*
वही पुरातन परिवेश लपेटे ,लोगों से अपनी पहचान छिपाता इस गतिशील संसार में एकाकी भटक रहा हूँ .चिरजीवी हूँ न मैं ,हाँ मैंअश्वत्थामा !
कितनी शताब्दियाँ बीत गईं जन्म-मरण का चक्र अविराम घूमता रहा , स्थितियाँ परिवर्तित होती गईं,नाम,रूप बदल गये - बस एक मैं निरंतर विद्यमान हूँ उसी रूप में ,वही पीड़ा अपने मे समेटे. जो घट रहा है उसका साक्षी होना मेरी नियति है. .सांसारिकता से मोह-भंग हो गया है .दृष्टा बनने का यत्न करता हूँ ,पर सदा तटस्थ नहीं रह पाता. माथे के घाव की रह-रह टीसती पीर बेचैन कर देती है ,भीतर कोई वेग उमड़ता है .केवल अशान्ति पल्ले पड़ती है.
विगत और वर्तमान दोनों मेरे संगी - जिसकी उपज हूँ उससे छूट सकूँ ऐसा कोई उपाय नहीं, और पल-पल बदलते संसार के बीच नित्य नये आज में जीवित रहना है .गुरुपुत्र होने के नाते तब सब स्वजन थे मेरे- विरोधी कौन रहा था कह नहीं सकता.संभवतः कोई नहीं. मुझे दुर्योधन से सहानुभूति थी. उसने ही मेरे विपन्न परिवार को आश्रय देकर मान-मर्यादा दी थी.अर्जुन मेरे गुणी पिता का प्रिय शिष्य था और मैं प्रिय पुत्र. सर्वाधिक समर्पित शिष्य के प्रति गुरु का विशेष झुकाव स्वाभाविक था. आत्मज के प्रति भी स्नेह कम नहीं था पर कभी-कभी उससे ईर्ष्या होती थी मुझे. कुछ विद्याएँ उन्होंने केवल मुझे दीं थीं .और वही मेरे इस दारुण दुख का कारण बन गईँ .
शताब्दियों का मौन जब टूटता है, एक बाढ़-सी उमड़ती है -तमाम धाराएँ,मुक्त होने को व्याकुल और मार्ग रुँधने लगता है.
अब लगने लगा है कि महाभारत किसी धर्मविशेष की न हो कर मानव के जातिगत क्रिया-कलापों की असमाप्त गाथा है, जिस का मंचन विश्व पटल पर अनवरत चल रहा है. निरंतर चलते इस घटना-क्रम में एक के बाद अनेक त्रासद और वीभत्स स्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं ,
वही सब दोहराया जा रहा है ,आदर्शवाद का चोला पहन कर झूठ-सच एक कर देने का वही कौशल - मुझे धर्मराज युधिष्ठिर की याद आती है ,उनका जीवन ही जैसे सत्य और नीति की प्रयोगशाला बन गया था. छोटे भाई की जीती हुई वीर्य-शुल्का कन्या, को माँ के सम्मुख भिक्षा के रूप में रख कर उसमें हिस्सा पाने का आयोजन सफल रहा था. फिर उसे द्यूत के दाँव पर लगा देना ,उनका एकाधिकार. यह भी याद है कि पांचाली ने जब-जब अपनी बुद्धि और अधिकार का उपयोग करना चाहा, उसे विरत करते रहे. राजसभा में बुलाये जाने पर उसने दूत से जब प्रश्न पूछने प्रारंभ किये तो तुरंत लिख कर भेजा -'इस दशा में जब तुम रोती हुई इस कुरु-सभा में आओगी तो हमें सबकी सहानुभूति मिलेगी.'
सबको नहीं पता होगा पर मैंने उनके नीति कौशल का खेल, वह मुड़-तुड़ा परचा देख लिया था. कैसा लगा था मुझे,उस क्षण ,ओह, कैसी विरक्ति जागी थी .और बाद में वे मेरे पिता के,अपने गुरु के विश्वास पर भी अपना सत्य का प्रयोग कर गये.मुझे वितृष्णा हो गई थी उनसे.
