सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

कृष्ण सखी - 10.


10
कैसे हैं, कहाँ हैं अर्जुन ?
 कृष्णा का मन बार-बार पुकारता है !
कृष्ण समझते हैं सखी की मनोव्यथा - और तब राज-रनिवास सब पीछे रह जाता है.
बराबर मित्र की खोज-खबर रख रहे हैं कि वह कहाँ है ,किस हाल में ,क्या कर रहा है.
वनवास चल रहा है साथ ही  साधना  का अविराम क्रम .देश-देशान्तर भ्रमण करते जीवन के गहन अनुभव बटोर रहे हैं धनंजय ,अपने व्यक्तित्व को माँज-माँज कर और चमका रहे हैं .
पर एक निरंतर कथा चलती रहती है मन में .  पुरानी स्मृतियाँ कौंध जाती हैं .-
उस दिन लक्ष्य-बेध के उपरान्त पांचाली ने धनंजय का वरण किया था .
सारे भाई जब घर  पहुँचे तो आगे रहे  युधिष्ठिर ने आवाज़ लगाई ,'देखो माँ ,आज हम क्या वस्तु लाये हैं ?'
माता कुन्ती किसी कार्य में व्यस्त थीं ,आने में कुछ विलंब होना जान, हमेशा जैसा उत्तर  देतीं थीं,  वे अंदर से ही से बोलीं   ,'सब भाई मिल कर बाँट लो.'
विस्मित-चकित पाँच जन ,छठे युठिष्ठिर सदा की तरह मौन-शान्त,निरुद्विग्न  !
नीतिज्ञ , संयत, विचारवान धर्मराज !
("मैं भीष्म बोल रहा हूँ' में श्री भगवती चरण वर्मा ने कथन- कर्ता युधिष्ठिर को बताया है)
पाँच ब्राह्मण कुमारों का दैनिक भिक्षाटन नहीं था ,यह दान में मिली चीज़ नहीं थी  ,वीर्य-शुल्का कन्या अपनी सामर्थ्य से जीती थी पार्थ ने .
बड़े भैया के धर्म और नीति को कई बार समझ नहीं पाते पर चुप रह जाते हैं .
.
कुछ बातें पूछी नहीं जा सकतीं, बस मन में दबी की दबी रह जाती हैं .
अरे,यह सब तो पांचाली से भी नहीं कह सकते !
नहीं , किसी से भी नहीं !!
परस्पर का विग्रह सदा बचाना होगा .
आज सोचते हैं , नवागता पांचाली को कैसा अटपटा लगा होगा ?
 विस्मय की रेखायें और प्रश्न के चिह्न पांचाली के मुख पर भी उभरे देखे हैं और दृष्टि बचा गये हैं पार्थ .मेरे ही कारण तो झेल रही है इतना कुछ !
कितनी समझ -कितनी सद्बुद्धि-सहृदयता है और कितना गहन गांभीर्य ! मन ही मन कृतज्ञता का अनुभव करते हैं वे .एकाकी विजन में भटकते  वह पुराना सब अचानक ही कौंधने  लगता है .
टिक कर कैसे रह पायें कहीं .अशान्त मन को समेट कोई नया उद्देश्य ढूँढते और चल पड़ते आगे .
इस परम मित्र की पूरी खोज-ख़बर रखते हैं गोविन्द कि पूरा विवरण देना होगा प्रिय सखी को .
 * 
(क्रमशः)

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

कृष्ण सखी .- 9.


9
अर्जुन वनवास पर हैं, बारह वर्ष के लिये.
द्रौपदी का मन कभी-कभी बहुत अकुलाता है .पर यह दुख किसी से नहीं बाँट सकती - चार पति  हैं न ! व्याकुलता क्यों ?
हरेक को लगेगा, हम हैं तो !
वे समझ नहीं सकते .मैं समझा नहीं सकती .चुप रहना है बस .
पार्थ ,कैसे बीतेंगे  बारह साल तुम्हें देखे बिन ?तुम्हें रोक नहीं सकती  कि मत छोड़ जाओ ऐसे .मैं तो  साथ भी नहीं जा सकती , कैसे बीतेगी यह दीर्घ अवधि? तुम्हें पुकारे  बिना कैसे रहूँगी !
