रविवार, 11 जुलाई 2021

राग-विराग -15..

राग-विराग 15.

"भौजी, भौजी हो . . . कहाँ गईं? . . देखो तो तुम्हारे लिये क्या आया है?"

साड़ी के पल्ले से भीगे हाथ पोंछती रत्नावली आते-आते बोली, "बड़े उछाह में हो देवर जी, ऐसा क्या ले आये हो?"

देखा, दुआरे नन्ददास खड़े, दोनों हाथों में ग्रंथ सँभाले, रत्ना की गति में वेग आ गया, "तैय्यार हो गई! वाह देवर जी कब से आस लगाए हूँ . . कुछ अंश पढ़े थे, टोडर भैया ने कहा था, प्रतियाँ तैयार करवा रहा हूँ पूरी होने पर, पहले मुझे भेजेंगे . . . " कहती-कहती वह आगे बढ़ आई, दोनों हाथ पसार ग्रहण कर माथे से लगाया . . मुख पर अपूर्व प्रसन्नता छा गई थी।

तुलसी के रामचरितमानस की प्रस्तावना के कुछ अंश और राम-विवाह आदि के कुछ प्रसंगों को रत्नावली ने पढ़ा था और पूरी कथा पढ़ने की इच्छा व्यक्त की थी।

तब तुलसी पण्डितों के कपट व्यवहार से खिन्न थे और उसे अपने मित्र टोडरमल के पास सुरक्षा हेतु रखवा दिया था। उसकी हस्त-लिखित प्रतियाँ बनवाई जा रहीं थीं, जिसमें पर्याप्त समय लग रहा था। टोडर ने मित्र-पत्नी को आश्वस्त किया था कि जल्द ही एक प्रति उनके पास पहुँचवा देंगे। उन्होंने तुलसी से कह कर नन्ददास के हाथ रत्नावली को भिजवा दी थी।

"पधारो, बैठो देवर जी, अब प्रसाद पा कर जाना। आज तो तुमने सञ्चित मनोकामना पूरी कर दी।"

रामचरितमानस यथा-स्थान पहुँचा कर तुलसी का मन अमित तोष से भर गया - अब  कहीं रतन को कुछ उसके मन का दे पाया हूँ. . 

"अब तो पुस्तकें ही मेरा साथ निभाने को रह गई हैं," रत्ना ने नन्ददास से कहा था, "अपने को इसी प्रकार लगाए रखा है। नारी हूँ न, मनचाहा घूमने की सुविधा नहीं, किसी से मेल-जोल बढ़ाना मेरे लिए उचित नहीं। मानसिक ऊहापोह ही बचा था। जीने के लिये कुछ सहारा तो आवश्यक है।" 

"सच में दद्दू, गीता और पुराण से लेकर अब तक जाने कितने ग्रंथ उन्होंने पढ़ लिये हैं। समय की कमी कहाँ उन्हें, कहीं जाती-आती तो हैं नहीं। भाई -भतीजे अपने साथ चलने का आग्रह करते हैं, भौजी किसी के बुलाए नहीं जातीं।  कह देती हैं ’अभी तो एक ढर्रा बना हुआ है यहाँ जब तक हूँ, चलाती हूँ, जिस दिन मुश्किल लगेगा, चली आऊँगी। यहाँ देवर लोग भी सुध लेते हैं, मेरा ख़ूब ध्यान रखते हैं, संदेशे आते-जाते रहते हैं।’ वे कभी कहीं नहीं गईं।" 

कोई मुख से न कहे तो क्या, तुलसी जानते हैं वह क्यों नहीं जातीं। एक बार जा कर तो जनम की व्याधि पाल ली, अब किस मन से जाए। यह भी जानती है रतन, कि उस एक घटना के बाद तुलसी उधर की चर्चा भी नहीं करना चाहते। 

और रतना ने कभी उन्हें उनकी मर्ज़ी के खिलाफ़ चलाना नहीं चाहा।

एक गहरी साँस निकल गई। 

नन्ददास कहे जा रहे थे, "भौजी ने त्याग का जीवन बिताया है। किसी से शिकायत नहीं, किसी से लेना-देना नहीं, जो मिला उसी में निभा लिया। अब देह जर्जर हो गई है। अपना कष्ट किसी से नहीं कहतीं। कितनी ही अस्वस्थ हों अपना नेम-धरम, व्रत-उपासना में कमी नहीं होने देतीं। इतनी उमर हो गई कभी किसी से कोई आस नहीं रखी।

"इतनी दुर्बल हैं। बस, अपने मनोबल से चले जा रही हैं मुझे डर लगता है । दद्दू अचानक कहीं . . . "

एकदम धक् से हो गये तुलसी। यह तो कभी कल्पना भी नहीं की थी। बहुत छोटी है वह मुझसे।

और फिर एक दिन अचानक ही चक्कर खाकर गिरने के बाद रत्नावली निढाल हो गई। उसका भतीजा अपनी ससुराल में आया हुआ था, जो नन्ददास के पिता के घर के समीप थी। समाचार सुन कर चन्दहास के साथ ही वह भी आ गया। रत्नावली की इच्छा-शक्ति कहें या तुलसी का अन्तर्बोध, वे अगली सुबह, उपस्थित हो गये थे। 

परिवार और परिजनों में रत्नावली का बहुत सम्मान था। सूचना फैल चुकी थी. . 

किसी ने कहा, "लो, बे आय गये।" 

मुख्य द्वार खुला था, अबाध अन्दर चले आये उस घर में जहाँ विगत जीवन की स्मृतियाँ चारों ओर बिखरी थीं। 

शैया पर लेटी क्षीण काया कुछ चेती, आँखें खोलीं, "आ गए?" मुख पर प्रकाश-सा छा गया, लगा  रत्ना मुस्कराई ।

जैसे दीप की लौ बुझने से पूर्व दीप्त हो उठी हो।

और फिर वर्तिका की ज्योति शान्त हो गई।

रत्ना की वयोवृद्ध भाभी बोलीं, "हमारी रतन सुहागिन गई है," अश्रु-प्रवाह रोके नहीं रुक रहा, "सोलहों सिंगार सहित, सिन्दूर मंडित हो चुनरी ओढ़े जा रही है। ननद नहीं, मेरी तो बिटिया समान थी वह, मुझसे पहले कैसे चली गई?" 

भाई, मुँह फेर कर आँसू पोंछ लेते हैं।

कुछ सूझ नहीं रहा तुलसी को , कर्म-काण्ड में जो बताया गया गया यन्त्रवत् करते गये। 

चलते समय चौकी पर उसके लिखे कुछ पृष्ठ, एक दैनन्दिनी और पीली बकुचिया में सैंती मानस की प्रति अपने साथ रख लिये।

अयोध्या का गुप्तद्वार घाट!

इसी घाट से सरयू में उतर गये थे श्रीराम।

मन अकुला उठता है, . . . कैसा लगा होगा प्रभु को, जानकी माता की याद आई होगी!

हाँ, यहीं से जल-समाधि ले कर . . . प्रभु राम ने वैकुण्ठ-गमन किया था।

तुलसी इस घाट पर घण्टों बैठे रहते हैं। सरयू-जल बहता चला जाता है, लहरों का नर्तन अविराम चलता है। कल-कल ध्वनि के साथ अद्भुत शान्ति वातावरण में व्याप्त रहती है। समीपस्थ अनेक छोटे-बड़े मन्दिर हैं, पर घाट पर कहीं कोलाहल नहीं . . . . 

चुपचाप बैठे तुलसी को लगता है, जल की-धारा गहन हो उठी है। प्रवाह की लय थम सी गई हैं। कुछ वर्तुलाकार होती लहरें वहीं-वहीं घूम रही हैं मध्य में एक विवर बनाती-सी, जो क्षण भर झिलमिला कर जल-मग्न हो जाता है। 

कितने बिम्ब बिखर-बिखर कर अतल में विलीन हो जाते हैं।

चतुर्दिक् सन्नाटा छाया है। कहीं कोई नहीं।

अनोखी विरक्ति से तुलसी कह उठते हैं–

"अर्थ न धर्म न काम रुचि पद न चहौं निर्वाण"


मुँदी आँखों से आँसू बह चलते हैं, पोंछने का भान नहीं।

वह अपने भीतर ही खोये हैं। इस घाट से उठने की इच्छा नहीं होती, न रात का भान रहता है न दिन का।

मन जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिरता है।

इतने दिन से अकेले रह रहे हैं लेकिन इतना एकाकीपन कभी नहीं खटका।

सब छोड़ते गये। रहीम गये, टोडर गये और अब रतन भी बिदा ले गई।

मन में प्रश्न उठता है–

’हम सोच लें कि किसी को जीवन से निकाल दिया तो वह सच में निकल जाता है क्या? कभी-कभी लगता है वह गुम हो कर भीतर कहीं बैठ गया है।’ 


मन ही मन कहते हैं तुलसी, ’तुम आयु पाकर गई हो, अभागिनी नहीं थीं रतन तुम! हमारे प्रारब्ध में यही था। 

'पता नहीं मैंने जो किया वह सही था या ग़लत पर उसके सिवा उस समय मैं और कुछ नहीं कर सकता था। ऐसा क्यों नहीं किया-वैसा क्यों नहीं किया—यह सब बाद की बातें हैं। उस समय कुछ नहीं सूझता . . मैं विवश था जो नियति मुझे वहाँ तक लाई थी उस पर मेरा कोई बस नहीं था। मैंने स्वयं को ऐसी स्थितियों में पाया जो मेरे लिये भी बहुत विषम और अबूझ रहीं थीं। उनसे कैसे पार पाया, मैं स्वयं नहीं जानता। पार पाया भी कि अभी भी नियति के पैने दंश मुझे झेलने हैं।

'अब मेरे पास खोने को कुछ नहीं . . . मेरा जीना पता नहीं कितना और है। तुमसे कई वर्ष बड़ा हूँ, बुढ़ापा आ गया है देह क्षीण होती जा रही है। रह-रह कर रोग फेरा लगा जाते हैं। हाथ पाँवों में दम नहीं रहा। कोई नहीं जिसे टेर लूँ। रहूँगा जब तक राम रखेंगे, जैसे रखेंगे। रहना तो पड़ेगा ही। बुढ़ापे में कष्ट झेल-झेल कर लाचार घिसटना जितना कम हो उतना अच्छा। लेकिन वह भी हमारे बस में नहीं।'

वे सोच-लीन हो जाते हैं – ’प्रारंभ से कुछ भी तो अपने बस में नहीं। गुरु-कृपा से कुछ चेता पर सांसारिक व्यवहार में कोरा रहा था, वहीं मात खा गया। जो पाया था, अपने ही आवेग में आ कर गँवा बैठा।' 

दीर्घायु पाई थी तुलसी ने। कष्टों से भरा लम्बा जीवन झेलते बार-बार मन में घुमड़ता, ’मैं जनम का अभागा जहाँ रहूँगा अनिष्ट मेरे साथ चलेगा!’

सरयू की लहरों का कलनाद सुनते तुलसी बैठे रहते हैं। काग़ज़ों पर जो पढ़ा था मन में गूँजने लगता है, लगता है रतन बोल रही है, उठती-गिरती लहरों में एक मुख प्रतिबिम्बित होने लगता है। विभिन्न मुद्राएँ अनेक भंगिमाएँ पल-पल बदलती रहती हैं और वही सुमधुर स्वर रह-रह कर सुनाई देने लगता है . . 

'तुमने मुझे अपने मानस की प्रति भेजी थी, मैं गद्‌गद्‌ हो गई। इतनी अनुपम भेंट किसी पति ने अपनी पत्नी को नहीं दी होगी।'

यही तो पृष्ठ के कोने पर लिखा था रत्ना के अक्षरों में।

आगे और भी बहुत कुछ, हाँ कानों में वही ध्वनित होने लगता है–

’....इन दिनों उसी का अवगाहन करती तुम्हारे मानस को थाहने का यत्न करती हूँ।

'तुम्हारे कातर मानस का दर्पण रामचरितमानस, एक विलक्षण रचना है। पढ़ती गई, मुझे लगता रहा, मैं तुम्हारे साथ हूँ, जहाँ तुम हो, मैं हूँ। भौतिकता की भावनात्मक परिणति, तुम्हारी अपूर्व निष्ठा का सबसे सुगन्धित प्रसून!'

सुनसान रात में किसी पक्षी की पुकार गूँज गई। तुलसी चेते।

अक्षरों में वाणी होती है क्या? रह-रह कर कौन बोल जाता है।

रतन बोली कि वे अक्षर स्वरित होने लगे?

हाँ, रतन के सुन्दर अक्षरों में शब्दशः यही लिखा था, तुलसी याद करते हैं और कानों को उसके के प्रिय स्वर का आभास होने लगता है। 

घाट पर आई रमणियों के वार्तालाप में, कभी ऐसा लगता है वह बोल रही है। सचेत हो कर सोचते हैं—अरे, वह यहाँ कहाँ?

सरयू की लहरों में कुछ बिम्ब उभरते हैं, लगता है कोई आँखें झाँक गई हैं, कुछ स्वर मुखर हो कर कर्ण-कुहरों में ध्वनित होने लगते हैं–

’तुम माँ जानकी का रूप वर्णन कर रहे थे और मैं, तुम्हारे मन को थाह रही थी। समझ रही थी। देह के सौन्दर्य में कैसी दिव्यता का संचार कर दिया तुम्हारी पावन भावनाओं ने। उसका उपयोग जिस निर्मल निर्दोष मन से तुम करते गये– पढ़ कर लगा नारी तन में कुछ भी ऐसा नहीं जो गर्हित हो। सांसारिकता जहाँ दिव्यता में परिणति पा ले, वहाँ देह एक माध्यम रह जाती है, एक उपकरण बन कर। काया निरर्थक नहीं रही।

’इन अनुभूतियों में, इन वर्णनों में, अपनी विद्यमानता पहचान रही हूँ। तुमने कहा था न..."रतन समुझि जनि विलग मोहि," यहाँ उपस्थित हूँ मैं भी, तुम्हारे साथ—तुम्हारे लेखन में समाहित हो कर। अपने को पहचान रही हूँ, सच, मैं तुमसे विलग नहीं हूँ।' 

हाँ, उन पन्नों में जो लिखा था बार-बार पढ़ कर भी नया सा लगता है। रतन का स्वर कानों में समाने लगता है। ज्यों अंतर्मन ने उसका संवाद पा लिया हो।

उसने कहा था, ’तुम्हारे भीतर क्या घटता है मैं समझ रही हूँ, लग रहा है इन अभिव्यक्तियों से बहुत गहरे जुड़ी हूँ । अनेक स्थितियों का अनुभव कर रही हूँ। मैं रामचरित के छन्दों को पढ़ती जा रही हूँ, रोमाञ्च हो आता है, सारी भौतिकता, भावना में ढल गई है, तन्मय हो जाती हूँ। माँ सीता पर बीता लगता है ज्यों मेरा ही बीता हो। 

’एक अवधि तक तुम्हारे साथ रही हूँ, उसे अनुभव किया है, आज उसकी निर्मल-शीतल भावमयता में डूबी जा रही हूँ।

’वही प्रेम राम-जानकी के जीवन-कूलों से टकराता, पावन गंगा-सा लहरा रहा है – तृप्त हो गई मैं। कुछ भी आरोपित नहीं सब, अनुभूत, अंतःप्रसूत, हृदय के गहन तल में निष्पन्न मुक्ताओं सा उज्ज्वल, निर्मल!

