शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2012

पीला गुलाब -6 & 7.


6.

जहाँ दादा की पोस्टिंग नई जगह में हुई ,शिब्बू उत्साह से भर जाते हैं .
उनके के घर जाकर रहना बड़ा अच्छा लगता है उन्हें .शादी के बाद नई दुलहिन को ले कर वहीं पहुँच गये .
देवर-भाभी में पटरी भी खूब  बैठती है .
दोनो बतियाते रहते है ,रुचि सुनती रहती है बीच में बोल दी तो बोल दी ,नहीं तो चुप .सबको स्वाभाविक लगता है .अभी नई-नई है थोड़ा तो समय लगेगा .
वैसे भी इन बातों में दखल देने से रही -बोले तो क्या बोले !
कर्नल साहब घर में बहुत कम टिकते हैं .कई कार्यक्रम रहते हैं उनके बहुत व्यस्त रहते हैं .
बड़ी तारीफ़ है उनकी ,लोक-प्रिय हैं .जन-कल्याण और सैनिकों के परिवारों के हित के लिये कुछ करने में कभी पीछे नहीं रहते . धाक है उनकी .
 रुचि ने कमरे से सुना जेठ जी कह रहे थे 'आज क्लब में चेरिटी शो के टिकट लिये बड़ा अच्छा संगीत का प्रोग्राम है शिब्बू ,तुम लोग  देख आओ .'
'क्यों दादा टिकट लिये हैं, जाओगे नहीं ?'
'मुझे तो आज कुछ खास का निपटाने हैं और तुम्हारी भाभी का इस सब मैं कोई इन्टरेस्ट नहीं ,ये रखे हैं टिकट .'
भाभी बोलीं थीं 'और क्या! मार दो घंटे बैठो और कुछ मजा भी न आए .अरे ,फड़कते हुए सिनेमा के गाने होते तो बात और थी .हमारे यहाँ तो लोग आर्टिस्ट के साथ सुर मिला कर स्टेज पर नाचने भी लगते थे .'
' बहुत देखे हैं ऐसे पहुँचे हुये प्रोग्राम जब पढ़ते थे .किसका मन लगता है .सब गप्पों में मगन रहते हैं .' देवर ने सुर में सुर मिलाया .
रुचि कमरे से बाहर निकल आई .
जेठजी आश्चर्य से शिब्बू को देख रहे थे .
'कैसी बात करता है मुन्ना.कहाँ स्कूलों के चलताऊ प्रोग्राम और कहाँ ये इन्टरनेशनल फ़ेम के आर्टिस्ट?'
रुचि ने कार्ड पर लिखे संगीतज्ञों के नाम देखे ',इन के प्रोग्राम के लिए तो हमारे यहाँ सिर फुटौवल होती थी .'
'ऊँह वही आलाप जैसे कोई सुर भर भर कर रोये जाये, ये गाना है क्या !
 हमें तो बोरियत होती है . हमें नहीं जाना .तुम चाहो दादा के संग चली जाओ .'
दादा पत्नी की ओर देख कर बोले,' तुम तो जाओगी नहीं . हमारी आज जरूरी मीटिंग है .हमें जाना होता तो तुम्हें क्यों देते ?
रुचि तटस्थ है - जाओ तो ठीक न जाओ तो ठीक.
क्यों बीच में दखल देती फिरे !
*
शिब्बू मगन हो रहते हैं -क्या ठाठ हैं .एकदम साहबी ढंग !
'कुछ भी कहो भाभी,आर्मीवालों का रंग ही अलग है . रहन-सहन पहनना-ओढ़ना सब निराला .सबसे अलग चमकते हैं .'
'सो तो है ..देखने वाले पर रौब पड़ता है .पर हमें सुरू-सुरू में बड़ा अजीब लगता था .बड़ी मुस्किल से इत्ता कर पाये हैं .उहाँ तो सब साथ में बैठ कर सराब पीती हैं ..'
अरे भाभी, शराब मत कहो .ड्रिंक कहो, ड्रिंक !'
'हाँ ,वाइन पीती हैं ऊ कोई शराब थोरे है .'
' अउर का ?'
'तुमने कभी नहीं पी .'
'अरे पी ,.सबके साथ में पी थी .'
'अच्छा नहीं लगी ?'
'मार कडुई ,अजीब सा सवाद. पर पी ली सबके साथ .'
फिर रुक कर बोलीं ,'अब बहू को ही देखो ,ड्रिंक करते देखा तो बरात लौटा दी और हम इनके यहां की पार्टी में वाइन पीने लगे .हमने अपने को ढाल लिया .'
शिब्बू गौरवान्वित अनुभव करते हैं , 'हाँ देखो न ,दद्दा के मुकाबले हमें पसंद किया.'
दोस्तों में मौका मिलते ही बताने से चूकते नहीं .
'भाभी ,भइया तो तुमसे स्लिम हैं .'
'आर्मी में हैं न .हमेला चाक-चौबंद रहने की आदत .हम तो भई, आराम से रहने में विश्वास करते हैं .'
'हाँ और क्या ?क्यों बेकार काया को कष्ट दिया जाय .' शिब्बू ने कहा और हो-हो कर हँस दिये - बड़ी मज़ेदार बात कही है न !
भाभी ने समर्थन किया .
'...और डांस,भाभी '?
देवर पूछे ही जा रहा है .क्या सभी कुछ पूछ कर दम लेगा !
अरे लाला ,.सब पूछ के ही रहोगे ?पहले सुरू-सुरू में तो इनकी बाहों में डांस भी अजीब लगा -फिर तो धीरे-धीरे आदत पड़ गई .'
'अब तो मज़ा आता होगा भाभी ?
'बेसरम !अपनी सोचो लाला "!
  ' कोई ऐसा-वैसा शौक ही नहीं इन्हें , ऊँचे आदर्शोंवाली ,गंभीर ये  उस टाइप की नहीं हैं . और  दादा की लाइफ़ ही अलग है !'
'हाँ सो तो हैं .'भाभी पूरी तरह सहमत.
*
7.
'बिट्टू आ रहा है .कोई टेस्ट देना है उसे .'
दादा के नाम आया ,चाचा का पोस्टकार्ड शिब्बू के हाथ में है .
'अच्छा वोह, बिट्टू ! हमारी शादी में आया था .हमारी बहन से बातें कर रहा था .'
'तुम्हारी कौन सी बहन है भाभी ?'
'वही विनीता .हमारे मामा की लड़की .'
'हाँ ,समझ गये .दादा के जूते उसी ने छिपाये थे ,बड़ी तेज़ लड़की है भाई .हमे उससे और बात करनी थी ,पर भाग गई .कहे - हम नहीं रुकते यहाँ पे अम्माँ बकेंगी...  '
बकेंगी !सब हँसने लगे .
भाभी ने स्पष्ट किया ,' हाँ  ,वो सबसे बोलने पहुँच जाती है .मामी गुस्सा होती हैं .'

