मनस्विनी रत्ना ,जिस सुहाग पर मायके में इठलाती थी,उसकी विलक्षण विद्वत्ता-वाग्मिता का दम भरती थी उसके कथा-वाचन के अर्थ-गांभीर्य पर गर्व करती थी, आदर्शवाद पर फूलती थी,जिसे मान्य-पुरुष मान कर निश्चिंत थी आज वही सारी मर्यादायें तार-तार कर तूफ़ानी रात की इस इस कुबेला, अनाहूत, विचित्र वेष धरे परिवारजनों के विस्मय का केन्द्र बना, सिर झुकाए खड़ा है .
वह चकित-अवाक् जैसे समझ न पा रही हो- यह क्या हो रहा है.
मर्यादाशील बाला पीहर आए पति से किसी के सामने कुछ बात करने, पूछने का तो सोच भी नहीं सकती.
उसे लगा सब की दृष्टियाँ उस पर आ टिकी हैं ,जैसे घड़ों पानी पड़ गया हो . कहाँ जाकर मुँह छिपा ले!
कैसे सामना करूँगी अब ? इस घर ने पाँव पूज कर मान्य का पद दिया जिसे, मान मर्यादा के साथ मुख्य द्वार से प्रवेश कर, अगवानी पा उच्च आसन का अधिकारी था वह इस प्रकार अशोभन वेष में अचानक ,खिड़की से घुस आया है.
प्रारंभिक प्रश्नोत्तरों के बाद ,सबको लगा मार्ग की बाधाओं से त्रस्त ,थकित है पाहुन,थोड़ा एकान्त, थोड़ी विश्रान्ति, थोड़ा सहज होने का समय पा ले.
रत्ना की खिसियाहट भरी भंगिमा देख तुलसी की सारी उत्कंठा हिरन हो चुकी थी .
कुछ देर चुप रह कर बोले - तुम वहाँ नहीं थीं ,इसलिए...
ओह मैं! इस विभ्रमित मानसिकता का कारण मैं! दोष अंततः मेरा ही. पीछे-पीछे दौड़े चले आये. लाज नहीं आई ?कुछ तो विचारते,..क्या सोचेंगे घर के लोग ?
खीझे हुए स्वर एकदम फूट पड़े -
लाज न आई आपको, पीछे दौड़े चले आये , धिक्कार है ऐसे प्रेम को ,
तुलसी सन्न रह गये. उफनते दूध पर जैसे अञ्जलि भर पानी पड़ गया हो, उद्वेग से भर गये अंतर्मन धिक्कार उठा - क्यों चले आए?
हताश भंगिमा लिये वह हतप्रभ मुख रत्ना के अंतर में चुभने लगा,उसने बात को सँभालने का यत्न किया -
इस अस्थि चर्ममय भंगुर देह में जैसी प्रीत है ,यदि श्री राम में होती तो भव-भीतियाँ ही मिट जातीं .
तुलसी का सिर झुका ही रहा. मनस्ताप जाग उठा.
सारी मर्यादायें तोड़ कर धर दीं. क्या कर रहा हूँ - इसका भी भान नहीं रहा. अंतर्मन से धिक्कार उठी .कैसा आवेश कि बिना सोचे-समझे निकल पड़ा.उचित-अनुचित कुछ न विचारा.
जैसे कोई आवेश चढ़ा हो, रत्ना से मिलना है जुनून सा सवार था -रत्ना,रत्ना. बस रत्ना. अविराम रट रत्ना-रत्ना ,न भूख न प्यास .बस तुल गये ,रत्ना के पास चलना है ,कैसे हरहराती जमुना पार की ,कैसे घर में प्रवेश किया आवेग में सब करते गए!
उत्कण्ठा भरे मन से रत्ना के शब्द टकराए- धिक्कार है ऐसे प्रेम को!
एकदम वेग पलट गया .
सोते से जाग उठे. अरे,मैं क्या कर बैठा ,अंतर पश्चाताप से भर गया-
एक ही आघात और आसक्ति विरक्ति बन गई.
और उस एक पल में जनमों के सुप्त संस्कार जाग उठे. एक झटके ने समय की धुन्ध झाड़ दी. स्मृतियों के पट खुल गये.
मन पर वराह मन्दिर का वातावरण छा गया. कर्ण-कुहरों में राम-कथा के बोल समाने लगे.लगा सूकरखेत में गुरु से सुनी रामकथा उच्चरित हो रही है .
नया बोध उदित हुआ .
तब उस बचपन के अचेत मन में जो नहीं जागा था आज अनायास सजग हो गया.
गुरु ने कहा था , जन्म लेते ही जिसके मुख से रुदन का नहीं राम-नाम का स्वर फूटा ,वह राम से दूर कहाँ तक रहेगा!
उस एक पल में गृहस्थ जीवन त्याग, तुलसी वैरागी हो गये.
एक पल ठहरना भी असह्य हो उठा. किसी की ओर देखा नहीं ,चुपचाप घूम कर लौट पड़े.
द्वार खोल निकल गये .
बाहर आ कर चारों ओर देखा. वर्षा थम-सी गई थी ,हवाएं शान्त हो चली थीं .
मोखे की टेक से मृत सर्प की देह नीचे तक लटक आई थी .
मुख से निकला 'हे राम' और वे आगे बढ़ गये.
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(क्रमशः)