सोमवार, 18 मई 2015

उलनबटोर / झुमरीतलैया .

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जब पहली बार उलनबटोर का नाम सुना तो मन वैसे ही कौतुक से भर उठा था जैसे झुमरीतलैया का नाम सुन कर .आठ-दस साल बीत गए उस बात को , मन में बार-बार दोनों नामों की गूँज उठती रही .फिर एक बार और उलनबटोर के बारे में एक खास बात पढ़ी - वहाँ के लोग अपनी महिलाओँ को ,गर्दन में मोच के दर्द से छुटकारा दिलाने का, बड़ा नायाब तरीका अपनाते हैं - करना बस ये है कि दर्दवाली महिला घुटनों के बल बैठ कर किसी खूबसूरत पुरुष के घुटनों पर अपना सिर रख दे. कुछ ही देर में दर्द कम होते-होते ग़ायब!
हर्रा लगे न फिटकरी और रंग आए चोखा!' की तर्ज़ पर , सारी परेशानी उड़न-छू और महिलाएँ प्रसन्न-चित्त ! 
कमाल का उपाय है .मुझे लगा ,मानव-प्रकृति हर जगह एक सी - जो एक के लिये गुणकारी,  सब के लिये मुफ़ीद होना चाहिये .और दर्द से छुटकारा दिलाना यों भी बड़े पुण्य का काम है. सो मैंने 4-5 वर्ष पहले एक पोस्ट लिखी थी  'दर्द की दवा' - महिलाओं से खासतौर पर निवेदन किया था , कि जिनकी गर्दन में वास्तव में दर्द है, इस इलाज से फ़ायदा उठायें. देखा जाय तो  कुछ बीमारियाँ मानसिक होती हैं शारीरिक लक्षण बाद में दिखाई देते हैं.मैं चाहती थी प्रयोगकर्त्री अपनी शारीरिक-मानसिक स्थिति और भावनात्मक अनुभव हमें खुल कर लिख भेजें. उनके अनुभवों से बहुतों का मार्ग-दर्शन होता , एक नई पद्धति में प्रशंसनीय योगदान होता.पर मेरी बात को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया.'बरेली के झुमके' की तरह सब ने सुना, पर  चिन्ता किसी को नहीं ,वाटरप्रूफ़ हुए चलते बने .वास्तविकता  पता लगाने तक का नहीं सोचा किसी ने.
अब मंच पर मोदी जी का आगमन हुआ है ,लोक-कल्याण कामना को वांछित महत्व मिला है. उन्होंने स्वयं  जाकर प्रत्यक्ष कर दिया कि उलनबटोर इस धरती पर विद्यमान है, मंगोलिया की राजधानी है, उसकी अपनी खासूसियतें हैं .जाने क्यों मंगोलिया का नाम लेते ही मुझे मंगल ग्रह का ध्यान आने लगता है - बड़ा पराक्रमी ग्रह है ,बड़ा साहसी और सुविदित योद्धा - सब जानते-मानते हैं .पर बात हो रही है राजधानी उलनबटोर की .प्राचीनकाल से वहाँ की बात निराली रही और अब  अपने प्रधान मंत्री, मोदी जी के जाने से हमें वहाँ का और-और हाल मिल रहा हैं.उलनबटोर से सटे सोंगिनो खैरखान जिले में दो सौ साल पुराने एक बौद्ध भिक्षु का ममीकृत शरीर मिला है .जिसके लिए एक वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु ने दावा किया कि यह मृत नहीं बल्कि पद्मासन (ध्यान लगाने का आसन) की मुद्रा में हैं और गहन चिंतन में हैं.सब पहेली जैसा लग रहा है मुझे तो .अब तक कौन जानता था उलनबटोर की पुरातन कथा .मोदी जी ने जाकर नाम उजागर कर दिया.
बची अपनी झुमरीतलैया .बहुत बातें इस नाम के साथ जोड़ रखी हैं लोगों ने.उलनबटोर की ही तरह कभी-कभी मुझे लगने लगता था कि इस नाम का कोई स्थान है भी या बस ,विनोदी लोक-मानस की संकल्पना भर! एक की असलियत सामने आ गई . अब इसकी भी आशा बँधी है .मैं तो मना रही हूँ ,मोदी जी वहाँ का भी चक्कर लगा डालें कभी. उन के चरण पड़ें, इसके भी दिन बहुरें ,दुनिया के नक़शे पर पहचान बने .झुमरी तलैया का भी उद्धार हो जाए!

