी कैसे चुप रहतीं  ,'अइस  चूस लेती हैं ,ई कहो बचि गए .आय गए  ..'
 सुना-सुनी में बात फैली ' बिरजू के बाबू  आय गए ,उन पर जौन टुटका भा रहे ,अब निकरिगा ... '
' तभै तो हम कहें ,इत्ती सुघर मेहरिया अउर आपुन औलाद कइसे बिसराय गए ?'

'कुछू पूछो मत अइस मंतर फुँकती हैं कि मानुस भेड़ा बन के रहि जात है .
मंतर की पता नहीं हमें तो पता है कुछ ऐसा-वैसा खबाय देती हैं और उनहिन के बस में हुई जात है मरद का और कुछू दिखाई सुनाई नाहीं देत'.
वाह ! गया सारा दोष किसी  अनजान मेहरिया पर , और वे बन गए बेचारे !
*
पिता दो हीरे जड़ी अँगूठियाँ लाये थे .माँ को देकर बोले,' एक तो इस विवाह के लिए  हमारी अँगूठी थी न ,बहुत ढीली हो गई थी.अब कौन पहनेगा !एक और तुम्हारे लिए ..." कह कर माँ का मुख देखने लगे .
'अब मैं क्या ....मुन्ना की बहू के लिए रख लेती हूँ. आकर  दे देना अपने हाथों .'
'मैं  बहुत शर्मिन्दा हूँ .'
'यहाँ आ गए यही बहुत है हमारे लिए ' माँ ने कहा था .


मंडप में रमन बाबू को देख  कर पहचान लिया उनने ,'अरे रमन ?"
 तुम ..माधो हो  .दसवीं के बाद आज देखा ..?
 पिता का नाम माधव प्रसाद है न !
दोनों गले लग गए,' कैसी शकल निकल आई है .क्या हो गया तुम्हे ?'
कहते क्या .शराब ने पी लिया था उन्हें .
अधिक खोज-बीन फिर किसी ने नहीं की ,

विवाह की कार्यवाहियों  में सब व्यस्त हो गए , रायसाब का उत्साह बढ़ गया था .
*
जयमाल संपन्न हुई  .खान-पान के साथ हँसी-ठिठोली चल रही थी
 किसी समधी ने  फर्माइश की -
' वो वाला गाना लगाओ हमारी शादीवाला '
'कौन-सा? कौन सा ?'
के बाद गाना लगा -
'समधिन तेरी घोड़ी चने के खेत में .
..चने को लग गया पाला ,समधिन को ले गया बरात का बाजेवाला '
.'फिर . काई ...  नाई ,
'अरे, ये तो बड़ा ज़ोरदार गाना है .'
'इतना पुराना गाना वाह !'
हुँह,  आज के गाने क्या बराबरी करेंगे पहले होते थे असली  गाने '
खूब मज़े लिए सब ने .
समधिन की बात आते ही ,माँ की ओर नज़रें उठ जाती थीं ,
'हाँ ,हाँ, वर के फूफा को भी दुल्हन की माँ बहुत पसंद आईं !'
पिता छिपी दृष्टि से माँ का मुख देख रहे हैं .
शुभ कामों में पहनी जानेवाली लाल पाड़ की साड़ी पहने हैं वे ,
 सफ़ेद हो आये केशों में सिन्दूर की गहरी लाल रेखा आज ही देख रहा हूँ .अब तक कभी ध्यान नहीं गया लगाती भी थीं कि नहीं ,और माथे पर बड़ी सी लाल बिन्दी .
 मुख जगमगा रहा है !
मैंने फ़ोटोग्राफ़र से कहा , 'माँ  की एकाध फ़ोटो अलग से भी ,और हाँ ,पापा के साथ ज़रूर ले ले.'
 मेरी माँ को आज कहीं किसी की  नज़र न लग जाय !

*
(क्रमशः)

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

भूख का तमाशा.