' तुमसे तकरार हो गई थी न ! मामी कह रही थी इसी से ब्याह देंगे विनीता को .'
' फिर काहे नाहीं की ?'
'उसे क्लर्क नहीं अफ़ीसर चाहिये था.बैंक में अच्छे ओहदे पर है उसका दूल्हा.'
'जाने दो हमें तो उससे अच्छी मिल गई . कदर करनेवाले भी मिल जाते हैं, आदमी में अपने गुन होने चाहिये . क्लर्क हैं ,तो क्या....''
 इतवार को आ पहुँचा  बिट्टू , शिब्बू की शादी में नहीं आ पाया था .कहीं बाहर पढ़ रहा था . अब तो खूब लंबा  हो गया है .
 दादा अख़बार पढ़ रहे थे ,चाय चल रही थी..
नई भाभी को देखा तो चौंक गया .
'अरे ,शिब्बू दा की दुल्हन ये हैं .'
'हाँ, क्यों ?'
'हम इनकी पहली बरात में गये थे .मुन्ना दादा ,तुम्हें याद है न ? हाँ.यही तो थीं  ?' .
शिब्बू तौलिया बाँधे उधर ही चले आये थे ,बोले
'हाँ ,हाँ यही थीं .अब देखो आ गईं इसी घर में .तुमने क्या देखा था इन्हें ?'
उस दिन दादा ने  कहलाया था - जा के कह दो एक बार लड़की  हमसे आकर बात कर लें,. .वह मना कर देगी तो  हम चुपचाप लौट जायेंगे .
तब हम भी चच्चा के  साथ चले गये थे. इनके घर के लोग मार गुस्साये जा रहे थे .
जब चच्चा ने कहा,  वो लोग हैरान !एक दूसरे का मुँह देखें,और  ये चट्टसानी उठ के खड़ी हो गईं .चल भी दीं थीं हमारे संग आने के लिये .पर इनके मामा ने और लोगों ने नहीं आने दिया.एकदमै मना कर दिया कि वो शराब पिये हैं .तुम्हें अब सामना करने  की कोई जरूरत नहीं .हम लोग हैं न .'
बिट्टू ने  पूरा दृष्य सामने ला दिया.
सब ताज्जुब से  सुने जा रहे हैं .
'ये भाभी होतीं न  हमारी, सो इच्छा हो रही थी ,सबको हटा के हाथ पकड़ के आपके सामने ला के खड़ा कर दें .दादा ,सच्ची में हमें लग रहा था ये ...' कहते-कहते वह एकदम चुप हो गया .
अभिमन्यु रुचि की ओर देख रहे हैं सिर झुकाये बैठी है वह .
'लो ,हमें  पता ही नहीं. 'बिट्टू ,तुमने आ के हमें नहीं बताया ?'
 'वहाँ तो कोहराम मचा था .आप को बताने से कोई फ़ायदा नहीं था. '
तो अब बताने क्या फ़ायदा !
 क्या कहें अभिमन्यु ,चुप रह गये .
*
चार साल पहले अपनी नई-नई नौकरी छोड़ने को नोटिस  दिया था रुचि ने .पर लौट कर तुरंत वापस ले लिया था.
अब शादी हो जाने पर  सब को लगा रिज़ाइन कर देगी . पर इस बार  उसी ने  साफ़ कर दिया 'खाली नहीं बैठा जायेगा मुझसे ..
और वह लड़कियों को पढ़ाती रही .
नौकरी छोड़ देती तो करती क्या .शिब्बू तो कहीं टिक कर काम करते नहीं  .दो बार लगी-लगाई छोड़ चुके हैं .स्कूल की क्लर्की रास नहीं आई थी आये दिन झगड़े .सो छोड़कर बैठ गये. वो तो ये कहो किस्मत अच्छी जो शादी होते ही म्युनिसिपेलटी के दफ़्तर में क्लर्क लग गये.
 ऊपर से ,बीवी कमाऊ मिली ,फिर यहीं तबादला करा लिया . अब तो मौज से कट जायेगी .
आज हाफ़ सी.एल. लेकर घर आ गई है रुचि ,बिलकुल  अकेली रहने का मन है . कुछ भी नहीं करेगी ,बस खूब देर लेटी रहेगी यों ही चुपचाप .जब मन होगा उठेगी चाय बना कर खुले में बैठ कर पिेयेगी .कोई मन की किताब पढ़ेगी ,और जो मन में आएगा सोचती रहेती ,
आकर कपड़े बदले ,दो-चार शक्करपारे निकाल कर खाने लगी कि घंटी बजी .
' ये इस समय कौन आ गया ?'
दरवाज़ा खोला ,
'अरे ,तुम कैसे घर चले आए ?'
'तुम आ गईं थीं न .'
'तुम्हें कैसे पता?'
'फ़ोन किया था तुम्हारे यहाँ ,पता लगा आधी सी.एल .लेकर चली गई हो .तो हमने भी सोचा घर चलें आज मौज रहेगी .क्या सिर में दर्द है ?'
'नहीं.'
'फिर ठीक है ,पहले एक-एक कप चाय हो जाय .तुम क्या करने जा रहीं थीं .'
'चाय पीने.'
'बस ,तो फिर गरमा-गरम पकौड़ों के साथ .'
'आज शाम को कुछ ज्यादा मत करना भरवां करेले के साथ पराँठे काफ़ी हैं .'
बनाते खाते रात के ग्यारह बज गए .
दिन बीतते जा रहे हैं .
*
(क्रमशः)

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

'यो मां जयति संग्रामे.....'


नवरात्र !
कानों में गूँजने लगता है -

'यो मां जयति संग्रामे, यो मे दर्प व्यपोहति ।

यो मे प्रति-बलो लोके, स मे भर्त्ता भविष्यति ।।'

- बात दैहिक क्षमता की  नहीं - देहधर्मी  तो पशु होता हैं ,पुरुष नहीं . साक्षात् महिषासुर ,देवों को जीतनेवाले सामर्थ्यशाली शुंभ-निशुंभ उस परम नारीत्व को अपने  सम्मुख झुकाना चाहते हैं .
 वह जानती है यह विलास-लोलुप , भोग की कामना से संचालित ,सृजन की महाशक्ति को  शिरोधार्य कर समुचित मान नहीं दे सकता .जानती है अपनी सामर्थ्य बखानेगा , अहंकार में बिलबिलायेगा ,अंत में निराश हो 
देह-धारी पशु बन जायेगा .साक्षात् क्षमता रूपिणी .अनैतिक-बल के अधीन ,उसकी ,भोग्या नहीं बन सकती  ,वह अपने ही रूप में  लोहा लेने सामने खड़ी है.
शक्ति को धारण  करने में जो मन से भी समर्थ हो ,उसे स्वीकारेगी वह - उसे पशु नहीं , पशुपति चाहिये .जो  दैहिकता को नियंत्रित करने में समर्थ हो ,उसकी सामर्थ्य का सम्मान कर उच्चतर  उद्देश्यपूर्ति हेतु,माध्यम बन ,दौत्य-कर्म निभाने को भी  कर्तव्य समझे.

आज भी वही पशु-बल प्रकृति और नारीत्व दोनो पर अपने दाँव दिखा रहा है .