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सोमवार, 11 मई 2015

सागर - संगम -10 .

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नटी - युग की विषम स्थितियों को सम करने के लिये महापुरुषों का आविर्भाव होता है ।भक्ति जिस लहर ने सारे भारत की धरती को को सींच दिया ,आपके विचार में उसका श्रेय किसे जाता है  ?
सूत्र - गुरु रामानन्द को !समाज में दलितों और वंचितों के उन्नयन का पथ उन्हीं ने प्रशस्त किया ।क्यों मित्र ,लोक मन ,तुम्हारा क्या विचार है ?
लोक - भक्ति द्राविड ऊपजी ,लाये रामानन्द ,
 परकट किया कबीर ने सप्त द्वीप नव- खण्ड !

प्रत्यक्ष देख लो  .. जन के स्तर पर, विशेष रूप से समाज के वंचित वर्ग  के उन्नयन की संभावनाएँ   निर्गुण भक्ति के प्रसार  ने ही खोलीं .

(दृष्य - रामानन्द कबीर और रैदास का आगमन )
रैदास - गुरु महाराज एक जिज्ञासा है आज्ञा हो तो निवेदन करूँ?
रामा - कहो संत कहो .मन में शंका न रहने दो .
रैदास -महाराज आपके अनगिन शिष्य हैें .पर सब अपने-अपने ढंग से चलते हैं.ये कबीर और हम निर्गुण को ध्याते हैं ,पीपाजी सगुण को मानते हैं .क्या इससे कोई भेद नहीं उपजता ?

रामा - तुम समझे नहीं संत,मन को उस परम शक्ति के प्रति एकाग्र करने के लिये कोई साधन चाहिये.सारी इन्द्रियाँ जिसमें तन्मय हो जायें वह सगुण रूप मन एकाग्र करता है और बाह्य जगत से निरपेक्ष हो कर हृदय जिसमें लीन हो जाये वह निर्गुण भी उसी का भावन है.ये भेद ऊपर से प्रतीत होते हैं,उद्देश्य एक ही है और वह है भौतिक आकर्षणों से विरक्त कर मनुष्य में सतोगुण की प्रतिष्ठा करना.
कबीर - और महाराज गृहस्थ और बैरागी में कौन श्रेष्ठ है?रामा -सबसे श्रेष्ठ है गृहस्थाश्रम जो शेष सभी का भार वहन करता है.संसार के कर्तव्यों से उपराम होने पर वैराग्य भी उचित है -दोनों में परस्पर विरोध है ही कहाँ?
(एक अत्यंत विपन्न दुखी स्त्री का प्रवेश)
स्त्री -क्या गुरु जी यही हैं ?
रैदास - कौन से गुरु जी ?
स्त्री -नाम हमें मालूम नाहीं...पर नाम से क्या अंतर पड़ता है ?
कबीर -गुरु तो बहुतेरे घूमते पिरते हैं .किस गुरु को पूछ रही हो ?
स्त्री- किस गुरु को ? तुम भी तो गुरु हो .
ऐसा ही एक मेरे आदमी को ले गया .पर उसमें तुमसे थोड़ा फरक है.
उसकी लाल लाल आँखें ,कानों को फाड़तेपहने हुये कुंडल रुद्राक्ष की माला ,मांस -मछली -सराब छक कर लेनेवाले गँजेड़ी ...तुम्हें उनका पता तो होगा ..!
रैदास - ऐसे पाखण्डी ,बहुत घूमते हैं .
स्त्री - उधऱ बच्चे रटते हैं बप्पा कब आय़ेंगे. लोगन ने जीना मुस्किल कर दिया है मैं अब का करूँ ?न रहन का ठौर . न खाने -कपड़े का ठिकाना कोई पास फटकने भी नहीं देता ,दुई-दुई जवान होती लड़कियन का छोड़ के मर भी नहीं सकती .
रामा - तुम्हारा आदमी तुम्हें छोड़ कर क्यों चला गया ?
स्त्री -महाराज मरद के लिये सारे रास्ते खुले हैं औरत के लिये सब जगह ताले .आदमी बैरागी बन कर संसार से मुक्त हो सकता है ,औरत को मौत के सिवा कहीं छुटकारा  नहीं .
रामा - स्त्री संसृति धारा चलाती है वह प्रवृत्ति की ओर लाती है ,निवृत्ति उसका धर्म नहीं .
स्त्री -जिस संसार से मरद छुटकारा पाना चाहता है उसे चलाये भी रखना चाहता है ,और वो भी औरत के ऊपर जिम्मेदारी डाल के.उसकी क्या  कोई जुम्मेदारी  नहीं .चाहे जब पल्ला झाड़ के चल दे ..?
कबीर - स्त्री माया है .वह पुरुष को पतित करती हैउसे संसार के बंधनों में जकड़ती है .
स्त्री - तो महाराज छुटकारा सिरफ़ मरद के लिए है औरत हमेसा उस जंजाल में फँसी रहने को है ?
कबीर -नारी का ही फैलाया सारा जंजाल है .वह नरक का द्वार है.

