गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

कृष्ण सखी .- 9.


9
अर्जुन वनवास पर हैं, बारह वर्ष के लिये.
द्रौपदी का मन कभी-कभी बहुत अकुलाता है .पर यह दुख किसी से नहीं बाँट सकती - चार पति  हैं न ! व्याकुलता क्यों ?
हरेक को लगेगा, हम हैं तो !
वे समझ नहीं सकते .मैं समझा नहीं सकती .चुप रहना है बस .
पार्थ ,कैसे बीतेंगे  बारह साल तुम्हें देखे बिन ?तुम्हें रोक नहीं सकती  कि मत छोड़ जाओ ऐसे .मैं तो  साथ भी नहीं जा सकती , कैसे बीतेगी यह दीर्घ अवधि? तुम्हें पुकारे  बिना कैसे रहूँगी !
कौन सा अपराध किया था पार्थ ने ?कर्तव्य परायण अर्जुन की सदाशयता ही उसे दंडित कर गई .
सारा परिदृष्य पांचाली के नेत्रों के आगे घूम गया -
कक्ष में युधिष्ठिर के साथ है द्रौपदी .
ऐसा लगा बाहर कुछ शोर उठ रहा है  . लोगों के दौड़ने- भागने की आवाज़ें भी -
युधिष्ठिर उठे ,वातायन के कपाट पूरे खोल बाहर झाँकने लगे.
 आवाज़ें अब अंदर भी सुनाई देने लगी हैं -
'अरे,अरे हमारी गउएँ ..वे खींचे लिये जा रहे हैं '..'है कोई क्षत्रिय-पुत्र ,जो उन आतताइयों से  बचा ले ...' 'वे खींचे लिये जा रहे हैं.''अरे ..रे  भाई को घायल कर दिया..अरे कोई है.'.'बचाओ ,बचाओ ,कोई हमारी गौओं को बचाओ.. ''मार डालेंगे वे उन्हें ..,'
 अचानक अर्जुन ने वेग से कक्ष में प्रवेश किया ,दृष्टि खूँटी पर टँगे अपने अस्त्रो पर जमी है .त्वरित गति से शस्त्र उतारे और एकदम पलट कर बाहर निकल गये .
युधिष्ठिर पलटे थे कुछ कहने को तत्पर  ,'अर्..' निकला था मुख से पर शब्द पूरा होने से पहले ही अर्जुन जा चुके थे .
'तुमने रोका नहीं पांचाली?
कुछ समझने-सोचने कहने का अवसर ही कहाँ दिया ?किसी और दिशा में देखा भी नहीं था अर्जुन ने .विस्मित बैठी रह गई द्रौपदी. .
'कुछ कहा उसने .?'
'कहा ?उसने देखा तक नहीं .बस हवा का झोंका जैसे आये और निकल जाये..'
'मैं समझ गया ...कर्तव्य में वह कभी नहीं चूका ,और आज भी..'
*
फिर अर्जुन ने कक्ष में अनधिकार प्रवेश का दंड स्वीकार लिया.
पहली आपत्ति बड़े भइया ने उठाई -
मेरे कक्ष में तुम्हारा प्रवेष-निषेध कैसा !
युठिष्ठिर ने कहा था ,'बंधु,मैं अग्रज हूँ ,मेरे कक्ष में तुम कैसे वर्जित हो सकते हो . यह मर्यादा तो बड़े भाई के लिये है कि छोटे भाई के दाम्पत्य-एकान्त में प्रवेश न करे.
बड़ा भाई तो पिता समान होता है .नहीं भइया नहीं .किसी को कुछ गलत भी लगे तो मैं क्षमा करता हूँ .जब मुझे ही आपत्ति नहीं तो फिर यह सब क्यों ? क्यों द्रौपदी ?
 ' और फिर इनकी दृष्टि -वही लक्ष्य-बेध वाली , अपने शस्त्रों पर एकाग्र ,कक्ष के और कुछ  पर दृष्टि भी नहीं गई .'
सब समझा रहे हैं- तुमने अपना धर्म निभाया कोई अपराध नहीं किया .
शस्त्र के बिना कैसे चलता .तुमने हम सब को अकल्याण से बचाया ,तुम गये ,अपने आयुध ले कर चले आये.हम सब के हित के लिये  .
पर अर्जुन को स्वीकार नहीं  -
'ये सब बहाने हैं, मुझे दंड से बचाने के लिये .नियम सबके लिये एक सा .क्या बड़ा ,क्या छोटा .अपराध जग विदित है .नहीं ,मैं नहीं मान सकता .'
 दंड शिरोधार्य कर वनवास की दीक्षा ली और चल दिए.
पांचाली का  अंतर हाहाकार कर उठा.
बारह वर्ष -पूरा एक युग! और मैं तो तुम्हें रोक  नहीं सकती .तुम्हारे साथ जा  नहीं सकती ,धनंजय.मत छोड़ जाओ ऐसे !
सब ने देखा ,सब ने समझा तुम्हारे जाते समय मेरी उद्विग्नता और तुम्हारी भी .
और हर एक को  लगा  - मैं थओ . फिर यह  व्याकुलता क्यों ?
मेरा प्रथम पुरुष वही और उसकी प्रथम स्त्री मैं .बाकी हिस्से-बाँट तो बाद में हुई ,
पार्थ, कैसे बीतेंगे ये बारह साल  बिन तुम्हारे !
और उन सबकी अपनी पत्नियाँ नहीं क्या ?वहाँ तो मैं कहीं नहीं .
हाँ ,धनंजय की भी हैं .तो क्या बारह वर्ष ब्रह्मचारी रहता ?कितनी तो उस पर मर मिटी होंगी .मेरा पार्थ है ही ऐसा.उर्वशी का प्रणय-प्रस्ताव अस्वीकार कर सके जो और बदले में शाप स्वीकार ले .है कोई ?
तुमने विवाह किये कृष्ण से सूचना मिलती थी .मुझे अच्छा लगा ,मैं भी तो यहाँ जीवन को भोग रही हूँ.
कैसे दोष दूँ उसे ?
बरस पर बरस बीतते जाते हैं .वैसे  रात में न सही दिन में तो पार्थ को देख लेती थी बीच-बीच में वार्तालाप हो जाता था .और अब यह दीर्घ अवधि .चार वर्ष बाद अर्जुन की बारी आती थी -एक वर्ष के लिये केवल ,उनकी होती थी मैं वह मेरे होते थे  वे ,उतना ही अपना भाग समझ कर मन को समझा लिया था .पर...विधाता को उतना भी स्वीकार न हुआ .
भाइयों पर कोई अभिशाप पड़े तुम से देखा नहीं जाता  .
पार्थ , तुम क्यों हो इतने कर्तव्यपरायण ,इतने स्नेही ,इतने सहृदय !