*
पीछे वाले  क्रीक के दोनों ओर बाजरे  जैसी कलगी वाली लंबी-लंबी घासें उग आई  हैं.फिर ऊँचे पेड़ों की पाँत, साइकिल और पैदल वालों की  लेन के बीच के ढाल को , कवर करती हुई . सड़क की सतह लेन से भी कुछ ऊँची और बीच में फिर वनस्पतियों का भराव .ऊँचे पेड़ों के साथ  रोज़मेरी और अन्य झाड़ियों की पूरी शृंखला साथ चलती है .कहीं-कहीं  काँटेदार ब्लैक-बेरीज़ भी हैं .
आगे जाकर क्रीक का प्रवाह  ताल में परिणत हो गया है.अच्छा जीवन्त  है ताल - मछलियाँ ,बगुले ,सुना है कछुए भी हैं .पर बतखें तो खूब हैं ,'क्वेक-क्वेक' करती जल में तैरती रहती हैं .अब तो लोगों ने वहाँ मछलियाँ पकड़ना भी शुरू कर दिया है.
 आसमान में  बक-पंक्ति की उड़ान जब-तब लहरा जाती  है  .ताल में भी एक टाँग पर खड़े ध्यानस्थों के  दर्शन सुलभ हैं .जल-पक्षियों की क्रेंकार से परिवेश मुखरित रहता है.पेड़ और झाड़ियाँ तो चारों ओर हैंं ही , दो ओर खुली जगह भी, जिन पर पड़े बड़े-बड़े पत्थरों पर आराम से बैठा जा सकता है.अब दो  बेंचें भी आ गई हैं  . हरे भरे पेड़ों के नीचे बैठने का अपना ही आनन्द है.पहले अक्सर से खाली रहती थीं . अब लोग आने लगे हैं ,अपने बच्चों को भी लाते हैं, जल-पक्षी दिखाने. 
 खेल-खेल में बच्चे  खाने की चीज़ें बतखों को भी डालने लगे.
जब से बच्चों ने खाने की चीज़ें डालना शुरू किया वे परच गईं,  लोगों को देखते ही  सजग हो जाती हैं  हैं , लोग भी उन्हें चुगाने का आनन्द उठाने लगे .जब बतखें  चोंचें फैला कर लपकती हैं , बच्चे उछलते हैं.
 सब ख़ुश हो कर देखते हैं वह तमाशा !
      इस साल ताल को काफ़ी सँवारा गया.जाड़े बीतते ही  चहल-पहल भी बढ़ने लगी -बच्चों के साथ बड़े भीउन्हें  खिलाने को  दाने या ब्रेड के पीसेज़ आदि लाने लगे .वे भी खूब हिल  गईँ , जल से बाहर आने लगीं .शुरू में दो-चार आईँ  ,देखा-देखी  हिम्मत बढ़ने लगी . अब तो 20-20,25-25 के झुंड निकल आते हैं .खाना डालने बाले बच्चों के हाथ से भी झपटने की कोशिश कर लेती हैं, कोई- कोई तो . जब वे ब्रेड के टुकड़े फेंकते हैं और वे फ़ुर्ती से बीच हवा में लपक लेती हैं.
पहले  बतखें मुझसे डरती थीं .पानी के समीप जाऊँ  तो एक ओर सिमट जाती थीं .
सब को देख कर मैं भी  खाने की चीज़ें लाकर डालने लगा . थोड़ा-थोड़ा फेंकता रहता ,वे पास आ जातीं उछल-उछल कर खाती रहतीं .एक क्रम-सा बन गया था.वे भी खुश ,हम भी खुश !
मौसम ने करवट ली .दिन छोटे होने लगे ,सब अपने में व्यस्त होने लगे  गए .झील पर आना कम हो गया
फिर आईँ बड़े दिन की  छुट्टियाँ .क्रिसमस की हलचल, मनोरंजन के नये विषय. सब अपने आयोजनों-प्रयोजनों में लीन हो गए .
बतखों को कौन याद रखता !
हवाओं में ठंडक घुल गई.ताल पर आने का क्रम भंग होने लगा .बतखों पर मौसम का कोई असर नहीं था,उनकी शामें अब सुनसान हो गईं. झटका लगा होगा ज़रूर .सोचती होंगी कैसे होते हैं आदमी लोग ?
 तब सब खुश हो-हो खिलाते थे ,उत्साह से बतखें दौड़ी चली आती थीं .एकदम सब बंद हो गया .पर उनकी खाने की आदतें बदल गईं .
हम लोग भी तो - पहले कैसे थे , और अब ?
 वे आशा लगाए प्रतीक्षा करती , निराश होती रहीं .