स्त्री - तब तो महाराज नरक के द्वार को पैदा होते ही खतम कर देते .या ऐसा करते कि लड़का पैदा हो कर माँ को मार डालता क्यों कि पहला संपर्क उसी औरत से हुआ फिर को नरक का दुआर सदा को बंद हो जाता ,
(कुछ रुक कर )पर मुझे तो जिसने बंधनों में जकड़ा वह मरद था.नहीं तो मैं स्वतंत्र होती.
(कुछ देर चुप्पी)

स्त्री - कैसी अजीब बात !अपने ऊपर संयम नहीं और दोष-पाप की भागी सिरफ़ औरत !
रामा- का भया सो स्पष्ट कहो ?
स्त्री -नौ बरिस की उमर में बाप ने ब्याह दीना .तब तो मुझे कुछ अकल न थी.उस नादान उमर से ही तन पर अत्याचार शुरू हो गये.मैं तो उसके नाम से काँप-काँप जाती थी,पर खैर जाने दो ..,फिर हर साल बच्चे जनने मेरा काम, तीन बचे और सब मर गये.सारा दिन घर की चक्की में पिसने को मैं वो तो खाने और सेवा करवाने का अधिकारी.
 बच्चे पैदा करने का हकदार.पर दोष तो सिरफ मेरा .
रामा - क्यों ?वह कुछ करता नहीं था?
स्त्री - करता ?बाबाओं की संगत सुल्फ़ा-गाँजा का सेवन और मेरी पिटाई .
(तीनो लोग कानों पर हाथ रख लेते हैं)-हरे हरे .
रामा - राम राम .अब वह कहाँ है ?उसे मेरे पास लाओ .
स्त्री -वह तो काम फुँकवा कर बाबा बन कर निकल गया.सारा जंजाल मेरे सिर डाल गया.
रमा -बहन ,दोषी वह है तुम नहीं .
स्त्री -जब घर-गिरस्थी करने का बूता नहीं रहता तब आदमी ऐसे ही साधू बन कर औरत पर सब छोड़ कर चल देता है.
अब तो बच्चों को भी लोग जीने नहीं देते ,लड़कियों की और मुस्किल कहाँ ले जाऊँ .का करूँ ? ...ये नियाव होता है औरत के साथ?
रामा -(आवेश में आ जाते हैं ) नहीं यह अन्याय है .उसने गृहस्थ धर्म का भार लिया था वह निभाना था.
स्त्री - पर महाराज पाप की भागी तो सिरफ़ औरत होती है न!वह तो जानवर होती है,उसके मन-आत्मा कहाँ ..?अभी ये महाराज-(कबीर की तरफ़ इशारा)भी तो कुछ जदली-कटी कह रहे थे.
कबीर -माफ़ करो बहना मुझे यह  पता नहीं था...
.स्त्री - मुझसे अब सहन नहीं होता महाराज,इच्छा होती है तीनन को जहर खिला कर खुद अपनी भी भी जान दे दूँ .
रामा - भगवान की शरण में आओ बहन ,वही कल्याण करेंगे.
स्त्री -औरत के लिए भगवान के पास भी जगह कहाँ है?