’तुम्हारी साधना को प्रणाम करती हूँ।

’मुझे लगता था मेरा नारी जीवन अकारथ हो गया है, सबसे प्रमुख कार्य योग्य संतान देना संभव नहीं हुआ। आत्म का विस्तार करने को साधन न मिले। आत्मोन्नयन का यत्न लगातार करती रही, लेकिन अब जान रही हूँ कि अपने स्तर पर मैं कभी महत्वहीन नहीं रही। इस सार्थकता बोध के लिये, जीवन की संध्या में ही सही, मैं तुम्हारा ऋण अनुभव करती हूँ, उदार हृदय की विशालता को 

नमन करती हूँ। अब तक स्वयं को समझने का जतन करती रही अब देख लिया मैंने कि मेरा सीमित अस्तित्व विस्तार पा गया है तुम्हारे मानस की रतन व्याप्ति पा गई है। अब समय आ गया है अपने को समेट रही हूँ। 

’जाने-अनजाने अपनी दीन-हीनता को तुमने इतना विराट्, इतना व्यापक कर लिया कि सृष्टि का ऐश्वर्य उसमें प्रस्फुटित हो उठा।’

बहुत धीमे स्वरों में कहती है, ’अपना उज्ज्वल पक्ष तुमने राम जी को समर्पित कर दिया, उनके नाम लिख दिया . . धन्य हो गये तुम और साथ में मैं भी।’

अपने अंतःर्वार्तालाप में खोये तुलसी को समय का भान नहीं होता।

मेरा क्या? जिनको साथ देना था और जिसका साथ वाञ्छित था वह सब छोड़ गये।

मन में कचोट उठती है – मैंने भी तो उसकी उपेक्षा की।

नन्ददास के हाथ उपदेशों के संदेश लिख कर भेजे थे, उन्हीं में एक था –

"तू गृह श्री हृी धी रतन, तू तिय सकति महान।

तू अबला सबला बनै, धरि उर सती विधान॥"

बड़ी बातें सभी सुना सकते हैं मन को समझे ऐसा कोई है क्या?

एक वार्तलाप अविराम मन ही मन चलता रहता है . . 

कभी बड़ी निराशा से भर उठते हैं, शरीर निर्बल और सामर्थ्य सीमित हो तो बार-बार मन का दैन्य उमड़ता है। रोगों ने अपना स्थान चुन लिया है, कंधे जकड़ जाते हैं, हाथ पूरा घूमता नहीं। रात को ऐसा पिराता है कि चैन नहीं पड़ता।

अंतर्मुखी मन जब बहिर्मुखी हो स्थितियों पर विचार करता है तो कोई समाधान नहीं मिलता।

मैंने रामराज्य की परिकल्पना साकार करनी चाही थी। अपने मानस में सँजोई कितनी आशाएँ वहीं समो दी हैं। सब कुछ वहाँ व्यक्त कर दिया। लगता है अब कहने को कुछ नहीं रहा। संसार का चलन देख बड़ी निराशा होती है, न आचार रहा न संस्कार। अब तो बच्चों को सचेत करने की ओर कोई ध्यान भी नहीं देता। भोजन-कपड़े और आश्रय दे कर कर्तव्य पूरा समझ लेते हैं। कुल धर्म और रीति-नीति सदाचार की सीख कौन देता है?

धर्म-गुरु, अपनी-अपनी साधने में लगे हैं। समाज किधर जा रहा है किसी को चिन्ता नहीं। सबको अपनी पड़ी है। न बाप-बाप बन पाया न बेटा बेटा। सब अपनी-अपनी राह जा रहे हैं कोई चेतानेवाला, राह दिखानेवाला नहीं।

समाजिक विसंगतियों और उथल-पुथल से खिन्न तुलसी के मन को राम जैसे निस्पृही नायक में युग का त्राणकर्ता परिलक्षित हुआ जिस का सारा जीवन जन-कल्याण के हेतु समर्पित रहा. राजा थे राम, राज-धर्म पूरी तरह निभाया। जहाँ व्यक्तिगत संबंध आड़े आये वहाँ राज-धर्म जीत गया। 

एक गहरी साँस लेते हैं तुलसी।

घोर अंधकार में एक प्रकाश किरण झलकी।

और तुम, जिसके लिये सब कुछ त्याग आये वह तुम्हारे साथ है, उसे पुकारो। 

लगा वह कह रही है, ’किसी और के आगे दैन्य क्यों, अपने परम समर्थ स्वामी को पुकारो, अपनी विनय उन चरणों में धर दो , वे ही समाधान करेंगे. .

’सारे सभा-जनों के बीच प्रभु के दरबार में अर्ज़ी लगेगी तो उसे बिना विचारे नहीं रहेंगे।'

राम का दरबार, दीन की अर्ज़ी? 

तीनों बंधु, पवन-पुत्र, सभी देवता सभा में विराज रहे होंगे, अर्धासन पर माँ जानकी सुशोभित होंगी।

वहाँ उन सामर्थ्यवानों के बीच मेरी क्या बिसात!

तो क्या? अंतर्मन की पुकार निष्फल रहेगी?

मैं, सबसे अनुनय करूँगा।

और जगन्माता सीता करुणामयी हैं। विनती करूँगा अनुकूल अवसर देख, प्रभु राम से मेरी चर्चा कर दें। तभी मैं अपनी अर्ज़ी सामने रख दूँगा।

उस दरबार की मर्यादा के साथ, सभी को सादर प्रणाम करते हुए, अंतर्निहित भावों से रच कर अपनी विनय की पत्रिका उन चरणों में धर देनी है मुझे . . 

हाँ प्रभु, यह तुलसी भी कम मुँह-लगा नहीं है, अपनी-सी करेगा ज़रूर!

परम धुनी तुलसीदास ने सोच लिया, सो सोच लिया। अब वह श्रीराम के दरबार में अपनी अर्ज़ी (विनय पत्रिका) पर सही करवा कर ही दम लेगा, इसके लिये उसे प्रत्येक जन की चिरौरी क्यों न करनी पड़े! 

(समाप्त)



गुरुवार, 24 जून 2021

राग-विराग -14.

*

गोस्वामी तुलसीदास कोरे धूनी रमाने वाले संत नहीं थे, जिसे केवल  अपनी मुक्ति की चिंता सताती. वे ऐसे संत थे जिसका हृदय लोक-जीवन में संत्रास देख कर व्यथित होता था. उनके आऱाध्य श्रीराम ने स्वयम् अपनी प्रिय प्रजा के हित-संपादन के लिये  अपने सुख को बिसार दिया था, वे मात्र राजा नहीं, समस्त लोक में व्याप्त हो, लोक के विश्वास  और संवेदना में छा गये थे. श्रीराम का यही रूप तुलसी का आदर्श रहा. 

जब नन्ददास ने कहा, 'दद्दू ,गृहत्यागी साधु हो कर भी  असार संसार पर  दृष्टि रखते हो?' .

तुलसी मुस्कराये ,'क्यों नन्दू,संत क्या केवल अपना लाभ देखता है? मेरी दृष्टि में तो वह स्वयम् हानि-लाभ,सुख-दुख,निन्दा-स्तुति से परे है. संत का जीवन समाज से उदासीन रह कर नहीं, समाज को सही राह दिखा कर सार्थक होता है'.

उन्होंने अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया था -

'जीने की कला सिखा गये जो ,ये जीवन अब उन्हीं प्रभु की धरोहर है, और उन्हीं को समर्पित है.'

'सिया-राममय लोक को असार कैसे कहूँ? इस लोक के जीवन को सँवारना मेरे लिये राम-काज है .जन-जन में प्रभु राम समाए हैं. श्री राम ने ,धर्म और नीति के लिये जीवन धारण किया. लोक  कल्याण के लिये श्री राम प्रभु आजीवन तपे. उनका महत्व जितना मेरी समझ में आता जा रहा है,उतना ही उद्घाटित होना शेष रह जाता है.' 

नन्ददास से वार्तालाप करते समय एक बार उन्होंने कहा था,'मैंने कब कहा कि मैं दूध का धुला हूँ. मैं तो लिख कर स्वीकार करता हूँ कि मैं पुराना पातकी हूँ. पर श्रीराम की शरण में आ गय़ा हूँ .....अब तक का जीवन नसाया ,अब नहीं नसाना चाहता. अपने सारे विगत कर्म मैंने उन्हीं के चरणों में अर्पित कर दिये ,अब अपने लिये कुछ नहीं करूँगा, सब कुछ उन्हीं के निमित्त होगा.

'मैं, दुर्बल प्राणी ,उन्हीं से संचालित हो रहा हूँ .वापस लौटना संभव नहीं. लौटने का मतलब दुर्बलताओं के आगे समर्पण, उसी मोह-माया में लौट जाना. वहाँ से बहुत दूर निकल आया हूँ, अब दिशा परिवर्तन संभव नहीं. मैं नहीं कहता कि मैंने सब ठीक किया. लेकिन अब मैंने श्रीराम को हृदय में धारण कर लिया है -सांसारिक कामनाएँ मेरे लिये त्याज्य हैं.'

 नन्ददास  ने यह भी पूछा,' काहे दद्दा ,राम जी औऱ कन्हैया जी में काहे भेद करते हो?'

उन्होंने तुरन्त प्रतिप्रश्न किया,' कौन से कृष्ण जी ,नन्दू ?  

 'पीन पयोधर मर्दनकर्ता कृष्ण? वस्त्र-हरण कर अभिसार करते कृष्ण? यह कैसा लम्पट  नायक बना डाला? किस रूप में याद कर मगन होते हो,चीर-हरण ,रास-लीला,अभिसार या व्यभिचार?'

'इसमें कन्हैया जी का क्या दोष? ये तो लोगों ने अपनी रुचि से ढाल लिया है.' 

'व्यवहार में जो स्वरूप बन गया है वही तो असली समस्या है. लोक में वही प्रत्यक्ष है, आँखों के सामने ऐसा व्यक्तित्व क्यों रहे कि कोई अपने अनुसार ढाल ले? लोक-रुचि को क्या कहें ? पर जीवन में इतनी विभीषिकाएँ हैं ,उनसे छुटकारा दिला सके, ऐसा महानायक पूज्य है. कहाँ गीता का ज्ञान, अनासक्ति और कर्मयोग ,और कहाँ रास-रंग, छप्पन-भोग, दान-मान लीला और अभिसार प्रसंग.'

नन्ददास के साथ अनेक बार उनका वार्तालाप होता था ,जिससे उनका दृष्टिकोण स्पष्ट होता था होता था. उनका कहना था -

'कर्मयोगी कृष्ण का स्वरूप ही विकृत कर डाला गया .जन्मभूमि पर गाये जानेवाले अश्लील गीत कैसे सबके मुँह पर चढ़ जाते हैं! उनकी निम्नवृत्तियों का पोषण करते हैं और लोग आनन्द नहीं, मज़ा लेते है. स्वकीया त्याज्य हो गई और परकीया-प्रेम की महिमा गाई जा रही है.समाज में व्यभिचार को पोषण मिल रहा है.. हम अकेले  नहीं ,और क्योंकि परिवार बृहत्तर समाज का ही एक घटक है. देखो न, सनातन परंपराओं को भंग कर हमारा समाज पतन की ओर जा रहा है और हम आँखें मूँदे बैठे हैं. क्या कवि का कोई दायित्व नहीं?'

'बड़ा अनर्थ हुआ श्रीकृष्ण के साथ. उनक .जीवन के अर्थ ही बदल दिये गए. जब कवि की यह प्रवृत्ति होगी तो लोक में भी वही सन्देश जाएगा. जाएगा क्या, बल्कि जा ही रहा है. 

  'नहीं नन्दू, मुझसे नहीं होगा. मुझे धनुर्धारी राघव में ही सारी समस्याओँ का समाधान दिखाई देता है.मैंने अपने सारे बोध श्री राम को अर्पित कर दिये हैं. और अपनी सारी वृत्तियाँ राममय कर लेना चाहता हूँ 

 मैंने अपनी निजता उन्हें सौंप दी ,कि भला या बुरा जैसा हूँ वे ही सँभालें.अब मेरा अपना कुछ नहीं. 

जो बीत चुका वह भी उन्हीं चरणों में अर्पित कर चुका हूँ.' 

मन ही मन कहते हैं तुलसी -हे प्रभु, मुझे संसार का नहीं, तुम्हारा रुख़ देखना है..

तुलसी समझ गए हैं कि दुर्बलताओं को मौका मिलते ही वे प्रबल होने लगती हैं. और मन बहाने गढ़ने मे बहुत कुशल है. 

.नन्ददास को समझाने का प्रयत्न करते हैं. 'मन ऐसा उपद्रवी है कि इन्द्रिय सुखों की ओर ले जाता है. लगाम दिये बिना बस में नहीं आता.जरा छूट मिली कि भागचलता है और सारे भान भुला देता है. सचमुच नन्दू, मैं अपने ऊपर विश्वास नहीं करता बहुत धोखा खा चुका हूँ. अवसाद की छाया छोड़,वह रात्रि बीत गई. अब जाग गया तो आँखें कैसे बन्द कर लूँ?'

'...और जो लोग तुम्हारे साथ जुड़े हैं उनका कभी सोचा ?'

