शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

कथांश - 23 .

*
वसु की बिदा के बाद पापा ने मुझसे कहा था ,'मैं  जा रहा हूँ ,अपनी माँ को भेजने की  तैयारी कर रखना.' 
 उनकी बात सुन कर चौंक गया ,मैं ,माँ को अपने पास रखने का सोचे था.
'उनकी तैयारी ? आपने बात कर ली ?'
'उसमें बात क्या करना ,जायेंगी क्यों नहीं ?वहाँ घर है फिर मै भी अब ठीक नहीं रहता....  '
'अभी तो उनकी सर्विस बाकी है ..'
'अरे क्या सर्विस !प्री-रिटायरमेंट लीव ली जा सकती है. वैसे  लोग पहले भी रिटायरमेंट भी ले लेते हैं .अब तुम भी चले जाओगे तो....'
इतने में चाय ले कर माँ आ गईँ ,' किसके जाने की बात?
 'तुम्हारी ..चलो अब. अकेली यहाँ कहाँ पड़ी रहोगी ?'
 'पड़ी हूँ यहाँ मैं ?ये मेरा घर है ..यहाँ से कोई मुझे निकाल नहीं सकता .वहाँ क्या है मेरा ?'
' मैं तो ख़ुद  कह रहा हूँ - अपने घर चलो .इस उमर में सबको सहारा चाहिए होता है.'
'किस उमर में नहीं चाहिए होता ?  तुमने बिना औरत के काम चला लिया क्या ? और मैं जब भरी जवानी में यहाँ पड़ी रही -ऊपर से बच्चों को सँभाला  तब किसी ने  सोचा ?तब भी मैंने पूरी कोशिश की थी ,वहाँ तुमने नहीं रहने दिया  .अब मेरा घर यही है .दिन-रात एक कर  जड़ें जमाईं हैं .मैं यहीं रहूँगी..'
'मान रहा हूँ गलती हो गई पर अब सब ठीक हो जायेगा..'
'और वह कहाँ है ?'
'मुझे उससे कोई मतलब नहीं ,ऐसी फ़ालतू औरतें ....'
'देखो, बेकार दोष मत दो उसे .कोई ब्याहता तो थी नहीं .जो तुम्हारा पट्टा पहने रहती '
'तभी तो तुमसे कह रहा हूँ अपने घर चलो '
'मेरी अब कहीं और जाने इच्छा नहीं . फेरे लिए थे उसका भरना अब तक भरती रही .कभी अपना ध्यान भी नहीं आया कि मेरी अपनी ज़रूरतें भी हो सकती हैं .अब निश्चिन्त हुई  तो फिर....'
'तुम समझती क्यों नहीं ..? '
लगा अभी चिल्ला पड़ेंगे ,माँ के ऊपर गुस्सा होने की पुरानी आदत !
ओह ,अब भी अपना ही अधिकार समझे बैठे हैं  ,माँ के चेहरे पर वितृष्णा झलक उठी. ..
वे बीच में बोलीं ,'बेकार गुस्सा मत दिखाना  ,यहाँ कोई तमाशा  खड़ा नहीं किया जाएगा .चार लोगों में मेरी इज्ज़त है.. .'
वे चुप हो गए थे
'वहाँ मेरे लिए क्या है जानती हूँ .यहाँ मेरा काम है, मेरी  पहचान है ,.और तुम  ?..किसी को बता कर आए हो कि बेटी की ब्याहने जा रहा हूँ ?"
कुछ बोले नहीं , कुछ किया हो तो बताएँ भी .
वे अपनी ही कहती रहीं ,' हाँ, तुम हमारे साथ आ कर  रहना चाहो  तो यहीं चले जाओ . '
  तभी महरी की पुकार  आई  .वे चली गईं थीं
बाद में मौका देख कर मैंने पूछा था ,'माँ  मेरे साथ  तो चलोगी न ? '''आता-जाती रहूँगी मुन्ना, पर  रहना यहीं चाहती हूँ . अजानी  जगह ,कुछ करने-धरने को नहीं, किसी से जान-पहचान नहीं . नई नई जगहों के नये ढंग . अब नहीं कर पाऊंगी . यहाँ पुराने लोग हैं  - सब देखा जाना है ,साथ के हैं सब  .समझते हैं  ,अब तक साथ दिया है माधुरी है,हरषी है मेरी ही उमर की .तीरथ करूँगी,और जो भी अपने को भाए .'
फिर पूछ बैठीं ,
'तुझे भी यही लगता है कि मुझे साथ चली जाना चाहिये था.'
'नहीं माँ .तुम्हारा मन न माने तो बिलकुल नहीं ...?'
'मुन्ना, ये सब बातें मैने वसु के आगे कभी नहीं खोलीं .उसके सीधे-सरल मन में क्यों बाप के लिए कड़ुआहट भर दूँ  .उसने अभी  देखा ही क्या है ..उसके साथ निभा लें तो अच्छा ही है .ससुराल में लड़की के बाप के नाम को जानते-पूछते हैं सब.'
*
उस दिन माँ का मन बहुत संतप्त था.
पिता ने जिस अधिकार से उनके  जाने की बात उठाई , उन्हें गहरे चुभी थी.
.बेटी की बिदा से उत्पन्न रिक्तता में उनका अतीत उमड़-घुमड़ कर  टकरा रहा था .
उस रात पहली बार वे मेरे सामने रोई थीं .
वसु चली गई थी. घर में  खालीपन छाया था. उनका संताप से भरा  मन  कुछ कहने को आकुलाया  होगा  .
 बेटी का ब्याह एक बड़े अनुष्ठान के समान संपन्न  किया था उन्होंने ,पूरी निष्ठा से कि, कहीं कोई त्रुटि न रह जाय .
कन्या-दान में बाप आ गए थे . माता-पिता गठबंधन से बैठे - पूरी विहित भूषा में रहीं वे ,सिंगार के साथ  विधि-विधान से सिन्दूर-टीका  उसी का उपादान रहा था.सच में उनका मन प्रसन्न था .कहीं कोई कसर न रह जाये पूरी कोशिश  रही थी .उनके ही शब्दों में ,'बेटी को किसी बात की जवाबदेही न करनी पड़े .मैंने पूरी ड्यूटी निभाई.'