रामा -(कुछ  सोच कर )भक्ति का अधिकार सबको है. स्त्री दलित है, विवश है , दीन है .उसे तो और भी अधिक.
रैदास -धन्य हो महाराज ! शूद्र को भक्ति का वरदान दिया ही था अब स्त्री का भी कल्याण हो !

रामा -संत रैदास, आप इस बहन को पीपा जी के पास ले जायें वे इनकी व्यवस्था करेंगे.
(रैदास और स्त्री जाते हैं )
8कबीर- महाराज स्त्रियों को भक्ति के मार्ग में स्वीकार कर लिया पर उसका परिणाम?

रामा- पुरुष स्वयं विचलित होता है और स्त्री पर प्रतिबंध लगा देता है.एक को वंचित कर दूसरा अपनी सुविधा चाहे यह कहाँ का न्याय है ?वह तो जननी है पालनकर्त्री है .स्वभाव से वह विकारों की ओर नहीं जाती उसे ले जाता है पुरुष अपनी कामना के लिए ,अपना अधिकार मान कर ..हमारे दक्षिणात्य समाज में नारी की बड़ी प्रतिष्ठा है.
रैदास - आपने शूद्रों को,जो पशुओँ से भी बदतर जीवन व्यतीत कर रहे थे,भक्ति का संदेश दे कर सही अर्थों में मानवता की प्रतिष्ठा की.और आज चिरकाल से वंचित और पीड़ित स्त्रियों को भी मानवी का दर्जा दिया,इससे सबका कल्याण होगा.
रामा - संत रैदास, मैं कुछ नहीं ,केवल एक माध्यम हूँ .जो लोग भगवान के समकक्ष बनते हैं ,अपने सारे कर्तव्य औरों पर डाल कर सुविधायें भोगते हैं वे समाज के दूषण हैं. उन्हीं ने व्यवस्था दी कि शूद्रों को केवल सेवा करनी चाहिये .स्त्री के लिये उन्नयन के सारे मार्ग रूँध दिये .हमारे यहाँ नारी को देवी स्वरूप माना गया है.-स्त्रियःसमस्ताःतव देवि रूपा .
तात्तविक रूप से स्त्री-पुरुष मानव योनि में समान भागी हैं ,जातिृगत भेद भी ऊपरी आरोपण हैं .अंततःसब मनुष्य हैं.
पीपा - धन्य हो महाराज !
कबीर - मैं बहुत घूमा हूँ महाराज पर दक्षिण नहीं जा पाया.आज आपने मुझे नई दृष्टि दी आप धन्य हैं.
रामा - संत कबीर कुछ सुनाओ .
कबरी
 -साधो एक रूप सब माँहीं ,
अपने माँहिं विचार के देखोऔर दूसरो नाहीं !
एकै त्वचा,रुधिर पुनि एकैविप्र सूद्र के माँहीं ,
कहीं नारि,कहिं नर हुइडोले गैब पुरिस वह नाहीं !
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(क्रमशः)

शनिवार, 2 मई 2015

सागर-संगम -9 .