'नदी-नाव संयोग ,और कर्मों का लेखा .वह सब अब रामजी को अर्पण कर चुका. जिनके सान्निध्य से मति निर्मल  हुई. उनका ऋणी हूँ . हर ऋण इसी जन्म में चुका सके इतना समर्थ कोई नहीं. श्री राम भी कहाँ उऋण हो कर गये. इस धरती से प्रस्थान के समय भी माँ सीता की त्यागमय अनुपम प्रीति  को मन में धारे गये होंगे.'  

*

 संत तुलसीदास जी'' को ''रामचरित मानस'' रचने की प्रेरणा 'सरयू नदी' के किनारे मिली थी. बहुत समय तक सरयू  के उस घाट पर समाधिस्थ-से घण्टों उस प्रवाह को देखते रहते थे ,जिसमें श्रीराम ने जल-समाधि ली थी. 

प्रभु को, धरती से प्रस्थान करते समय, माता जानकी की याद आई होगी.मन में विचारणा चलती रहती .सघन भावों में डूबे नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगते, रात-दिन की सुध नहीं रहती . 

'सरयू' का एक नाम ''मानसी'' भी है. नेपाल के ऊपरी भाग में इसे मानसी कहा जाता है क्योंकि यह नदी ''मानसरोवर'' से निकलती हैं, इसीलिए गोस्वामी जी ने इस ग्रन्थ को  'रामचरित मानस' नाम दिया.


तत्कालीन शाहंशाह अकबर की ख़्वाहिश थी  जन-भाषा का कोई कुशल कवि की उसकी प्रशंसा में कसीदे कहे, जिससे उसकी लोकप्रियता  बढ़ने लगे. मानसिंह ने उसे सलाह दी, कि बनारस शहर का आत्माराम का लड़का अवधी भाषा में खूब लिखता है और  लोक में उसकी मान्यता है , लेकिन वह किसी के कहने नहीं लिखता .

राजा मानसिंह का जलवा जग-विदित था. अकबर ने तुरंत अपने दरबार के नवरत्नों में सम्मिलित करने हेतु तुलसीदास का नाम प्रस्तावित कर,उन्हें निमंत्रित करने हाथी की अंबारी सजा कर, बनारस रवाना कर दिया ,.

तुलसी दास समझ रहे थे, अकबर की अनायास मिली कृपा  उनके कार्य में बाधा डालेगी. पद या धन के प्रति यों भी उन्हें अनासक्ति थी. उन्होंने अकबर का प्रस्ताव स्वीकार न कर उसकी बेरुखी मोल ले ली.उनका उत्तर था - 

'हम चाकर रघुवीर के पटो लिखो दरबार,

तुलसी अब का होहिंगे नर के मनसबदार.'

उस विषम स्थिति में, परम मित्र टोडरमल ने उनका मनोबल बनाए रखने का पूरा प्रयत्न किया था. पहले भी जब पंडितों ने तुलसी पर जानलेवा हमला किया तो उन्होंने उनकी प्राण-रक्षा की थी। इतना ही नहीं बनारस के अस्सी घाट पर अपना एक भवन तुलसी के नाम कर दिया . 

तुलसी और उनके ग्रंथ रामचरित-मानस  को टोडरमल ने ही पण्डितों के षड्यंत्रों से बचाया और पूरा संरक्षण दिया था.

काशी के पण्डितों ने क्या कम बैर निभाया था? कैसे-कैसे कुचक्र रचे पर तुलसी का  कुछ बिगाड़ न कर सके .

1659 में टोडरमल का स्वर्गवास .हो गया .वे तुलसीदास के आत्मीयवत् रहे थे. अति सरलमना ,उदार-हृदय, टोडर ने विषम स्थितियों से कितनी बार तुलसी को उबारा था.उ नकी सन्तानों में भी तुलसी का बहुत मान रहा था. टोडरमल की मृत्यु ने उन्हें बहुत अकेला कर दिया.अनायास ही एक दोहा तुलसी के मुख ले निकल पड़ा -

'रामधाम टोडर गए, तुलसी भए असोच,

जियबो मीत पुनीत बिनु, यहै जानि संकोच.'

*

(क्रमशः)





शनिवार, 12 जून 2021

राग-विराग - 13.

 *

जब भी नन्ददास का इधर चक्कर लगता है, भौजी के हाल-चाल लेना नहीं भूलते. जानते हैं दद्दू के समाचार पाने को वे भी व्याकुल होंगी. देवर होने का अपना फ़र्ज़ बख़ूबी निभा रहे हैं. यही चाहते हैं उनकी कुछ सहायता कर सकें.

इस बार उन्होंने रत्नावली के पीहर की बात छेड़ दी. पूछा, "अच्छा भौजी, तुम अपने मायके जाना चाहो तो हम जमुना-पार उधर ही जा रहे हैं, तुम्हें पहुँचाते जायेंगे, तीन-चार दिन बाद लौटना भी होगा."

"देवर जी, मायके जाने की बात करते हो? पर पहलेवाली बात अब कहाँ रही? पहले सखियों से मिलने का बहुत मन करता था, शुरू के दो-एक बरस, रीति-रिवाज़ के अनुसार जाना-आना हुआ था, फिर सब छूट गया."

नन्ददास बोले, "हमारी अम्माँ कहा करती थीं, मेहरारू तो दो घरों की होती है. सो हमने सोचा भौजी को मायके की याद आती होगी. उधर चक्कर लगाना चाहें तो हम हैं.."

"जिस साल तम्हारे दद्दू ने साथ छोड़ा, माँ तो उसी बरस सिधार गईं थीं. असली मायका तो माँ से होता है. पहले बहुत मन करता था. सखियाँ कोई दूर ब्याही हैं कोई पास, शुरू में सावन में आती थीं, तब भी कहाँ जा पाती थी. वे मुझसे शिकायतें करती थीं, विद्वान पति मिल गया तो हमसे मिलना भी शान के खिलाफ़ हो गया?" 

बोलते-बोलते मुख पर गहरी उदासी छा गई, नन्ददास चुप सुन रहे हैं.

कुछ क्षण रुक कर बोलीं, "अब वहाँ क्या है? वे सब चुप हो अपने-अपने घरों में समा गईं, किसी का किसी के लिये कोई अस्तित्व नहीं बचा."

नन्ददास को कैसे बताए कि तब और अब की स्थितियों में बहुत अन्तर है. तब जिनकी ईर्ष्या का पात्र रही अब उनकी दया-दृष्टि नहीं सहन होती. कोई सहानुभूति दिखाये यह भी गवारा नहीं. अब उन से मिलने में रत्नावली को संकोच लगता है. वे सब जो पूछते हैं, उसका उत्तर नहीं दे पाती. लोग परित्यक्ता समझते होंगे. यह दूषण बड़ा दुखदायी है.

वातावरण भारी सा हो गया था. कुछ देर दोनों चुप रहे. रत्नावली ने ही चुप्पी तोड़ी, "नहीं, नहीं,अब जी नहीं करता. तब की बात और थी. अब न वह मन रहा, न वह बूता."

नन्ददास ने आश्वस्त करते हुए कहा, "अरे नहीं भौजी, हमने तो बस इसलिये पूछा कि अगर कभी तुम्हारा मन करे तो हम हैं लाने ले जाने के लिए."

तुलसी के समान ही काशी में विद्याध्ययन करनेवाले, सरस छन्द लिखनेवाले नन्ददास कृष्ण-भक्त हैं, जहाँ रामभक्ति की अति मर्यादा और सेवक-सेव्य भाव न हो कर परस्पर साहचर्य की भावना अधिक है.

रत्नावली की क्षमताओं का उन्हें भान है. कभी-कभी माँग कर उनके दोहे पढ़ते हैं. कहते हैं, "भौजी, तुम कहीं भी दद्दा से कम नहीं हो. दोनों में तारतम्य बैठा होता तो काव्य का एक नया ही रंग विकसता."

अपने इस देवर के प्रति रत्ना का वात्सल्य भी कम नहीं . . .

"अरे, कहाँ वे और कहाँ मैं. हाँ बड़ी इच्छा थी उनकी संगति में रह कर पढ़ा-लिखा सार्थक कर सकती." 

"सच्ची भौजी, हमलोगों ने इतने साल गुरु से शिक्षा पाई तब इस योग्य बने तुम तो घर बैठे कविताई करती हो, क्या छंद, क्या व्याकरण कहीं कोई चूक नहीं और भाव-व्यंजना ऐसी कि गहरे उतर जाय." 

"ये मत कहो! मुझे शिक्षित करने में बाबा ने कोई कसर नहीं छोड़ी. बड़े-बड़े सपने देखे थे उन्होंने."

"हाँ, सो तो है."

"मन करता है बाहर के संसार को जानूँ, कुछ विचार-विमर्श करूँ, वे विद्वान हैं उस विद्वत्ता का कुछ अंश मैं भी पाऊँ. और उनका कहना है जब लिखूँ तब देखना.

"सच बात यह है देवर जी, कि भूमिकाएँ पहले से तय हैं, घर की है शरीर की तोषण-पोषण के लिये, और बाहर का संग-साथ होता है मन और बुद्धि के प्रसादन के लिये. यही परंपरा बन गई है. मैंने चाहा था पारिवारिक जीवन में भी थोड़ा बुद्धि-रस घुलता रहे, चर्चाओं का प्रसाद मुझे भी मिलता रहे. पर मेरे हिस्से में केवल घर और उसका चौका-चूल्हा आया ..."

कहते-कहते अचानक जैसे कुछ याद आ गया हो, "...अरे, चूल्हे पर दाल चढ़ा आई थी, तुम्हारी बातों में भूल गई," कहती हुई वह,शीघ्रता से रसोई की ओर चली गई.

चौकी पर रखे पर कुछ पन्ने खिड़की से आती हवा में बार-बार खुले जा रहे थे. नन्ददास ने हाथ बढ़ा कर उठा लिये.

कुछ दोहे लिखे थे, बीच-बीच में कुछ और पंक्तियाँ लिखी अधलिखी . . .

एक जगह लिखा था तो न्याय करो - तुम्हारी पत्नी हूँ सहचरी हूँ. मूढ़-सी रह केवल देह नहीं बनी रहना चाहती, मेरा मन और आत्मा भीतर ही भीतर कुलबुलाते हैं.

पन्ना पलटा ऊपर के कोने में कुछ लिखा था – कोई कुछ नहीं कर सकता, मुझे इसी घेरे में जीना है अपनी सीमा को पार कर जानेवालों को सबक़ सिखाना, लोगों को अच्छी तरह आता है, हर प्रकार का इलाज है उसके लिए..

भौजी के आने की आहट पा सारे पन्ने, यथावत् धर दिये.

चलते समय रत्नावली ने कहा था – 

"देवर जी, भूल जाना इन बातों को. ज़रा अपनापन, सहानुभूति पाई तो बह गई. मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं. बस मन है जो फूट पड़ा, मैं ठीक हूँ, खाना-कपड़ा मिलता है, अपनी सीमाओं से बाहर आकर बोल गई, क्षमा कर देना."

"अरे नहीं भौजी, तुमने कुछ ग़लत नहीं कहा... मैं समझ सकता हूँ." 

*

गृहस्थी में रह कर भक्ति का रूप ही और होता है. संन्यासी की भक्ति अलग प्रकार की हो जाती है. वहाँ परिवार है ही नहीं. रत्नावली को लगता है, मुझे तो राम के साथ पति और संसार के साथ राम चाहियें. उन्होंने जो संसार दिया उसे क्यों नकारें?

संसार में रह कर उसका निर्वाह भी उन्हीं की भक्ति कहलाएगा.

मन में ऊहापोह निरन्तर चलता है.

सोचती है, कहाँ तक धैर्य धरूँ? संतान-सुख मेरे भाग्य में नहीं, होती तो उसी में उलझी रहती, इतने में तुम आगे निकल जाते, मेरी पहुँच से आगे. और तुम घर के झंझटों से मुक्ति पाकर कहीं आगे पहुँच जाते पर वह स्थिति नहीं है. और केवल देह होने में मेरा मन विद्रोह करता है. अपने लिये आकाश चाहता है.

रत्ना ने एक बार कहा था– देवर जी, सुख भोग की कामना रही होती तो दो टूक बात कह कर उन्हें भक्ति की ओर क्यों प्रवृत्त करती? इच्छाओं पर संयम के लिये मन को दूसरी ओर मोड़े बिना कैसे चलेगा? यही सोच कर उन पर लगाम लगाने का प्रयत्न किया था."

अनायास ही एक गहरी साँस निकल गई.

नन्ददास जानते हैं, आर्थिक सहायता कभी लेंगी नहीं. कह देती हैं यहाँ कुछ बालिकाएँ मुझसे शिक्षा लेने आती हैं जो मिल जाता है मेरे लिये पर्याप्त है. तीज-त्यौहार सीधे आ जाते हैं, वस्त्र इत्यादि भी, जीवन-यापन का डौल हो जाता है.

रत्नावली को लगता था अपनेपन के लिये तरसता पति का मन, सब अपने अनुकूल पा कर तोष पा लेगा.. पूरा प्रयत्न किया था उसने.

उसे गर्व था, मेरे पति सबके जैसे नहीं, वे साधारण नहीं विशेष हैं. ये कुछ अलग प्रकार के हैं यह बात तो शुरू दिन से ही जान गई थी. विशेष जनों की अपनी विशेषताएँ होती हैं. जिस असामान्य स्थितियों में शैशव बीता वह ज़रूर कुछ प्रभाव छोड़ेगा ही . . . 

उसे पूरी सहानुभूति थी. जानती थी बचपन में बहुत कष्ट झेले और आज सबके लिये मान्य,आदरणीय, उदाहरणीय, इतने गरिमा संपन्न, पाण्डित्यपूर्ण. यह उनकी सामर्थ्य का द्योतक है.

शिक्षा, दृष्टि देने के साथ, रत्नावली को नये क्षितिज देखने की क्षमता भी दे गई थी. मूल-प्रवृत्तियों से आगे बढ़ कर मानसिक और बौद्धिक वृत्तियाँ भी सजग-सचेत हो गईं थीं. पूर्णतर जीवन की इच्छा ने जन्म ले लिया था. भरे-पुरे परिवार में पली संस्कारशील परिष्कृत, रुचि-संपन्न युवती थोड़ा अपने लिये भी सोच गई, ..बस, उससे यही ग़लती हो गई.

