जिस राह को उतावली में पार
कर तुलसी रत्नावली से मिलने उसके पीहर जा पहुँचे थे, उसी पर ग्लानि-ग्रस्त,
यंत्र-चलित से पग बढ़ाते लौटे जा रहे हैं.
अपने आप से पूछते
हैं- कोरी आसक्ति थी ?
एक दिन उसे नहीं देखा तो बिना सोचे -विचारे
अधीर-आकुल सा दौड़ा चला गया. क्या कहते
होंगे रत्ना के परिवारजन .मेरा तो कोई अपना था ही नहीं जिसकी मर्यादा का सवाल उठता. लोक-व्यवहार का ध्यान नहीं आया जिसे निभाने का अवसर स्थितियों ने कभी दिया नहीं था
विवेकहीन,पापी,
कुमति मैं. कैसा अनर्थ कर डाला, हे राम जी !
सिर झुकाए पग बढ़ाये चले
जा रहे हैं,धोती का छोर फरफराता हवा में उड़ता बार-बार चेहरे पर आ जाता है अपने ही
सोच में लीन , हाथ से समेटते हैं और वैसा ही छोड़ देते हैं.
मन का मंथन
पल भर को थमता नहीं -
जनम का अभागा मैं!
दुर्भाग्य साथ-साथ चलता रहा.सारे संबंध टूटते गये पिता माता ,पालनकर्त्री
धायमाई पुनिया ,सब
काल के ग्रास बन गये.ऐसा दुर्भाग्य साथ लेकर जन्मा कि संसार में प्रवेश करते ही
त्याग दिया गया .संबंधों की डोर आगे बढ़ने के बजाय हर बार कटती रही .
बीते हुए दिन ,उस विपन्न
बचपन को कैसे भूला जा सकता है जब, न खाने का ठिकाना ,न रहने का ठौर.दूसरों की दया पर निर्भर दिन किसी तरह कटते थे,भूख से बिलबिलाते बालक को चार चने भी चार फल सम लगते थे.जरा सी छाछ मिल
जाय तो अहो भाग्य, जैसे अमृत पा लिया हो .उस त्रस्त मनस्थिति
की स्मृति आज भी सिहरा देती है.पता नहीं पूर्व जन्म के किन पातकों का फल मिलता
रहा. कैसी कैसी मानसिक यातना में समय बीत रहा था .
और फिर -
एक दिन माथे पर छाप दिये
एक तेजस्वी संत गाँव में आए . गली में घूमते उन्हें अचानक सामने पा मैं चकित रह
गया था , अभिभूत-सा देखे जा रहा था.
दिपदिपा रहा था चेहरा ,माथे पर तिलक काँधे पर उत्तरीय .
वे सामने आकर खड़े थे .ध्यान से देख रहे थे .बालक सकुचा गया .
तू कौन है रे ?
मैं, रम्बोला.
क्या, रम्बोला
?
हाँ ,सब
रम्बोला कहते हैं.
रामबोला है तू?
मैंने सिर हिलाया.मेरी
दृष्टि जैसे बंध गई हो .
तेरे-माता-पिता?
कोई नहीं मेरा .
जिसका कोई नहीं उसके राम
जी होते हैं.
मेरे मन में शंख-ध्वनि सी गूँज उठी.
किसी राह चलते ने सन्त को सारी सूचनाएँ दे डालीं- दीन अनाथ है, अभुक्त मूल में
जन्मा ,अमंगलकारी बालक ...
वे सुनते रहे, निहारते
रहे. फिर बोले -
मेरे साथ चलेगा?
उन्होंने, मुझसे पूछा था.
कानों ने पहली बार ऐसे आश्वस्तिपूर्ण शब्द सुने . हाँ ,मुझी से पूछ रहे थे वे -
मेरे साथ चलेगा ?
अँधा क्या चाहे -दो आँखें !
अभिभूत मैं , मुख से बोल न फूटा, हृदय उमड़ आया. झुक कर उनके चरण परस लिये.
गुरु ने कहा था जिसका कोई नहीं वह राम का है, उसके सब-कुछ राम जी हैं
कोई संचित पुण्य जागा होगा जो गुरु का संरक्षण पाया. हाथ बढ़ाकर अपना लिया था उन्होंने,चरणों में शरण मिली. जो कुछ भी आज हूँ, उन्हीं की कृपा से. उन्हीं की अनुकम्पा से शास्त्र-ज्ञान पा धन्य हुआ , जीवन का परिष्करण और शुभ संस्कार उनके सान्निध्य में विकसे. उबार लिया उस दीन-हीन भिखमंगे बालक को ,अनगढ़ मृदा-पिंड को सँवार कर सुचारु रूप दे दिया . पेट भरने को घर-घर भीख माँगता, रिरियाता रम्बोला, तुलसीदास में परिणति पा कर श्री राम की कथा वाचन का अधिकार पा गया.
