मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

राग-विराग - 2.


मनस्विनी रत्ना ,जिस सुहाग पर मायके में इठलाती थी,उसकी विलक्षण विद्वत्ता-वाग्मिता का दम भरती थी उसके कथा-वाचन के अर्थ-गांभीर्य पर गर्व करती थी, आदर्शवाद पर फूलती थी,जिसे मान्य-पुरुष मान कर निश्चिंत थी आज वही  सारी मर्यादायें तार-तार कर तूफ़ानी रात की इस इस कुबेला, अनाहूत, विचित्र वेष धरे परिवारजनों के विस्मय का केन्द्र बना, सिर झुकाए खड़ा है .

वह चकित-अवाक् जैसे समझ न पा रही हो- यह क्या हो रहा है.

मर्यादाशील बाला पीहर आए पति से किसी के सामने कुछ बात करने, पूछने का तो सोच भी नहीं सकती.

 उसे लगा सब की दृष्टियाँ उस पर आ टिकी हैं ,जैसे घड़ों पानी पड़ गया हो . कहाँ जाकर  मुँह छिपा ले! 

कैसे  सामना करूँगी अब ? इस घर ने पाँव पूज कर  मान्य का पद दिया जिसे, मान मर्यादा के साथ मुख्य द्वार से प्रवेश कर, अगवानी पा उच्च  आसन  का अधिकारी था वह इस प्रकार अशोभन वेष में अचानक ,खिड़की से घुस आया है.

प्रारंभिक प्रश्नोत्तरों के बाद ,सबको लगा मार्ग की बाधाओं से त्रस्त ,थकित है पाहुन,थोड़ा एकान्त, थोड़ी विश्रान्ति, थोड़ा सहज होने का समय पा ले.  


रत्ना की खिसियाहट भरी भंगिमा देख तुलसी की सारी उत्कंठा हिरन हो चुकी थी .

कुछ देर चुप रह कर बोले - तुम वहाँ नहीं थीं ,इसलिए...

ओह मैं! इस विभ्रमित मानसिकता का कारण मैं! दोष अंततः मेरा ही. पीछे-पीछे दौड़े चले आये. लाज नहीं आई ?कुछ तो विचारते,..क्या सोचेंगे घर के लोग ?

खीझे हुए स्वर एकदम फूट पड़े -  

लाज न आई आपको, पीछे दौड़े  चले आये , धिक्कार है ऐसे प्रेम को , 

तुलसी सन्न रह गये. उफनते दूध पर जैसे अञ्जलि भर पानी पड़  गया हो, उद्वेग से भर गये  अंतर्मन धिक्कार उठा - क्यों चले आए?

हताश भंगिमा लिये वह हतप्रभ मुख रत्ना के अंतर में चुभने लगा,उसने बात को सँभालने का यत्न किया -  

इस अस्थि चर्ममय भंगुर देह में जैसी प्रीत है ,यदि श्री राम में होती तो भव-भीतियाँ ही मिट जातीं .

तुलसी का सिर झुका ही रहा. मनस्ताप जाग उठा.

सारी मर्यादायें तोड़ कर धर दीं. क्या कर रहा हूँ - इसका भी भान नहीं रहा. अंतर्मन से धिक्कार उठी .कैसा आवेश कि बिना सोचे-समझे निकल पड़ा.उचित-अनुचित कुछ न विचारा.

जैसे कोई आवेश चढ़ा हो, रत्ना से मिलना है जुनून सा सवार था -रत्ना,रत्ना. बस रत्ना. अविराम रट रत्ना-रत्ना ,न भूख न प्यास .बस तुल गये ,रत्ना के पास चलना है ,कैसे हरहराती जमुना पार की ,कैसे घर में प्रवेश किया आवेग में सब करते गए!

उत्कण्ठा भरे मन से रत्ना के शब्द टकराए-  धिक्कार है ऐसे प्रेम को!