और तुलसीदास? जिस पौध को मूल से वाञ्छित पोषण न मिला हो, तो बहुत संभव है सहज-विकास कहीं न कहीं बाधित हो जाय. बालपन जिस विपन्न और सम्बन्धहीनता के शून्य में बीता वहाँ सुसंस्कारों की नींव कहाँ पड़ पाती? थोड़ा बड़े होकर गुरुजनों के सान्निध्य में जीवन को सही दिशा मिली थी. लेकिन पारिवारिक जीवन की पारस्परिकता कहाँ से विकसती. जो पाया उसके सेवन में संयत न रह सके. और घोर ग्लानि से ग्रस्त हो, गृहस्थ-जीवन को ही तिलाञ्जलि दे बैठे.

दस वर्ष से भी अधिक पति के साथ अंतरंग जीवन जी कर, रत्नावली उनकी क्षमताओं और दुर्बलताओं से भली प्रकार अवगत हो चुकी थी. घनिष्ठ सम्बन्ध ने आश्वस्त किया कि वह स्वाभाविक आदान-प्रदान में अपने लिये भी कुछ चाह सकती है. लेकिन यहीं धोखा खा गई.

रत्नावली की अभिव्यक्ति प्रखर और मुखर न होती, उसमें संवेदना की तीखी तड़प न होती तो तुलसी, वह तुलसी न होते जो आज हैं. तुलसीदास होते लेकिन रामचरित मानस, विनय-पत्रिका जैसे अनुपम ग्रंथ इस रूप में हमारे पास न होते. भक्ति का उदात्त रूप, वैराग्य के साथ लोक कल्याण की भावना, दाम्पत्य का इतना उज्ज्वल रूप, और जीवन के कुछ अत्यंत मार्मिक चित्रणों से हिन्दी साहित्य वञ्चित रह जाता.

नन्ददास सोच कर सिहर उठते हैं, नारी-जीवन की कैसी दुखान्ती कि पति हो कर भी न हो!

*

(क्रमशः)





(क्रमशः)


रविवार, 23 मई 2021

राग-विराग -12.

जीवन की लंबी यात्रा कर  वे रामबोला से तुलसी(दास) और तुलसी से गोस्वामी तुलसीदास तक की दूरी तय कर चुके थे .अनेक ग्रंथों का प्रणयन कर लोक में प्रसिद्धि पा चुके थे. उनका व्यक्तित्व यों भी प्रभावशाली था ,गौरवर्ण ,सुगठित लंबी काया अनोखा पाण्डित्य और समर्थ अभिव्यक्ति! वे मितभाषी थे ही, गहनता से पूर्ण-गंभीरवाणी प्रभावित करती थे. वे समाज के उच्चवर्ग में चर्चा पाने के अधिकारी बन गये थे. पूर्वजन्म के संस्कार ही रहे होंगे सब कुछ होते हुए भी उनके मानस में वैराग्य की एक अंतर्धारा निरंतर प्रवाहित थी.

तुलसीदास जी का विरोधियों से पाला पड़ा था. लेकिन जो हितैषी और मित्र मिले उनसे पूरा सहयोग और अनुकूलता मिली, जिसने हर विपरीत स्थिति में उन्हें साध लिया. ऐसे ही मित्र थे ,अब्दुर्रहीम खानखाना और टोडरमल ,जो अकबर के नवरत्नों में गिने जाते थे. 

राजा टोडरमल ने तुलसी की प्रत्येक प्रकार से सहायता की थी पुस्तकों की प्रतियाँ तैयार करना ,उनकी सुरक्षा और विभिन्न अन्य व्यवस्थाओं का दायित्व उन्हीं का होता था. 

रहीम के पिता उनके बचपन में ही छोड़कर स्वर्ग सिधार गए थे. विधवा माता, जो मेवाती राजपूतनी थीं, ने किसी प्रकार से इनका पालन-पोषण किया था. बचपन, कुछ समय के लिये बड़ी विपन्नता में बीता था. अपनी योग्यता के बल पर वे अकबर के प्रिय पात्र बन गये थे पर अकबर के बाद प्रताड़ित होने पर वे मुग़लों की नौकरी छोड़कर चित्रकूट में जा रहे। उनके जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत हुआ. उहोंने इसे इस प्रकार व्यक्त किया -

'चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेस।

जा पर विपदा परत है, सो आवत यहि देस।'

कैसा संयोग- वनवास की अधिकांश अवधि श्री राम ने चित्रकूटमें बिताई, काशी में पण्डितों ने जब तुलसी पर अनेक दूषण लगाए तब विचलितमना तुलसी, चित्रकूट की रमणीयता में शान्ति खोजने पहुँच गये, और जीवन के अन्तिम दिनों में मुसीबतें झेलते अब्दुल रहीम खानखाना ने भी वहीं ठिकाना बनाया.

सन्त के रूप में तुलसी जन-मन में प्रतिष्ठित थे ही. लोगों के मन में यह विश्वास जमने लगा कि वे उन्हें कठिनाइयों से उबार सकते हैं. इसी भ्रम में एक महिला उनके पास अपनी अरदास ले कर आई. पुत्री के विवाह हेतु उसे धन चाहिये था. दीन नारी गिडगिड़ाती, याचना किये जा रही थी. उसे विश्वास था कि ये सिद्ध संत हैं.मेरी विपदा दूर करेंगे. तुलसी, जो स्वयं भिक्षा माँग कर पेट भरते थे, सोच में पड़ गये कि अब क्या करें. कोई उपाय न देख कर एक पुर्ज़े पर कुछ लिख कर खानखाना के पास भेज दिया.रहीम ने पढ़ा वह अधूरा छन्द -

-'सुरतिय,नरतिय नाग तिय,यह चाहत सब कोय'

उन्होंने तुलसी की बात पूरी कर दी - उस स्त्री की आवश्यकता समझ कर उसे पर्याप्त धन दिया और छन्द को पूरा कर तुलसीदास तक पहुँचाने को उस स्त्री को सौंप दिया.

तुलसी ने पढ़ा -

 'सुरतिय,नरतिय नाग तिय,यह चाहत सब कोय',

गोद ,लिये हुलसी फिरे तुलसी सो सुत होय.'

 हुलसी माँ की गोद में तुलसी सा सुत? मन की पीड़ा जाग उठी ,जिसके जन्मते ही परिवार भंग होने लगा था, उस अभागे को माँ की गोद कहाँ? माँ तो सौर-गृह से ही परमधाम प्रस्थान कर चुकी थीं. तुलसी के हिस्से में प्रेम के लिये तरसना जो लिखा था .

लेकिन तुलसी ने  प्रभु के अतिरिक्त अपनी व्यथा किसी के आगे नहीं गाई थी.

रहीम को क्या मालूम कि कैसा-कैसा दुख-दैन्य झेल कर तुलसी इस ठौर पहुँचे हैं .  

चित्रकूट में तुलसी और रहीम सहयात्री थे. इस प्रसंग में अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। यथा- रहीम और तुलसी के प्रश्नोत्तरवाले  दोहे की , जरा देखें -

'धूर उड़ावत सिर धरत कहु रहीम केहि काज?'-रहीम 

'जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सो ढूँढत गजराज।।'-तुलसी.

बाद में नन्ददास ने यह दोहा  रत्नावली को सुनाया था.सुन कर कुछ कहा नहीं उसने, उदास हो गई थी.

नन्ददास को पछतावा हुआ, समझ गये कि काव्य-निपुणा भौजी से कभी तुलसी ने इस प्रकार का बौद्धिक संलाप नहीं किया. 

लोक-मनोविज्ञान के ज्ञाता कवि एक संवेदनशील कवयित्री का, अपनी सहधर्मिणी का  मन क्यों नहीं समझ सके? एक सुन्दर, ललित अनुभव से दोनों वंचित ही रहे .काव्य का एक मनोहर रूप रचे जाने से पहले निर्वाक् हो गया.

रहीम कवि अपनी उदारता और संवेदनशीलता के लिये जाने जाते थे, और दानशीलता में उन्हें कर्ण के समकक्ष कहा जाता था.एक नवपरिणीता सैनिक-पत्नी  ने उन्हें करुणाकुल कर दिया था जब उसने, पति के प्रस्थान के पूर्व उसने बरवै छन्दलिख कर रहीम के पास भेजा था  -

'नेह प्रेम को बिरवा रोप्यो जतन लगाय,

सीचन की सुधि लीजो मुरझि न जाय।'

सैनिक को छः माह की छुट्टी ,वधू को पर्याप्त उपहार तो मिला ही ,वह पुर्जा तुलसी को भिजवा कर उनसे आग्रह किया था कि आप इस छंद में पुन: रामकथा रचें।' 

 रामचरितमानस के लिये रहीम ने कहा था -

 'राम चरित मानस विमल, सन्तन जीवन प्रान,

हिन्दुवान को वेद सम, जमनहि प्रगट कुरान।'


कहाँ की बात कहाँ जा कर किस रूप में प्रतिफलित होती है इसे तुलसीदास जी की वरवै रामायण की रचना में देखा जा सकता है.

तुलसी के परम मित्र रहे रहीम ने श्रोताओं के बीच बैठ कर तुलसी के मुख से निस्सृत कथायें सुन कर अपनी विपत्तियों के दिन गुज़ारे थे ,कई बार तुलसी ने उनके उदास प्रहरों को विनोदपूर्ण बनाया था.

ऐसे ही एक दिन  रहीम भी श्रोताओं में सम्सिलित थे. तुलसी जन का मनोरंजन करते हुए रहीम की उदासी दूर करने का यत्न करते राम-कथा के अंतर्गत नारद-मोह प्रसंग पर बोल रहे थे. काव्य-बद्ध प्रकरण के साथ टिप्पणियाँ करते हुए अपने नाटकीय वर्णनों से उसे जीवन्त बना देते थे.

जब नारद मुनि को अपनी हरि-भक्ति का अहंकार हो गया ,प्रभु ने उन्हें सही मार्ग पर लाने का उपाय किया. भ्रमण करते नारद जी राजा शीलनिधि के राज्य में पहुँचे ,राजा की सुलक्षणी कन्या को देख नारद ऐसे मोहाविष्ट हो गये कि उसे पाने के लिये. हरि से निवेदन करने पहुँच गये. प्रभु को उनका गुमान तोड़ना थ.

उन्होंने उत्तर दिया मेरे होते हुए तुम्हारा परम मनोरथ भंग नहीं होगा .सबविधि तुम्हारा कल्याण करने को तत्पर हूँ.

निश्चिंत हो गए मुनि कि मन की इचिछा अवश्य पूरी होगी.

और हरि की लीला देखिये - उन्हें बानर का रूप दे दिया.

स्वयंवर सभा में नारद जी अपनी सुन्दरता के प्रदर्शन के लियेबार-बार अकुला कर उचकते है, चाहते हैं किसी प्रकार कन्या उन्हें देख ले .

लोगों को उस दृष्य की कल्पना कर बड़ा आनन्द आ रहा था, कुमारी  स्वयंवर  के 

पात्रों में वानरमुखी नर को देख जितना मुख फेरती ,मुनि उतने ही उद्धत होकर उचकते. वहाँ और तो किसी को वह रहस्य पता नहीं था, लेकिन दर्शकों में बैठे दो हरिगणों से कैसे यह बात छिप सकती थी?

 वे दोनों हँस-हँस कर पूरा मज़ा ले रहे थे. 

नारद जी को पूरा विश्वास था कि कन्या उन्हें देखते ही वर लेगी. व्याकुल मुनि बार-बार उचकते और दोनों हरिगण यह देख-देख ,हँसी सेलोट-पोट हुए जाते. 

स्वयंवर का कार्यक्रम चल रहा था.

 इसी बीच हरि स्वयं वहाँ पहुँच गये. कन्या ने तुरन्त उन्हें वर रूप में चुन लिया.

 हताश मुनि  श्री हरि पर बरसने को तैयार हो गये.  तब हरि के गणों ने कहा,' उनका क्या दोष ज़रा जा कर अपनी शक्ल  दर्पण में देखो!'

हताश मुनि ने जब अपना प्रतिबिंब देखा. हरिगणों पर तो क्रोध आया ही, हरि पर बहुत कुपित हुये और दोनों को शाप दे दिया, 'तुम भी नारि-विरह में व्याकुल घूमोगे और वानर ही तुम्हारी सहायता करेंगे.'.

एक साथ कई कण्ठों से 'आ' निकल पड़ा.

पुनः वर्तमान मे खींच लाए तुलसी अपने श्रोताओं को - देखा! कैसी मोहिनी है प्रभु की माया कि बड़े-बड़े मुनियों की बुद्धि भी मोहाच्छन्न कर देती है!' 

इस विषय में दोनों मित्र एकमत थे कि  सदुद्देश्यो से पुरुष के विचलित होने का मूल कारण नारी है.

तुलसी ने सबको सचेत करते हुए निष्कर्ष दिया, 'इससे बचने के लिये  पल-पल सावधान रहना ही एकमात्र उपाय है.'

उन्होंने उपकथा का रामकथा से  तारतम्य जोड़ा  -  'हाँ तो...

  'राम जी वनों में भटकते सीता को खोज रहे हैं बानर सेना सहायता में लगी है...' 

उस दिन तुलसी का अद्भुत वर्णन-कौशल और हास्यमय प्रकरण के जीवन्त चित्रण से

लोगों का अभूतपूर्व मनोरञ्जन तो हुआ ही, तुलसी के मित्र रहीम भी अपनी दुष्चिन्ताएं भूल ,उसी में रमे रहे.

कथा का समापन हुआ. 

आरती के बाद तुलसी ने घोषणा की -

'कथा विसर्जन होत है ,सुनहुँ वीर हनुमान ,

जो जन जहँ ते आय हो ,सो तहँ करहु पयान.'

जयजयकारों के पश्चात्  सत्संग-सभा विसर्जित हुई.

छोट-छोटे समूहों में लोग जाने लगे बाातें होने लगीं .'आज की कथा बड़ी ज़ोरदार रही.'

'देखो नारद जैसे मुनि भी माया से नहीं बच पाये. '

'उन्हें अभिमान हो गया, सो ठिकाने लगाना ही था.' 

'वैसे ये तो सच है स्त्री का मोह ही माया जाल में फँसाता है ..ज़िन्दगी भर कोल्हू के बैल बने जुते रहो .'.

'हाँ, ये तो है, उसके कारन ही सारी जरूरतें ,जितना कमाओ गिरस्थी की भट्टी में झोंक दो.'