इधर कुछ दिनों से घर पर अकेला हूँ .ताल पर आना कम हो गया है.बच्चों की भी छुट्टियाँ .झील के किनारे कोई नहीं होता .कभी-कभी अकेले ऊब लगने पर वहीं  बेंच पर जा बैठता हूँ .आज फिर निकल गया .उधरवाली बेंच पर बैठ गया .सन्नाटा पड़ा था . अक्सर ही घर से नहीं आता .वैसे भी अकेला होने पर  ध्यान नहीं रहता, खाली हाथ चला आता हूँ
अब  शाम होते-होते यहाँ सन्नाटा पसर जाता है .
मुझे देख ताल में तैरती बतखों की गतिशीलता बढ़ गई .वे इधर ही तैरती आ रही हैं .किनारे तक आकर ठहर गईँ हैं.
इसी ओर देख रही हैं ,मेरी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं .
एकाध  झिझकती सी मेरी ओर आने लगी .मैं चुप  देखता रहा .
 वे  इस ओर सूखे में आ गईँ. मेरी ओर ताके जा रहीं  ,वे आशा लगाए हैं कुछ मिलेगा.पर मेरे हाथ खाली हैं.
'क्वेक-क्वेक' की आवाज़ें उठ रही हैं . वे खाना माँग रही हैं .
'लाओ ,लाओ खाना .हम भूखे हैं...' ,उनकी शिकायतें जारी हैं.
उन्हें  खाना चाहिये पेट भरने को !
लगा जैसे कह रही हों-और कुछ नहीं चाहिये हमें, न कपड़े न घर ,न कोई साज सामान ,सिर्फ़ खाना!..
सारा समेट लिया तुमने हमारी भूख का तमाशा बनाए हो -कैसी मन मानी !'
एकाध बेंच के पास तक चली आई  .छोटीवाली बढ़ कर मेरे पांवों तक आ गई .जैसे कह रही हो  ,'खाना लाओ, लाओ' .
लगातार मेरी ओर देख रही है.
पीछे-पीछे  दूसरी आ कर खड़ी हो गई .अरे, एक और, फिर और. उधर से वे सब इधर चली आ रही हैं-  पूरा झुंड का झुंड.
उन्हें खाना चाहिये -वे इकट्ठी हो गई हैं .
'क्वेक-क्वेक,  क्रें-क्रें, ' के स्वरों में  तीखापन आता जा रहा है  ,जैसे क्रोध से भरती जा रही हों .
 मैं चुपचाप बैठा हूँ . कुछ नहीं लाया हूँ उनके लिए .एक  बढ़ती हुई मेरे पाँव तक चली आई .दूसरी उसके पीछे है .पास में  दो-तीन और शिकायत भरी निगाहों से देखे जा रही है .
मैंने,' हुश-हुश ' कर भगाना चाहा .वह थोड़ा हटी पर वहीं डटी रही .पीछेवाली के बराबर में खड़ी है वह .
वह निराश हो गई , हटने के बजाय और पास आ गई .
उसने गर्दन बढ़ा कर मेरे पाँव पर चोंच मारी ,मैंने पाँव पीछे खींच लिया .
 बड़ी तीखी है चोंच !
 वह फिर  आगे बढ़ आई . मैं चुप , न पुचकार न सत्कार! दुत्कार रहा हूँ बार-बार हाथ हिला कर धमका रहा हूँ!
उस पर असर नहीं पड़ा,बढ़ कर फिर चोंच मारने लगी . तभी  एक और  बढ़ आई ,वह भी  प्रहार करने लगी .फिर तो दो-तीन और ,तीन- चार और!
वे सब चोंचें उठाये मारने को तैयार. एकाध झपट रही है - हुश्-हुश् करते हाथ की ओर.
कुछ उड़-उड़ कर बेंच के हत्थे पर आ बैठीं .हाथ पर ,गले पर जहाँ जगह मिलेी चोंचों  से वार कर रही हैंं
एकदम घबराया हुआ मैं खड़ा हो गया. दोनों हाथ पूरे ज़ोर से चलाने लगा  .
वे पहुँच भर प्रहार करती रहीं -जैसे कह रही हों ,'धोखेबाज़ !'
हाथ लहू-लुहान हो रहे हैं, गर्दन पर भी चोंच के वार .
दहशत से भर मैं उठ कर भागा.पीछे लग गईं वे.पगडंडी से सड़क की ओर अंधाधुंध दौड़ा  .
उस दिन किस तरह निकल पाया  मैं ही जानता हूँ.
एक बार पलट कर देखा था - 
लगा जैसे दिशा में  आग लगी हो.साँझ के बादलों का  नारंगी रंग गहरा सिंदूरी और जलता लाल  हो उठा था,और ताल के  पानी में वही छायायें , बतखों के फड़फड़ाते आकार जिनसे उठती तीखी कंठ-ध्वनियाँ !
फिर सारे रास्ते उधर सिर घुमा कर उधर नहीं देखा.