एकदम वेग  पलट गया .

 सोते से जाग उठे. अरे,मैं क्या कर बैठा ,अंतर पश्चाताप से भर गया-

एक ही आघात और आसक्ति विरक्ति बन गई.

 और उस एक पल में जनमों के सुप्त संस्कार जाग उठे. एक झटके ने समय की धुन्ध झाड़ दी. स्मृतियों के पट खुल गये. 

मन पर वराह मन्दिर का वातावरण छा गया. कर्ण-कुहरों में राम-कथा के बोल समाने लगे.लगा सूकरखेत में गुरु से सुनी रामकथा  उच्चरित हो रही है .

नया बोध उदित हुआ .

 तब उस बचपन के अचेत मन में जो नहीं जागा था आज अनायास सजग हो गया.


गुरु ने कहा था , जन्म लेते ही जिसके मुख से रुदन का नहीं राम-नाम का स्वर फूटा ,वह राम से दूर कहाँ तक रहेगा! 

उस एक पल में गृहस्थ जीवन त्याग, तुलसी वैरागी हो गये.

 एक पल ठहरना भी असह्य हो उठा. किसी की ओर देखा नहीं ,चुपचाप घूम कर लौट पड़े.

द्वार खोल निकल गये .

बाहर आ कर चारों ओर देखा. वर्षा थम-सी गई थी ,हवाएं शान्त हो चली थीं .

मोखे की टेक से मृत सर्प की देह नीचे तक लटक आई थी .

मुख से निकला 'हे राम' और वे आगे बढ़ गये.

*

(क्रमशः)

बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

तृप्ति की क्वालिटी

 *

पहले एक पहेली बूझिये फिर आगे की बात -

'कोठे से उतरीं, बरोठे में फूली खड़ीं.'

इन फूलनेवाली महोदया का तो कहना ही क्या!(इन पर एक पूरा पैराग्राफ़ लिखना अभी बाकी है).  

बीत गए वे दिन जब घरों में भोजन बनाने की नित्य की प्रक्रिया भी, जैसे कोई  आयोजन हो रहा हो.किसी विशेष अवसर पर तो अनुष्ठान जैसा. सुरुचि -सावधानी के साथ विधि-विधान से यत्नपूर्वक बनाना और चाव-भाव से  खिलाकर तृप्त कर देने का उछाह . न कोई शार्ट-कट , न रेडी मेड साधन,और न कोई जल्दी-पल्दी.पूरे विधान के साथ ,सधी हुई आँच पर पूरे इत्मीनान से पकाना ,कोई हबड़-तबड़ नहीं. कोई कहीं  भागा नहीं जा रहा है.न पकानेवाले  न खानेवाले.  

पूरे मनोयोग से तैय्यारी और पूरी रुचि से आस्वादन. 

संतोष .और प्रशंसा के दो बोल सुनने को मिल जाएँ तो लगता सारा श्रम सार्थक हो गया. वे दिन कब के बीत गये .

परिवार में 6-7 लोग होते ही थे ,आए-गए भी  बने रहते थे. और खुराक,आज से कहीं अधिक .अपने से ही देख लें, कितना खा और पचा लेते थे औऱ अब जैसे डर-डर कर खाते हैं ,

हाँ, तो जैसे रुचिपूर्वक भोजन पकाया जाता था और उतने ही चाव से परोसा-खिलाया जाता था .खाना अब भी घरों में पकता है पर उन दिनों के साथ ही वह भाव, चाव और स्वाद ग़ायब हो गए है.