रामकथा से फिर रत्ना की याद आई.
उस ने कहा था राम कथा
सुनाना क्या सहज है?राम के चरित में पैठ कर साक्षात्कार किये बिना कैसे कोई राम को जानेगा.
जानेगा नहीं तो गायेगा कैसे?
कहाँ धीर-मति राम और कहाँ
उद्धत-उतावला तुलसी!
बार-बार पछताते हैं. मन ही
मन स्वयं को धिक्कारते हैं .
सब कुछ भली प्रकार चल रहा
था. जीवन में संतोष की बयार बहने लगी थी. हाँ,अच्छाइयां भी आईं थीं हिस्से
में, सामने आने लगीं थीं.
श्रेष्ठ कुल मिला था पूर्वजों का दुर्लभ दाय, सुगठित काया माता-पिता की देन। गुरु के सान्निध्य में विकसित संस्कारशीलता एवं संयत व्यवहार जिस पर मनोयोग से अर्जित ज्ञान ने सान चढ़ा दी थी। कथावाचन के समय लोगों को प्रभावित कर सके ऐसा व्यक्तित्व विकसित हो चला था..
भाग्य ने साथ दिया तो दीनबंधु पाठक ने अपनी विदुषी पुत्री के लिये उचित पात्र समझ गृहस्थ जीवन में प्रवेश करा दिया.
जिसे कहीं से अपनत्व न मिला हो उसे सु्न्दर-सुघर पत्नी पा कर जैसे स्वर्ग मिल गया .सोचा था दारुण काल बीत गया ,अब चैन के दिन आये हैं जीवन की सुविधाएँ भोगने का अवसर पाकर अपने आपको धन्य अनुभव कर रहा था।
रही-सही कसर सुघर,विदुषी पत्नी के सान्निध्य ने पूरी कर दी. पति के रहन-सहन, वेष-भूषा का पूरा ध्यान रखती थी वह. कथावाचन के समय लोगों को प्रभावित कर सके तुलसी का ऐसा व्यक्तित्व विकसित हो चला था.
समय अपनी गति से बीत रहा था ,सब कुछ सहज सुखपूर्वक जैसे कहीं कोई व्यवधान नहीं हो. सांसारिक जीवन रास आने लगा था.
विधि के लेख के आगे किसकी चली है. अचानक ही विघ्न पड़ गया.
अछोर पछतावा उनके हिस्से में लिख गया.
जनम का अभुक्त दोषी हो जो, किसी से नाता कैसे निभता. भटकन ही जिसका जीवन हो, परिवार का शील-संयम वह क्या जाने
सहज-सन्तुष्ट जीवन मेरे जैसों के लिये कहाँ? घोर अशान्त मन में स्वयं के लिये धिक्कार उठने लगी-मेरी ही मति फिर गई थी.
किसेी को कैसे दोषी कहूँ - जैसी करनी रही, वैसी ही भरनी मिलेगी .
एक लंबी साँस अनायास निकल
गई.
संसार
मेरे लिए वर्जित है.जो भी जुड़ा कोई संबंध नहीं टिका. मेरा दुर्भाग्य कहीं उसे भी न ले डूबे. वह संकट
में पड़े उससे पहले ही मैं चला जाऊं .
दूर
चला जाऊँगा. अब नहीं आऊंगा उसके जीवन में. अपना अधिकर छोड़ता हूँ, रत्नावली जिये, दमके.
मार्ग में पड़े पत्थर से
पाँव टकराया गिरते-गिरते बचे,
सिर उठा कर सामने देखा
हरहराती हुई नदी बह रही थी ,काले बादल
अभी भी आकाश में छाये थे. पर पानी का वेग थम-सा गया था .
जिस घाट से उतरे थे उसी पर
आ कर खड़े हो गये .
किनारे कोई नाव नहीं थी.
इतनी तूफ़ानी रात में नाव लाएगा भी कौन ?
जिस तख़्ते के सहारे नदी
पार की थी ,उसे किनारे की एक शिला से टिका दिया था. वहीं पड़ा था.
चलो यही सही,तुलसी आगे
बढ़े, पकड़ कर अपनी ओर घसीटना चाहा .
अरे, यह क्या?
दृष्टि सचेत हो गई. काहे का
लट्ठा? हाथों में थमी थी अकड़ी हुई मृत देह !
एकदम हड़बड़ा गये तुलसी
पकड़ ढीली हुई, शव छूट कर नीचे ढह गया.
विस्फारित नयन, स्तंभित
से खड़े रह गये .
मुख से निकला - राम,राम !
हे, राम
जी!
(क्रमशः)