कैसा विरूप कर दिया जाता है सत्य को कि ,नीति ,न्याय और औचित्य के लिये न होकर वह मतलब की लादी हुई गठरी भर रह जाता है
काश, कि वे कृष्ण के जीवन से कुछ सीख लेते. उन्हीं के बांधव कृष्ण, समाज पर बोझ बन गई रूढ़ियों को तोड़ने में सदा पत्पर .और वे जीवन भर धर्मराज बने रूढ़ परंपराओं की दुहाई देते सबके लिये मुसीबतें न्योतते रहे.जब कि विषम स्थितियों में कृष्ण अपनी वैयक्तिक सीमाओं से ऊपर उठ कर यथार्थ-परक और लोक हितकारी निर्णय लेने वाले सिद्ध हुए, स्वयं के, यश-अपयश से ऊपर उठ कर प्रतिज्ञा भंग करने को तत्पर हो व्यापक कल्याण की आयोजना करते रहे. यहीं नहीं रुके वे. निन्दा होगी इसका विचार किये बिना,रण छोड़ कर पलायन किया, आपातकाल समझ नीति से च्युत होना भी उचित समझा .
उन्होंने स्थापित किया कि नीति का उद्देश्य औचित्य की रक्षा है ,लोक-कल्याण का हेतु है , मर्यादा का निर्वाह, निर्दोष-असहाय को संरक्षण देना है. यदि वही भंग हो रहा हो तो नीति, अनीति बन जाती है.
कृष्ण के चरित्र की गहनता और गंभीरता को पुराणकारों ने विरूपित कर डाला. निस्पृह भाव से कर्मशील रह,जिसने गीता का बोध अपने जीवन में सिद्ध किया , उसे अति विलासी एवं लंपट का रूप दे कर लोक के मानसिक विलास का मार्ग खोल दिया.लोक-मानस में उनका वही रूप बस गया ..'महाजनो येन गतः स पंथा'- उक्ति चरितार्थ हुई, और पूर्णावतार,कर्मयोगी कृष्ण ,शृंगार देवता बन गये. जब कामना की उद्दाम तरंगों में विहार करने को मिल रहा हो (साथ ही भक्ति का अभिधान जिसे अभिनन्दनीय बना रहा हो) फिर निष्काम कर्म को कौन पूछे? यही पृष्ठभूमि आगे के अनेक कर्मकण्डों का आधार बन गई ,कृष्ण लीला की आड़ में अश्लीलता परोसी जाने लगी. शताब्दियों तक भक्ति के नाम पर नैतिकता का अवमूल्यन होता रहा . धर्म की यह गति धर्माचार्यों को क्यों नहीं खटकती आश्चर्य होता है.
धर्म और नीति के नाम पर युठिष्ठिरी-नीति का अनुसरण करनेवाले महापुरुषों को कौन नियंत्रित करता ? अनुकर्ता ,शान्तिदूत बन कर .दूसरे के अतिक्रम को टालते चले जाते हैं ,अहिंसा के नाम पर एक गाल पर थप्पड़ खाकर दूसरा गाल भी आगे बढ़ा देने का उपदेश देते हैं .इस नीति में घटा कुछ नहीं है, बढ़ाव ही हुआ. सत्य का अनुशीलन ,सरल -सहज पारदर्शी व्यवहार न रह कर कैसे अनेक प्रयोगों का रूप धर सकता है नीति को अपनी अपने अनुसार विविध रूपों में कैसे ढाला जा सकता है , धर्म की धारणाएँ अवसरानुकूल कैसे रूप बदलती हैं , देखता चला आ रहा हूँ .
मानवता मरती रहे अश्वत्थामा जीता रहेगा ,नहीं मर सकता वह - उसे दारुण दुख सहन करते चिर काल जीवित रहना है.
सदियों के अंतराल से उठती,अभिशप्त मानवता की विकल पुकार हूँ, मैं अश्वत्थामा !