अब तक का किया-धरा सफल हुआ था . बेटी को  ऐसा घर- वर मिला  जैसा उनकी स्थिति में  सोचना भी मुश्किल था .उनकी खुशी का पार नहीं .सारी औपचारिकताएँ तुष्ट मन से पूरी करती रहीं.
 पर सब कुछ अच्छी तरह निबटाकर भी उनका मनउन बोलों से बिंध गया था जो बाद में सुनने को मिले .वसु नहीं थी ,घर ,उस स्निग्ध माधुर्य से रहित  जैसे काटने को दौड़ रहा था .

माँ अकेली रह गई थीं .उनका मौन रुदन मुझसे  देखा नहीं जा रहा था. पर मैं विवश ,कुछ नहीं कर पाया.धीरज देने को कुछ बोलता रहा पर उन्हें सांत्वना हो ऐसा कुछ नहीं था मेरे पास  कहने को .
अब तक कभी ध्यान नहीं गया था ,उस  दिन माँ बहुत थकी लगीं ,बहुत शिथिल -सी !
 उन्हें अब  मन का चैन चाहिये, विश्राम चाहिये!  जीवन-क्रम में थोड़ा बदलाव, कुछ नयापन आए तो फिर से  चेत जागेगा -मुझे उनके लिए लग रहा था . 
पर मैं तो  दो दिन और हूँ , फिर  चला जाऊंँगा . माँ को तो यहीं रहना है !
इनके लिए कुछ  परिवर्तन ज़रूरी है .कुछ दिनों के लिए कहीं घुमाने ले जाने से, मन बदलेगा यही सोचता रहा .
*
बाद में मीता ने उनसे पूछा था,'उस दिन आपको देख कर बहुत अच्छा लग रहा था ..अब ऐेसे ही खुश-खुश रहिये, माँ '
वे मुस्करा दीं .
 उन्होंने कहा था -लोगों का  एक ही प्रश्न- पति ले जा रहे थे उनके साथ क्यों नहीं गईँ?कुछ ने पूछ भी लिया  सुहागिन हो कर रह रही हो ,फिर अकेली काहे के लिए?
' दूसरे के लिए कहने में  किसे ज़ोर पड़ता है माँ ,उनकी चिन्ता ही किसे  है  ?'
'औरतें तो और भी...मंडप में पाँव धरते ही  मैंने देख  लिया था - आँखें फाड़-फाड़ कर देखती स्त्रियाँ एक दूसरी दूसरे से कानाफूसी  रहीं थीं . वही जो पराये औगुन खोज कर अपने गुन दिखाने में  पीछे नहीं रहतीं-अच्छी ,पढ़ी-लिखी, औरों पर अपने ही निष्कर्ष लादने को तुली  दूसरी औरत पर आक्षेप करने से कब चूकती हैं ? उद्देश्य ये कि उसे  नीचा दिखा कर अपनी श्रेष्ठता जताना !'
  और पति  ? हाँ ,फेरे लिए थे   , .मेरी बेटी के बाप  -लाचार थी  .निभा दिया मैंने.'
 'समझ रही हूँ माँ ,और कोई समझे न समझे .मैं आपको समझती हूँ .आपने ठीक किया .'
पारमिता के अपनत्व  भरे व्यवहार से  माँ को सदा  मनोबल मिलता है .
एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि स्त्री हो तो  उसके वैवाहिक परिप्रेक्ष्य पर ध्यान क्यों टिक जाता है ?अगर विवाह-चिह्नों की बात न हो ,तो आजीविका हेतु कार्य करनेवाली स्त्रियों में  विधवा,विवाहिता और सुहागिन में क्या कोई भेद रहता है?