*
(क्रमशः)

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह श्रृंखला न जाने कितने प्रश्न छोड़ जाती है और न जाने कितने ही उत्तर दे जाती है.
    अद्वितीय, अद्भुत शब्द कम हैं आपकी इस अभिव्यक्ति के लिए.

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  2. द्रौपदी के मन के भावों को बहुत सुंदरता से उकेरा है ... बहुत दिन बाद आई आपकी पांचाली पर पोस्ट ...

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  3. शकुन्तला बहादुर13 अक्टूबर 2011 को 7:55 pm बजे

    आज लम्बी अवधि के बाद "पांचाली" पढ़कर मन प्रफुल्लित हो गया,जैसे कोई खोया हीरा मिल गया हो। पांचाली के अन्तर्मन की गहराइयों में प्रवेश करके उसके सूक्ष्माति सूक्ष्म मनोभावों को अतीव सहजता से चित्रित करने की अद्भुत कला आपके लेखन का अंग है। मन अनायास ही द्रवीभूत हो उठा-पांचाली की स्थिति पर। समाप्ति परमन खोया खोया सा हो गया।

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  4. pahli bar is blog par pahunchi hun. aabhar unka jinhone mujhe is blog se parichit karvaya.

    abhi 11v kadi padhi hai peechhe ka padhna abhi baki hai.

    ek baat jaanNa chaahti thi kya ye sab saty katha ke satyapit prasang hain ?