कौन सा अपराध किया था पार्थ ने ?कर्तव्य परायण अर्जुन की सदाशयता ही उसे दंडित कर गई .
सारा परिदृष्य पांचाली के नेत्रों के आगे घूम गया -
कक्ष में युधिष्ठिर के साथ है द्रौपदी .
ऐसा लगा बाहर कुछ शोर उठ रहा है  . लोगों के दौड़ने- भागने की आवाज़ें भी -
युधिष्ठिर उठे ,वातायन के कपाट पूरे खोल बाहर झाँकने लगे.
 आवाज़ें अब अंदर भी सुनाई देने लगी हैं -
'अरे,अरे हमारी गउएँ ..वे खींचे लिये जा रहे हैं '..'है कोई क्षत्रिय-पुत्र ,जो उन आतताइयों से  बचा ले ...' 'वे खींचे लिये जा रहे हैं.''अरे ..रे  भाई को घायल कर दिया..अरे कोई है.'.'बचाओ ,बचाओ ,कोई हमारी गौओं को बचाओ.. ''मार डालेंगे वे उन्हें ..,'
 अचानक अर्जुन ने वेग से कक्ष में प्रवेश किया ,दृष्टि खूँटी पर टँगे अपने अस्त्रो पर जमी है .त्वरित गति से शस्त्र उतारे और एकदम पलट कर बाहर निकल गये .
युधिष्ठिर पलटे थे कुछ कहने को तत्पर  ,'अर्..' निकला था मुख से पर शब्द पूरा होने से पहले ही अर्जुन जा चुके थे .
'तुमने रोका नहीं पांचाली?
कुछ समझने-सोचने कहने का अवसर ही कहाँ दिया ?किसी और दिशा में देखा भी नहीं था अर्जुन ने .विस्मित बैठी रह गई द्रौपदी. .
'कुछ कहा उसने .?'
'कहा ?उसने देखा तक नहीं .बस हवा का झोंका जैसे आये और निकल जाये..'
'मैं समझ गया ...कर्तव्य में वह कभी नहीं चूका ,और आज भी..'
*
फिर अर्जुन ने कक्ष में अनधिकार प्रवेश का दंड स्वीकार लिया.
पहली आपत्ति बड़े भइया ने उठाई -
मेरे कक्ष में तुम्हारा प्रवेष-निषेध कैसा !
युठिष्ठिर ने कहा था ,'बंधु,मैं अग्रज हूँ ,मेरे कक्ष में तुम कैसे वर्जित हो सकते हो . यह मर्यादा तो बड़े भाई के लिये है कि छोटे भाई के दाम्पत्य-एकान्त में प्रवेश न करे.
बड़ा भाई तो पिता समान होता है .नहीं भइया नहीं .किसी को कुछ गलत भी लगे तो मैं क्षमा करता हूँ .जब मुझे ही आपत्ति नहीं तो फिर यह सब क्यों ? क्यों द्रौपदी ?
 ' और फिर इनकी दृष्टि -वही लक्ष्य-बेध वाली , अपने शस्त्रों पर एकाग्र ,कक्ष के और कुछ  पर दृष्टि भी नहीं गई .'
सब समझा रहे हैं- तुमने अपना धर्म निभाया कोई अपराध नहीं किया .
शस्त्र के बिना कैसे चलता .तुमने हम सब को अकल्याण से बचाया ,तुम गये ,अपने आयुध ले कर चले आये.हम सब के हित के लिये  .
पर अर्जुन को स्वीकार नहीं  -
'ये सब बहाने हैं, मुझे दंड से बचाने के लिये .नियम सबके लिये एक सा .क्या बड़ा ,क्या छोटा .अपराध जग विदित है .नहीं ,मैं नहीं मान सकता .'
 दंड शिरोधार्य कर वनवास की दीक्षा ली और चल दिए.
पांचाली का  अंतर हाहाकार कर उठा.
बारह वर्ष -पूरा एक युग! और मैं तो तुम्हें रोक  नहीं सकती .तुम्हारे साथ जा  नहीं सकती ,धनंजय.मत छोड़ जाओ ऐसे !