 नवरात्र की मंगल-बेला में नारी-मात्र का संकल्प यही हो कि हम पशुबल से हारेंगी नहीं !
अंततः जीत उन्हीं की होगी क्योंकि ,प्रकृति और संसृति दैहिकता-प्रधान न होकर मानसधर्मी सक्रिय शक्तियाँ  हैं .वहाँ देह का पशु कभी जीत नहीं सकता ,श्रेष्ठता का वरण ही काम्य है और उसी में सृष्टि का मंगल है !
*
इसी के साथ एक प्रकरण गौरा-महेश्वर के दाम्पत्य का -
शिव नटराज हैं तो गौरी भी नृत्यकला पारंगत !एक बार दोनों में होड़ लग गई कौन ऐसी कलाकारी दिखा सकता है जो दूसरे के बस की नहीं और इसी पर होना था हार-जीत का निर्णय ।नंदी भृंगी और शिव के सारे गण चारों ओर खड़े हुये ,कार्तिकेय ,गणेश -ऋद्धि,सद्धि सहित विराजमान ,कैलास पर्वत की छाया में हिमाच्छादित शिखरों के बीच समतल धरा पर मंच बना ।वीणा वादन हेतु शारदा आ विराजीं ,गंधर्व-किन्नर वाद्ययंत्र लेकर सन्नद्ध हो गये ।दोनों प्रतिद्वंदी आगये आमने-सामने -और नृत्यकला का प्रदर्शन प्रारंभ हो गया ।दोनों एक से एक बढ कर ,कभी कुमार शिव को प्रोत्साहित कर रहे हैं ,कभ गणेश पार्वती को ।ऋद्ध-सिद्धि कभी सास पर बलिहारी जा रही हैं कभी ससुरजी पर !गण झूम रहे हैं -नृत्यकला की इतनी समझ उन्हें कहाँ !दोनों की वाहवाही किये जा रहे हैं ।हैं भी तो दोनों धुरंधर !अचानक शिव ने देखा पार्वती मंद - मंद मुस्करा रही हैं।उनका ध्यान नृत्य से हट गया,गति शिथिल हो गई सरस्वती . विस्मित नटराज को क्या हो गया । बहुयें चौकन्नी- अब तो सासू जी बाज़ी मार nले जायेंगी .'
'अरे यह मैं क्या कर रहा हूँ ',शंकर सँभले ,
पार्वती हास्यमुखी ।
'अच्छा ! जीतोगी कैसे तुम और वह भी मुझसे ?'शंकर नृत्य के नये नये दाँव दिखाते हुये अचानक हाथों से विचित्र मुद्रा प्रदर्शित करते हुये जब तक गौरा समझेंऔर अपना कौशल दिखायें ,उन्होने ने एक चरण ऊपर उठाते हुये माथे से ढुआ लिया !
नूपुरों की झंकार थम गई सुन्दर वस्त्रभूषणों पर ,जड़ाऊ चुनरी ओढ़े ,पार्वती विमूढ़ !
दर्शक विस्मित ! यह क्या कर रहे हैं पशुपति !
 शंकर हेर रहे हैं पार्वती का मुख -देखें अब क्या करती हो ?
ये तो बिल्कुल ही बेहयाई पर उतर आये पार्वती ने सोचा .
वह ठमक कर खड़ी हो गईं -'बस ,अब बहुत हुआ ,' मैं हार मानती हूँ तुमसे !'
*
पीछे कोई खिलखिला कर हँस पड़ा .सब मुड़कर उधऱ ही देखने लगे .त्रैलोक्य में विचरण करनेवाले नारद जाने कब से आ कर वहाँ खड़े हो गये थे।
बस यहीं  नारी नर से हार मान लेती है ।
लेकिन यह गौरा की हार नहीं ,शंकर की विवशता का इज़हार है !
*

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

पीला गुलाब 4 & 5.


4

 मां-बाबू निश्चिंत ! ब्याह गई लड़की छुट्टी हुई . झटपट गंगा नहा लिये .
अम्माँ ने बोला था ,बियाह जाए लरकिनी तो हे ,महेस-भवानी ,सीता राम जी ,राध-किशन जी ,घर में अखंड रामायन का पाठ धरेंगी. वही  बाकी रह गई ,सो भी निबटाये दे रहे हैं
सारे काम सुलट गये ,निचिंत हो कर जियेंगे वे .पहली बिदा में लौट कर ब्याहली घर आई .
उस दिन अखंड रामायण का पाठ था
कोलाहल-हलचल . रामायण चलेगी कल दुपहर तक .चाय-पानी ,खाना-पीना होगा ही .बारी लगा ली है सबने दो-दो घंटे पढ़ने की .
उसी के कारण तो हो रहा है यह सब .आकर बैठ गई  .
सब ने कहा ,'तुम आराम करो .अबै ससुरार से आई हो ,थकी-थकाई होगी .'
विधि-विधान से चल रहा है पाठ .
लो ,शिव-विवाह का प्रकरण आ गया .गँजेड़ी-भँगेड़ी दूल्हा .ऊपर से सामाजिक विध-निषेध से कोई मतलब नहीं .फिर भी गौरा ने तप किया उसी के लिये .
बरात आई ,सब भौंचक !
हाय हाय मच गई - कहाँ हमारी गौरा और कहाँ यह विचित्र वेषी ! ज़िन्दगी  कैसे निभेगी !
माँ ,मैना  ने खुल कर  विरोध किया . बरात लौटाने को तैयार .
रोईं-गिड़गिड़ायीं .लाख मना किया .पर  उमा ने उन्हीं को  समझाया -
'माँ ,तुम दुखी मत हो .बेकार तुम्हीं को दोष देंगे लोग .किसी की जुबान पर कौन अंकुश लगा सका है ?'
फिर सौ बात की एक बात कह दी -
'सुख-दुख जो लिखा लिलार हमरे जाब जहँ पाउब तहीं, '
अड़ गईं इसी से विवाह करूँगी .
महिलाओं का मन भर आया है.इसे कहते हैं अटल- व्रत .किसऊ के कहे ते न टरीं ,हिरदे में अइस अचल प्रेम रहा.
भारतीय दाम्पत्य की आदर्श हैं पार्वती .हर तीज-तौहार पे उनसे सुहाग की याचना करती हैं सुहागिनें .  'पारवती सम पति प्रिय होऊ !'
इतना प्रेम और किसमें है पत्नी के प्रति ?
मृत शरीर को काँधे पर डाल विक्षिप्त से धरा-गगन मँझाते रहे .और तो और आधे अंग मे धारण किये हैं!
एक गहरी साँस निकल गई .
बार-बार धिक्कार उठती है, मन कचोटता है .
मैं  क्यों नहीं कह सकी थी .',मातु व्यर्थ जनि लेहु कलंका .'
कित्ती सच्ची बात .जो सहना है वो तो जहाँ रहें झेलना ही पड़ेगा .कौन मिटा सका भाग की रेखायें .
 कहा तो मैंने भी था.पर मैं  क्यों नहीं जमी रह सकी
कह देती पढ़ी-लिखी हूँ , इतनी लाचार नहीं हूँ ,माँ तुम पिता जी को समझा दो .
ये रिश्तेदार इस समय सब साथ हैं फिर सब अलग हो जायेंगे .
पर तब ..सब बोलने लगे थे  . माँ रो रहीं थीं .सब विरोध में खड़े थे .
मामा ने रौद्र रूप धर लिया था  .पढ़ी-लिखी ,कमाऊ लरकिनी का भाड़ में झोंक देंगे
अरे भैया ,रो-रो कर जिनगी काटे उससे अनब्याही अच्छी .
तो अभी कौन फेरे पड़े हैं .कुआँरी है कन्या .
हाँ ,और क्या, कँवारी को सौ वर .
पाठ चल रहा था -
'कत विधि सृजी नारि जग माँही ,पराधीन सपनेहु सुख नाहीं .'
 स्त्रियाँ चुप सुने जा रहीं  .ज्यों अपने भीतर उतर गई हों  ,जहाँ शब्द मौन रह जायें   !