'कबीर बाबा तो कह ही गए हैं - नारी विष की बेल!'

प्रत्युत्तर में ,कोई युवक चलते-चलते बोल पड़ा,' और हम उस विषबेल के फल !'

कुछ लोगों ने ने मुड़ कर देखा. 

फिर सब तितर-बितर हो गये.  .

*

(क्रमशः)


शुक्रवार, 7 मई 2021

राग-विराग - 11.

 राग-विराग - 11.

अनेकों अवान्तर कथाओं द्वारा रोचकता बढ़ाने के साथ नई-नई जानकारियां देते हुए तुलसीदास का  कथा-क्रम चलने लगा था. बीच-बीच में गाये जानेवाली उनकी स्वरचित स्तुतियाँ और आत्म-निवेदन सुन कर श्रोतागण मुग्ध हो जाते. उनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी.लोक ने उन्हें सिर-आँखों पर बैठा लिया था. तुलसी की अनेक कृतियाँ सामने आ चुकी थीं , कथा-क्रम में और पर्वों के अवसर पर तुलसी के मुख से उनकी राग-बद्ध रचनाएँ सुन आनन्दित होते और कंठस्थ कर लेते थे. उनकी वाणी लोक कण्ठ में विराजने लगी. 

पण्डितों में सुगबुगाहट होने लगी, उन्हें लगा यह तो हमारा पत्ता काट देगा. विरोध करनेवाले उठ खड़े हुए. षड्यंत्र रचे जाने लगे, अनेक प्रकार से दूषण लगाए गये. शम्भू पण्डित ने कहा था, 'वह तुलसी! बड़ा पण्डित बना घूमता है. भाखा में लिखता है. अरे, देव-महिमा गान भी देवभाषा में नहीं कर पाता.'

  तुलसी का मन बहुत खिन्न हो जाता. फिर वे स्वयं को समझा लेते ,सोच लेते कि वे लोग अपने हित में बाधा पड़ते देख, मुझ पर दोष मढ़ते है.

लोक-भाषा में रचना को ले कर उनके पाण्डित्य पर कीचड़ उछाली गई किन्तु सनातनजी की आज्ञा शिरोधार्य कर ,संस्कृत में पारंगत होते हुये भी उन्होंने अपनी रचना-प्रक्रिया में लोकभाषा को ही प्रमुखता दी .संस्कृत में रचना की थी,लेकिन अपना क्षेत्र लोक-जीवन ही रखा और लोक के बीच रह कर उन्हीं की बोली में भजनों और आत्म-निवेदनों द्वारा अपना रचना-धर्म निभाते रहे. संस्कृत के छुट-पुट छंदों का समय-समय पर प्रयोग उनके  विषय  की गरिमा को वर्धित कर देता था,और उतनी संस्कृत लोगों के गले उतर जाती थी.

गुणग्राही राजा टोडरमल और रहीम से मित्रता का सम्मान उन्हें प्राप्त था और अपनी निर्लोभी ,निस्पृह वृत्ति के कारण वे लोग तुलसी का विशेष सम्मान करते थे. तुलसी की लोकप्रियता बढ़ती रही.उनकी कीर्ति राज दरबार तक जा पहुँची.

एक बार उनके मित्र टोडरमल ने बातों-बातों में कहा,' आप गुसाईं हैं, आपके लिये पत्नी विहित है. अकेले क्यों रहते हैं? और वे भी वहाँ अकेली. सुना है वे भी पण्डिता हैं. उन्हें बुला लीजिये.' . 

तुलसी गंभीर हो गये बोले, 'इतनी दूर निकल आया हूँ ,अब वह सब कहाँ संभव है?'.

लेकिन मन का कोई तार झनझना उठा था. उद्विग्न मन को शान्त करते मर्मस्पर्शी पदों में प्रभु से बार-बार सांसारिक जंजाल से दूर रखने को अनुनय करते रहे. उनके वे निवेदन भक्ति-साहित्य को समृद्ध कर गए.

जब से टोडरमल ने रत्नावली का उल्लेख किया ,तुलसी सोच-मग्न रहने लगे. अनजाने ही उसकी बातें ध्यान में आने लगीं. मन को हटाने का यत्न करते ,रहे .राम के ध्यान में लगाना चाहते हैं पर चंचल मन ,भटक-भटक जाता  रातें को प्रायः अधसोये ही बीत जाती थीं.

उस रात विचित्र-सा स्वप्न आया -

उन्हें लगा रतन आई है. कह रही है ,'मुझे भी कुछ कहना है, कह कर  जाऊँगी .पत्नी हूँ तुम्हारी, मेरा अधिकार बनता है.'

 फिर लगा 

 द्वार के बाहर खड़ी  रत्ना हँस रही है, 'भागते क्यों हो ,मैं तुम्हें रोकती नहीं हूँ, न बाधा डालती हूँ. तुम्हारी सहयोगिनी हूँ. भागो मत, गला और सूखेगा,'

'मैं तुम्हारा बंधन नहीं थी ,रास्ता मैंने ही खोला था. 

'गुसाईं हो तो क्या ? पत्नी, माया नहीं अर्धाङ्गिनी है. तुम्हें भटक जाने देती क्या?

'नाहक भयभीत होते हो.' 

तुलसी गला सूखा जा रहा है, कुछ बोल नहीं पा रहे, जैसे कण्ठ में काँटे उग आए हों.

'अच्छा ठीक है ,तुम नहीं चाहते  तो यही सही.'

वह चली गई थी.

नींद उचट जाती है तुलसी की. वे किससे कहें,क्या कहें!

मन ही मन कहते हैं - रतन, तुमने कहा था ' मैं हूँ न!'

हाँ ,तुम हो.लेकिन. मेरा दुर्भाग्य कहीं तुम्हें भी... ,नहीं,नहीं यहाँ मैं निपट लाचार हूँ. मेरे कारण  कहीं तुम भी ..

 नहीं  खो सकता.! सच यह है कि मैं तुमसे नहीं स्वयं से भागा था. लगा मैं दुर्बल पड़ रहा हूँ, बहक जाऊँगा. दुर्निवार आकर्षण मुझे अपनी लपेट में ले लेगा.'

 पर यह बात रत्ना से नहीं कह पाते. बस एक बात कह पाते है - वे सब मेरे अपने थे ,छोड़ कर चले गये ,मैं कुछ नहीं कर पाया. यहाँ मैं विवश हूँ  मेरा साहस जवाब दे जाता है.' 

*

 .बहुत समय से नन्ददास से भेंट नहीं हुई, न उधर के समाचार मिले . पुराने बांधवों से मिलने-जानने की इच्छा बलवती होने लगी ,काशी जाने का विचार किया. 

कथा के पश्चात् जब अपनी इच्छा जताई तो श्रोता-समूह ने अपने प्रश्न उठा दिए. 

उनका कहना था आपकी कथा, कथा न रह कर साक्षात्कार करा देती है..हमें लगता है सब घटित होते हमने देखा है आस्था दृढ़ होती है .आत्मानन्द मिलता है.

ज़रा, हम लोगों का विचारिये - संस्कृत हमारे लिये वर्जित है. भले ही ज्ञान का भंडार भरा हो ,पर हमें उससे क्या लाभ ? वह सब  विद्वानो और पण्डितों के अधिकार में है. अपनी संस्कृति से परिचित करवानेवाला कोई नहीं .यदि ये कथाएं ,वार्ताएँ नहीं होंगी तो हम अँधेरे में पड़े रहेंगे.आपसे जो शिक्षाएँ मिली हैं, हमारे संस्कार जाग रहे हैं.

हम धर्म की शिक्षा से वंचित हैं, हमारे लिय कोई व्यवस्था नहीं कि अपना उन्नयन कर सकें ,अपनी वृत्तियों का परिष्कार कर सकें.

हमने देखा है और धर्मों में बचपन से बच्चों को उनकी रीति-नीति की बातें सिखायी जाती हैं ,हमारे यहाँ कोई ध्यान नहीं देता, सब अपनी-अपनी में पड़े रहते है. मंदिर में घण्टा बजाने और प्रसाद पाने जाते हैं. नीति- रीति ,और श्रेष्ठ संस्कार सीखने कहाँ जाएँ? 

आपकी संगत में अपार शान्ति मिलती है,जीवन्त आदर्श मिलते हैं. आस्थायें जागने लगती हैं. बहुत कुछ समझने -सीखने को मिलता है ..

तुलसी ने आश्वस्त किया,' 'कुछ दिनों का अवकाश, बस मैं लौट आऊँगा.' 

'तो महाराज हमारे बच्चों के लिए कुछ तो कीजिये .कुछ तो रह जाय हमारे पास .यहाँ तो कहाँ से सीखें जाने कोई बतानेवाला नहीं '.

एक वयोवृद्ध श्रोता बोल उठा 

'आप जो सुनाते हैं उसे लिपि-बद्ध कर दीजिये. क्या बच्चे क्या बड़े सबके लिये एक स्थाई धरोहर हो जाएगी.'

*

बहुत दिनों बाद नन्ददास से भेंट हुई ..

'वाह दद्दू, तुमने तो सब पर अधिकार जमा लिया ,औरों के लिए कुछ छोड़ा नहीं'.

'अरे ,मैने क्या किया?'

'वाह, राम-कथा कहते-कहते ,सब को समेट लेते हो. भगवान शंकर दुर्गा गणेश,सूर्य कोई भी बचता नहीं.' .

'अच्छा, वह बात!'

'मैं समाज में विग्रह नहीं चाहता .शैव-वैष्णव-शाक्त सब परस्पर पूरक ,है अंतर्विरोध कहीं नहीं .संप्रदायों में बांट कर आलोचना करना अनुचित है. 

मैं चाहता हूँ सबकी स्वीकृति, पञ्चदेव की मान्यता. लोग व्यापक परिप्रेक्ष्य में पौराणिक धारणाओं से परिचित हों, अपनी संस्कृति को जाने. मन में जातीय गौरव की भावना उत्पन्न हो.'

'दद्दू तुम्हें सारी दुनिया की चिन्ता है पर भौजी को जीवन से बिलकुल निकाल दिया. वे अपनी बात किससे कहें ?'

नन्ददास का भौजी से ताल-मेल बैठ गया है. कुछ मैत्री भाव जैसा दोनों के बीच.

रत्ना ने कहा था,' लौकिक जीवन को ठीक से जीते नहीं लोग. मैं सोचती हूँ देवर जी, कि उचित-अनुचित का अंतिम निर्णय जिनके हाथ है वे राम, संसार में व्याप्त हैं . उन्होंने जो कृपापूर्वक  प्रदान किया है उसका संयत-भोग करना उसका उचित सदुपयोग ही है .अपने भोगों से भागना क्यों?..जब तक उसे ग्रहण करें, मान लें कि इतना हमारा भाग था, आगे जैसी राम की इच्छा. अपने भोग में औरों का भी  ध्यान ,कि उन्हें कष्ट न हो. संसार की सुन्दरता ,रस, रूप गंध राम के प्रसाद हैं उनके आनन्दमय रूप का प्रसाद! भाग कर क्यों, भोग कर सार्थक माने! नित्य के संबंध  सँवारते चलें ,जग-जीवन सँवर जाय.पर असमय अध्यात्म सिर पर सवार हो जाता है और सारा खेल गड़बड़, जीवन का माधुर्य चौपट ! 

'कितनी शंकाएँ उठती हैं मन में, पर किससे पूछूं ? समाधान कैसे हो?. 

अच्छा देवर जी , तुम्हीं बताओ ,रामजी की  जीवन शैली से प्रेरणा लेकर अपना कर्तव्य करते हुए जीवन-यापन भक्ति नहीं कहलायेगी क्या?'

फिर रत्ना ने कहा था,' अपने विद्वान पति का थोड़ा सहयोग चाहती थी, दुनिया भर के लिये कथा-प्रवचन हैं ,एक अकेली स्त्री समाधान के लिये किसके पास जाय?' 

गृहस्थ जीवन में तुलसी को अनेक बार लगा था कि रतन कुछ कहना चाहती है .रात को विश्राम के समय शैया पर करवटें बदलती है ',पूछती है ,'सो गये क्या ?'

किन्हीं विशेष अवसरों पर जब वे कथा सुना कर लौटते हैं तो पूछती है,' काशीवाले पण्डित इस विषय में क्या कहते हैं?'

 प्रखर बुद्धि है.प्रश्नोत्तर करने से चूकेगी नहीं.विचारशीला है वह बहुत कुछ जानना चाहती है. 

 पर वे अपनी ही धुन में कुछ कहते, कुछ टाल देते हैं. 'थक गया हूँ' ,'नींद आ रही है' .

दुनिया भर के विवाद-विमर्श का यहाँ क्या काम ? 

घर, घर की तरह होना चाहिये- तुष्टि-पुष्टिप्रद, विश्राममय! 

*

तुलसी को जो खटक रहा था ,मुँह पर आ गया -

बहुत दिन हो गये नन्दू, पहले तुम समाचार देने को उत्सुक रहते थे,अब क्या बताने को कुछ नहीं रहा? मैं समझ रहा हूँ, इधऱ तुम्हारा व्यवहार बदल गया है.'

'क्या लाभ ,वह सब कहने से ?'

'ऐसी बात नहीं नन्दू ,मुझे जानने की चाह होती है.' 

'तुम्हें व्यर्थ परेशान क्यों करूँ ? रहेगा सब वैसा ही .क्या अन्तर पड़नेवाला है? तुम्हारा इतना जस फैल रहा है ,बड़े-बड़े लोगों से तुम्हारी मित्रता है हमलोग तुम्हारे आगे कहाँ ठहरते हैं....'

'बस करो ,बस करो नन्दू..जानता हूँ तुम क्यों कह रहे हो. दुनियावालों के लिये मैं कुछ भी होऊं ,घरवालों के लिये क्या हूँ ?जानता हूँ ,मैं भी समझता हूँ.और तो और, अब तुम भी मुझे गलत समझने लगे.' 


बहुत व्यथित हो गए थे.बोलते-बोलते चुप हो गये.

नन्ददास कुछ नहीं बोले ,जस के तस बैठे रहे.

तुलसी फिर कहने लगे, ' तुम भी असंतुष्ट हो.एक व्यक्ति मुझे समझता था अब वह भी ...मैं जान गया हूँ . 

नन्दू , तुम्हें सब-कुछ बता दूँगा  कुछ भी नहीं छिपाऊँगा.'   

