गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

पीला गुलाब 4 & 5.


4

 मां-बाबू निश्चिंत ! ब्याह गई लड़की छुट्टी हुई . झटपट गंगा नहा लिये .
अम्माँ ने बोला था ,बियाह जाए लरकिनी तो हे ,महेस-भवानी ,सीता राम जी ,राध-किशन जी ,घर में अखंड रामायन का पाठ धरेंगी. वही  बाकी रह गई ,सो भी निबटाये दे रहे हैं
सारे काम सुलट गये ,निचिंत हो कर जियेंगे वे .पहली बिदा में लौट कर ब्याहली घर आई .
उस दिन अखंड रामायण का पाठ था
कोलाहल-हलचल . रामायण चलेगी कल दुपहर तक .चाय-पानी ,खाना-पीना होगा ही .बारी लगा ली है सबने दो-दो घंटे पढ़ने की .
उसी के कारण तो हो रहा है यह सब .आकर बैठ गई  .
सब ने कहा ,'तुम आराम करो .अबै ससुरार से आई हो ,थकी-थकाई होगी .'
विधि-विधान से चल रहा है पाठ .
लो ,शिव-विवाह का प्रकरण आ गया .गँजेड़ी-भँगेड़ी दूल्हा .ऊपर से सामाजिक विध-निषेध से कोई मतलब नहीं .फिर भी गौरा ने तप किया उसी के लिये .
बरात आई ,सब भौंचक !
हाय हाय मच गई - कहाँ हमारी गौरा और कहाँ यह विचित्र वेषी ! ज़िन्दगी  कैसे निभेगी !
माँ ,मैना  ने खुल कर  विरोध किया . बरात लौटाने को तैयार .
रोईं-गिड़गिड़ायीं .लाख मना किया .पर  उमा ने उन्हीं को  समझाया -
'माँ ,तुम दुखी मत हो .बेकार तुम्हीं को दोष देंगे लोग .किसी की जुबान पर कौन अंकुश लगा सका है ?'
फिर सौ बात की एक बात कह दी -
'सुख-दुख जो लिखा लिलार हमरे जाब जहँ पाउब तहीं, '
अड़ गईं इसी से विवाह करूँगी .
महिलाओं का मन भर आया है.इसे कहते हैं अटल- व्रत .किसऊ के कहे ते न टरीं ,हिरदे में अइस अचल प्रेम रहा.
भारतीय दाम्पत्य की आदर्श हैं पार्वती .हर तीज-तौहार पे उनसे सुहाग की याचना करती हैं सुहागिनें .  'पारवती सम पति प्रिय होऊ !'
इतना प्रेम और किसमें है पत्नी के प्रति ?
मृत शरीर को काँधे पर डाल विक्षिप्त से धरा-गगन मँझाते रहे .और तो और आधे अंग मे धारण किये हैं!
एक गहरी साँस निकल गई .
बार-बार धिक्कार उठती है, मन कचोटता है .
मैं  क्यों नहीं कह सकी थी .',मातु व्यर्थ जनि लेहु कलंका .'
कित्ती सच्ची बात .जो सहना है वो तो जहाँ रहें झेलना ही पड़ेगा .कौन मिटा सका भाग की रेखायें .
 कहा तो मैंने भी था.पर मैं  क्यों नहीं जमी रह सकी
कह देती पढ़ी-लिखी हूँ , इतनी लाचार नहीं हूँ ,माँ तुम पिता जी को समझा दो .
ये रिश्तेदार इस समय सब साथ हैं फिर सब अलग हो जायेंगे .
पर तब ..सब बोलने लगे थे  . माँ रो रहीं थीं .सब विरोध में खड़े थे .
मामा ने रौद्र रूप धर लिया था  .पढ़ी-लिखी ,कमाऊ लरकिनी का भाड़ में झोंक देंगे
अरे भैया ,रो-रो कर जिनगी काटे उससे अनब्याही अच्छी .
तो अभी कौन फेरे पड़े हैं .कुआँरी है कन्या .
हाँ ,और क्या, कँवारी को सौ वर .
पाठ चल रहा था -
'कत विधि सृजी नारि जग माँही ,पराधीन सपनेहु सुख नाहीं .'
 स्त्रियाँ चुप सुने जा रहीं  .ज्यों अपने भीतर उतर गई हों  ,जहाँ शब्द मौन रह जायें   !