उस दिन रुचि  भी तो हिम्मत कर  सामने आ बोल नहीं सकी थी.
यह  भी तो नहीं मालूम था कि ,आज की रात ही ,यहीं के यहीं किसी दूसरी के साथ भाँवरें पड़ जायेंगी .
बरात लौटने से गहरी  निराशा हुई थी  पर दूसरे मोहल्ले में अपने वर के साथ किसी लड़की के फेरे लेने से मर्मान्तक चोट पहुँची थी .
कौन लड़की ?
*
वही किरण बचपन में पिता मर गये थे .
माँ बिचारी क्या करती  मामा-मामी के घर पली .
हाई स्कूल पास थी किरन ,देने को दान-दहेज नहीं.
मामा कितना करते? अपनी भी तो दो लड़कियाँ हैं -पढ़ाने -ब्याहने को  .माँ बिचारी क्या बोलती ?
मामी ने कहा ,'जिया ,बढ़िया  लड़का मिल रहा है .माँग कुछू  नहीं. बस लड़की चाहिये .किरन के भाग से मौका हाथ आया है .फिर कहाँ  जमा-जोड़ रखा है जो माँगें पूरी करती रहोगी .काहे किसी दो-चार बच्चन के बाप दुहेजू से ब्याहो !भला इहै  कि अभी कर दो ...,अच्छा घर-परिवार ,राज करेगी .रही पीने की बात ?सो का पता कौन पीता है कौन नहीं .हाथ-के हाथ ब्याह दो .'
'अरे !' किरन के चढ़ावे में आया जेवर- कपड़ा देख मामी की तो आँखें फैल गईँ ,ऊपर से सास-ससुर का झंझट नहीं ,आजाद रहेगी लड़की .
एक बार पछतावा भी हुआ कि काहे नाहीं अपनी विनीता ब्याह दी .
अब जो है लड़की की किस्मत !
 और सुरुचि  की जगह किरन ,अभिमन्यु को साथ  फेरे डलवा कर  कर बिदा कर दी गई थी.
एक अखंड रामायण चलती रही रुचि के मन में .
अपना ही मन नहीं समेट  पाती . बार-बार विचार उठते  हैं -लगता है .किन्नू को अपने पास बुला लेती .कह देती चुप रह हल्ला मत मचा .उसे किसी तरह समझा देती !
रह-रह कर पछताती है ,मामा थे सबसे आगे .अपने मन की कह ,चुप कर लेती उन्हें .या फिर खड़ी हो जाती -मेरे पीछे तमाशा मत खड़ा करो .मैं तैयार हूँ .जो होगा सम्हाल लूंगी .
भीतर से  पुकार उठती है - क्या पता था अभी के अभी कोई और  लड़की दुल्हन बन बैठेगी   ..!
सोचती ही रह गई थी   किसी तरह बात सुलट जायेगी .
बार-बार समझाती है मन को ,अब कहीं कुछ नहीं .सोचने से कोई फ़ायदा नहीं .
 पर किसी का कहा कब सुना इसने ? बड़ी अजीब चीज़ है मन !
*
5.
चुप रहती है रुचि पर मन में चलता रहता है कुछ-न-कुछ -
यह कैसा आकर्षण  जो किसी भी उम्र में पीछा नहीं छोड़ता .अपने पर लाख नियंत्रण करो ,मन ऐसा अकुलाता है और संयत होते-होते  कुछ करने को विवश कर देता है .देखा है लोग वार्धक्य में भी इसकी चपेट में आ जाते है .बहक जाना कह लीजिए .नितान्त वैयक्तिक अनुभव .पता नहीं स्थाई या अचानक ही सिर सवार हो जाने वाला .
एक  कहानी पढ़ी थी कभी -
 कालेज के ज़माने में साथ मरने-जीने की कसमें खाईं .पर होनी को कुछ और मंज़ूर था .जिम्मेदारियाँ पूरी करते उमर बीत गई .लड़की को कहाँ छूट उसे तो अपनी मरयाद निभानी है .
बुद्धि सदा प्रश्न खड़े करती है औचित्य के प्रति सचेत करती है ,और अंतिम विजय उसी की होती है .पर अंतिम के पहले ,मन का रीतापन भरने की लालसा में जाने कितने पड़ाव अनायास पार हो जाते हैं. वह उद्दाम मोहकता ऐसा  बहकाती है ,कि सारी अक्लमंदी गुम ,ख़ुद पर लगाई रोक-टोक बेकार  !
और अंत में  शेष बचती है रह-रह कर कसकती टीस  !अनुचित कर दिया हो जैसे ,कुछ बराबर कचोटता है .न यों चैन ,न वों चैन !
हाँ ,तो वह कहानी ! मन का आवेग बार-बार जागता रहा  ,अपने को समेटते वर्तमान को  निभाता  गया लड़का भी, गले पड़ा दुनिया-जहान का ढोल बजाते-बजाते  रिटायर भी हो गया .एकदम खाली  .एक दिन बिलकुल नहीं रहा गया .उस नगर में पहुँच गया .उसके घऱ के पास .कुछ देर आस-पास घूमता रहा यों ही .
देखा ,घर से निकली , वह बदल गई पर वही थी ,बच्चे से बात कर रही थी . उम्र के साथ बदली नहीं थी वह आवाज़.
बरसों बीत गये थे जिसे सुने, पर कैसे भूल सकता था .खड़ा देखता रहा .पास से गुज़र गई वह . सोचता रह गया दो मिनट ,रोक ले, बात कर ले आगे निकल गई .कहाँ देखा होगा उसने ,क्या मालूम होगा उसे .
 . बहुत मन किया एक बार आगे बढ़ जाये 
एक बार पूछ ले ,'कैसी हो ?'
कह देंगे ,'इस नगर आया था इधर से जा रहा था ,तुम्हें देखकर पहचान लिया .'
बस, हाल-चाल ही तो पूछना हैं .
मन में उथल-पुथल चलती रही .पर नहीं कर सका.  हिम्मत नहीं पड़ी .सोच लिया, 'मैं हूँ यहाँ ' उसे बता कर क्या करना है.
ताल के शान्त जल में कंकड़ उछालने से क्या लाभ !
लौट आये चुपचाप वापस अपने घर .
होता है क्या ऐसा भी ?
 क्या पता ? होता ही होगा ,नहीं तो कोई लिखता कैसे !
कहते हैं जो मना किया जाय वही करने का चाव नारियों में अधिक होता है - वही आदम-हव्वा वाली बात !
एकदम स्वाभाविक है .वर्जित फल चखने का चाव नारी मन में ही तो जागेगा .पुरुष क्या जाने वर्जनाएं क्या होती हैं , और कैसी होती है उन्हें झटकने की छटपटाहट !
*
(क्रमशः)

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

पीला गुलाब - 2 & 3 .



*
चार साल बीत गए.
उस दिन शृंगार किए बैठी रह गई थी ,आज फिर विवाह-मंडप में उपस्थित है -किसी दूसरे के लिए .
वस्त्राभूषण का चढ़ावा सम्हालती भाभी रुचि को लिवा ले गईं.
कर्नल साहब फिर सोने नहीं गए .
वहीं साइड में पड़े काउच पर बैठ गए .किसी से कुछ बात-चीत नहीं .वैसे भी उनके  व्यक्तित्व से सब रौब खाते हैं .
दोनों पक्षों की हँसी ठिठोली चलती रही .उनके संयत गंभीर व्यक्तित्व के सामने किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि कुछ कहे .उन्होंने ने सूट की जेब से सिगरेट केस निकाल कर एक सिगरेट निकाली .छोटे बहनोई ने लाइटर से जला दी .वे चुपचाप शून्य में ताकते बैठे सिगरेट पीते रहे । ख़त्म होते ही दूसरी जला ली .
वर को लाकर बिठाया गया .रस्में पूरी की जाती रहीं . कन्या के पिता कन्या के भाई ,सबकी पुकार लगती रही ।सब आ-आ कर अपना रोल निभाते रहे .
'कन्या को बुलाइये .'
कन्या की सखियाँ उसे मंडप में ले आईं .
उन्होंने तीसरी सिगरेट जला ली थी .
'नहीं अभी कन्या वामांग में नहीं ,दाहिनी ओर बिठाइये .
फूल माला जल, अक्षत ,मधुपर्क ,खीलें ,कलावा -
सिगरेटें खत्म होती रहीं ,जलती रहीं .
पाँचवीं सिगरेट !
ट्रे घूमती रही ,कभी कोल्ड-ड्रिंक कभी चाय ,कॉफ़ी .
कर्नल साहब ,बिना देखे ,सिर हिला कर मना करते रहे .
इधर -उधर बैठे लोग शादी की मौज में रमे रहे .कन्या-पक्ष की लड़कियों को छेड़ते रहे .
छोटे -बड़े बहनोई अपने साथियों के साथ बैठे हँसी-ठिठोली करते रहे .कन्या-पक्ष की बहुयें और लड़कियाँ हँसती रहीं.
ये सातवीं सिगरेट है .
' हमारे लड़के से तो सब कहलवा लिया पंडिज्जी ,उनसे भी तो कहलवाओ .'
पंडिज्जी मुस्करा दिये -कन्या ज़ोर से कैसे बोलेगी ?'
'क्या पता उनने प्रतिज्ञा की या नहीं एक बार तो 'हाँ' कहला दीजिये .'
'हाँ और क्या धीरे से ही कह दें, हम कान लगाये हैं .'
  वर पक्ष के लड़के  , कौतुक भरे मुख से  ,दुल्हन की ओर कान  किये हैं .
'कह दो बिटिया - हाँ .'
आवाज़ नहीं आई .
'भई ,ये तो गलत है .एक से सब कबुलवाना ,दूसरे से कुछ नहीं ।'
'मौनं स्वीकृति लक्षणम् ',पडित जी ने व्यवस्था दी .
फिर हँसी मज़ाक हुआ .
सातवीं भी जल चुकी .
'लाजा होम के लिये कन्या का भाई आये ,' पंडित जी  ने पुकारा .
भाई ने आगे बढ. खींलो से भरी थाली उठा ली .'
' इधर  कन्या के पीछे रहना बेटा ,..हाँ, दोनों जन खड़े हो जाइये ,बस ऐसे थोड़ा आगे-पीछे.'
भाई ने खीलें बहिन के हाथ में दीं 
' वर के हाथ  में दे दो बिटिया .लाजा होम दो..'
लाजा होम ! रुचि ने सुना  - किसके हाथ? 
ओह ,चुप हो जा  मन !
 सिर झुकाये उसने  शिब्बू के फैले हाथ में ...लाजा सौंप दीं .तीनों बार !
कन्यादान ,फेरे, सिंदूर-दान , सब  कर्यक्रम चलते रहे, एक के बाद एक .
 ..दसवीं सिगरेट फुँक चुकी .
अभी रात के सिर्फ.
 दो बजे हैं .कितन सिगरेटें फूँकीं उन्होंने उस रात -गिनने की फ़ुर्सत किसे ?