सब ने देखा ,सब ने समझा तुम्हारे जाते समय मेरी उद्विग्नता और तुम्हारी भी .
और हर एक को  लगा  - मैं थओ . फिर यह  व्याकुलता क्यों ?
मेरा प्रथम पुरुष वही और उसकी प्रथम स्त्री मैं .बाकी हिस्से-बाँट तो बाद में हुई ,
पार्थ, कैसे बीतेंगे ये बारह साल  बिन तुम्हारे !
और उन सबकी अपनी पत्नियाँ नहीं क्या ?वहाँ तो मैं कहीं नहीं .
हाँ ,धनंजय की भी हैं .तो क्या बारह वर्ष ब्रह्मचारी रहता ?कितनी तो उस पर मर मिटी होंगी .मेरा पार्थ है ही ऐसा.उर्वशी का प्रणय-प्रस्ताव अस्वीकार कर सके जो और बदले में शाप स्वीकार ले .है कोई ?
तुमने विवाह किये कृष्ण से सूचना मिलती थी .मुझे अच्छा लगा ,मैं भी तो यहाँ जीवन को भोग रही हूँ.
कैसे दोष दूँ उसे ?
बरस पर बरस बीतते जाते हैं .वैसे  रात में न सही दिन में तो पार्थ को देख लेती थी बीच-बीच में वार्तालाप हो जाता था .और अब यह दीर्घ अवधि .चार वर्ष बाद अर्जुन की बारी आती थी -एक वर्ष के लिये केवल ,उनकी होती थी मैं वह मेरे होते थे  वे ,उतना ही अपना भाग समझ कर मन को समझा लिया था .पर...विधाता को उतना भी स्वीकार न हुआ .
भाइयों पर कोई अभिशाप पड़े तुम से देखा नहीं जाता  .
पार्थ , तुम क्यों हो इतने कर्तव्यपरायण ,इतने स्नेही ,इतने सहृदय !


*
(क्रमशः)

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

या सत्वैकगुणाश्रया साक्षात् सरस्वती ....


*
    वसन्तागम हो रहा है .धरा नवल परिधान धारण कर रही है, दिशाएं सौंदर्य-सज्जा में व्यस्त,आकाश की मुस्कान- तरंगें  क्षितिजों तक व्याप्त हो गईं .
    देवि सरस्वति ,
तुम्हारे आगमन का संदेश पा धरती पुलक से भर गई है!
     हे सर्व-कलामयी ,तुम्हारी अभ्यर्थना  की तैयारियाँ हैं ये . शीत की  रुक्ष विवर्णा धरती पर तुम कैसे चरण धरोगी ? पहले पुलकित धरा पर हरियाली के  पाँवड़े बिछें , विविध रंगों के पुष्प वातावरण को सुरभि- सौंदर्य  से आपूर्ण करें,दिग्वधुएँ मंगल-घट धरे आगमन -पथ में ओस-बिन्दु छींटती अर्घ्य समर्पित करती चलें, पक्षियों के स्वागत-गान से मुखरित परिवेश  हो ,निर्मल नभ शुभ्र आलोक बिखेर तुम्हारे स्वागत को प्रस्तुत हो तब तो तुम्हारा पदार्पण हो !
 तुम्हारे अभिनन्दन में  मधुऋतु एक नई कविता रच रही है.जीवन्त कविता, जिस की नित्य नूतन सौंदर्यमयी चित्रमाला भू-पटल पर अंकित होने लगी है.