न वह आयोजन,न वह व्यवस्था ,वह सामग्री ,वे साधन और वे प्रयास भी अब उसके पासंग भर भी नहीं .अब कहाँ चूल्हा, और धुएँ की  सोंधी महक ,अब तो गैस की कसैली गंध,नॉब को खोलते -बंद करते प्रायः ही हवा में तैर आती है.सिल-बट्टा कही दिखाई नहीं देता और न जम कर पीसने वाले. पत्थर की सिल पर पिसे उस ताज़े पिसे मसाले की बात ही और थी,जो मौसमी तरकारियों में सिझ कर जो अनुपम स्वाद  देता,ये पनीर ,न्यूट्री नगेट और खुम्भी,जैसी माडर्न चीजों की उसके आगे क्या बिसात! पिसे मसाले कहाँ? महरी या नाइन ,हल्दी भी सिल पर पीस कर नारियल की नट्टी में रख देती ,कि दाल में पड़ जाय.बाकी तो खड़े मसालों के साथ सिल पर पिसेगे ही.

 अरहर की आम पड़ी  चूल्हेवाली दाल जिसमें देसी घी में लहसुन-मिर्च का करारा छौंक लगा हो ,उसके आगे  म़ॉडर्न करियाँ फीकी  लगती हैं.हमारे घर लौकी के बड़े-बड़े टुकड़े दाल चढ़ाने के साथ ही डाल कर घुला दिये जाते थे ,जिससे दाल में विलक्षण स्वाद का आ जाता थ. सिल पर पिसी चटनी की तो बात ही क्या !

आज पिसे मसालों के डिब्बे और दुनिया भर के पैकेट अल्मारी में भऱे हैं, पर उन गिने-चुने मसालोंवाला स्वाद खो गया है.हर चीज़ में टमाटर डालने की रीत नहीं थी,सब  अपना एक निराला  स्वाद लिये थीं  तरकारी का रसा कृत्रिम रूप से गाढ़ा न हो कर मसालों की असली गंध में बसी तरावट वाली तरलता सँजोये रहती थी. ,और बटलोईवाली दाल के क्या कहने ,जिसे चूल्हे पर चढाने बाद पहला उबाल उतार फेंकना जरूरी होता था. और लोहे के बड़े चमचे में अंगारों पर रख कर बनाया हुआ,दूर तक गमक फैलाता ,देशी घी का तीखी मिर्चोंवाला करारा छौंक बटलोई मैं छनाक से बंद होता देर तक छुनछुनाता,स्वाद की घोषणा करता रहता था.

 काँसे की थालियाँ, फूल की कटोरे कटोरियों के साथ चम्मच घर में गिनती के रहते थे .वे लंबे गिलास विस्थापित हो गए. भारी पेंदी की पतीलियाँ और लोहे की कड़ाहियाँ जाने कहाँ खो गईं . कुकर और पैन उपस्थित हैं.नानस्टिक में दो बूँद तेल से काम चल जायेगा.और देशी घी भी लोगों को नुक्सान करने लगा है, रिफ़ाइण्ड आयल ,रिफ़ाइण़्ड प्रकृति के अनुकूल पड़ता है.

खाना चलते-फिरते, फटाफट बनता है ,प्लेटों में परस कर पेट  भरने का पूरा इन्तज़ाम होता है.चम्मचों की कमी नहीं .डिज़ाइनदार ,श्वेत ,झमकती फ़ुल,हाफ़ ,क्वार्टर प्लेटों से टेबल सजा है ,छुरी चम्मच,नैपकिन सब उपस्थित फिर भी जाने क्यों मन वैसा नहीं भरता. 

लगता है तृप्ति की क्वालिटी अब बदल गई है.

*

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

राग-विराग - 1.

*

       तमसाकार रात्रि . घनघोर मेघों से घिरा आकाश, दिशाएँ धूसर, रह रह कर मेघों की  गड़गड़ाहट और गर्जना के साथ,बिजलियों की चमकार. वर्षा की झड़ियाँ बार-बार छूटी पड़ रही हैं. जल-सिक्त तीव्र हवाएँ लौट-लौटकर कुटिया का द्वार भड़भडा देती हैं.