*
रिश्तेदारों में वही चर्चा चल रही है .
चार साल पहले भी यही बरात आई थी इसी लड़की के लिए .
कोई कह रहा था -जा रही है उसी घर में ,पर चार साल बाद किसी दूसरे से गाँठ बाँध कर !
' अच्छा !'
'पर हो क्या गया था ?
हुआ क्या था ? बारात का स्वागत हो चुका था .जयमाल पड़ चुकी थी .
पर बारात लौटा दी .
किसने ?
लंबी कहानी है -होता वही है जो किस्मत में लिखा होता है ।जाना उसी घर में था पर बड़े के बजाय छोटे से गाँठ जोड़ कर ।'
कहानी वही सुन्दर पढी-लिखी लड़की -ब्राह्मण परिवार की.किस्मत से संबंध तय हो गया अच्छे घर में,लरिका सेना में बड़ा आफिसर रहे -कोई माँग नहीं.काहे से कि लरिका के मन भाय गई थी.
हवाई जहाज़ से बारात आई .तब तक सब ठीक- ठाक रहै .
पर ऊ फौज के लोग ,उनके दोस्त आये रहे .उन्हें कहाँ खाने-पीने से परहेज़ .
बोतलें खोल लीं ,बाज़ार से नॉनवेज मँगा लिया मस्ती कर रहे थे.किसी ने जाकर घर की औरतों को फूँक दिया .बस,हल्ला मच गया ,शराबी-कबावी हैं .कैसे गुजर-होगी लड़की की .
शराब की लत में बर्बादी के जाने कितने किस्से याद किए जाने लगे .रोना-धोना मच गया.
और नतीजा ये कि कहला दिया लड़की ब्याह से मना कर रही है .
वो लोग पहले तो कहते-बताते रहे . 
लड़के ने ख़ुद कहा  एक बार सुरुचि  को सामने बुला दो. वो आकर कह दे ,हम चुपचाप चले जायेंगे .
पर इन लोगों ने लड़की को सामने लाने से से साफ़ मना कर दिया .
क्या करते बिचारे !दो-दो पेग और चढ़ा लिए ,लौटने की तैयारी करने लगे .
*
पर होनी को कुछू और मंजूर रहै .बड़ेन को  लगा बिना बहू बरात कैसे लौटे ?
सोच-विचार होने लगा .बरात में जौन लोग हते ,सभै हल सुझावै लाग .एक संबंधी हते  तिनकी यहीं उनकी रिस्तेदारी में एक कुआँरी  लड़की रही, बिन माँ-बाप की,अच्छी रहै ,दहेज का भरना कौन भरे सो बियाह नाहीं होय पा रहा था . मामा के पास पली बढ़ी रहे ,
सँदेसा ले कर पहुँच गये ुउनके घर .भाग खुल गये उनके तो चट् तैयार हुइ गये
 आगे बढ़ के  के ब्याह दी  .आई है बरात में कर्नल पति के साथ !

और इहका  जब एक धब्बा लगा लग गया.जहाँ जायें ,बात चलायें सब इहै पूछैं बरात काहे लौट गई?बाम्हनन के दिमाग ठहरे .जरा में सनक जात हैं. बस इहैं बात अटक जात रही .
चार बरस बाद एक लरिका की खबर मिली  लड़का  मामूली क्लर्क रहे ,वइसे कुल परवार सब दुरुस्त  .सो का करते कब लौं लरकिनी बैठाए रखते .
बात चलाई ऊ तैयार हुइगे .कहे लाग हाँ,हाँ लरकिनी हमार देखी भई है .ई लरिका सराब छुअत भी नहीं .पक्का बिरहमन .
भवा का कि उहै आरमी ऑफिसर केर छोट भाई रहे .
अउर का !
' हाँ कर्नल साहब का छोटा भाई है ।'
उमर का कितना फ़रक है भाइयों में ?'
'डेढ साल का ।'
'अच्छा !पर जमीन -आसमान का फरक है दोनो में  ।'
'हाँ वो तो हई है ।'
'वो थोड़े साँवले लंबे हर चीज़ के शौकीन .और ये रंग थोड़ा साफ़ है पर उनसे बित्ते भर छोटे .घर में बैठे रहेंगे कहीं आने-जाने से भी जी चुरायेंगे .'
'इसीलिये न खेलने में रहे न पढ़ने में ।इस्कूल में किलर्क की
नौकरी लगी है ,उस इ में परम संतुष्ट !'
'महतारी तबैं नाहीं रहीं थीं . इलात-विलात फिरत रहा ,बड़ा हुइगा .कोऊ ध्यान न दिहा सो क्वाँरा रहै. उन्हका तो छप्पर फाड़ के मिला .सुन्दर लरकिनी, पढ़ी-लिखी जाने-बूझे घर की ऊपर से कमाऊ.काहे बारात लौटी रही, सोऊ सब जान रहे  .ई भी तो इन्टरै कालिज में पढ़ाती हैं पिछले तीन साल से .चट्ट हाँ कर दिहिन.'
'कहाँ कर्नल साहब और कहाँ ई किलर्कवा सब किस्मत की बात .'
' करनल  तो अब भवा ,ई सादी तय  होवन के बाद  .'
*
3 .