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पूर्व-वक्तव्य - 
 संस्कृतियों का विकास, लोक-मन की अनवरत यात्रा है . लोक-मानस जब तक विवेकशील और सहिष्णु होकर समय की गति के साथ चलता है तब तक संस्कृतियों का विकास होता है अन्यथा विनाश हो जाता है .भारत एक सागर है जिसमें प्रागैतिहासिक युगों से लेकर ,आज तक अनेकानेक संस्कृतियों और धर्मों का संगमन होता आया है .विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियाँ जहाँ काल के प्रवाह में विलीन हो गईं वहीं भारतीय संस्कृति चिर -प्राचीना हो कर भी चिर-नवीना बनी रही - कारण कि सागर के समान अनेकानेक सरिताओं को आत्मसात् कर यह अपनी जीवनी-शक्ति को परिवर्धित करती रही ,साथ ही इसने विभिन्न  धाराओं को धारण कर अपनी विविधता और समग्रता को बनाये रखा .
 धर्मों और भाषाओं का उद्भव मानव समाज के सामंजस्य और कल्याण के लिये होता है ,वैमनस्य के लिये नहीं .आज जब धर्म और भाषा के नाम लेकर कुछ विकृत मन बर्बर्ताओं के नंगनाच में लगे हैं,हम पलट कर देखें कि जीवन-यात्रा के किन पड़ावों से गुज़र कर हम यहाँ तक पहुँच पाये हैं.इक्कीसवीं सदी के बदलते  परिवेश में , विश्व  के मंगल और स्वस्ति  लिये हम ऐसा  संतुलित और स्वस्थ वातावरण निर्मित करें ,जिससे कि आगत  पीढि़याँ समुचित दाय प्राप्त कर  जीवन की महाधारा में  अपना  स्थान निर्धारित कर  सकें .
 अविरल काल-धारा से,लोक-मन ,लोक की भाषा में जो वैश्वानर है ,युग-युग के घाटों का रस पान कर सूत्रधार को अनुभूतिमयी दृष्टि का दान देता  ,सतत प्रवहमान काल-धारा में समाधिस्थ होता है . नश्वर देहों में अनश्वर चैतन्य के सूत्र को धारण करनेवाला सूत्रधार ,चिर सहचरी ,जिज्ञासा नटी के साथ ,लोक मन के रस-ब्रह्म का साक्षात्कार करता चल रहा है  .
 आइये हम भी लोक-मन की रागिनी के अनहद नाद में गूँजते ' विविधता में एकता ' की तान को सुनने और गुनने की चाह में, पूर्व दृष्यों की निरंतरता के साथ  चलें, आगत क्रमों के संयोजन हेतु ...... 
 [ सूत्रधार ,नटी और लोकमन मंच पर - ]

सूत्र - अकबर ने मुस्लिम पक्ष की ओर से प्रयत्न किया ,लेकिन वह  राजनीति से संबद्ध था ,और उसके प्रयास बौद्धिक स्तर पर रहे थे अतः,दोनों धर्मों के लोगों की मानसिकता पर प्रभाव न डाल सके. 

नटी - हाँ ,वह आध्यात्मिक ,या सामाजिक स्तर का व्यक्ति नहीं था ,इसलिये उसकी बातें हवा में उड़ा दी गईं .लेकिन और प्रयत्न भी तो किये गये थे ?

सूत्र -गुरु नानक ने हिन्दू पक्ष की ओर से प्रयत्न किया था .उनका मत अपने सिद्धान्तों में सिद्धान्तों में सार्वभौम होने पर भी व्यवहार में एक सप्रदाय रह गया ..

नटी -[गहरी साँस लेती है ]हाँ प्रिय ,उस दिन सूफियों और सन्तों के प्रयत्नों की बात चल रही थी .वे भी संप्रदायों में सीमित होकर रह गये .और विरोंधों का शमन नहीं हो सका .

सूत्र - सुनो कवि कुछ कह रहे हैं .

लोक - किन्तु समन्वय जन स्तर पर कभी नहीं रुक पाया ,

एक दूसरे के प्रभाव को दोनों ने अपनाया!

एक देश में एक साथ रह इक दूजे को समझा ,

जीवन पद्धति का तब अभिनव रूप निखर कर आया !

 जीवन नदिया सब को ले लहराती बढती जाये !

नटी - कवि आपने शंकराचार्य की बात कही थी ,वे तो धर्मगुरु थे .भारत की एकता में उनका क्या योगदान है?

शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म के स्थायित्व, प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में अपूर्व योगदान दिया. उनके व्यक्तितत्व में गुरु, दार्शनिक, समाज एवं धर्म सुधारक, विभिन्न मतों तथा सम्प्रदायों के समन्वयकर्ता का रूप दिखाई पड़ता है.

सूत्र - धर्म क्या है ?इतना सब पढ़ कर मैंने तो यही समझा कि यह जीने की पद्धति है -व्यक्ति और समाज की स्थिति,विकास और कल्याण के लिये जो विधि-विधान समय-समय पर बने वही धर्म है .लोक जीवन पर आचार्य शंकर का प्रभाव बड़ा दूरगामी था .जीवन के परम सत्य को व्यावहारिक सत्य के साथ जोड़ने के कारण ही अपरोक्षानुभूति के बाद आचार्य शंकर मौन बैठकर उसका आनन्द नहीं लेते, बल्कि समूचे भारतवर्ष में घूम-घूम कर उसके रूप-स्वरूप को निखारने में तत्पर रहे थे .