आपको असंभव लग रहा है यह सब ?

*

बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

कथांश - 21 .

*
 मेहमान को बोर नहीं होने दिया था विनय ने .  मेहमान ही तो था मैं वहाँ ,घूम कर लौटने का बाद  देर रात तक बातें चलती रहीं.
वे ही सूचनाएँ देते रहे -तनय अपने ताऊ जी के यहाँ है,शुरू से लगाव रहा है उनसे .जुटा है कुछ न कुछ करके ही दम लेगा .स्कूल कॉलेज में पढ़ाना उसके बस का नहीं ,कई जगह हाथ-पैर मार रहा है .
फिर पूछा था, ' बंधु-बांधवों में एक आप ही का नाम लेती हैं वह, तो ..शादी में नहीं आए आप ?
'उन्ही दिनों मेरी ट्रेनिंग शुरू हुई थी .फिर मैंने ये भी सोचा ,मैं कोई सगा या रिश्तेदारों में तो हूँ नहीं.इस मौके पर बहुत से अपने भाई-बंधु, आएँगे उनमें हमारी पैठ कहाँ  ..?'
'ये तो है .हमें भी लगता है रिश्तेदारों के घेरों से अपना अलग अच्छे ! लगता है जैसे इनमें हम फ़ालतू फँस गए हों. बेकार में  उनकी निगाहें क्यों झेलो. ...पर हाँ  असली ज़रूरत पर आप ही खड़े रहे.'
'असली ज़रूरत ?'
  'कॉलेज के छोकरों  से उसकी ढाल बने चोटें खाते रहे रहे ,और हमारे सुपुर्द कर दिया.ये एहसान कैसे भूल सकते हैं हम !'
'अरे  ,कॉलेज में तो ये सब चलता है .'
'बता रही थी आपके कारण लोगों की ऐसी-वैसी  हिम्मत नहीं पड़ती थी ,जानते थे ब्रजेश से पंगा लेना महँगा पड़ेगा.'
पारमिता ने विनय को बता रखा था कि विषम स्थितियों में उसे मैं ने  ही साधा .अकेली थी ,किसी से बोलती -चालती नहीं तो लड़कों को लगता अपने आप को जाने क्या समझती है ,घमंडी कहीं की  - इसे सबक़ सिखाना चाहिये .
  'उस समय स्थिति को आपने सँभाला नहीं तो पता नहीं क्या होता !'
मैं क्या कहता ,चुप रहा .
विनय कहे जा रहा था ,'  हमें सब मालूम है ,एक बार तो   चार-चार  से अकेले निपटे थे .वो सबक सिखाने पर तुले थे .झगड़े में उन्हें तो समझा  दिया पर ख़ुद ने  मार खाई .किसी को क्या ,मीता तक को बताया नहीं ,वो तो इसकी सहेली वाणी से पता लगा उसे ,तब तुम्हें देखने गई थी .'
'जिसे जानता हूँ उस लड़की के लिए मेरा  फ़र्ज़ बनता है .कोई दूसरी होती तो भी कोशिश भर बचाता .'
'फिर भी तुमने अपना हक़ नहीं जमाया सुरक्षित मुझे सौंप दिया.कौन कर  पाता है ऐसा !'
'रिश्तेदारी जुड़ गई थी , इनकी बुआ जी ने माँ को बहिन मान लिया था '
'असली रिश्ता तो वही जो ज़रूरत पर काम आए. सच्ची ब्रजेश ', फिर अटक गया विनय , 'नाम ले सकता हूँ न तुम्हारा ,मेरी पत्नी के बंधु ,मेरे दोस्त ही तो ..'
'नहीं ,नहीं ,विनय बाबू मैंने ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया.मैं इस योग्य था भी नहीं .'
'यह मत कहिये .कहीं कोई कमी नहीं .कैरियर की भी इतनी अच्छी शुरुआत !मीता तो करती ही है मैं भी आपका बहुत सम्मान करता हूँ . यहाँ तो तन्नू -कह देता है हमें नहीं बनना टीचर- फटीचर .'
'आप मेरी बांधवी के पति हैं मेरे माननीय.हमारी तो नौकरी है ,ज्ञान की  यह प्यास कहाँ !'
'अरे ,छोड़ो यार हम दोनों दोस्त हुए आज से -लाओ हाथ मिलाओ !' 

'जो आपसे पढ़ ले सच में बन जायेगा विनय बाबू ,उल्लू बनाने की टालू विद्या आपके बस की नहीं .सच में विद्यानुरागी हैं आप !'
तभी पारमिता आ गई ,'ये कैसा हथलेवा हो रहा है ,भई?'
'तुम्हारा साथ और इनका हाथ दोनों मेरे, '
मुझे हँसी आ गई .

' हाँ,हाँ, क्यों नहीं ?'
'माँ ने तो कभी अलग समझा नहीं.' 
'उन्हें इनका  बड़ा सहारा था .'
'उन्हें अपनी माँ कहती हैं ये,.और था ही कौन इन का.... '
'सच में ..'
 *
खाना खा कर बराम्दे के वाशबेसिन पर हाथ धो रहा था कान में उन लोगों की आवाजें आ रहीं थीं-
विनय के शब्द ,' झोंका हवा का, पानी का रेला.मेले में रह जाए जो अकेला. इसे छुट्टा मत छोड़ना  अकेला रहा तो बिखरता चला जाएगा.हिल्ले से लगा दो इसे भी.'
'इसे भी से क्या मतलब ?'
'जैसे मुझे लगाया है .'
तुम्हें हिल्ले से लगाया मैंने !ये क्यों नहीं कहते कि मुझे रेस्ट्रिक्ट कर दिया तुमने ?'
'अरे, रस्सी को तो बँधना ही पड़ता है .'
'अपनी ऊलजलूल फ़िलासफ़ी अपने पास रखो .'
'देखो .और तो  कोई है नहीं एक तुम्हीं उसकी बाँधवी हो ,भला-सा लड़का है सो चेता रहा हूँ ..'
'तुम्हीं समझाओ न !मेरी माँ जैसी थीं वे .उनके दुख में मैं भी, इन्वाल्व हो जाती हूँ .फिर कुछ कहते नहीं बनता .'
' प्रेक्टिकल बनाने की कोशिश करता हूँ मैं तो  ..पर खूंटे वाली रस्सी गले पड़ेगी नही तो  सिर उठाए जहाँ-तहाँ भागता फिरेगा .'
बड़े पते की बातें करते हो तुम तो ..काफ़ी तेज़ आदमी हो.'
'दिमाग से काम लेता हूँ न ..'
आते-आते तारतम्य में मैंने अपनी ठोंक दी ,'ये दिमाग की बात कहाँ से आ गई .'
'इन्हें समझा रहा हूँ ,ये दुनिया को अपनी ही तरह देखती हैं .'