यह भी कि पति की हर ज़रूरत पत्नी के पल्ले बाँध दी जाय  या समर्थ हो कर भी संतान  का माँ पर निर्भर हो रहने का चाव उमड़ता रहे ,यह उसके प्रति प्यार नहीं केवल अपना सुख देखने का स्वार्थ लगता है मुझे .वह कहे नहीं चाहे , और सबके सुख में अपनी सार्थकता खोजती रहे , पर एक व्यक्ति होने के नाते,अपने लिए भी थोड़ा जी सके इतना अवकाश कोई क्यों नहीं छोड़ता ?
- पर यह मेरी सोच है ,दुनिया अपनी  सुविधा से चलती है 
हाँ,उसकी बात पर माँ ने कहा था-
'अब अपने हिसाब से जीना चाहती हूँ . किसी के कहने का डर  नहीं .बच्चे सँभल गए ,वे खुश रहें !मेरे जैसे और लोग भी हैं ,कुछ और मत सोचना, .मेरे साथ की टीचर्स ,जिनने जीवन को झेला है ,उनकी अपनी कहानियाँ है .एक-दूसरे को समझते हैं और एक दूसरे का सहारा है .अब  दुनिया देखने का चाव जगा है .कुछ तीर्थ आदि भी . ..'
उनमें एक परिवर्तन लक्षित था  .माथे पर धीमी रह जानेवाली बिंदिया चमकने लगी थी.
*
 'चलो माँ ,कहीं चलें  कुछ दिनों के लिए ,कहीं सैर कर आएँ .'जाने से पहले ,मैंने प्रस्ताव रखा था.
'चलूँगी मुन्ना, पर अभी तो यहाँ का सारा पसारा समेटना है .'
लगा जैसे अपने से ही बात कर रही हों,' अभी पूरी निश्चिंती कहाँ ? तेरा जीवन भी ढर्रे पर आये तो चैन पड़े मुझे.'
'जरूर आएगा माँ '
'सच में ! ' उनके तो चेहरे का भाव बदल गया ,'तू  तैयार है शादी को   ?'
'सब कुछ करूँगा जो करना चाहिये .'
तब  अपने मन की बात कह डाली उन्होंने,' हाँ , मेरा नर्मदा मैया की परिक्रमा  का मन है .इधर से निपट कर वही करना चाहती हूँ  .'
 'अकेली ?'
'अकेली कहाँ ? साथ होते हैं कितने यात्री . समान भाव ,समान चर्या .अपना-पराया कुछ  नहीं -यहाँ का बीता यहीं छोड़  ,आगे बढ़ चलते हैं  ... उतने दिन दुनिया के झंझटों से मुक्ति मिलती हो  शायद ...  !'
चकित -सा  उनका मुख  देखे जा रहा हूँ.
' ..पुष्पी और सुधा  दोनों साथ चलने को कह रही हैं, और दो-एक जन भी...'
'मैं भी चलूँ ?'
अभी नई नौकरी है ,..इतनी छुट्टी कहाँ ?'
हाँ , ठीक कह रही हैं वे .
 मैं भी तो जाना  चाहता हूँ , कब से सोच रहा हूँ .
 जाऊँगा !
पर जाऊँगा अकेला ही , मुझे किसी का साथ नहीं चाहिये अब ! 
*
(क्रमशः)