ससुराल में ननदें आईं उतारने .
एक ने ठिठोली की ,' वाह !चार साल पहले आनेवाली थीं ,अब आईं हैं आप ?'
दूसरी बोली ,'आना तो यहीं पड़ा न इसी घर में ?चलो अच्छा है पहले बड़ी बन कर आतीं अब छोटी बन कर आई हैं .'
एक लड़की बोली ,'क्या इनकी शादी चार साल पहले से तय थी ?''
ननद बोली ,'तय क्या ?बरात तक चली गई थी इन्हें लेने .तब बड़के दादा के लिये .'
' बड़के दादा के साथ ?अच्छा.... !'
,'अरे ,बक-बक बंद करो अपनी ,और ले जाओ इन्हें अंदर ,' सामान उतरवाते बड़के दादा बोले।
*
'परछन की तैयारियाँ हो रही हैं .अभी बहू को बाहर ही रोक कर रखना ,' जिठानी ने दरवाज़े पर आकर कहा .
पड़ोस के बाहरी कमरे में बहू के बैठने का इन्तज़ाम कर दिया गया.
' रात भर का सफ़र करके आई है बिचारी .तनिक फ़्रेश होले .चाय वग़ैरा वहीं पहुँचा देना .'
जिठानी ,बड़ी ठसकेदार ऊपर से कर्नल की बीवी .उनका कहा कोई टाल नहीं सकता .सारा प्रबंध उन्हीं को करना था .
बहू तैयार हो गई .
'अरे ,अब छुटके कहाँ ग़ायब हो गये '
'शिब्बू ,पहले ही घर में घुस गये .नहाय रहे हैंगे .'
' अकेले घर में घुसने किसने दया उन्हें ?निकालो जल्दी बाहर, निकरौसी के बाद तो दुलहिन के साथ ही गृह-प्रवेश होगा .'

दरवाजे के अंदर परिवार की सुहागिनें स्वागत को तैयार .लड़कियों को पीछे धकेल दिया .'यहाँ परछन में तुम्हारा क्या काम   ?तुम जाकर दरवाजा रुकाई करना .'
कोई नहीं हट रहीं ,आगे पीछे हो कर सब वहीं जमी हैं .
कुछ  लड़कियाँ बाहर आ गईं , दूल्हा-दुल्हन के आस-पास.
एक तरफ़ परजा-पजारू सिमट आये (नाउन बारिन महरी आदि)निछावर वसूली करनी है न !
ठोड़ी तक घूँघट लटकाये नवेली दुल्हन खड़ी है,शिब्बू से गाँठ  जोड़े.देहरी के
उस पार 
आरती का थाल लिये इस पार  महिलायें इकट्ठी .अगुआ हैं बूढ़-सुहागिन ताई.
'अरे, सिर पर  मौर नही धरा  !' ,
शिब्बू भिनके , 'अब नहीं लगाना मौर. ' .
बहू के तो पहले ही मौरी बाँध दी है लड़कियों ने .शिब्बू सुनते  नहीं.
'धर देओ सिर पे,  सगुन की बात है अउर का .'

बड़-बूढ़ियाँ बहू को घूँघट में से ही रोली -अक्षत लगाये दे रही हैं .मुँह -दिखाई के बिना कैसे  चेहरा खोलें 

आरती- निछावर होने लगी .
अब जाने क्या-क्या दिखाया जा रहा है नवागता बहू को .
 -ले बहू गुड़, गुणवंती हो .
ले बहू रुपया रूपवंती हो ,
इत्ते में कोई बोली,'और  सतवंती के लिये क्या ?
ताई ने सुझाया ,' नेक सत्तू लै आओ .'
ताई की बहू  हँस रही है  ,'अरे वाह , बहू को सत्तू दिखा के सतवंती बनाओगी ?' ..
 परिवार की पुरखिन ताई को कुछ याद आ गया ,आवाज़ लगाई ,'अरे ,तनी मूसर तो लै आओ, बहुयें-बिटियां सब भूल जाती हैंगी ....'
किरन ने दोहराया ,'अरे हाँ मूसल ..!'
महरी की लड़की तुरंत बखारे में दौड़ी
ऊपर से  बड़के भैया सीढ़ियों से  उतर रहे थे  .
'ये क्या हो रहा है ?'
वह मूसल घसीटते बोली, ' नई बहू की परछन के लै मँगाओ है .'
किसी महिला ने बताया ,' मूसल देख लेगी घर में ,तो दब कर रहेगी न !'
'ये कौन बात हुई ?
'अरे ,तुम काहे बोल रहे ये तो रीत है .'
'बेढंगी रीत...क्या तमाशा खड़ा किये हो  .' लड़की  की ओर घूम कर बोले .'ले जा मूसल .'
पति की बात सुन किरन चट् से बोलीं ,'
 'हमें मूसर दिखाओ तब तो कुछू नहीं बोले ,उनके लिये बड़ा तरस आय रहा है !'
लड़की दीवाल से मूसल टिकाये ठिठकी खड़ी है
'अपनी शादी में कौन बोल पाता है. अब  हम बड़ों में हैं .'
 कस के जो लड़की  को देखा ,वह मूसल घसीटती वहीं से लौट ली .
*

परछन के बाद मुँह-दिखाई  .किसने क्या दिया ,रुपया ज़ेवर सबका हिसाब रख रहीं थी पास बैठी बड़ी बहू .सब उठा-उठा कर चेक करती लिखती जा रही थी .बड़ी लंबी लिस्ट थी.
'पूछ तो सबका रही हैं ,आप क्या दे रही हैं बड़ी भाभी ?'
'मैने तो अपना देवर ही दे दिया .'
'हुँह ,ये भी कोई बात हुई ?'
देख लो ,लिखा है सबसे पहले .'
झाँक कर देखा - मिसेज़ अभिमन्यु के नाम पर लिखे हैं हीरे के टॉप्स !मिसेज़ अभिमन्यु माने कर्नल साहब की पत्नी .
अगले दिन बात उठी सब रिश्तेदारों से बहू का परिचय करवा दो -पता नही कौन कब चला जाय .
परिचय अर्थात् खीर खिलाई .बहू अपने हाथों बनाई खीर परस-परस कर सब को देगी ,उनके पास जाकर जैसे ननदोई से ,'जीजा जी लीजिये .'कह कर चरण स्पर्श करती .
और वे खीर लेकर उसे कुछ भेंट देंगे .
'अरे इतनी सी खीर ?भई बड़ी मँहगी पड़ी .'
उसे भेंट या रुपये पकड़ा देते .वह सिर झुकाये झिझकते हुये ले कर साथ परिचय देती चल रही ननद को पकड़ा देती .
'ये तुम्हारे ससुर जी हैं ?क्या कहोगी पापा जी या बाबूजी ?'
'जो सब कहते हैं वही तो कहेगी ,'जिठानी बोलीं .
'बाबूजी' कह कर उसने पाँव छुये .
उन्होंने सिर पर हाथ रखा ,'आज को तुम्हारी सास होतीं तो ...'
'अरे बाबू जी ,' अम्माँ नहीं हैं तो क्या बहू बड़ी आदर्शवादी है .कुछ कहने समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी .'
उन्होंने एक जोड़ कंगन पकड़ा दिये .'तुम्हारी सास ने दोनो बहुओं के लिये एक से बनवाये थे .'
उसने झुक कर दोनों हाथों से विधिपूर्वक चरण छू कर माथे से लगाये .
ये ताऊ जी ,ये चाचा जी -ये जीजाजी , बरेलीवाले जे ,ताऊ जी के मँझले बेटे .'
अरे ,नाम बताओ ।ऐसे कैसे याद रखेगी ?'
'हाँ इनका नाम सुरेन्द्र बहादुर .क्यों लल्ला जी ,क्या बहादुरी दिखाई आपने
.'
'कहाँ भौजी ,बहादुरी दिखाने का ठेका तो कर्नल साहब का है .हम तो आपके सामने कलेजा थाम कर रह जाते हैं .'
ज़ोरदार ठहाका .
लोग छँटते जा रहे हैं .
'काहे भौजी , कंडैल साहब को कहाँ दुकाय दिया ?कंजूस कहीं के ..'
'काहे गँवारन की तरह कंडैल-कंडैल कहते हो ?नई बहू तुम्हें अपढ समझेगी .'
'समझन देओ .बस तुम हमें समझती रहो ,हम उसई में खुस .'
''ये तुम्हारे जेठ प्रिन्सिपल हैं ,अपढ-गँवार मत समझ लेना .तुम्हें भी पढ़ाय देंगे !.
'चलो मनुआ हो !कहाँ खिसक लिये ?बड़े कंजूस आदमी हो भाई "' उन्होंने आवाज़ लगाई .
उसने सोचा था कर्नल साहब को अभि कहा जाता होगा पर घर उनका घर का नाम मनू है .
'हम तो आही रहे थे .'
'लल्ला जी ,वो खिसके नहीं थे माल लेने गये होंगे .'
' उन्हीं की ओरी लेंगी न!'
देख लो भाभी ,पहले तुम्हारी जगह यही आने वाली थीं .'
'तो हमने कौन रोक दिया था देवर जी !काहे नहीं आ गईं ?
' लिखी तो शिब्बू के नाम रहीं ,उन्हें कइस मिल जातीं ,' किसी बड़ी-बूझी की आवाज़ थी ,'तभी न दरवाजे से बरात लौट आई .'
'क्या बेकार की बातें लगा रखी हैं '  कर्नल साहब ने चुप कर दिया सबको .वे  रस्म के लिये आ कर खड़े हो गये थे 
'उन्हें ये सब बातें अच्छी नहीं लगतीं ,' जिठानी बोलीं ' क्या फ़ायदा ?जो हो गया खतम करो .'
खीर भरी कटोरी बहू के हाथ में पकड़ाती छोटी ननद बोली ,'तो भाभी ,अपने जेठ के पाँव छुओ कहो जेठ जी !'
'जेठजी कौन कहता है ?भाई साहब कहो ,नहीं तो दादा जी ...',जिठानी का सुझाव था .
सिर झुकाये ही खीर की कटोरी उसने उनके हाथ में पकड़ाई ,और झुक गई पांवों पर.कर्नल साहब ज्यों के त्यों सन्न से खड़े रह गये .
'अरे ,उसे खीर खिलाई तो दो ,'जिठानी ने टोका तो वास्तविक जगत में आये ।पत्नी ने जो हाथ में पकड़ा दिया लेकर उसकी ओर बढ़ा दिया और घूम कर चल दिये .लौटते-लौटते जेब से रूमाल निकाल कर पाँवों पर टपके दो बूँद आँसू उन्होंने धीरे से पोंछ दिये .
पीछे से आवाज़ आ रही थी ,'क्या दिया बड़के दादा ने ?
' जड़ाऊ पेन्डेन्ट.'
'अरे वाह ,लटकन में कन्हैया जी लटकाय दिये हैं ,ले ओ छोटी भाभी,मीरा बाई बन जाओ अब .'
' वाह !'
आँसुओं से धुँधला गई आँखों से वह कुछ देख नहीं पा रही थी .
घूँघट से कितनी सुविधा हो जाती है!
*
(क्रमशः)