 नन्ददास चुप बैठे ,सुने जा रहे हैं.         

'दोष किसी को नहीं दे रहा अपनी करनी का फल भोग रहा हूँ .कौन मुँह लेकर मैं अब वहाँ जाऊँ?' 

'क्यों ?कितना तो आदर-मान है तुम्हारा ..कथा सुनने भीड़ उमड़ती है .तुम्हारे  भजन गली-गली गाये जाने लगे है .तुम क्या हो .ये समाचार क्या वहाँ नहीं पहुँचते?'

'तुम नहीं समझोगे भाई, मैं जनम का अभागा, उनके सामने पड़ने जोग नहीं रहा. कैसा भूत सवार हो गया था. कुछ नहीं सूझ रहा था. मैं क्या कर बैठा!

'उस दिन घर में पाँव रखते ही रतन को न देख कर मैं समझ गया मायके गई होगी. बहुत दिनों से कह रही थी .

बावला सा उसे लौटा लाने को उतारू हो गया. 

बरसात की तूफ़ानी रात ,जमुना चढ़ी हुईं थीं.'

बोलते-बोलते थक गए हों जैसे ,कुछ सुस्ता कर बोले-

'नहीं भूल सकता हूँ. 

'वे लोग जान गये कितना खोखला हूँ मैंने अपने साथ उसकी गरिमा भी चौपट कर दी. उनके लिये मैं क्या रह गया? अब तो मुझे अपने पर भी विश्वास नहीं रहा.

'और मैं किस वेष में था, जानते हो?

उमड़ती लहरों में ,गाँठ खुल कर धोती न जाने कब  बह गई पता नहीं चला. सिर का अँगौछा कमर में बाँधे, केशों में तिनके उलझे, सर्वाङ्ग से पानी टपक रहा ,कुछ काई जैसा हरापन यहाँ-वहाँ चिपका - विचित्र वेश . पाँव में जूते होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता.

उस समय जिस जुनून में था ,सिर पर पागलपन सवार था.

उनके द्वार जा पहुँचा. 

 खुलवाने की हिम्मत नहीं पड़ी थी.

रतन के कमरे में कुछ रोशनी लगी. खिड़की खुली थी .यही विचार कर रहा था कि कैसे चढूँ ,इतनें में एक रस्सी सी झलकी ,हवा में हिल रही थी ,मुझे ध्यान ही नहीं कैसे चढ़ा और अन्दर कूद गया. .' 

गला कुछ अटका, रुक गए तुलसी..साँस ले कर फिर बोलने लगे-

'.धमाके की आवाज़ हुई होगी .'कौन है ?' ,'क्या हुआ'?' पूछते घर के लोग दौड़े आए 

- 'क्या हुआ?'  'क्या हुआ?'

उस अश्लील,कुवेश में, हतबुद्ध -सा हो गया मैं, सामने था. 

सबकी दृष्टियाँ मुझ पर टिक गईं..  

एक ही प्रश्न - पाहुना! इस कुबेला? ,कैसे इतनी बुरी दशा में? खिड़की से कैसे?

जो ध्यान आया ,बता दिया .

तब देखा गया, रस्सी कहाँ से आई? वहाँ तो एक अधमरा साँप पड़ा था.


रतन अपने घर में किसी से आँखें नहीं मिला पा रही थी.

झुका सिर, वह मुख जैसे किसी ने खड़िया पोत दी हो.

कितना प्रसन्न रहती थी! घर भऱ की लाड़ली,मानिनी पुत्री एकदम हतप्रभ,विवर्ण !

जिसकी पत्नी होने का गर्व था, उसी के कारण लज्जा से गड़ी जा रही थी.

प्रारंभिक प्रश्नोत्तरों में मेरे उत्तर कितने अपर्याप्त ,कितने संदिग्ध,कितने भ्रामक!

कोई कितना समझा, पता नहीं पर चुप रह गये थे वे लोग. 

बस एक दृष्टि बहिन पर डाली थी फिर बात को सँभालते हुए बड़े साले ने कहा- 'उन्हें सहज हो लेने दो.' 

और वे सब वहाँ से चले गये थे.

 एक धोती और उपरना भेज दिया था.


सारे आदर-मान पर पानी फिर गया .

सोचते होंगे ऐसी कुवेला में, मलीन-गर्हित रूप धरे मैं, सीधे रास्ते न आकर क्यों अनिष्ट जैसा  खिड़की से आ घुसा ?

-  आशंका से भरे कैसे देख रहे थे मुझे! 

उनके कुल में आ मिले दूषण सा, मलीन कुवेशी, अवाञ्छित प्रसंग का प्रश्न बना मैं, वहाँ सिर झुकाए खड़ा था .

वह निन्दित अध्याय फिर स्मरण न हो- मैं कभी सामने ही न पड़ूँ.

इतने बरस हो गये ,गुरुदेव ने संस्कारित किया था, दीक्षा दी थी.

कभी-कभी लगता है उस सब का लोप कर एक अश्लील-अमंगल पहेली  रह गया हूँ मैं.

'भान होता है, बचपन का कौपीनधारी राम्बोला ,हीन-मलीन वेष में,सबकी तिरस्कारपूर्ण दृष्टियाँ झेलता, वंश का कलंक बना. वहीं का वहीं खड़ा है!' 

वह दैन्य और वाणी का निरीह कम्पन नन्ददास  को स्तब्ध कर गया.

लेकिन उनका अंतिम वक्तव्य सुनना अभी शेष था.

तुलसीदास ने कहा था - 

'जिसने वह अशुभ-अपावन गर्हित वेष देखा वही जानता होगा कि कितने बड़े मर्यादा-भंग का दोषी हूँ मैं !'

*

(क्रमशः)


  








बुधवार, 28 अप्रैल 2021

राग-विराग - 10.

*      

            उस दिन हड़बड़ा कर तुलसीदास बड़े भिनसारे ही काशी से निकल पड़े थे. अंतर्मन से पुकार उठ रही थी - 'हे राम , अपनी शरण में ले लो!' 

'अपने ऊपर बस नहीं रह गया. कुछ सोचना चाहता हूँ कुछ ध्यान में चला आता है. मन थिर नहीं होता, कहाँ-कहाँ भटक जाता है .

'ऐसा उचाट मन ले कर कैसे रहूँ मैं? अधिक परीक्षा मत लो प्रभु!'

 बहुत अशान्त हो उठते है वे - हर समय लगता है कुछ छूट गया,कुछ रह गया. 

फिर भी पग चलते चले जा रहे हैं.

    रास्ते के ग्राम-नगर उजाड़ हुए-से पड़े हैं, सर्वत्र भूख और अकाल की गहरी छायायें डोल रही हैं.सब कुछ श्री-हीन हो उठा है.

देश में घोर दुर्भिक्ष का ताण्डव.गाँवों से उमड़-उमड़ कर लोग नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं ,पर सब साधनहीन हो गये. खोजने पर आजीविका नहीं मिलती,.कैसे जियेँ?

 व्यापार ठप्प पड़े हैं, कारीगर बेकार -कोई उपाय नहीं. चाकरी तक का जुगाड़ नहीं हो पाता. किसी को अपना ही पूरा नहीं पड़ता, दूसरे को क्या दे? इस दुष्काल में भिक्षा भी सहज नहीं. कैसा समय आ गया है, हर व्यक्ति असन्तोष से भरा, अभाव, स्थाई-भाव बन कर मनों में बस गया है. हर जगह वही हाय-हाय!

कैसा विषम काल है!


       संतप्त मन ले आगे चल पड़ते हैं अंतर्मन पुकार उठता है-

'हे राम, कहाँ हो ?अपनी करुणा-दृष्टि इधर फेरो? कृपा करो, प्रभु!'

  अनेक नगर-ग्राम घूमे,.कहीं विश्राम नहीं. 

मार्ग में कितने जनों से मिलना हुआ. सबकी अपनी दुख गाथा. मिथिला के एक साधु से मन कुछ मिला.उसी से बातें होने लगीं,

.'कलयुग में हमारे अधिकांश धर्मस्थल दूषित कर दिये गये ,बड़ा दुख होता है देख कर,' तुलसी ने कहा, 'आस्थाहीन जीवन हो गया,  धर्म-कर्म सब भ्रष्ट. सब-कुछ भूल कर मनुष्य अंधाधुन्ध दौड़ में लगा है.

'धरती संतप्त. बारंबार महामारी और, अकाल का फेरा. कितने तीरथ ,कितने देस, नगर देखे, मन को कहीं चैन नहीं.' 

वह बताने लगा, 'ऐसा ही अकाल मिथिला में पड़ा था ,तब राजा जनक थे वहाँ थे. मैं जा रहा हूँ वहीं, जहाँ भूमि से सीता देवी प्रकटी थीं, प्राकट्य तो वास्तव में भूमिजा का हुआ था और सब ने अपनी-अपनी माताओँ के उदर से जन्म लिया था.' 

माँ जानकी के प्राकट्य-स्थल दर्शन के लिये वे उसी के साथ सीतामढ़ी चल दिये. 

अपने स्थान पर पहुँच कर वह अपने समाज से जा मिला.

उसने तुलसी से पूछा था,'तुम कहाँ रहोगे ?हमारे समाज में शामिल हो जाओ.' 

तुलसीदास किसी नियंत्रण में नहीं रहना चाहते थे ,

मन ही मन सोचा -

'माँ जानकी की  भूमि है ,जैसा रखेंगी, रहूँगा.'  

 एक दिन मन्दिर के चबूतरे पर बैठे-बैठे अपने आराध्य के साथ माँ सीता के विवाह की कल्पना करने लगे. उस दिन सुबह से भिक्षान्न नहीं मिला था, शरीर शिथिल होने लगा, पलकें मुँद गईं.

अचानक कानों में आवाज़ आई,'लो प्रसाद ,ले लो.'

तुलसी सजग होते उससे पहले ही उस नारी-मूर्ति ने उनके हाथ में एक दोना थमाया और पलट कर चल दी. दोनों हाथों से प्रसाद का दोना माथे से लगाया. 

 उन्होंने देखना चाहा पर दृष्टि में केवल नीली साड़ी की सुनहरी किनारी से झलकती महावर रंजित एड़ियाँ देख सके, नूपुरों की हल्की सी खनक वातावरण में समाई थी.

नारी-मूर्ति  मन्दिर में प्रविष्ट हो गई थी .

प्रसाद पर दृष्टि गई - दोने में दो पुए!

.मन पुलक उठा, 'वाह, पुए !'

 कितने दिनों बाद वह स्वाद उन्हें याद आ गया .

      पहली बार नीमतलेवाली ताई ने पुआ दिया था - कितना स्वाद! कितना रस!

छः-सात बरस के रहे होंगे ,पुनिया-माँ भी राम जी के पास सिधार गईं थी ,अकेला गलियों में भटकता बालक, जो मिल जाय खा लिया. कोई मुँह लगाने को तैयार नहीं. सब जानते हैं यह बालक अशुभ है, जिसके पास रहेगा उसी का अनिष्ट करेगा.

इतनी बड़ी दुनिया, पर अपना कोई नहीं- अकेला, अनाहूत, त्याज्य!

'राम्बोला' कहते थे सब उसे

नीमतलेवाली ताई कहतीं,' अरे बेचारा ब्राह्मण बालक ,काहे दुरदुराते हो!जियेगा तो वह भी न!' ,

प्रायः वही दिन में एक बार खाने को कुछ दे देतीं.

अरे हाँ पुआ ?

सारी स्मृतियाँ पृष्ठभूमि में जमा हो गई हैं, मौका मिलते ही झाँक जाती हैं.

         नवरात्र जैसे कुछ गिने-चुने दिन होते थे जब भूख से अकुलाता बालक पेट भर स्वादिष्ट भोजन पाता था..

      ऐसा ही एक बस्योढ़ा का पर्व था, सुहागिन  महिलाएँ वस्त्राभूषणों से सज कर नीमवाले चबूतरे पर एकत्र हो, शीतला माता को पूजती थीं. वृक्ष के थाँवले में कुछ मूर्तियाँ और सुगढ़-अनगढ़ प्रस्तर पिंडियाँ रखी रहती थीं . 

वही उनकी पूजनीय थीं. देवी के गीत गाती वे प्रसाद की डलियाँ जिसमें पूड़ी, पुए काले चने आदि का प्रसाद होता, थाँवले से सटा कर रख देतीं. और पूजा की वस्तुएँ रख कर बैठ जातीं, माँ को प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रशंसा में गीत गातीं. उनके कण्ठों से निकले देवी के गीतों के बोल वातावरण में गूँजने लगते. 

माँ से प्रार्थना करते हुये धूप-दीप जला कर पूजतीं ,आँचल पसार कृपा की याचना हेतु, चरणों में झुकतीं. 

चबूतरे के एक कोने में बैठा रामबोला रुचिपूर्वक देखता रहता.,

ताई एक पूरा पुआ और चने के साथ हलवा-पूड़ी का प्रसाद उसे बुला कर देतीं .अन्य,स्त्रियों से भी प्रसाद पा कर वह अपना भरा हुआ दोना ढककर रख देता. जानता था  नीम पर बैठे कौए ताक लगाए हैं.

वे सब थोड़ी देर बैठतीं. उनके बच्चे प्रसाद खाते  चारों ओर मँडराते रहते.  दूध-पूत के असीस अपने आँचल में समेट, वे धोक दे पूजा का समापन करतीं. 

सब चले जाते, तब नीम तले के उस एकान्त में रामबोला निःशंक हो कर थाँवले के समीप आ बैठता.

       हल्दी-कुंकुम लिपटी पिण्डियाँ विराजी रहतीं, धूपबत्ती से उठता धूम  लहराता हुआ हवा में गमक भरता, पूजा के दीप थोड़ी देर जल कर बुझने लगते. हर दिये की बात्ती बुझने से पहले, सारा तेल खींच कर लौ उठाती फिर एक चिंगारी छोड़ शान्त हो जाती. अंतिम धूम-रेखा के साथ जो सोंधी गन्ध नासापुटों में समाती वह रामबोला को बहुत भाती थी, दीपों के बुझने तक वह वहीं बैठा रहता. फिर अपना प्रसाद उठा कर .देवी माँ के फैले आँचल तले, नीम की छाँह में फसक कर बैठ जाता और परम सन्तुष्ट भाव से  वह विपुल प्रसाद जीमता. पेट भर कर वह अभी-अभी सुनी हुई लय-तान वाला कोई गीत गाते-गाते परम तृप्ति से वहीं सो जाता. 