 उनका व्यापक प्रभाव  जन-जीवन में  बहुत गहरे तक समाया हुआ है जो लोक व्यवहार में स्पष्ट दिखाई देता है.


दृष्य -



दृष्य - एक वृद्ध-वृद्धा और एक युवती ,सामान में दो गठरियाँ एक बंडल लोटा-डोर एक संदूकची - जैसे किसी यात्रा से आये हों ]

वृद्ध - चलो लैट के बुद्धू घर को आये ,काहे सुमिरनी !

सुमि -घर तो तुम्हई लौट के आये हो दद्दा ,तब तो तुम्हईं बुद्धू भये .

वृद्धा -काहे ?बुद्धू तो गये हते .लौट के तो अकलमन्द बन के आये हैं .[अपनी पुटरिया खोलने का उपक्रम] ,
बाहर से आवाजें -
'अरे ताऊ ,तीरथ करके लैट आये का ?''आय गए का ?'आदि कुछ लोग आते हैं परस्पर पा-लागी आशीर्वाद होता है ]

वृद्धा- आओ, लल्लू ,अच्छे तो रहे ?

लल्लू -हम तो ठीक हैं ताई ,आप लोग बहु दिन लगाय के आये !

वृद्धा -सुमिरनी ,दुआरका के परसाद की पुड़िया तुमका दीन रहे ,कहाँ धरी है ?

सुमि - हम तो हुअईँ धर दीन रहै ,दद्दा से पूछो .

वृद्ध - तुम्हार भौजी को लोगन से बतियाबे का एतना सौक है कि कुछू ध्यान नहीं रहत .हमनेआपुन टोपी तरै धर दिया रहै .

वृद्धा - [टोपी के नीचे से प्रसाद की पुडिया निकालती है ,ताँके कलश को खोलती है ,आचमनी निकालती है] लेओ दुलहिन ,लल्लू लेओ परसाद .सब तीरथन का जल एक ही कलस में समाय गया है .

एक स्त्री -आप लोग बड़भागी हैं तीरथ कर आये हैं.इन चरनन को छूइ के हमउ पुन्न के भागी हुइ गये .

वृद्ध -तुम सब लोगन ने हिम्मत बँधाई ,गाँव के घरन ते पइसा कोड़ी की मदद भई ,तब हम जाय पाये .हमारो अकेलो बूता कहाँ हतो !

लल्लू -ताऊ - आप ही ने तो सिगरी उमर आपद्-विपद में गाँववालन को साथ दौ .....अऊर चारों धाम के तीरथ जैसो महन् कारज अकेले से थोरे ही न हुई जाय .

वृद्ध) -इहै तो पुरानो चलन है ,तीरथ जान वारै को सिगरो गाँव खरच देत है और वाके पुन्न को भागीदार बनि जात है .

स्त्री -जात्रा कैसी रही ताई ?

वृद्धा - बहुतैआनन्द रहो .ई धरती कित्ती बड़ी है अब समुझ पायेन .अब तक तो कुआँ के मेंढक बने भये थे .हमारी तो आँखी खुलि गईं लल्लू .आपन देस में कैसे कैसे आचार-विचार ,कित्ते पंथ ,कित्ते मारग - और सब एकै साथ ,मिले-जुले जैसे महा समुन्दर होय .

एक पुरुष - आपको अपने नेम धरम की बहुत चिन्ता रहै ताई ,तरह-तरह के लोग-लुगाइन में जानौ न परता होई कि कौन जात है कौन कुजात ?

वृद्धा -ऊ नेम धरम तो हम कन्या-कुमारी के समुन्दर में बहाय आईं ,पुत्तन .संकराचार्य को भगवान ने चंडाल को रूप धार के दरसन दिये रहे .अब तो इहै लगत है ,जो ईमान धरम से रहे उहै सुद्ध ,बाकी सब सुसरे चंडाल हैं .