टिप्पणियाँ -

  1. सुंदर कहानी के लिए साधुवाद! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
    कहानी काफ़ी रोचक है
    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं
  2. बहुत सरल कहानी है प्रतिभा जी.....आपके शब्दों में बेहद सादगी थी..अच्छी लगी जो बहुत...:)
    मैंने तो नायक और नायिका अपने प्रिय संजीव कुमार और जया भादुड़ी को चुन लिया था......ऐसा लगा शब्दों के साथ साथ एक फिल्म भी देख ली.........अंत में घूंघट के अंदर से भरी भरी आँखें लिए जया जी का close-up और मुंह फेर कर जाते हुए संजीव कुमार जी के चेहरे की गंभीरता....वाह!!और तो और सह कलाकार भी सारे वासु दा,ऋषिकेश मुख़र्जी,और गुलज़ार की फिल्मों से लिए थे....:):)

    ''घूँघट से कितनी सुविधा हो जाती है''.....:)
    ....वाकई..!! कोई भी चीज़ नाकारा नहीं होती....कहीं न कहीं सबका कोई न कोई महत्व है ही..:)

    ''समझन देओ .बस तुम हमे समझती रहो ,हम उसई में खुस .''

    ये संवाद..सुबह से मेरे दिमाग से निकला नहीं....बार बार ''उसई में खुस'..'' याद आता और मैं हंसने लग जाती थी...:D
    वास्तव में आज सुबह सुबह ये कहानी पढ़ी..३ ४ बार 'टिप्पणी' पोस्ट की मगर तकनीकी गड़बड़ हो जा रही थी.......अब जाके हुई :)
    कहानी के नायक और नायिका आगे कैसे जिंदगी निर्वाह करेंगे.....काफी देर तक सोचती रही...फिर सोचा...कलयुग है..सब तरह के समझौते यहाँ संभव हैं....कोई मन मार लेगा..कोई ज़मीर..कोई आत्मा.....

    खैर..
    बधाई इस पीले गुलाब के लिए...:)


शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

पीला गुलाब - 1.


*

देखा -सामने वही खड़े हैं .
प्रथम दर्शन के पल आँखों में कौंध गये .
वे ही लोचन जिनकी दृष्टि से लज्जित हो उसने पलकें झुका ली थीं . हलके से आँखें उठाईं ।चार बरस पहले देखी मनभावनी सूरत पहले से अधिक प्रभावशाली और गंभीर.
   मन में गहरी टीस उठी .जी धक् से रह गया. आँखें तुरंत झुका लीं उसने .बिजली के अनगिनती लट्टुओं से सजा मंडप उसे अँधेरा सा लगने लगा .इच्छा हुई सब वहीं छोड़ कर भाग जाये .
एक बार अस्वीकार कर तो सब कुछ लुटा बैठी ,अब भागने से क्या फ़ायदा ?
शादी की रस्में चलती रहीं ,वह सब कुछ करती रही -यंत्र-चालित-सी ,भाव-शून्य.
वे आये .उन्होंने एक-एक जोड़ा उस पर आभूषण और रुपये रख कर चौक पर बैठी कन्या की गोद में रखा ,झुके हुये माथे पर रोली का टीका लगाया और हाथ जोड़ दिये .
एक बार के बाद फिर देखने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी.भाभी ने जोड़े-जेवर उसकी गोद से उठाये बोलीं ,'कर्नल साहब ,मुँह तो मीठा कराइये .'
मिठाई का डिब्बा उठा कर उन्होंने कन्या के आगे बढ़ा दिया. उसने न सिर उठाया न हाथ बढ़ाया ।भाभी ने ही मिठाई का टुकड़ा उसके मुँह में दे दिया .
एक एक कर उन्होंने पाँचो जोड़े चढाये .आभूषण गोद में धरे और वधू पर निछावर करते गए ,फिर चुप खड़े हो गये .
''मेरा ,रोल पूरा हो गया ?'
' बस हो गया .अब आप विश्राम करें !सोते से जगा कर आप को कष्ट दिया .'
उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया ,सोने भी नहीं गये .वहीं मंडप के एक कोने में कुर्सी पर बैठ गये .
' और कुछ ?अब और काम तो नहीं मेरा ?'
वही आवाज़ जो मन में उथल-पुथल मचा देती थी .
वह आवाज़ क्या वह भूल सकती है ?
अत्यंत कोमल और स्नेहिल स्वर में पूछा था किसी ने.
किसी ने क्यों .अभि ने पूछा था रुचि से ,'फ़ौज़ के आदमी के साथ निबाह कर लोगी ?'
शब्द चाहे न मुखर हुए हों मन बार-बार कह रहा थ-अभि,तुम्हारे साथ कहीं भी निबाह लूँगी.
शर्माते हुये उसने हाँ में सिर हिला दिया था .
यहाँ की ज़िन्दगी ,वैसी सीधी-सादी नहीं होती .
*
लड़की देखने आए लोगों ने ,अपने लड़के की अनुकूलता समझ कर दोनों को अलग भेजदिया था कि आपस में बात कर लें .
रुचि , अभिमन्यु को अपना बगीचा तो दिखा लाओ.
और वे दोनों क्यारियों के बीच आ खड़े हुए थे .
बात अभि ने शुरू की थी .
हाँ, फ़ौज़ की ज़िन्दगी सीधी-सादी नहीं होती,जानती है रुचि .पर अभि जैसा साथी हर राह को आसान कर देता है .
क्या सोच रही हो ?
मैं हर जगह निबाह लूँगी ,बस ...,आगे के शब्द कहते-कहते रुक गई .
हाँ सच,अनुकूल साथ मिल जाय तो जीवन कितना सुन्दर लगने लगता है .'