*
(क्रमशः)
वही पुरातन परिवेश लपेटे ,लोगों से अपनी पहचान छिपाता इस गतिशील संसार में एकाकी भटक रहा हूँ .चिरजीवी हूँ न मैं ,हाँ मैंअश्वत्थामा !
कितनी शताब्दियाँ बीत गईं जन्म-मरण का चक्र अविराम घूमता रहा , स्थितियाँ परिवर्तित होती गईं,नाम,रूप बदल गये - बस एक मैं निरंतर विद्यमान हूँ उसी रूप में ,वही पीड़ा अपने मे समेटे. जो घट रहा है उसका साक्षी होना मेरी नियति है. .सांसारिकता से मोह-भंग हो गया है .दृष्टा बनने का यत्न करता हूँ ,पर सदा तटस्थ नहीं रह पाता. माथे के घाव की रह-रह टीसती पीर बेचैन कर देती है ,भीतर कोई वेग उमड़ता है .केवल अशान्ति पल्ले पड़ती है.
विगत और वर्तमान दोनों मेरे संगी - जिसकी उपज हूँ उससे छूट सकूँ ऐसा कोई उपाय नहीं, और पल-पल बदलते संसार के बीच नित्य नये आज में जीवित रहना है .गुरुपुत्र होने के नाते तब सब स्वजन थे मेरे- विरोधी कौन रहा था कह नहीं सकता.संभवतः कोई नहीं. मुझे दुर्योधन से सहानुभूति थी. उसने ही मेरे विपन्न परिवार को आश्रय देकर मान-मर्यादा दी थी.अर्जुन मेरे गुणी पिता का प्रिय शिष्य था और मैं प्रिय पुत्र. सर्वाधिक समर्पित शिष्य के प्रति गुरु का विशेष झुकाव स्वाभाविक था. आत्मज के प्रति भी स्नेह कम नहीं था पर कभी-कभी उससे ईर्ष्या होती थी मुझे. कुछ विद्याएँ उन्होंने केवल मुझे दीं थीं .और वही मेरे इस दारुण दुख का कारण बन गईँ .
शताब्दियों का मौन जब टूटता है, एक बाढ़-सी उमड़ती है -तमाम धाराएँ,मुक्त होने को व्याकुल और मार्ग रुँधने लगता है.
अब लगने लगा है कि महाभारत किसी धर्मविशेष की न हो कर मानव के जातिगत क्रिया-कलापों की असमाप्त गाथा है, जिस का मंचन विश्व पटल पर अनवरत चल रहा है. निरंतर चलते इस घटना-क्रम में एक के बाद अनेक त्रासद और वीभत्स स्थितियाँ उत्पन्न हो रही हैं ,
वही सब दोहराया जा रहा है ,आदर्शवाद का चोला पहन कर झूठ-सच एक कर देने का वही कौशल - मुझे धर्मराज युधिष्ठिर की याद आती है ,उनका जीवन ही जैसे सत्य और नीति की प्रयोगशाला बन गया था. छोटे भाई की जीती हुई वीर्य-शुल्का कन्या, को माँ के सम्मुख भिक्षा के रूप में रख कर उसमें हिस्सा पाने का आयोजन सफल रहा था. फिर उसे द्यूत के दाँव पर लगा देना ,उनका एकाधिकार. यह भी याद है कि पांचाली ने जब-जब अपनी बुद्धि और अधिकार का उपयोग करना चाहा, उसे विरत करते रहे. राजसभा में बुलाये जाने पर उसने दूत से जब प्रश्न पूछने प्रारंभ किये तो तुरंत लिख कर भेजा -'इस दशा में जब तुम रोती हुई इस कुरु-सभा में आओगी तो हमें सबकी सहानुभूति मिलेगी.'
सबको नहीं पता होगा पर मैंने उनके नीति कौशल का खेल, वह मुड़-तुड़ा परचा देख लिया था. कैसा लगा था मुझे,उस क्षण ,ओह, कैसी विरक्ति जागी थी .और बाद में वे मेरे पिता के,अपने गुरु के विश्वास पर भी अपना सत्य का प्रयोग कर गये.मुझे वितृष्णा हो गई थी उनसे.