सब कुछ बड़ी आसानी से चल रहा था लेकिन उसी रात को एक गड़बड़ हो गई -
भोजन और गप्पबाज़ी से छुट्टी पा कर अपने कमरे में आया .सोने के पहले  ब्रश करने चला गया था .वहाँ से बाहर सड़क दिखाई देती है. जाने क्या सोचता खड़ा रह गया वहाँ  .कमरे में जा रहा था,बत्ती नहीं जलाई -कमरों की रोशनी की उजास, बरामदा पार करने को काफ़ी लगी.कुछ कदम चला था कि  अचानक दिख गया -मीता की गोद में सिर रखे विनय लेटा-लेटा कुछ कह रहा था, वह उसकी ओर देख कर हँस रही थी .
उनके शयन कक्ष की

 खिड़की के आधे हिस्से में  पर्दा लगा है .नीचे का स्प्रिंग बीच से कुछ ऊपर खिंच गया था, नीचे से गैप बनाता हुआ . अनायास दृष्टि उधर चली गई  मुझे नहीं पता था उन लोगों का शयन कक्ष है ये .नाइट गाउन पहने  वह .गोद में लेटा उसका चेहरा देखता विनय कुछ कहता जा रहा है .वह हँस रही है उसका टेढ़ावाला दाँत रोशनी में चमक गया .
 मैं स्तब्ध - सा ,आँखें फाड़े वहीं के वहीं खड़ा रह गया !फिर सँभला और  आँखें फेर कर तुरंत आगे चल दिया 
 अपने आप पर शर्मिन्दा हो उठा .जितना हटाता हूँ उतना ही ध्यान आता है .उफ़् नहीं सोचूंगा..बिलकुल नहीं . कौन सी गलत बात  ? वह उसकी पत्नी है . मुझे नहीं सोचना चाहिये .
 नहीं, मैंने कभी नहीं चाहा था .उनके शयन-कक्ष में झाँकना, मुझे अनुमान भी नहीं था .अब इधर बिलकुल  नहीं आऊँगा .
नहीं मुझे बुरा नहीं लगा .क्यों लगेगा? 

एकदम अजीब सा लगा- ऐसे- कभी देखा नहीं था न . नाइट गाउन पहने और वह  ...जाने दो ...मुझे क्या करना .... नहीं ,नहीं,मुझे नहीं सोचना चाहिये .
पर कहीं कोई देख लेता तो ... ?
हे भगवान् , ये क्या हो गया !

*
(क्रमशः)

सोमवार, 22 सितंबर 2014

कथांश - 20 .