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (27-10-2014) को "देश जश्न में डूबा हुआ" (चर्चा मंच-1779) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. माँ के पात्र में स्त्री का आत्मविश्वास और गरिमा कितनी सहजता से झलक रही है इस अंश में..स्वयं के लिए जीने का प्रयास एक सजग और समर्थ आत्मा की पहचान है.

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  3. शकुन्तला बहादुर26 अक्टूबर 2014 को 10:53 pm बजे

    अनीता जी के तो मेरे मन की बात ही लिख दी है । कथा के प्रवाह में माँ
    ने अपनी भूमिका अतीव तत्परता और कुशलता से निभाई है । मन आश्वस्त हो गया । कथा के सहज स्वाभाविक प्रवाह के लिये प्रतिभा जी
    का साधुवाद !!

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  4. ''naari''....ek samvedansheel srijan eeshwar ka...jo jeewan me bhavnaon kee saanse adhik leti hai..ek aisa komal paudha jo aayu ke har mausam me dhal jaane wala hota hai...fir mausam pati ka ho..bete ka ho athva pita ka. uski jadon ko har koi apnee chhaanv me rop lena chahta hai. use swatantr ikaayi kabhi kisi ne mana hi nahin...even usne swayam ne nahin. sadaiv purushon ke sanrakshan me palti aayi hai ek stri..rishtey ka jo bhi naam ho. kuch aisi hi prishthbhoomi hogi Vasu ke pita ke mann kee..unke avchetan kee shayad. jaane adhikaar bach kahan jata hai aise logon ka!! mujhe niji taur par lagta hai ki ek nishchit aayu ke baad jeewan flash back me chalne lagta hai.jeewan kee saanjh jab ghunghat kholne lagti hai to bhor aur dopehar ke chhote bade apraadh apne apne haath khade karne lagte hain. vasu k pita jaise vyakti ke mann me aatmchintan ki aandhi yadi uthi hogi to bhala ye adhikar kaise swayam ko bacha paya?
    yadi samaaj ek stri ke pati ke na hone per itte prashn chinh aur sanshay na khada kiya kare..yadi maa ko sampoorn ikaayi maankar hi santusht ho jaya kare..to bhala kyun maa bulaatin unhe? ab to we apni tapasya me sthir hain...jab vichlan ke khatre the tab we ekaagr hokar apne lakshy par chalti rahin.bhala kiya we nahin gayin usse bhi adhik achha unka dridh swar laga.
    wo avkash wlai baat bahut bahut achhi lagi Pratibha ji. ek movie aayi thi ''Astitva''...saari ki saari film aankhon me ghoom gayi ek hi pal me..movie ke ant ke wo samwaad fir se ashanwit kar gaye mujhe..ki vasu aur Brajesh ki shadi ke baad aur abhi bhi maa apna ek swatantr astitv poshit karti rahengi.
    har Vasu aisi nahin hoti ..itni maasoom aur mohabbat karne wali nahin hoti.waqt ke sath zaheen ho jaana bhi bahut badi sazaa hai shayad...bina kisi ke kadwaahat bhare insaan khud b khud samajh jata hai k kaun kaisa hai.
    achhi man: sthiti me padhi ye post maine..na rona aaya na mann khatta hua...achha laga.Brajesh ka samarpan mujhe dekhna hai ab ek bete ke taur par.aur ye bhi ki aap ant me Vasu kee maa ke charitr ko kitni oonchaayiyaan bakhshengi iske qayaas laga rahi hoon khud se...hope is kathansh ke ant par yatharth ka sparsh kam se kam ho...hehhehe...taaki happy ending ho sake :D
    abhaar Pratibha ji...!! :''-)