प्रकृति के ऋतु-काव्य की चिर-पुरातन ,चिर- नवीना स्रोतस्विनी अनवरत बह रही है . वही तन्मय भाव पुनर्नवीन हो  काल के  पृष्ठों पर चित्रात्मक लिपियों में अंकित हो रहे हैं .अँगड़ाई से चटकती देह लिए कलियों का उन्मीलन करती , रंग बिखेरती तितलियों का मुक्त विहार ,मत्त भ्रमरों की गुंजित मनुहारें, रोमांच भरता मलयानिल का परस ,तुम्हारे अगवानी के सजीले दृष्यांकन हैं .दिशाओँ ने कोहरे की चादरें समेट ली हैं .स्वच्छ  सुनहरी किरणें पर्वत शिखरों का अभिषेक करती बड़े भोर से उतरने लगी हैं.सरिताएं स्वच्छ जल से आपूर्ण , ताल-तलैयाँ धुंध के आवरण हटा,प्रभात की मुस्कान से झलमला उठे है. जल पक्षियों की  कुलेल से मुखरित ,किरणों की दीप्ति से ज्योतित वासंती साँसे ,हवाओं में घुली जा रही हैं .तरु-लताओं ने अरुणाभ किसलयों की बंदनवारें सजा लीं, बौराए आम्र-कुंजों में , गंध-  व्याकुल नर कोकिल की प्रणयाकुल पुकार रह-रह कर गूँज  उठती है .
      फ़रवरी बीत रही है .वृक्ष की शाखें रोमांचित हो उठीं  .मैग्नोलिया की शाखें गुलाबी कलियों से भर गईं -पत्ता एक भी नहीं .तरु-बालाओं की सारी देह-यष्टि ,जो पल्लव-आच्छादन  में छिपी  रहती थी उजागर हो गई. एक-एक मोड़, पूरे उतार-चढ़ाव का चारु संयोजन और प्रत्येक घूम की मोहक भंगिमा, जो डालें पत्तों  की सघनता में छिपी रहतीं थीं ,उन सबका ललित संभार सामने आ गया.तनु देह-यष्टि, की समग्र रूप-रेखाएं, प्रत्यक्ष ,जैसे आवरणों में छिपी देह का सारा सुकुमार संयोजन आभूषित हो निरावृत हो गया हो. अलभ्य दृष्य,नेत्रों के लिए अनायास सुलभ हो उठा .निसर्ग का यही मदिर लास्य चहुँ ओर, जैसे तुम्हारे शुभागमन का उल्लास छलक गया हो .
          हवाएँ ताल दे-दे कर नचाती हैं, लचकती हुई तरु-शाखें पुष्पाभऱण धारे झूमती हैं  . कुछ दिन पूर्व की नितान्त निर्वसना,चेरी की  टहनियाँ  फूल उठी  हैं .तन्वंगी श्याम-सुकुमार टहनियों पर फूलों के गुच्छे-ही गुच्छे, नव-किसलय अभी फूट रहे हैं . फूलों भरी डालियों की तनु काया पर नन्हें-नन्हें किसलयों के आवेष्टन  जैसे  लघु अंतर-वस्त्र धारण कर लिये हों.
कला और विद्याओं की अधीश्वरी,ज्ञान-विज्ञान की मूल ,सृजन की प्रेरणा,साक्षात्  सरस्वती, इस  ऋतंभरा धरा को अपने चरणों से धन्य करने अवतरित हो रही हैं .मधु और माधव का युग्म - सुख-सुरभि-सौंदर्य का अनुपम जगत जिसे  वाणी के अवतरण की रुपहली स्वर-लहरी मुखरित कर देगी .क्षण-क्षण नवीन होता रूप,  मधु- गंधी मलयज का स्पर्श ,गगन के रंग और निसर्ग का संगीत , वनस्पतियों में अंकुरों के पुलक-कंटक ,अरुणाभ नव-पल्लवों के विकसने की अकुलाहट वातावरण में नव-चेतना का संचार कर रहे हैं. झूमते बिरछ, लताओँ की  सुकुमार  अँगुलियाँ थाम ,में बाहुओं में ले अपने आप में समेट लेंगे .
इस मंगल बेला में , मन-रंजन  के सारे उपादान लिए प्रकृति स्वागतार्थ प्रस्तुत हो गई है.  हवाओं में वसन्त की गमक, कोलाहल -हलचल चारों ओर जैसे ढोल-नगाड़े  बज रहे हों लगातार और उनकी ढमक उर-तंत्री को रह-रह कर उद्वेलित कर रही हो .