 ' एक क्षण का भी स्वतंत्र अस्तित्व  होता है ,आज समझ पाया हूँ उसका  महत्व, उसकी सार्थकता . कुछ बीते हुए पलों की तृप्ति मन को छाँह दे गयी है .शब्दों में अपार शक्ति है , देख  लिया मैंने .कुछ शब्द मनःतपन पर शीतल प्रलेप धर गए , अंतर की उद्विग्नता कुछ  शान्त हुई , अंतर्विषाद विश्राम पा गया. आता-जाता रहेगा जानता हूँ पर वह उतना दारुण  नहीं.
लेकिन अपने को बहुत अकेला अनुभव करने लगा हूँ !
मन की बातें कहना चाहता हूँ . काग़ज़ों से ही सही . तभी लिखने बैठा हूँ   , लेखनी हाथ  आई तो अनायास लिख गया  - पारमिता.
मन में झाँका .कुछ उमड़ रहा है जिसे व्यक्त करना  है .अपनी ही   असलियत पहचानने को लिख रहा हूँ , अपने ही लिए . तुम्हें भेजूँगा नहीं  किसी का नाम ऊपर होने से लिखा हुआ चिट्ठी नहीं बन  जाता .मेरा अपने निज से वार्तालाप है यह ,तुम जाने कहाँ से बीच में आ जाती हो.
 यों चाहता भी हूँ  किसी रूप में तुम्हारा मन मेरा आभास  पा ले .विचार और इच्छाएँ सूक्ष्म होती हैं जैसे हवा ,यहाँ से वहाँ पहुँचते बाधा नहीं  उन्हें . कैसे भी ,किसी रूप में भास  जाएँगी तुम्हें.लिख रहा हूँ इसीलिए ,मेरे मन में जो है उससे अविदित नहीं रहोगी तुम.
यों इतना भी गांधी जी नहीं कि अपनी हर कमी उघाड़ता चलूँ .जानता हूँ डीसेंसी भी कोई चीज़ है !अपनी सारी  कमज़ोरियाँ  तुम्हें कैसे बता सकता हूँ ? अंततः पुरुष हूँ ,तुमसे जब मिलूँ सिर उठा कर ,थोड़ा बड़प्पन बना  रहे मेरा !
ये कुछ पन्ने ,जो केवल मेरे हैं - अपने से अपनी बात !
तुम्हें समझता हूँ, उतरा चेहरा याद कर मन  कसकता है .कमी मुझमें रही -पर जैसा  हूँ ,विवश हूँ  .तुम्हारे साथ वही बना रहूँ , अंत तक उसी रूप में - स्वाभाविक सहज!
जानता हूँ, कभी-कभी तुम मन ही मन  मेरे ऊपर हँसी हो .सामने -सामने नहीं ,कभी नहीं .मेरी कमज़ोरियाँ जानती हो तुम . उद्घाटित नहीं करती  दबा  जाती हो, यह  सोच कर कि मुझे कैसा  लगेगा.

औरों का सोचती हो तुम .मुझसे अपना सोचे बिना नहीं रहा जाता .ओ,पारमिता ....'
डोर-बेल बजी , बाहर कोई है - कलम रख दी मैंने .

माँ की चिट्ठी आई है -  साधारण कुशल के बाद लिखा है - 
रमन बाबू के साथ विनय के  माता-पिता  हमारे घर आए थे ,वो सब यहाँ आने पर बताऊँगी . बाकी हाल लिखने के बाद अंत में जोड़ा था.'तुम्हें पता है मुन्ना ,पिछले दिनों एक बार मीता ने मुझसे कहा था -'वसु की चिन्ता न करना माँ ,मेरी बहिन है .मैं देखूँगी उसके लिए . पूरा कर दिया उसने अपना कहा. मैं तो उसकी  ऋणी हो गई,  कैसे चुकाऊंगी ?'
कुछ समझ में नहीं आया .दोनो बातों में क्या ताल-मेल ?
अब जाने पर ही पता लगेगा.
*
बड़ी  रुचिपूर्वक माँ ने वर्णन किया था .
बहुत दिनों बाद ,उस दिन सुबह वसु गाने की प्रेक्टिस करने बैठी थी.
उसकी आदत है ,कमरे  के दरवाज़े उड़का लेती है और फिर चारों ओर का भान नहीं रहता उसे .
 सुर निकाल कर गाने में लीन हो गई थी -
'प्रभू जी मेरे औगुन चित न धरो.'
बाहर की कुंड़ी खटकती रही ,उसे कहाँ सुनाई दे !
माँ ने पहले एकाध  बार टाला, शायद उठ जाये .फिर हार कर गईँ खोलने .देख कर तो एकदम चौंक गईँ ,न कोई  सूचना न ख़बर और रमन बाबू अपने समधी-समधिन सहित हाज़िर !
 'अरे, आइये,आइये '

अंदर आते-आते संगीत के स्वर कानों में पड़े -
' सम- दरसी है नाम तिहारो  ,चाहो तो पार करो ..'
कैसा गहरा भाव ,कैसा  स्वर -अंतर की गहराइयों तक  उतरा  जा रहा हो जैसे !  चारों जन एकदम चुप .
रमन बाबू  ही बोले ,'बिटिया गा रही है .'
'बड़ी बुरी आदत है .ऐसी डूब  जाती है गाने में कि दीन-दुनिया का होश नहीं रहता. अब देखिये न, मैं रसोई में थी ,सोच रही थी अब उठेगी अब उठेगी ,खोल देगी.पर कहाँ सुनाई दे उन्हें .आपको इत्ती देर खड़ा रहना पड़ा .'
'ये तो सरस्वती का वरदान है उसे .'
पत्नी बोलीं ,'कितना मधुर और गहरे उतरने वाला संगीत !'
'आज कल सिनेमा के गानों से कहाँ छुट्टी मिलती है लड़कियों को ,और यह ऐसा  पावन संगीत - मन प्रसन्न हो गया  !'
उन लोगों को बैठा  कर वे उधर गईं, उसे चेताने .
पर उसे  देख कर चुप न रह सकीं , 'उफ़फोह ,ये लड़की ..! कहाँ का पुराना घिसा सलवार-सूट चढ़ाये बैठी है, क्या कहेगा कोई ... ?'
 साथ-साथ चली आई समधिन -पीछे खड़ी थीं.
बोलीं  ,'कोई दिखावा नहीं उसमें ,ऊपरी बनावट से क्या होता ?वह सहज-सरल अपने आप में पूरी !'
माँ क्या कहतीं ,चुप हो गईँ . 
वसु ,सकपका कर खड़ी हो गई ,'आंटी जी ,नमस्ते ! अरे,मैंने देखा  नहीं ..'.'
''कोई बात नहीं , परेशान मत हो .अपना टाइम लो सुविधा से आना .'
अपनी वेष-भूषा पर कांशस हो गई थी वह,चुन्नी समेटती दूसरे कमरे में चली गई.