    jaane kab mujhe gaagar me saagar sametna aayega..:'( ..comment lambe ho jaate hain. :(:( bade asmanjas ke baad ye comment post kiya..:'(

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  5. वसु की माँ का चरित्र जिस गरिमा और दृढ़ता के साथ उभरा है , अभिनन्दनीय है । वसु के पिता के लिये यही सही जबाब था । जाने क्यों ऐसे लोग पत्नी के साथ सौ अन्याय करके भी उससे अपने लिये अनुकूलता चाहते हैं । चाहते ही नही , अधिकार के साथ पाना भी चाहते हैं । वे पत्नी की संवेदना कभी नही समझ सकते । न ही कभी बदलते हैं । वसु की माँ ने पति का प्रस्ताव ठुकराकर नारी के स्वाभिमान को बचाया है ।

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  6. माँ! जिस प्रकार कथाक्रम आगे बढता रहा है, उसी प्रकार ब्रजेश की माँ का चरित्र भी परत-दर-परत खुलता जा रहा है. उसी का क्यों सारे के सारे चरित्र अपना आप खोलकर सामने आते जा रहे हैं. और यही इस उपन्यास की सबसे बड़ी उपलब्धि है माँ, कि यह एक कथांश न होकर हर पाठक के लिये अपने ही पड़ोस का एक परिवार हो गया है.
    माना कि आपके लेखन की उत्कृष्टता अब किसी प्रतिक्रिया की मोहताज नहीं, किंतु टिप्पणियों में पाठक जब चरित्रों की प्रशंसा, या आलोचना एक पात्र के रूप में न करते हुये, एक इंसान के रूप में करते हैं तो यह आपके लेखन की उत्कृष्टता का सर्वोच्च शिखर है, जिसपर मुझे गर्व है!
    इस कड़ी में माँ का चरित्र एक सम्पूर्ण नारी चरित्र के रूप में उभर कर आया है - एक देवी का इंसानी रूप! सबसे अच्छी बात तो यह है कि यह चरित्र लाउड नहीं है. जितनी आसानी से, सहज सम्वादों के माध्यम से उसका चरित्र स्थापित होता गया है वह सचमुच उसे पावरफुल बनाती है!

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    1. यह सच है कि लेखन की उत्कृष्टता किसी प्रतिक्रिया की मोहताज नहीं,पर उस उत्कर्ष तक पहुँचना संभव कहाँ कि आगे के लिए गुंजाइश न बचे - पूर्णता कभी नहीं आती . मुझे भी प्रतिक्रिया जानाना और टिप्पणी पाना बहुत अच्छा लगता है पर - जब कोई अपने मन से दे .यहाँ भी मेरी पहुँच बहुत सीमित है .

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  7. ब्रजेश की माँ का चरित्र इसी खूबी से उभरना चाहिए था। आत्मविश्वास से भरा हुआ । मर्द हमेशा स्त्री पर अपना अधिकार समझता है भले ही वो कितना गलत रहा हो ।

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