सुमि -दद्दा -भौजी तो अभै लौटन को तैयार नाहीं हते ,पर हमने कही घर ते निकरे साल से ऊपर हुई गवा अब उहाँ की भी सुध लेओ .

एक व्यक्ति -अइसा उहाँ का मिलि गवा जौन  घर संसार बिसराय दिया .हमारी ताई तो घर की देहरी न छोड़त रही इत्ते दिन कैसे बाहर रही ?

 वृद्धा -अरे पुत्तन, कुछू पूछो मत .इत्ता पायो इत्ता पायो कि हमार छोटे मन में समाय नहीं पाय रहा है .उहाँ साथ भी इत्ता अच्छा मिलि गवा .उहाँ उज्जैन के रहे दोऊ पति-पत्नी .हमें तो अइस लगे जइसे आपुन सगे संबंधी होयँ .इत्ते परोपकारी ,इत्ते विद्वान और इत्ते सज्जन  !

वृदध -सच्ची में ,उनके साथ अइस लगत रहा ,जइस आपुन देस का पग-पग तीरथ होय .उनकी बातें तो हमारे हिरदै में पैठि गईं हैं .[इस बीच प्रसाद देने का क्रम चलता रहता है ]

सुमि -हमरा तो समझो जनम सकारथ हुई गवा .जी जुडाय गवा हमार तो .

 वृद्ध -ऊ संकराचार्य साच्छात् अवतार रहे जिनने चारों छोर तीरथ धाम बनाय के लोगन को सदा-सदा को जोड़ दिया .चारों दिसायें जाने बिना तो आदमी समुझ अधूरी ही रहि जावत है.

लल्लू - ताऊ ,अपने हिन्दुस्तान में अनगिनत पंथ हैं ,सैकडों देवता पुजते हैं ,कोई शैव ,कोई शाक्त ,कोई वैष्णव ,कोई किसी को माने कोई किसी और को ,फिर तीरथ में कैसे सबन की पटरी बैठ जात हैगी ?

वृद्ध -इसी लै तो संकराचार्य ने पंचदेवोपासना चलाई .शिव दुर्गा ,विष्णु ,गणेश और सूर्य जब पाँचों में निष्ठा है तो मन आपै आप जुड़ि जायेंगे .

 वृद्धा -उनने धरम को सुद्ध कर दिया .माँस मदिरा ,मसान-पूजा ,तंत्र ,बलि सब हटा दिया और कहा सच्ची भगती ही सच्ची पूजा है .भज गोविंदं ,भज गोविंदं ,भज गोविंदं मूढमते !

स्त्री - अउर का देखा ,सुमिरनी बहिना ?

सुमि -तरह तरह के लोग, तरह तरह के पहिनावा, तरह तरह की बोली.,उत्तर -दक्खिन ,पूरव-पच्छिम सब तरफ से चले आय रहे हैं .सब के अलग रं ग अलग ढंग पर मन में उहै सरधा,उहै भक्ति !अइस लगन लाग जौन हम सब एकै कुटुम  के परानी होयँ
वृद्धा - ई सुमिरनी तो रात मे सोय जात रहीं .हम लोग सबन से बोलत बतियात रहे ,सतसंग करत रहे .एक अउर मिले रहे..

सुमिरनी -  अरे हाँ ,दच्छिन में पांड्य देस के वासी रहें  ,आपुन नाम कब्भौं नाहीं बतावत,कहि देत हैं   बस एक यात्री हूँ . उनकी तो अइस बातें कि लिखि के धर लेउ... हमेसा के लै ...

पुत्तन - अच्छा !

वृद्ध -  कहत रहे -मनुष्य को आठ महीनों तक खूब परिश्रम करन का  चाही जिससे बरिसा भर सुख से  खाय सके.दिन भर परिस्रम  करै  जा सों रातन में निचिंत सोय सके .जवानी में बुढ़ापे के लै  संग्रह करै अउर  इस लोक में रहत पे परलोक के लै कमाय ले.

पुत्तन - परलोक के लिये कमाई?ई आपुन  सुमझ में नहीं आवा .