बरसों बाद आज फिर भूख से शिथिल रामबोला तुलसीदास बना, पुओं का प्रसाद  पा गया है!.

कुएँ पर जाकर दोना आड़ में रख हाथ धोये और पुए का टुकड़ा तोड़ कर मुँह में चाला .

'अहा!' 

निराला ही स्वाद था उन पुओं का, जैसे अमृत घोल कर बनाए हों.

परम सन्तोष से खाता रहा वह. लगा जन्म-जन्मान्तर की क्षुधा शान्त हो गई. मन अनूठी तृप्ति पा गया.लगा तन में नई ऊर्जा लहरा उठी.

हृदय अपार कृतज्ञता से भर आया.

       चलते समय मन्दिर के खुले द्वार से दृष्टि भीतर गई, हल्की रोशनी में आसन पर विराजमान माँ की झलक मिली. उन्होंने शीष झुकाया विनती की - 'माँ, इस दीन अनाथ पर अपनी करुणा-दृष्टि बनाए रखना!' 

  चलने के लिेए मुड़ने लगे तो, लगा कोई कह रहा है - 'यहाँ क्या कर रहा है, वे तो अवधपुरी में हैं.'

    * .

 वे अयोध्या चले आये.

तभी वसन्त-पञ्चमी का पर्व पड़ा. दुष्काल की मार ऐसी कि अन्नदान कर पुण्य बटोरने के अवसरों पर भी जब लोग स्नान कर पुण्य कमाना चाहते हैं तो लाई गई खिचड़ी आधे याचकों के लिये भी पूरी नहीं पड़ती. अनगिनती हाथ फैले रह जाते हैं.

      खिन्न मन से वे घाट पर बैठे सरयू का प्रवाह देखते रहे - 'प्रभु, इस सरयू में प्रवेशकर तुम अपने धाम चले गये, इन दुखी जीवों को क्या चिरकाल इसी प्रकार दग्ध होते रहना है?'

मन ही मन सोच रहे थे - जिसने आपना सारा जीवन लोक-रक्षा और कल्याण के लिये अर्पित कर दिया, उसके भक्त, लोक से विमुख हो अपने लिये सुख खोज रहे हैं.धर्म पर आधात पर आघात हो रहे हैं  और वे अन्याय और अनीति का चारों ओर बोलबोला देखते हैं और अपने रस-रंग में मग्न हो जाते हैं,स्वाभिमान का क्षरण हो गया है. अपमान और दुर्दशा झेलते रह कर जीना जैसे नियति बन गया हो,समर्थ जन भी जातीय पराभव से उदासीन अपनी सुख-लालसा पूरी करने में लगा है.

 तट पर मेला लगा था स्नानार्थियों से दक्षिणा पाने के लिये अनेक कथा-वाचक अपनी चौकियाँ सजाये बैठे थे.

तुलसीदास वहीं आँखें मूँद कर प्रभु का स्मरण करने लगे , लोक-दशा  देख मन उद्विग्न हो रहा था.

 वे आँखें मूँदे गुनगुनाने लगे - उस भाव-लीन अवस्था में अनायास उनका स्वर मुखर होता गया ,जैसे अंतर्मन से अनवरुद्ध पुकार उठ रही हो  गहन-गंभीर स्वर गूँज उठा -

'खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,बलि, 

बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी। 

जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस, 

कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई, का करी?’ 

बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत, 

साँकरे सबै पै, राम! रावरे कृपा करी। 

दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु! 

दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥'


अंतिम पंक्तियाँ उन्होंन दोहरा कर गायीं,जैसे जन के दुख सुनाकर राम को अनवरत टेर रहे हों .

       आसपास के लोग शान्त हो कर सुनने लगे थे. सामयिक दशा का सहज लोक-भाषा में चित्रण जिसके कानों में पड़ा खिंचा चला आया .

.स्वर थमने के बाद कुछ क्षण चुप्पी छाई रही. फिर कुछ लोग समीप आ गए.

'महाराज आप बहुत गुणी लगते हैं.'

'रामप्रभु का साधारण सा सेवक हूँ, उन्हीं के गुण गाता हूँ .सब कुछ देखता हूँ और उन्हीं से कृपा की याचना करता हूँ.' 

'फिर तो हमें आपको सुनने का आनन्द मिलता रहेगा?'  

'अवश्य, यह तो मेरा प्रिय कार्य है'. 

'वैसे आप क्या करते हैं महाराज?'

'कथावाचन करता रहा हूँ ,ज्योतिष की भी थोड़ी जानकारी है वही करता था अब सांसारिकता से वैराग्य ले कर अपने प्रभु के चरणों में चला आया.'

'तब तो हमारा भी भला हो जायेगा.'

       और तुलसी रामघाट पर कथा सुनाने लगे. अपने वर्णन-कौशल से साक्षात् चित्रण करने मे सिद्धहस्त थे,.पर्वों के अनुरूप कथायें और अपने रचेी स्तुतियों एवं आत्म-निवेदन के पदों का सुमधुर गायन उनके कथ्य में  प्रामाणिकता का संचार कर देता था.


उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली था .

 संगीत का ज्ञान था,कंठ में स्वर था जो बरबस ही मन को खींच लेता था.संवेदनशीलता और विद्वत्ता ,के साथ,श्रेष्ठ गुरुओं से मिले संस्कार उनके औदात्य को उजागर करते थे. व्यक्तित्व सुदर्शन था ही.अपने वस्त्रों के लिये कभी सचेत नहीं रहे थे तुलसी पर विवाह के बाद रत्ना ही उनकी सँवार का ध्यान रखती थी, कहती थी - कथावाचक की वेष-भूषा का प्रभाव पड़ता है , व्यास पीठ पर बैठें तो सुवेश धारण कर माथे पर तिलक-चन्दन से सज्जित हो कर.पवित्र रुचिर वेष सुननेवालों को प्रभावित करता है.  

.दस वर्ष से भी अधिक  रत्ना के साथ रह कर वे इस ओर भी सावधान रहने लगे थे. 

उसी ने काँधे पर उत्तरीय सँवारना सिखा दिया था.

एक बार उन्होने नन्ददास से कहा था-

'सच कहूँ नन्दू ,तुम्हरी भौजी ने सिखा दिया कि वाणी के अनुकूल भूषा भी सुरुचिपूर्ण होना वांछित है..

'मुझे कपड़े की पहचान आज भी नहीं है ,दूकानदार ठग ले तो पता भी न  चले ,पर मुझे खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती, यजमानी में मिल जाते हैं,' 

         कथावाचक बहुतेरे थे पर नोन-चून के लिए दक्षिणा की आग्रही और निस्पृह-निष्ठा से प्रेरित वाचन में ज़मीन-आसमान का अन्तर होता है.

प्रथम दिवस से ही तुलसीदास लोक-प्रिय होने लगे थे. 

जब व्यासपीठ से कथा का प्रारंभ हुआ ,गणेश-वन्दना के स्वर गूँजने लगे -'गाइये गणपति जग वंदन...'

श्रोताओं का हृदय आनन्द से भर गया .एकदम नई स्तुति!

 किसी ने कहा,हाँ, वे अपनी स्तुतियाँ और निवेदन स्वयं रचते है.'

लोगों की दृष्टियों में उनका सम्मान बढ़ गया.

फिर कथा की भूमिका बँधने लगी.

 सर्वप्रथम राम-कथा किसने -किसे सुनाई - शंकर-पार्वती का उल्लेख कर तुलसी रुच-रुच कर काकभुषुण्डि,की कथा सुनाने लगे. पूरे मनोयोग से रसास्वादन करते श्रोता सुन रहे थे. भक्तिरस से भावित.गहन-गंभीर स्वर, और पुराण-सम्मत विद्वत्तापूर्ण व्याख्या से विभोर थे

अनायास तुलसी ने नई बात कह दी ,'लगता है हमारे भुषुण्डि जी को दही पुआ बहुत प्रिय है.

माँ जानकी के प्रसादामृत का स्वाद तुलसी कैसे भूलते?

 बोले,' पुआ कैसा लगता है आप लोगों को?'

श्रोताओं का कौतूहल जाग उठा.

 एक साथ अनेक स्वर उठे -'हमें तो बहुत भाता है'.

तुलसीदास मुस्कराये.सब के मुखों पर स्मिति छा गई. 

'बालरूप प्रभु राम को माता कौशल्या ने गाढ़ा-गाढ़ा दही रख कर पुआ पकड़ा दिया .'

'और हमारे भुषुण्डि जी? काग-देह तो थी ही, भरी उड़ान और प्रभु के हाथ से छीन लाये.

देखा आपने, भक्त कैसे अपने को अपने आराध्य की लीला से जोड़ लेता है?'

'और जब उन्होंने कृष्णावतार लिया तब भी चूके नहीं ,उसी काग-रूप में बालकृष्ण के हाथ से माखन रोटी झपट लाये.'

श्रोताओं को संबोधित कर बोले,' कल्पना कीजिये उस दृष्य की ,काग महाराज आनन्द से सामने बैठे स्वाद ले ले कर, मानो कह रहे हों, 'लो प्रभु हम हैं तुम्हारे भक्त ,उच्छिष्ट पा कर तृप्त हो रहे हैं,'

और प्रभु चकित-विस्मित भाव से हाथ से इशारा कर माँ को दिखा रहे हैं - 'वो मेरा पुआ .ले गया..!'

आनन्दित श्रोता झूम उठे..

अंत में समापन -- तुलसीदास जी के स्वर गूँजने लगे - 

'मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।

गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥

प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी

भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥ '

और श्रोताओं ने पंक्तियाँ दोहराते हुए उस स्तुति में अपना स्वर मिला दिया! .

पूरा रामघाट और सरयू के दोनों तट श्रीराम के महिमा-गान से गूँजने लगे ..

*

(क्रमशः)

मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

राग-विराग - 9.

*

वापसी में रत्ना बहुत चुप-चुप थी .

 नन्ददास बत करने का प्रयत्न करते, तो हाँ,हूँ में उत्तर दे देती.

वे उसकी मनस्थिति समझ रहे थे..

कुछ देर चुप रह कर उन्होंने नया विषय छेड़ा -

'क्यों भौजी,तुम्हारे पिता ने तुम्हारी शिक्षा पर खूब ध्यान दिया?'

रत्नावली उनकी ओर देखने लगी

'वैसे तो लोग लड़कियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं देते ,जानते हैं पढ़-लिख कर क्या करेगी, अंततः गिरस्थी करना है सो थोड़ा-बहुत पढ़ा कर छुट्टी करते हैं.पर भौजी तुम्हारे पिता ने तो तुम्हें कितना आगे बढ़ा दिया, पूरी विदुषी बना दिया.' .

रत्ना  के मुख पर चमक आ गई थी  

'हाँ, देवर जी, मेरे पिता का विचार था लड़की की रुचि है तो उसको पूरी शिक्षा मिलनी चाहिये..'कुछ रुक कर बोली, 'माँ कहती भी थी उसे गृहस्थी ही तो करनी है कौन शास्त्रार्थ करना है .उनका उत्तर होता ,क्यों शास्त्रार्थ नहीं कर सकती क्या?भारती का नाम नहीं सुना ?मण्डन मिश्र से कम थी क्या! उसका चाव भी देखो ,उसकी बुद्धि देखो ...'

''तो तुम शुरू से तीव्र बुद्धि रहीँ.. ..'

'मेरा बचपन कुछ अलग-सा रहा. गुड़ियों के खेल मेरा मन नहीं बाँध पाते थे. घर में ग्रंथों पर विवेचन होता मैं ,खेलना छोड़ कर वहाँ जा बैठती थी. देवर जी, बचपन का जीवन में बहुत महत्व होता है ...,संस्कारों की नींव पड़ती है ,सबंधों को पहचानना आता है..मुझे तुम्हारे दद्दा के लिए बहुत लगता है - उन्हें तब भटकना पड़ा. अपनापन पाने को कितना तरसे हैं. वे दुःखद यादें अब भी उनके मन को विचलित करती हैं.' . ..

नन्ददास को सब याद है ,यह भी याद है कि दीनबंधु पाठक अपनी पुत्री को तुलसी से ब्याह कर परम संतुष्ट थे. ,बोले थे -जैसे मण्डन मिश्र और भारती ,ऐसे ही ये युगल- तुलसी और रत्ना .हाँ, कितने अनुरूप ,रूप-गुण विद्या-बुद्धि में सब प्रकार समतुल्य.

कैसी फबती है जोड़ी!

 नज़र लगी थी लोगों की उस पर .

रत्ना से संवाद का तारतम्य जोड़ते हुए बोले.

'हाँ भौजी, लेकिन फिर भी उनने बहुत कर लिया.' 

'बहुत अध्यवसायी हैं वे,क्या स्मरणशक्ति पाई है ,और बुद्धि कितनी तीक्ष्ण .पर कुछ संस्कार बचपन से मिलते हैं...परिवारजनों के साथ रह कर और भी बहुत कुछ..'  कहते-कहते  रत्ना चुप हो गई.

कुछ देर दोनों चुप रहे..नन्ददास ने फिर उनके पीहर की बातें छेड़ दीं. 

रत्ना को याद है, पिता ने कहा था,' अपनी दीप्तिमती कन्या के लिये तुलसी जैसा वर पाकर मैं  संतुष्ट हूँ.'

उसके गौना होने तक उसकी शिक्षा में कोई कसर नहीं रहने दी. 

रत्ना भी पूरे मनोयोग से पढ़ती और ग्रहण कर लेती ,माँ कहतीं उसे गृहस्थी के काम सीखने दो.' 

पिता का उत्तर था ,'सब सीख लेगी .कौन सास-ननद बैठी हैं उसका कौशल देखने को? जमाई के साथ रहना है उन्हीं के अनुरूप बन कर रहे.'

रत्ना बताये जा रही थी

'मेरे पिता! हाँ, मेरे पिता ने मुझ पर बहुत ध्यान दिया. कहते थे मेरी बेटी किसी से कम नहीं है.मेरी रुचि भी थी, ईश्वर कृपा से याद भी जल्दी हो जाता था ..बड़े प्रसन्न होते थे जब मैं धड़ाधड़ उनके सामने पाठ सुनाती थी.