उस दिन रुचि  भी तो हिम्मत कर  सामने आ बोल नहीं सकी थी.
यह  भी तो नहीं मालूम था कि ,आज की रात ही ,यहीं के यहीं किसी दूसरी के साथ भाँवरें पड़ जायेंगी .
बरात लौटने से गहरी  निराशा हुई थी  पर दूसरे मोहल्ले में अपने वर के साथ किसी लड़की के फेरे लेने से मर्मान्तक चोट पहुँची थी .
कौन लड़की ?
*
वही किरण बचपन में पिता मर गये थे .
माँ बिचारी क्या करती  मामा-मामी के घर पली .
हाई स्कूल पास थी किरन ,देने को दान-दहेज नहीं.
मामा कितना करते? अपनी भी तो दो लड़कियाँ हैं -पढ़ाने -ब्याहने को  .माँ बिचारी क्या बोलती ?
मामी ने कहा ,'जिया ,बढ़िया  लड़का मिल रहा है .माँग कुछू  नहीं. बस लड़की चाहिये .किरन के भाग से मौका हाथ आया है .फिर कहाँ  जमा-जोड़ रखा है जो माँगें पूरी करती रहोगी .काहे किसी दो-चार बच्चन के बाप दुहेजू से ब्याहो !भला इहै  कि अभी कर दो ...,अच्छा घर-परिवार ,राज करेगी .रही पीने की बात ?सो का पता कौन पीता है कौन नहीं .हाथ-के हाथ ब्याह दो .'
'अरे !' किरन के चढ़ावे में आया जेवर- कपड़ा देख मामी की तो आँखें फैल गईँ ,ऊपर से सास-ससुर का झंझट नहीं ,आजाद रहेगी लड़की .
एक बार पछतावा भी हुआ कि काहे नाहीं अपनी विनीता ब्याह दी .
अब जो है लड़की की किस्मत !
 और सुरुचि  की जगह किरन ,अभिमन्यु को साथ  फेरे डलवा कर  कर बिदा कर दी गई थी.
एक अखंड रामायण चलती रही रुचि के मन में .
अपना ही मन नहीं समेट  पाती . बार-बार विचार उठते  हैं -लगता है .किन्नू को अपने पास बुला लेती .कह देती चुप रह हल्ला मत मचा .उसे किसी तरह समझा देती !
रह-रह कर पछताती है ,मामा थे सबसे आगे .अपने मन की कह ,चुप कर लेती उन्हें .या फिर खड़ी हो जाती -मेरे पीछे तमाशा मत खड़ा करो .मैं तैयार हूँ .जो होगा सम्हाल लूंगी .
भीतर से  पुकार उठती है - क्या पता था अभी के अभी कोई और  लड़की दुल्हन बन बैठेगी   ..!
सोचती ही रह गई थी   किसी तरह बात सुलट जायेगी .
बार-बार समझाती है मन को ,अब कहीं कुछ नहीं .सोचने से कोई फ़ायदा नहीं .
 पर किसी का कहा कब सुना इसने ? बड़ी अजीब चीज़ है मन !
*
5.
चुप रहती है रुचि पर मन में चलता रहता है कुछ-न-कुछ -
यह कैसा आकर्षण  जो किसी भी उम्र में पीछा नहीं छोड़ता .अपने पर लाख नियंत्रण करो ,मन ऐसा अकुलाता है और संयत होते-होते  कुछ करने को विवश कर देता है .देखा है लोग वार्धक्य में भी इसकी चपेट में आ जाते है .बहक जाना कह लीजिए .नितान्त वैयक्तिक अनुभव .पता नहीं स्थाई या अचानक ही सिर सवार हो जाने वाला .
एक  कहानी पढ़ी थी कभी -
 कालेज के ज़माने में साथ मरने-जीने की कसमें खाईं .पर होनी को कुछ और मंज़ूर था .जिम्मेदारियाँ पूरी करते उमर बीत गई .लड़की को कहाँ छूट उसे तो अपनी मरयाद निभानी है .
बुद्धि सदा प्रश्न खड़े करती है औचित्य के प्रति सचेत करती है ,और अंतिम विजय उसी की होती है .पर अंतिम के पहले ,मन का रीतापन भरने की लालसा में जाने कितने पड़ाव अनायास पार हो जाते हैं. वह उद्दाम मोहकता ऐसा  बहकाती है ,कि सारी अक्लमंदी गुम ,ख़ुद पर लगाई रोक-टोक बेकार  !
और अंत में  शेष बचती है रह-रह कर कसकती टीस  !अनुचित कर दिया हो जैसे ,कुछ बराबर कचोटता है .न यों चैन ,न वों चैन !
हाँ ,तो वह कहानी ! मन का आवेग बार-बार जागता रहा  ,अपने को समेटते वर्तमान को  निभाता  गया लड़का भी, गले पड़ा दुनिया-जहान का ढोल बजाते-बजाते  रिटायर भी हो गया .एकदम खाली  .एक दिन बिलकुल नहीं रहा गया .उस नगर में पहुँच गया .उसके घऱ के पास .कुछ देर आस-पास घूमता रहा यों ही .
देखा ,घर से निकली , वह बदल गई पर वही थी ,बच्चे से बात कर रही थी . उम्र के साथ बदली नहीं थी वह आवाज़.
बरसों बीत गये थे जिसे सुने, पर कैसे भूल सकता था .खड़ा देखता रहा .पास से गुज़र गई वह . सोचता रह गया दो मिनट ,रोक ले, बात कर ले आगे निकल गई .कहाँ देखा होगा उसने ,क्या मालूम होगा उसे .
 . बहुत मन किया एक बार आगे बढ़ जाये 
एक बार पूछ ले ,'कैसी हो ?'
कह देंगे ,'इस नगर आया था इधर से जा रहा था ,तुम्हें देखकर पहचान लिया .'
बस, हाल-चाल ही तो पूछना हैं .
मन में उथल-पुथल चलती रही .पर नहीं कर सका.  हिम्मत नहीं पड़ी .सोच लिया, 'मैं हूँ यहाँ ' उसे बता कर क्या करना है.
ताल के शान्त जल में कंकड़ उछालने से क्या लाभ !
लौट आये चुपचाप वापस अपने घर .
होता है क्या ऐसा भी ?
 क्या पता ? होता ही होगा ,नहीं तो कोई लिखता कैसे !
कहते हैं जो मना किया जाय वही करने का चाव नारियों में अधिक होता है - वही आदम-हव्वा वाली बात !
एकदम स्वाभाविक है .वर्जित फल चखने का चाव नारी मन में ही तो जागेगा .पुरुष क्या जाने वर्जनाएं क्या होती हैं , और कैसी होती है उन्हें झटकने की छटपटाहट !
*
(क्रमशः)