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  5. अनामिका जी,
    आप आईं ,मैं आभारी हूँ.
    ये सब महाभारत के प्रसंग हैं,मैंने केवल अपनी कल्पना से उन्हें सजीव और सज्जित करना चाहा है .चित्रण कितना सफल और प्रभावी रहा यह निर्णय सुधी पाठकों का !

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  6. pratibha ji sach kahu aap jaisi guni aur mujh se badi aapko naam se pukarna acchha nahi lag raha.

    shukriya aapne mere prashna ka uttar diya.

    ek sanshay tha. apke blog me panchali ki 4 & 5th kadi feb.me hai aur uske baad seedhi 8th kadi hai march me. 6 & 7 nahi mil rahi...agar vo he to pls. mujhe link bhejiye.

    mere mail id Anamika7577@gmail.com par bhi is link ko bhej sakti hain. intzar rahega.

    sari kadiya padh li hain.

    bahut gyan prapt hua in sab ko padh kar. aapki tareef me kuchh kehna soorye ko deepak dikhane wali baat hogi.

    is blog me har lekh/ upanyaas ko waqt nikal kar padhne ka bharsak prayas karungi.

    aabhar.

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  7. रोचक, सरस और संतुलित शैली में लिखा गया यह प्रसंग एक बार फिर बहुत ही अच्छा लगा।

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  8. पूरा ही प्रसंग रोचक है। द्रौपदी का मन अर्जुन के लिए कितना व्याकुल हो रहा है..ये देखकर अनायास ही कर्ण का स्मरण हो आया।मन में अचानक ये विचार कौंध गया प्रतिभा जी कि ,'कर्ण की मृत्यु के बाद द्रौपदी के हृदय की क्या दशा रही होगी?'...बहुत अधीर रहेगा मन आपकी लेखनी से द्रौपदी के मनोभाव जानने के लिए।
    बहुत दिनों बाद पांचाली पढ़कर मन संतुष्ट हुआ।
    बहुत आभार !

    (इस पोस्ट को पढ़ने के पहले वापस से पुरानी पोस्ट पढ़ीं थीं प्रतिभा जी, और अनामिका दीदी का कथन एकदम सही पाया....भाग ६ और ७ नहीं मिले मुझे भी। हालाँकि मैंने कई बार पांचाली पढ़ा होगा....मगर कभी भी इस बात पर ध्यान नहीं गया। शायद गणना में कुछ आगे पीछे हो गया है...और यदि ऐसा नहीं है प्रतिभा जी...तो विनम्र निवेदन रहेगा कि आप हम सबके लिए भाग ६ और ७ को पोस्ट कीजियेगा,हम लोग भी पढ़ना चाहेंगे। :(:( ...)

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  9. अनामिका जी और तरु जी ,
    इधर'पांचाली'को में बहुत दिन छोड़े रखा था , आज मैंने भी खोज-बीन की-भाग 6 और 7 नहीं थे.मुझे लगता है दूसरे वाले उपन्यास के इन्हीं नंबरों से भ्रमित होकर ग़लत नंबर डाल गई .क्योंकि पोस्टों के क्रम में कहीं लंबा व्यवधान नहीं है .
    शुरू में दोनो उपन्यासों पर बारी-बारी से लिख रही थी,इसलिये यह गड़बड़ी हो गई .
    अब one thing at a time के सुनहरे नियम का पालन कर रही हूँ .
    असुविधा के लिये क्षमा करें.आपने इतना ध्यान देकर मुझे सजग किया -आप दोनों की आभारी हूँ !

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  10. लौटा हूँ, और अतीव हर्षित है मन इतना सूक्षा, इतना गहन विवरण पढ़ कर।
    मुग्ध हूँ।

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