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सहज-सरस , तोष और पोष देनेवाले बहुत से स्वाद खो गये है. नये निराले अटपटे-लटपटे स्वादों ने जगह ले ली उनकी.न परिचित रूप, न स्वाभाविक रंग .उनकी जगह लेने जाने कितने बनावटी रसायनी घाल-मेल मुख्यधारा में आते जा रहे हैं.अजीनोमोटो जैसा जीव भी रसोई में प्रवेश पा गया .गहरी मंदी आँच पर सीझने का सोंधापन ,स्वाद का वह रचाव खो गया ,अब तो 'बस दो मिनट या चटपट काम होने लगा है - किसी तरह जल्दी निपटे ,जान छूटे !
भोजन का तो रूप ही बदल गया .समोसे समोसे न रहे -किसी में पनीर भरा ,कहीं मैगी से लेकर करमकल्ला तक. बीकानेरी भुजिया कितने रूप बदल गई -आलू भुजिया ,लहसुन वाली ,खारी और जाने कैसे-कैसे विचित्र स्वादों वाली- नाम लेते ही सामने एक पूरी एक शृंखला आ जायेगी .असलियत यह कि ज़माना है पैकिंग का ,और विज्ञापन का कमाल . क्या चाहिये यह जानने को भी गहरे उतरना पड़ेगा - किसमें क्या खासूसियत है .खोजते रहो, टेस्ट करते रहो.पता नहीं क्या-क्या मिल जाये ,सिर्फ़ जो चाहिये उसके सिवा .
जाना-बूझा ताज़ा सामान मिला करता था , देख कर रुचि जागती थी -अब प्रयत्न करके जगानी पड़ती है .पचास तरह की चीज़ें, पचासों वेराइटीज़ में .चुनना भी मुश्किल ! खाने को क्या मिल रहा है इसका कोई पता-ठिकाना नहीं.जिह्वा कुछ खोजती रह जाती है .तुष्टि के स्थान पर कुछ और की चाह उमड़ आती है.बनाने-खाने-खिलाने की सरल परंपरा ,वह आश्वस्त करता का अंदाज़ कहीं बिला गया ,अब तो तमाम उपचार ,व्यवहार साथ चले आते हैं .तन-मन को सरसाता वह सोंधापन ग़ायब हो गया है . खटरागों से भरा नया आचार असहज लगने लगता है कभी-कभी. घर भी जैसे बाहर होता जा रहा है . स्वाभाविकता सिमट गई है ,नये अंदाज़ों के नये मसाले, स्वादों को भटकाये ले जा रहे है .कुछ चाहो मिलता है कुछ और.
नई पीढ़ी को शायद भान ही नहीं कि उसने क्या कुछ गुमा दिया और क्या-क्या गुमाती जा रही है. कितने असली स्वाद ग़ायब हो गये हैं. बनावटी महकें और बाज़ारू स्वाद मुँह लगते जा रहे हैं.घाल-मेल मुख्य धारा में समाता जा रहा है ,कुछ खास पाने की चाह बढ़ती जा रही है. कितनी कीमत चुका कर इस मिलावट और बनावट को खरीदा गया है जिसमें ऊपरी बातों का रोल भोजन से अधिक हो जाता है .खा कर तोष और पोष मिले या न मिले अपने विज्ञापन से मन और नेत्रों को आकर्षित कर लेने की कला में उसकी विशिष्टता है . इसी दौड़ में भाग रहे हैं लोग .पीढ़ियों का अनुभव लुप्त हो जाये. नया अपना रास्ता चलता जायेगा . जो अपना है उसे तो सैंत कर रख लें.नए को स्वीकारने का यह मतलब तो नहीं कि पुराना अपदस्थ हो जाये!
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सहज-सरस , तोष और पोष देनेवाले बहुत से स्वाद खो गये है. नये निराले अटपटे-लटपटे स्वादों ने जगह ले ली उनकी.न परिचित रूप, न स्वाभाविक रंग .उनकी जगह लेने जाने कितने बनावटी रसायनी घाल-मेल मुख्यधारा में आते जा रहे हैं.अजीनोमोटो जैसा जीव भी रसोई में प्रवेश पा गया .गहरी मंदी आँच पर सीझने का सोंधापन ,स्वाद का वह रचाव खो गया ,अब तो 'बस दो मिनट या चटपट काम होने लगा है - किसी तरह जल्दी निपटे ,जान छूटे !
भोजन का तो रूप ही बदल गया .समोसे समोसे न रहे -किसी में पनीर भरा ,कहीं मैगी से लेकर करमकल्ला तक. बीकानेरी भुजिया कितने रूप बदल गई -आलू भुजिया ,लहसुन वाली ,खारी और जाने कैसे-कैसे विचित्र स्वादों वाली- नाम लेते ही सामने एक पूरी एक शृंखला आ जायेगी .असलियत यह कि ज़माना है पैकिंग का ,और विज्ञापन का कमाल . क्या चाहिये यह जानने को भी गहरे उतरना पड़ेगा - किसमें क्या खासूसियत है .खोजते रहो, टेस्ट करते रहो.पता नहीं क्या-क्या मिल जाये ,सिर्फ़ जो चाहिये उसके सिवा .
जाना-बूझा ताज़ा सामान मिला करता था , देख कर रुचि जागती थी -अब प्रयत्न करके जगानी पड़ती है .पचास तरह की चीज़ें, पचासों वेराइटीज़ में .चुनना भी मुश्किल ! खाने को क्या मिल रहा है इसका कोई पता-ठिकाना नहीं.जिह्वा कुछ खोजती रह जाती है .तुष्टि के स्थान पर कुछ और की चाह उमड़ आती है.बनाने-खाने-खिलाने की सरल परंपरा ,वह आश्वस्त करता का अंदाज़ कहीं बिला गया ,अब तो तमाम उपचार ,व्यवहार साथ चले आते हैं .तन-मन को सरसाता वह सोंधापन ग़ायब हो गया है . खटरागों से भरा नया आचार असहज लगने लगता है कभी-कभी. घर भी जैसे बाहर होता जा रहा है . स्वाभाविकता सिमट गई है ,नये अंदाज़ों के नये मसाले, स्वादों को भटकाये ले जा रहे है .कुछ चाहो मिलता है कुछ और.
नई पीढ़ी को शायद भान ही नहीं कि उसने क्या कुछ गुमा दिया और क्या-क्या गुमाती जा रही है. कितने असली स्वाद ग़ायब हो गये हैं. बनावटी महकें और बाज़ारू स्वाद मुँह लगते जा रहे हैं.घाल-मेल मुख्य धारा में समाता जा रहा है ,कुछ खास पाने की चाह बढ़ती जा रही है. कितनी कीमत चुका कर इस मिलावट और बनावट को खरीदा गया है जिसमें ऊपरी बातों का रोल भोजन से अधिक हो जाता है .खा कर तोष और पोष मिले या न मिले अपने विज्ञापन से मन और नेत्रों को आकर्षित कर लेने की कला में उसकी विशिष्टता है . इसी दौड़ में भाग रहे हैं लोग .पीढ़ियों का अनुभव लुप्त हो जाये. नया अपना रास्ता चलता जायेगा . जो अपना है उसे तो सैंत कर रख लें.नए को स्वीकारने का यह मतलब तो नहीं कि पुराना अपदस्थ हो जाये!
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