कैसा विरूप कर दिया जाता है सत्य को कि ,नीति ,न्याय और औचित्य के लिये न होकर वह मतलब की लादी हुई गठरी भर रह जाता है
काश, कि वे कृष्ण के जीवन से कुछ सीख लेते. उन्हीं के बांधव कृष्ण, समाज पर बोझ बन गई रूढ़ियों को तोड़ने में सदा पत्पर .और वे जीवन भर धर्मराज बने रूढ़ परंपराओं की दुहाई देते सबके लिये मुसीबतें न्योतते रहे.जब कि विषम स्थितियों में कृष्ण अपनी वैयक्तिक सीमाओं से ऊपर उठ कर यथार्थ-परक और लोक हितकारी निर्णय लेने वाले सिद्ध हुए, स्वयं के, यश-अपयश से ऊपर उठ कर प्रतिज्ञा भंग करने को तत्पर हो व्यापक कल्याण की आयोजना करते रहे. यहीं नहीं रुके वे. निन्दा होगी इसका विचार किये बिना,रण छोड़ कर पलायन किया, आपातकाल समझ नीति से च्युत होना भी उचित समझा .
उन्होंने स्थापित किया कि नीति का उद्देश्य औचित्य की रक्षा है ,लोक-कल्याण का हेतु है , मर्यादा का निर्वाह, निर्दोष-असहाय को संरक्षण देना है. यदि वही भंग हो रहा हो तो नीति, अनीति बन जाती है.
कृष्ण के चरित्र की गहनता और गंभीरता को पुराणकारों ने विरूपित कर डाला. निस्पृह भाव से कर्मशील रह,जिसने गीता का बोध अपने जीवन में सिद्ध किया , उसे अति विलासी एवं लंपट का रूप दे कर लोक के मानसिक विलास का मार्ग खोल दिया.लोक-मानस में उनका वही रूप बस गया ..'महाजनो येन गतः स पंथा'- उक्ति चरितार्थ हुई, और पूर्णावतार,कर्मयोगी कृष्ण ,शृंगार देवता बन गये. जब कामना की उद्दाम तरंगों में विहार करने को मिल रहा हो (साथ ही भक्ति का अभिधान जिसे अभिनन्दनीय बना रहा हो) फिर निष्काम कर्म को कौन पूछे? यही पृष्ठभूमि आगे के अनेक कर्मकण्डों का आधार बन गई ,कृष्ण लीला की आड़ में अश्लीलता परोसी जाने लगी. शताब्दियों तक भक्ति के नाम पर नैतिकता का अवमूल्यन होता रहा . धर्म की यह गति धर्माचार्यों को क्यों नहीं खटकती आश्चर्य होता है.
धर्म और नीति के नाम पर युठिष्ठिरी-नीति का अनुसरण करनेवाले महापुरुषों को कौन नियंत्रित करता ? अनुकर्ता ,शान्तिदूत बन कर .दूसरे के अतिक्रम को टालते चले जाते हैं ,अहिंसा के नाम पर एक गाल पर थप्पड़ खाकर दूसरा गाल भी आगे बढ़ा देने का उपदेश देते हैं .इस नीति में घटा कुछ नहीं है, बढ़ाव ही हुआ. सत्य का अनुशीलन ,सरल -सहज पारदर्शी व्यवहार न रह कर कैसे अनेक प्रयोगों का रूप धर सकता है नीति को अपनी अपने अनुसार विविध रूपों में कैसे ढाला जा सकता है , धर्म की धारणाएँ अवसरानुकूल कैसे रूप बदलती हैं , देखता चला आ रहा हूँ .
मानवता मरती रहे अश्वत्थामा जीता रहेगा ,नहीं मर सकता वह - उसे दारुण दुख सहन करते चिर काल जीवित रहना है.
सदियों के अंतराल से उठती,अभिशप्त मानवता की विकल पुकार हूँ, मैं अश्वत्थामा !
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(क्रमशः)