           श्री-सौंदर्य और सृजन की मूल हो तुम ,ये नवल अंकुरण अभिव्यक्तियाँ हैं ,अंतस् के आनन्दोद्गार ,पुष्पित पल्लवित,सृजन की मूल धाराओं के प्रवाह में चेतना का असीम  विस्तार,प्रेम का राग सबको छाये है,ये सब तुम्हारी ही तो कलाएँ .इस धरा पर कितनी धाराओं को प्रवाहित कर सिंचित कर रही हैं !सारी अनुभूतियों , अभिव्यक्तियों की मूल तुम ,यह सारा पुलक रोमांच प्रकृति की अंतर अभिव्यक्तियाँ हैं,तुम्हारी यह रचना सृष्टि तुम्हारे आगमन से रोमांचित हो उठी है ,
        सृजन का मूल तुम्हीं ,हर रचना का आदि कारण .तुम्हीं से स्नेहित-अनुप्राणित जीवन की ज्योति,अंतर का राग तुमसे स्वरित, तुम्हीं आधार हो मानस के अतीन्द्रिय संचार का,  सारे विज्ञान-ज्ञान सारे शास्त्र,तुम्हारा मुख जोहते हैं- व्यक्त होने के लिए ,विवृति पाने के लिए  चमत्कृति देने को .आदि कारण हो तुम .तुम्हारे बिना सृष्टि  मूक है कहीं जीवन की मर्मर नहीं ,संवाद- संलाप नहीं स्वरों का उद्गम -विस्तार नहीं  ,भाव-स्पंदनहीन  जड़ता मात्र, हिमीकृत हुई सी .तुम्हारी ऊर्जा के संचार से ऊष्मित हो उपल सी जड़ता,तरल-तरंगित जल में परिणत हो गई है ,विरस क्षीण होती चेतनाएँ जीवन रस से   अनुप्राणित हो गई हैं.
       अक्षरे,तुम वाङ्माया रूपिणी ,तुम अगम- सुगम सुभावमयी  ,मुखर उच्चारण तुम्हारा आवाहन ,शब्दों में विहित  मात्राओँ से सँवारे अक्षऱ पुष्प-गुच्छोंमें ग्रथित  वाक्य-योजना तुम्हें अर्पित अँजलि है. संयुति से विवृति की ओर युग्मों में -चेतना का पल्लवन   वाग्धारा की तरल छवियाँ धारे सारे भोग -स्वरों के व्यंजनों के तुम्हारा भोग- तुम्हीं तो  अनेक भूमिकाएं धार ग्रहण करती हो .
तुम्हारी परछाईँ जो पड़ने लगी  ,सृष्टि का अणु-परमाणु चैतन्य हो उठा .
 दुर्गा सप्तशती में कथा आती है मूल-प्रकृति ही पुरुषात्मक रूप को जनमती है.
वही सत्वगुण दो रूपों में प्रतिफलित हुआ - शिव और सरस्वती.
             कैसे अनुरूप भाई-बहिन .तुम्हारी उज्ज्वलता सारे शाप -ताप कलुषों का शमन   करनेवाली ,शीतल प्रलेप दे कर ,दृष्टि को नये क्षितिजों तक विस्तारती ,निर्मल जल सी वाणी अंतर में उमड़  सारा कलुष बाहर उलीच देती है .
शिव की भगिनी तुम,वैसी ही कल्याणकारिणी, शुभ्र निरंजना !
 उनका डमरू और तुम्हारे स्वर, वे नट तुम वाक् - कैसी युति है , उस महाशक्ति की अभिव्यक्ति के आदि रूप तुम दोनों, जिनसे सारी सृष्टि का अनुप्रणन हुआ. भ्रातृ-भगिनी की समरूपता.सात्विक अनुबंध के दोनों पक्ष एक ही उद्गम के दो रूप,पुरुष-प्रकृति स्त्री-पुंसात्मक हो सम्पूर्ण व्याप्ति के आदि सूत्र स्वरूप हैं !