बोलते-बोलते अभि ने अपना लंबा-सा हाथ बढ़ा कर लतर से एक पीला गुलाब तोड़ लिया था किसी ने और उसके केशों नें खोंस दिया ,'वाह !'
'यह तुम्हारे ही लिए खिला था . कैसा खिल गया है तुम पर .'
उसने धीरे से दृष्टि उठा कर देखा .वह नेहभरी दृष्टि उसके मुख पर गड़ी थी .
उसकी पलकें झुक गईँ .
सैनिकों का जीवन है- साथ दोगी न मेरा बडे-बड़े इम्तहान देने पड़ते हैं?
. मैं सारे इम्तहान देने को तैयार हूं ,तुम्हारे साथ '
.'पर कहां ?कहां दे सकी ?
लेने आये अभि ,पर वह कहाँ गई !
शुरू में ही धोखा दे गई '.

*
आज फिर आया है वही ,अपने लिए नहीं किसी दूसरे के निमित्त वस्त्राभूषण  की  भेंट चढ़ाने .

सिर झुकाए बैठी है ,साहस नहीं कि एक बार देख ले .बस आवाज़ कानों में जा रही है.चारों तरफ़ क्या हो रहा है सबसे निर्लिप्त.
स्वर वही है पर वह भंगिमा  कहाँ !
आये हुये को नकार तो तुम्हीं ने दिया था ।लौटा दिया था खड़े-खड़े ,अब पछताने से क्या !अंतर में कोई बोल उठा ।
*
उस दिन भी शादी की गहमागहमी थी घर में .
बड़ा उत्साह
बेटी की शादी है ,कुछौ नहीं माँगा .लरिका लेप्टीनेंट है फ़ौज में .
 आँखों  में सपने सँजोए वस्त्राभूषणों से सजी सखियों के बीच बैठी थी .
सोच रही थी ,आज यहाँ है कल कहां होगी -वही प्रिय मुख सामने डोल गया  .पुलक उठी भीतर से .
-बुआ बोलीं थी - 'साच्छात लच्छिमी लग रही है .'
'दादी ने टोका चुप्पै रहो .काला टीका लगाय देओ .किसउ की नजर न लग जाय ,'
पर लगनेवाले की नज़र लग चुकी थी .
हाँफता हुआ किन्नू आया ,चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रहीं थीं ।
'क्या हुआ ?कहाँ से आ रहे हो ?'
'जनवासे से ।'
तो ?
'वो लोग बैठे-बैठे सराब पी रहे हैं ।हमे देख कर बोले 'आओ ,तुम भी आ जाओ ।'
'हाँ, हमें देख के सब हँसै लाग ।हमे  तो लगा वे होस में नहीं हैं ।ऊँटपटाँग हरकतें कर रहे थे ।'
मामी काम छोड़ कर उठ आईं ,बुआ सतर्क हो गईं सबके कान खड़े हो गए
'ई किन्नू कौन खबर लाए हैं ?'
सब एक दूसरे के मुँह देखने लगीं ।
'का भवा ठीक-ठीक बताओ .'
किन्नू वक्ता बन गए  .सब खोद-खोद कर पूछ रहे है.
'पहिले तो बजार से मीट मच्छी मँगाई .-गाड़ी लेके खुदै चले गए थे .पैकिट भर -भर लाए हैं,सराब पी रहे हैं और हड्डियाँ चबाय-चबाय के डार रहे हैं  .
और उनके चाचा-ताऊ ?
बे लोग अलगै हैं.
बे तो हमें पुकारन लगे ,'साले साहब आओ ,तुम भी आओ.हम तो मार डेरायगे .भाजि आये झट्टसानी  .''
हाय राम .हल्ला मच गया मेहमान दौड़-दौड़ कर आरहे हैं .सहनुभूति .
'मुर्गा और बकरा खावत हैं ई सब ,ऊपर से सराब  होे,राम जी ,कइस निभाव होई ..?'
,पछतावा चच्चचच.चच्चचच.
*

उसकी सहेली मीता बताय गई है ।वह तो रोय रोय के कहे जा रही है -हमें का पता था ?
जे फ़ौज के लोग ऐसेई होत हैंगे ।पराये मरद-मेहरुआ  सराब पी-पी के चिपट चिपट के नाचत हैं ।
कुछू पूछो मत ।पियनवारे को किसऊ को ध्यान नाहीं रहत।ऐसे-ऐसे घर बर्बाद भये हैं का बतावैं ।
ये भी तो सोचो बरात लौट जायेगी तो फिर लड़की की बात है आगे क्या होगा ?
पढ़ी-लिखी है दिन-रात रोने से अच्छा है अभी मना कर दो ,'लड़की की माँ रुबासी हो आई थी ।कौन बोझ बनी है किसउ पर .
आपुन कमाय रही है ..अरे दस मिल जइहैं लरिका ..हुइ जिए सादी .x
'उससे का पूछें वो तो तबै से रोये चली जाय रही है ।'
किन्नू ने जब से बताओ है कि बे नशे में धुत हैं .उसको तो मार चेहरा उतरि गा ।
पढ़ी-लिखी है दिन-रात रोने से अच्छा है अभी मना कर दो ,'लड़की की माँ रुबासी हो आई थी ।
तो लरकिनी को का भट्टी में झोंक दें !
पढ़ी-लिखी है दिन-रात रोने से अच्छा है अभी मना कर दो ,'लड़की की माँ रुबासी हो आई थी ।
***

नकारा नहीं था मैंने ?
नहीं, मैं कैसे नकार सकती थी मन अभि-अभि टेरता रहा ,जितना हो सका कोशिश भी की .पर मेरी नहीं चली.मैं कुछ नहीं कर पाई .अभि, मैं लाचार थी अभि मुझे माफ़ करना .
आँखें कैसी धुँधला आई हैं ,क्या हो रहा है ,कुछ समझने की सामर्थ्य नहीं है .
जो चाहा था नहीं हुआ ,अब कुछ भी होता रहे क्या फ़र्क पड़ता है !
 वह  दिन -
उस दिन भी मेंहदी लगी थी ,शादी का जोड़ा पहना था ,
बार-बार कानों में एक ही नाम गूँज रहा था -'अभि,अभि.'
मन में उमंगें ,पाँव जैसे ज़मीन पर नहीं पड़ रहे. .लगता हवा में उड़ी जा रही है .
पर हुआ क्या ?
 वह जहाँ का तहाँ पड़ी रह गई और सब-कुछ हवा में उड़ गया .
(क्रमशः)
*
[यह भाग,  पुराने ब्लाग 'कहानी-कुंज' से ( तीन पूर्व- प्रकाशित  कथांश) यहाँ स्थानान्तरित किया गया है].

टिप्पणियाँ -

वाह! प्रतिभा जी,नया सा कथानक है। "विधि का लिखा न मेटन हारा।" मुझे याद आगईं कुछ पंक्तियाँ- सुना था कि दुनिया बड़ी ही सदय है, मग़र ये किसी ने न सोचा,न समझा कि कोमल कली के सुकोमल हृदय है। कहाँ की कली है?कहाँ पर खिली है? कहाँ जा रही है?किसे अब मिली है? कि नैया किसी की,किसी के सहारे, किसी दूसरे ही किनारे लगी है। विदा की घड़ी है,विदा की घड़ी है।। पीला गुलाब - 1 पर
सामग्री निकालें | हटाएं | स्पैम
शकुन्तला बहादुर
1/1/11 को
बहुत अच्छा लगा इस कथा को पढना। पीला गुलाब - 1 पर
मनोज कुमार
11/11/10 को