उधर से  राय साब की पुकार आई -

'जिज्जी, ख़ातिरदारी बाद में कर लेना.अभी ज़रा हमारे पास बैठ लीजिये .'
फिर बोले ,'  ये रमन बाबू और भाभीजी आपसे कुछ कहना चाहते हैं.'
'ऐसा क्या है, आज्ञा दीजिए समधी जी .'
'समधिन कहें या जिज्जी ?'
फिर बोले ,'क्या फ़र्क पड़ता है,मन में सम्मान भाव होना चाहिये .'
'बैठिए न आप .ये बताइये हमलोग आपको कैसे लगे ?'
'ये भी कोई पूछने की बात है समधी जी ?ऐसा घर-वर तो बड़े भाग से मिलता है , .'
'आपसे एक प्रार्थना है ,'उन्होंने अपनी पत्नी को इशारा किया और
पीछे की एक कुर्सी आगे खींच दी ,आगे  आ बैठी समधिन कह रही थीं,
' ...मैंने एक बार बहू से पूछा  ,'ये सब बातें कहाँ से सीखीं ,तुम्हारे तो माँ नहीं थीं? पता है उसने क्या कहा -
उसके शब्द थे जन्मदात्री माँ नहीं थीं ,पर एक माँ मुझे मिली थीं, जिनका प्यार और सँवार पाई .उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला.'

फिर उन्होंने जोड़ा ,'आपने ख़ूब सँभाल लिया ,माँ की कमी नहीं रहने दी.'
'मुझे शुरू से ही वह अपनी लगी '
'सच है, अपना समझे बिना कोई इतना नहीं कर सकता .'
रमन बाबू बोले,'अपनी बात कहो न !'
'...समधिन हों ,तो भी मेरी जीजी ही हैं आप ,वैसे दोनों ही रिश्ते अच्छे हैं... '

'जो आपको भाए .मैं सब में खुश .'
'विनय तो आपका हो गया .हमारे छोटे बेटे तनय को आपने देखा है?'
हाँ ,खूब ! हमारे घर भी आए थे तनय बाबू पिछली बार . लग ही नहीं रहा था कहीं बाहर के हैं ,मुन्ना से तो उनकी खूब जम गई थी ..'
'उसके लिए भी ऐसी ही लड़की चाहिये .' रमन बाबू बोल रहे थे.
'अरे , लड़कियों  की आपको क्या कमी ?इशारा मिले ,दौड़ के आयेंगे लोग ,ऐसे संबंध के लिए .'
'तो फिर आप ही अपनी छोटी बिटिया को उसके लिए ..'
माँ आँखें फाड़ कर देखती रह गईँ !

'आपकी बिटिया को कब से अपनी बेटी मान रहा हूँ . अब आज्ञा दें तो  अपने घर बाकायदा बिदा करा के ले जाऊँ  !...तनय है न हमारा ?'
माँ बिलकुल अवाक् -सच है या सपना ?
'क्या हुआ जिज्जी ?'
'ऐसा सौभाग्य हमारा !अरे ,तर गये  हम तो ..पर आपने तनय बाबू से पूछा ?"
'उसी की इच्छा से आगे बढ़े हैं.'
पता लगा, खूब पटती है  देवर-भाभी में . वहाँ पहले ही सलाह हो गई है .यहाँ तो अब आये हैं .'

सब बता कर माँ ने कहा था  'मीता का यह ऋण कैसे उतार पाऊंगी ?
'कोई ऋण-विण नहीं ,' मैंने तुरंत कहा ,'कॉलेज में चार साल उसकी निगरानी की है .कैसे-कैसे बचाया है सब जानती है वह .'
दाहिना हाथ अनायास बाएं कंधे पर चला गया ,अभी तक कभी-कभी टीसने लगता है.