मुखर उच्चारण तुम्हारा आवाहन , ! नाद-स्वर से पूरित करते ,जड़ पंचभूत में दिव्यता का संचार कर आनन्द का रोमांच भर जीवन को सार्थकता प्रदान कर देते हैं ,
 सर्वगुणयुक्ता.-दृष्य-अदृष्य रूप से संपूर्ण विश्व को व्याप्त करने वाली त्रिगुणापरमेश्वरी  का रूप -
'स ददर्श ततो देवींव्याप्त लोक त्रयां त्विषा,
पादाक्रान्त्या नतभुवंकिरीटोल्लिखिताम्बराम्
क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम्
दिशो भुज सहस्रेण समन्ताद्व्याप्य संस्थिताम्..'
           सृष्टि संचालनके क्रम में विस्तार की परंपरा आगे चली है   ,गुणों की भिन्न आवृत्तियाँ ,अभिव्यक्तियाँ ..प्रकृति के नारीत्व के तीन रूप जिनमें तुम विलक्षण हो-   शुद्ध सत्वमयी ,  चिद्रूपा , ज्ञान से गौरवान्वित,कलाओं से सरस-रुचिर-आनन्दमयी !
.या सत्वैकगुणाश्रया साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता -अक्षमाला,अंकुश ,वीणा एवं पुस्तक धारिणी महामेधा महास्मृतिः.
जड़ता के आघात से अकुलाए देवगण लालायित हैं तुम्हारी कृपा हेतु ,
वे दौड़ते हैं तुम्हारी  स्तुति करते तुम्हें अपने अनुकूल बनाने के लिये .तुम परम तेजोमयी अवतरित होती हो ,शुद्ध अंतःकरण में बुद्धि रूप से ,परा विद्या मेधा शक्ति बन,जिससे सारे शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त होता है ,सबकी आदिभूत अव्यकृता परा प्रकृति बन कारण स्वरूपा, महाव्याप्ति .तुम्हीं स्मृति ,तुम्हीं विशुद्ध धारणा हो माँ .
धीश्वरी ! क्या कहे जा रही हूँ मैं ?मेरी प्रतीति ही कितनी ! तुम  इन सबसे परे, अपरंपार, अभिव्यक्तियों का संसार  श्री-सौंदर्य की आगार ,आनंदमय कोष का शृंगार और ,तुम्हीं में निवसित सृष्टि का असीम विस्तार ! आत्मा का संचरण हो तुम. जो कुछ भी व्यापता है व्यक्ति को -उस सारी अनुरक्ति -विरक्ति मय चित्त के चारु संचार का संभार और  उच्चार भी हो तुम.
            भूत-जगत में दिव्यत्व-संचारिणी.
कलुषों की निवृत्ति ,मन की परिष्कृति, अंतरात्मा की परितृप्ति हो तुम, सुकृति-विकृति तक परिणामित  मूलप्रकृति तुम,साथ ही उस परम चिति की  इस नश्वर तन में अवतरित साधक के  मृण्मय तन में करती हो तेजोमयी  ऊर्जा का अजस्र प्रवाह जिस में विहरती दिव्यता चिदानन्द बन कर स्वरों में फूट पड़ती है .यह सारा सौंदर्य तुम्हारी छाया है सारे भाव तुम्हारी प्रतीति,जीवन के सारे  राग तुम्हारी ललित वीणा की मूर्छनाओं में विलय पाकर सार्थक होते हैं ,
             किस विध तुम्हारा सत्कार करूँ ,कि ये जन्म-मृत्युमय प्राण तुम्हारे परस से दिव्य हो उठें ,जो जन्मान्तर तक  संस्कार बन   सँवारती रहे ,कब संभव होगा कि मैं चेतना की परम परिष्कृति स्वरूप तुम्हारी भव्यता से ओत-प्रोत  ,अपनी इस लघुता को विसर्जित कर तुम्हारी महत्ता को ,स्वयं में अनुभव कर उसके कुछ अणु-परमाणु  आत्मसात् कर सकूँ
       आओ  सर्व मंगले ,विराजो इस धरा पर ,जो तुम्हारे आगमन का संदेश पा कृतकृत्य हो उठी है,
  तुम्हें हमारा नमन है ,वंदन है !

*
(वासंती-नवरात्र पर लिखी गई  रचना अब प्रस्तुत हुई है - दोष मेरे आलस्य का.)
- प्रतिभा.