4 टिप्‍पणियां:

  1. शकुन्तला बहादुर11 अक्टूबर 2012 को 7:29 pm बजे

    सुरुचि के मानस का अन्तर्द्वन्द्व अत्यन्त कुशलता से चित्रित है। शिवविवाह के प्रसंग ने विचारों में सैलाब सा ला दिया है।सुशिक्षित होकर भी भारतीय कन्या का अपने बड़ों के समक्ष विरोध न कर पाने
    का स्वभाव सुरुचि के लिये आजीवन की कचोटन और पश्चात्ताप का कारण बन जाता है। इस मार्मिक स्थिति का चित्रण पाठक-मन को भी दुःखी कर जाता है।सराहनीय चित्रण के लिये साधुवाद!

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  2. पार्वती शिव ब्याह से, माँ क्षोभित हो जाय |
    बेटी आगे बढ़ कहे, जनि कलंक लो माय |
    जनि कलंक लो माय, कीजिये भाग्य भरोसे |
    क्यूँकर आँखें मूंद, आज भी किस्मत कोसे |
    बन कन्या मजबूत, बदलना यह सती मती |
    होना होगा मुखर, बने अब क्यूँ कर पार्वती ||

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  3. ्रोचकता बरकरार है …………आगे का इंतज़ार है

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  4. atulneey aur prashansneey prayas raha aapka parvati vivah aur suruchi vivah prasang par.

    kahaniyon aur yatharth me yahi to antar hota hai...samaj me rah kar ham chaah kar bhi vo nahi kar pate jiske liye hamara dil sath dena chaahta hai.

    bahut acchha chitran kiya hai pratyek paristhiti ka.

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