वे कहते थे प्रारंभ से बीज पड़ा है तो फलेगा जरूर ,और मनचाहे पात्र के रूप में अनुकूल परिस्थितियाँ उन्होंने खोज भी लीं.'

रत्ना ही बोलती रही ,' पति, लाखों में एक मिले. उनके सान्निध्य में, उनकी विद्वत्ता और ज्ञान का अंश मैं भी पाना चहती थी. पर उन्हें इतना अवकाश कहाँ रहा!' एक गहरी साँस निकल गई .

 नन्ददास ने कहा, ' मुझे तुम्हारे ब्याह की याद है -

'कुँवर-कलेवा पर तुम्हारी सखियाँ छेड़ रहीं थीं,जमाई राजा ,गुमान मत करना हमारी रतन भी कम नहीं है. कविताई करती है ,छंद-पिंगल जानती है.

वो भूरी आँखोंवाली लड़की थी न खूब बोल रही थी.'

'अच्छा ,गौरी. हाँ, उसे भी पढ़ने-लिखने का चाव था .'..

.'अब कहाँ है वह?' 

'बड़ी दूर ब्याह गई. एक बार मिली थी. बहुत मन करता था मिलने का पर, मै मायके जा ही कहाँ पाती थी.' 

नन्ददास ने टूटती कड़ी जोड़ी, 'कह रही थी ,'दायज में अपने साथ पुस्तकें भी ले कर आयेगी हमारी रतन. तुम्हारे घऱ.

'इस पर कोई बोला - अच्छा है दोनों पढ़ते-पढ़ाते रहेंगे.'

'अरे, इतने साल हो गये ब्याह को.  तुम तो इतने छोटे थे, अभी तक याद है?'

'इतना भी छोटा नहीं था और तुम्हारी शादी तो मेरे लिए खास थी. '

' तुम्हें पता है भौजी, किस ने टोका था - कोहबर के खेल में सावधान रहना दोनों वहीं शास्त्रार्थ न करने लगें!'  

सब लोग खूब हँसे थे.

'सखियाँ मेरे भाग्य पर सिहाती थीं. कहतीं रतन, तुझे तो खुला आकाश मिल गया.' 

रत्नावली का ध्यान अपने विवाहित जीवन पर चला गया -

दस बरस से अधिक पति के साथ अंतरंग रही थी, सोचती थी ,बचपन से तरसा हुआ मन संतुष्ट हो जाये ,अन्य सारे सम्बन्धों की कमी पूरी करना चाहते हैं. विद्वद्चर्चाएं करने का अवकाश कहाँ है उनके पास?  मैं चाहती थी प्रसन्न रहें वे. सुस्वादु भोजन और  प्रेम भरा व्यवहार उन्हें तुष्ट रखे ,तन-मन को तृप्त हो लेने दो,कहाँ भागे जा रहे हैं?'

पर मन तृप्त हुआ है कभी?

प्रतीक्षा ही करती रही रत्ना और समय हाथ से निकल गया.

'क्या सोच रही हो?

देवर जी, थोड़ा-सा अवकाश चाहा था मैंने जिसमें मन के हाथपाव फैला सकूँ. ' 

समझने के प्रयत्न में नन्ददास ने अपना सिर झटका. पल भर में कौंध गया ,दद्दू भौजी से दूर बिलकुल नहीं रह सकते थे.

'थोड़ा अवकाश चाहती थी, लेकिन पूरी छुट्टी हो गई, वे चले गये. यह तो कल्पना भी नहीं की थी कभी.'

नन्ददास क्या कहें? 

उदास-सी चुप्पी छा गई.

घर पहुँच कर रत्ना ने कहा था,' देवर जी, बड़ी बेर हो गई ,भोजन कर के जाना, और हाँ ,चन्दू को भी बुला लो.' 

मर्यादा का कितना ध्यान रखती हैं- नन्ददास ने सोचा था.

उन्हें याद आया रत्ना ने काशी में रहने की इच्छा प्रकट की थी, कहा था,' अपनी रिक्तता भरने के लिए, मन करता है काशी में निवास करूँ, जीवन सार्थक कर लूँ.  परिवार के दायित्व होते तो अपना ध्यान भी न आता. अब यहाँ रहूँ कि काशी में, किसे अंतर पड़ेगा?.. और मैं तर जाऊँगी.'

लेकिन दद्दू को यह उचित नहीं लगा. उन्हें लगा यहाँ सब जाना-पहचाना है, पुराने सम्बन्ध है. नई जगह पता नहीं कैसा क्या हो? रत्ना घर में ही रही है बाहर की दुनिया में कैसे क्या करेगी? और काशी में रह कर करेगी क्या? नहीं-नहीं, वहीं ठीक है वह. व्यर्थ की बातें सोचती है.' 

 फिर कह उठे, ' और मेरी तो सारी  निश्चिंती समाप्त समझो! नहीं नन्दू, मना कर देना, समझा देना उसे!'

नन्ददास के मन में पछतावा जागा,' ओह, भौजी के मन में काशी-सेवन की लालसा मैंने ही जगाई थी. 

'जब जाता था, सुना आता था, दद्दू की कैसे लोगों में पहुँच है, कैसे-कैसे विद्वान, पण्डित,शास्त्र के ज्ञाता हैं जिनकी बातों से मन को समाधान मिलता है.  उनसे कहता था- भौजी ,मैंने भी काशी में रह कर विद्याध्ययन किया है. दद्दू की तो बात ही क्या! गुरु नरहर्यानन्द और शेष सनातन जैसे, जिसे मिल जायँ वह तो लोहा भी कंचन बन जाये, फिर दद्दू तो सजग-सचेत तीव्र बुद्धि-संपन्न हैं, समर्थ हैं. सच में जो ऐसे महापुरुषों के संसर्ग में आये, उसका कल्याण हो जाये!

'कभी गंगा, कभी माँ अन्नपूर्णा और बाबा विश्वनाथ और भी बहुत कुछ सुना-सुना कर पुण्यपुरी काशी का माहात्म्य सुनाता रहता था. और अब, जब कामना जाग गई तो सारी राहें बन्द पड़ी हैं. ज्ञान की पिपासा है उनमें ,गृहस्थी में रमी होतीं ,संतान होती तो ध्यान उधर बँट जाता.

दद्दा कुछ सोचते क्यों नहीं? 

'बुद्धिमती पत्नी भाती है, पर उसका भी अपना व्यक्तित्व अपनी वाँछाएँ हो सकती हैं यह भान क्यों नहीं होता?'

 वे सोच में पड़े थे.

रत्नावली रसोई समेटने का उपक्रम कर रही थी.

रात्रि की अँधियारी घिर आई थी.  

नन्ददास उठते-उठते बोले .'ये चन्दू कहाँ ग़ायब हो गया?'

उसे आवाज़ लगा दी. जाने को खड़े हो गए. जैसे एकदम कुछ याद आया हो , रत्ना की ओर उन्मुख हो पूछा,' अरे हो भौजी, विश्वनाथ बाबा से क्या माँगा तुमने?'

'मुझे कुछ अधिक नहीं चाहिये.'

'फिर भी कुछ प्रार्थना तो की होगी. सच्ची-सच्ची बताना. देखो,भगवान की बात पर

झूठ मत बोलना.' .

'मेरी प्रार्थना? सुनोगे - हर बार एक ही प्रार्थना करती हूँ.'

'बताओ ना.' 

'तो सुनो ,मैं अपने ईश्वर से माँगती हूँ - अनायासेन मरणम्, बिना दैन्येन जीवनम्, देहान्ते तव सानिध्यम्, देहि मे परमेश्वरम्!'

*

(क्रमशः)

बुधवार, 24 मार्च 2021

राग-विराग - 8.

राग-विराग - 8.

*

उस दिन रत्नावली ने कहा था ,'मै हूँ न तुम्हारे साथ.' 

'हाँ, तुम मेरे साथ हो.'

पर यहाँ आकर वे हार जाते हैं .अपनी बात कैसे कहें?

 नहीं, नहीं कह सकते.

रत्नावली से किसी तरह नहीं कह सकते 

मन में बड़े वेग से उमड़ता है - 'यहाँ मैं कुछ नहीं कर सकता .मैं नितान्त लाचार हूँ.

 जिस कुघड़ी में जन्मा उसका कोई उपचार नहीं. जो मेरा होगा छिन जायेगा यही देखता आया हूँ. जो मेरे अपने थे काल के ग्रास बन गये .जन्म से भटका हूँ. यही लिखा कर लाया हूँ.'.

मन ही मन कहते हैं ,'नहीं रतन अब नहीं. तुमसे नहीं कह सकता पर तुम्हें  खोना भी नहीं चाहता. मैं निरुपाय हूँ.'

और वे चले गये थे ,रतन से बिना मिले. 

नन्ददास हैं यहाँ, रतन की खोज-खबर रखते हैं, स्थिति सँभाल लेंगे.

रतन ने कहा था - 'राम ने जो दिया, सिर झुका कर ग्रहण कर लिया, उनकी शरण में जाकर उस सब से निस्तार पा लिया. अब काहे का संताप?'

साथ में यह भी कहा

मैं हूँ न तुम्हारे साथ. तुम्हारा  ध्यान रखने को. काहे की चिन्ता?'

और यदि रत्ना भी... नहीं,नहीं. !

और वह उन की थाह  पाना चाहती है. मन को पढ़ना चाहती है. 

उसकी दृष्टि तुलसी अपने मुख पर अनुभव करते हैं.

'क्या देख रही हो, मेरी विपन्नता?'

'नहीं, देख रही हूँ मेरी पूज्या सास कैसी सुन्दर रही होंगी, सब कहते हैं न कि तुम उनकी अनुहार पर हो. तुम्हारा रंग तो,रगड़ खा-खा कर बाहर घूम-घूम कर कुछ झँवरा गया है लेकिन..वे तो ... '

उस दिन  तुलसी जब पूर्व-जीवन की स्मृतियों में भटक रहे थे, बातों बातों में रत्ना के सामने मन की तहें खोलने लगे .

 नीमवाली ताई से उन्होंने  पूछा था, 'मेरी माँ कैसी थी ,ताई'?

'साक्षात् देवी ,इतने कष्टों में रही कभी शिकायत नहीं.

'तेरे मुख में उसकी झलक है. माँ से बहुत मिलता है रे! मुझे तो उसी का ध्यान आता है तुझे  देख कर...'

कई बार बड़े ध्यान से अपना मुख देखते हैं तुलसी. हाँ, दर्पण में देखते हैं,अपने प्रतिबिम्ब के पार खोजते हैं भाल पर सिन्दूर-बिन्दु धारे एक वत्सल मुख को. अंकन झिलमिला कर खो जाते हैं, सब अस्पष्ट रह जाता है.

 रत्ना के नयनों में भीगापन उतर आता है.

स्तब्ध रह जाती है, गहन उदासी की छाया मुखमण्डल पर छा जाती है. मौन सुनती रहती है- भूख से व्याकुल बालक जब किसी द्वार याचना करने जाता तो लोगों की आँखों में कैसे-कैसे भाव तैर जाते थे. सहमा सा, अपना हाथ बढ़ा देता, रूखा-सूखा कुछ डाल दिया जाता, उसके लिये वही छप्पन-भोग होता था, बस एक नीम के नीचेवाली ताई प्यार से कुछ पकड़ा देती -'अरे, बाम्हन का छोरा है ,भाग का दोस कि अनाथ बना भटक रहा है.'

लोग कहते, 'अभागा है, माँ तो जनमते ही सिधार गई.'

'अरे, अभुक्तमूल में जन्मा है,जो इसका अपना होगा ,उस पर संकट पड़ेगा.'

बालक सुनता है ,चुप रहता है. 

कुछ नहीं कर सकता वह 

वे बातें करती है -  

'राम,राम, कैसी साध्वी औरत रही. कभी किसी से किसी की बुराई-भलाई में नहीं पड़ी.  जैसा था चुपचापै गुज़र करती रही.' 

रंबोला को देखो तो माँ का मुख याद आ जाता है, कितना मिलता जुलता है, डील-डौल बाप पर जाता लगता है.' .

'आँखें बिलकुल माँ की पाई हैं.'.

'माँ ,ओ माँ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,' -अंतर चीख़ उठता,' कैसी थी मेरी माँ?' 

उदास बालक मन पर भारी बोझ लिये आगे चल देता,

हताशा छा जाती.कहाँ जा कर रहे? क्या करे? ..पेट की आग चैन नहीं लेने देती .

भूल नहीं पाता वे तीखे वचन ,बेधती निगाहें ..

आज स्थिति बदल गई है. वह सामर्थ्य पा गया है उसे साथी मिल गया है .

रत्ना कहती है तुलसी से,'जहाँ अपना बस नहीं, अपना कोई दोष नहीं उसके लिये हम उत्तरदायी नहीं ,उस पर दुःख और पछतावा कैसा?'.

'बचपन पर किसका बस. सब दूसरों के बस में होते हैं .तुम्हारे करने को कुछ नहीं था, तुम्हारा बस चला तुमने कर के दिखा दिया.

'गुरु ने पहचान ली थी तुम्हारी सामर्थ्य.'

 'हाँ, आज जो कुछ हूँ उन्ही के चरणों की कृपा है.'

'पात्र की उपयुक्तता भी एक कारण है.'

'तुम में निहित था जो कुछ, उसे सामने ला कर निखार दिया उन्होंने. पारखी थे वे. गुरु का महत्व किसी प्रकार कम नहीं.'

''अब काहे का पछतावा?' .

पर जो बात निरन्तर सालती है वही नहीं कह पाते .

मन ही मन समझते हैं - 'हानि-लाभ,जीवन-मरण ,जस-अपजस विधि हाथ! 

अदृष्ट के अपने लेख हैं , वहाँ कोई  उपाय नहीं चलता. 

किसी का कोई बस नहीं.

कभी तुलसी को लगता है रत्ना को अकेला छोड़ दिया, कैसे क्या करती होगी? अपराध-बोध सालता है. मन को समझा लेते हैं ,बुद्धिमती है. किसी-न किसी प्रकार निभा लेगी, मनाते हैं वह सकुशल रहे. 

मेरे मानस में प्रभु राम, माँ-जानकी को नहीं त्यागेंगे ,स्वयं को एकाकी नहीं कर लेंगे. वे चिर-काल साथ रहेंगे, अय़ोध्या के राज-सिंहासन पर और लोक-मानस में, दोनों युग-युग राज करेंगे!

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(क्रमशः)












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