   अचानक बिजली चमकी और घोर गर्जना के साथ निकट ही कहीं वज्रपात हुआ.

कुटिया में अकेले  चुपचाप बैठे तुलसी सिहर गए . 

मन बहुत अकुला रहा है?

वह भी तो ऐसी ही घनघोर रात्रि थी जब सारी बाधाएँ पार कर ,रत्ना की खिडकी से जा चढ़े थे.

उस दिन तो न बाढ़ भरी नदी से डरे थे ,न लटकते सर्प का विचार किया. 

कैसा मोह का पट चढ़ा  था आँखों पर.

मोह का पट?

मोह था केवल? आसक्ति मात्र थी ?

मैंने तो उसी में सारा संसार सीमित कर दिया था. मैं, जो जन्म  से ही त्यक्त रहा - सबके संकट का कारण , अभुक्त मूल में जन्मा अभागा. .पिता ने त्यागा, जननी भी सिधार गयीं. जिसे यत्नपूर्वक सौंप गईं थीं ,थोड़ा भान पाते ही वह चुनिया दाई भी अनाथ छोड़ राम को प्यारी हो गई.रह गया मैं, सर्वनाशी मैं  .जो-जो मुझसे.मुझसे जुड़ा , काल  का ग्रास बनता गया..मैं ही सबके संकट का कारण था.एक रत्ना  थी ,जिसने मुझे स्वीकार किया था ,जीवन का साथ निभाने को आश्वस्त किया था.और मैं जीवन के सारे अभाव उसी से भरने का यत्न करने लगा.

बस वही थी जिसे अपना कह सकूँ .मात्र कहने की बात नहीं ,संपूर्ण मन से चाहा था उसे .मेरी हर अपेक्षा पर खरी थी वह.रूप के साथ गुण और उच्च विचारों का संयोग वह बुद्धि-संपन्ना सचेत नारी थी ,.संस्कारी और आचारवान तो होना ही था - दीनबंधु पाठक की पुत्री जो थी. स्वयं को परम भाग्यशाली समझा था मैंने.  मेरी सहचरी,प्रिय पत्नी ,जिसमें मैंने अपना संसार पा लिया था.सारे नाते -रिश्तेों की पूरक बन गई थी .

स्वयं को बहुत धिक्कारते हैं तुलसी .क्यों अचानक जा पहुँचे थे रत्ना के पीहर.न सोचा न विचारा ,जो मन में उठा कर डाला. ...

कैसी कुबेला घऱ में जा घुसे. अनामंत्रित जामाता का विचित्र वेष ,घर के लोग  विस्मित -से देखते रह गये थे, और रत्ना   विमूढ़ सी खड़ी की खड़ी रह गई थी.

 किसी भाति स्पष्ट किया तुलसी ने कि कैसी-कैसी बाधाएँ पार करने में यह गत हो गई .वह तो गनीमत हुई कि खिड़की से बँधी रस्सी का सहारा मिल गया .

खिड़की से बँधी रस्सी - चकित हो गए थे वे लोग. 

मेरा विचार था- रत्ना ने लटकाई होगी .

ना, मैंने तो नहीं...

खिड़की खोल देखा गया, कहीं कोई रस्सी नहीं.

अरे,खिड़की के इधरवाले मोखे की टेक पर एक मरा सर्प लटक है.

'ओह' तुलसी ने दोनो हाथों हथेलियाँ खोलीं -रक्त के चिह्न!

सब विस्मित, अवाक्.

 एक भयभीत सी चुप्पी  - कहीं कुछ हो जाता तो...?

कोई बोला था - और चाहे जो हो, रत्ना की कुणडली में वैधव्य-योग नहीं है.

दृष्टियाँ रत्ना की ओर घूम गईं - एकदम स्तब्ध थी, मुख विवर्ण !

न रत्ना के मुख से कोई शब्द फूटा ,न तुलसी कुछ बोल सके .

(क्रमशः)

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