*
बाद में मैंने पूछा था ,'वसु को भी मंज़ूर है ?'
''अरे, उसे काहे नहीं होगा? भरा घर ,इतना अच्छा लड़का ..'
फिर भी एक बार पूछ तो लो .'
ये माँ के बस का नहीं ,जानता था. मैंने ही बात शुरू की
' तेरी दीदी ठीक हैं वहाँ ?
'हाँ भइया ,उनने पॉली टेक्नीक में एप्लाई भी कर दिया है .'
'अच्छा!'
'हाँ ,बाबूजी ,माँ ,मतलब उनके बाबूजी- माँ,सास-ससुर तैयार हैं. वे चाहें सर्विस करें चाहें  कुछ और ... .वे लोग बहुत अच्छे हैं .'

'और सब लोग तो ठीक हैं. ये तनय ज़रा गड़बड़ है उनके घर में '
वह चौंकी ,'क्या ?'
'बड़ा झगड़ू लगता है .'.
वह कुछ बोली नहीं .
'उसका उजड्डपन मुझे पसंद नहीं ..'
' वैसे तो नहीं होगा . शादी-ब्याह में लोग हो जाते हैं..' .
'उससे तो तेरी  नहीं पट सकती , तू बता- मना कर दूँ ?'
खिसिया कर बोली ,'मुझे नहीं पता !'
'कितना लड़ा था तुझसे शादी में .नहीं,नहीं उसे तो दूर से नमस्ते  ..'
' ये सब मुझ से क्यों कह रहे हो ?माँ देखो ... ..'
'क्यों परेशान कर रहा है उसे ?
'.तो तू ने 'हाँ' कर दी  उसके लिए ?'
'मैंने कुछ नहीं कहा.. .'
मन ही मन हँसी आ रही है पर जानबूझ कर छेड़े जा रहा हूँ .
'तो ठीक  ,वह नहीं  कोई और ढूँढ़ूगा ..'
'मुझे नहीं करनी किसी से '
'तनय से भी नहीं न ?'
'मैं नहीं जानती .माँ , देखो न फ़ालतू में .'
वे भी हँस रहीं थीं .
'अरे, क्यों उसके पीछे पड़ा है  ?'
 बाद में  माँ को आश्वस्त किया था मैंने ,'बहन की शादी ठाठ से करूँगा .
कोई ये न कहे कि ...' पर आगे  नहीं बोल पाया.
माँ  समझ गईँ थीं .
हम दोनों चुप हो गए थे फिर .
*
वसु चली जाएगी ,माँ का उनका मन  कच्चा हो रहा है .क्या लग रहा है समझ रहा हूँ एक वही तो थी मैं चला जाता हूँ ,वे बिलकुल अकेली .उस दिन कहने लगीं,'औऱ मैं हमेशा क्या-क्या सोचती कर घबराती रही. जहाँ कोई मुश्किल आई ,अपने आप उसका हल निकलता रहा वह हमारे लिए हमेशा भाग्यशाली रही  मैं उलटा उसी पर खीजती थी. मैने कभी उसकी कदर नहीं की. रहा   .हुई थी तो मेरी नौकरी लग गई .

उनकी आँखों मे आँसू छलक आये
और मैं हमेशा डाँटती -टोकती रही ,कभी सुख नहीं दे सकी अपनी बेटी को .
माँ ,तुमने हमेशा ठीक किया .मैं तो खुश रही हमेशा .पर अब तो तुम बच्ची बनी जा रही हो .लगता है तुम्हारा ध्यान रखना पड़ेगा .'
'तू तो हमेशा से ही ,सहती आई है ,पछतावा तो मुझे रहेगा .'
'पछतावा क्यों रहे,'मैं एकदम बोला ,'ऐसा करो अभी शादी की तारीख आगे बढ़वा देना.पहले उसकी कदर कर अपना मन भर लो  ब्याह तो फिर भी हो जायेगा..' 

 कई बार ऐसी बातें सुन कर  कुछ खीझ-सा गया था .बहुत ज़रूरी था उनका ध्यान हटाना  नहीं तो वे यही सोच-सोच कर दुखी होती रहेंगी.
'आगे कभी टालने की बात मत करना,मुन्ना शुभ- शुभ बोल बेटा .अडंगे की बात भी नहीं करते !'

माँ बहुत प्रसन्न थीं ,संतुष्ट कहूँ तो ग़लत नहीं होगा . बहुत बड़ी चिन्ता दूर हुई थी उनकी और हाँ ,मेरी भी . 
माँ  ने कहा था ,' बहिन का संबंध तय हो रहा है. पहल उनकी ओर से हुई है , तुम्हें उनके घर हो आना चाहिये .दीवाली आ रही है ,अच्छा मौका है .मिठाई ले कर चले जाओ .'
'ठीक है एक दिन को चला जाऊँगा .'
गया था उनके घर . उसके सास-ससुर के पाँव छुये थे ,बाबू जी कहा था उन्हें .
विनय से गपशप होती रही थी -पर अनचाहे ही एक गड़बड़ हो गई . कह  नहीं सकता किसी से -  मन बड़ा अव्यवस्थित हो रहा है .
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(क्रमशः)