वृद्ध  -शरधा अउर बिसवास धारन करो.
कोरे ज्ञान  ते ऊहा बढ़त है .अपने को परमात्मा की सरन में छोड़न की बान धरै क चही.
सुमि - सारी दुनिया उनकी घूमी परी है .सबका गियान बाँटत रहे . 

 बरसन  पहले ईरान के एक संत मंसूर हल्लाज़ नाम वारे  रहे. सिन्ध में उनका मिले रहे   दोऊ साथै  मुल्तान और कसमीर घूमे.उनसे बहुत सीखन को मिला .बतावत रहे  इन्सानियत की जोत अब बाम्हनन में नहीं इन संत और भक्तन में अधिकै सच्ची  है.

आ.- सहीची बात  है आज के बाँभन सब भुलाय गए -आपुन पेट भरन के उपाय सीख गए हैं  .हु दच्छिन देस में    जिनका  सब नीची जात कहत हैं उन लोगन में भगवान के लै  सच्ची  लगन है.पर पर ऊँची जातवारै  उनके लै बड़े निरदयी हुइ रहे  हैं.

वृद्धा -  जिनका  दबाय  रहे हैं उनकी असलियत  एक दिन सामने आय के रहेगी .मन के सच्चे ,लगन के पक्के उहै लोग एक दिन समाज को सही रास्ता बताय देंगे .
आ .- दुनिया देखै ते गियान बढ़त है . एकै जगह पे तो मति बँधि जात है .

एक स्त्री - हमार मन भी  ललचाय रहो  है ,आगिल बेर हमहूँ चलिबे .

वृद्ध -मारग के नगर गाँवन में ,नदियन के किनारन पे ,परवतन के चरनन में घने वनन  की राहन में मंदिर मंदिर में सत्संग करते भजन गाते हम तो नई जिनगी पाय गये .

पुत्तन -तो चारों धाम करत-करत आप सारा देस घूमि आये ?

वृद्ध - उहै तो असली मतलब है चारों धाम घूमन को .गंगा और गोदावरी के जल का महातम हैं पर उससे भी बढ़ि कर उन के पास जाने की जातरा है  .उनके पास जाओ ,अपने पाँवन से जाओ ,राहन को बूझत- रमत जाओ तब उन्हें जानन की छमता आवत है .बाहर भी अउर आपने भीतर भी जोत जागत है  .देह का सारा छोटापन वो बहाय ले जायेंगी ,और मन हहर के लहराय उठेगा .

सुमि -तभै तो हमार छूत-पाक वाली भौजी भी ,बहि गईं और ई नई होय के आय गईं .

वृद्धा -हमारा कित्ता सुन्दर ,कित्ता निराला देस ,ऊपर हिमालय लहराती गंगा-जमुना ,नीचे कन्याकुमारी में तीन-तीन समुन्दरों का संगम और बीच मे ये वरदान जैसी धरती .हर तरह का मौसम ,फल-फूल अन्न -जल !इत्ता विसाल देस कि घूमते जनम बीत जाय फिर भी पार न मिले .

लल्लू -सब नया नया लगता होयगा ताई ?

वृद्धा -लल्लू सुननवारे को नया लगता है ,देखनवारे के तईं सब चीजें परसाद  जैसी सहज हुइ जाती हैं .देखो न ,कित्ती जातियां ,कित्ते आचार -विचार हमारी धरती पे आके  एक हुइ के रहि गईं जइस अलग अलग धारायें गंगा जी में समाज के सारे भेद एक रूप हुइ जाय़ँ .
सुमि - हाँ ,देखो न ,महावीर ,बुद्ध ,सभी को हमने अवतार मान लिया और यहाँ तक कि हजरत अली को भी विष्णु का दसवाँ अवतार मान लिया .

स्त्री - ई तो हम कबहूँ नाहीं सुना .

 वृद्धा -पंजभाई संप्रदाय में इस्लामी खोजा हजरत अली को दसवाँ अवतार मानित हैं .

वृद्ध -अरे ,एक दिन माँ समुझ में न आई लल्लू .सुरू में सब अजीब लगेगा फिर सब सहज लगने लगेगा .

लल्लू  -और भी आगे सुनन की इच्छा है ताऊ .

वृद्द -पूर्णिया के देहातन में मुसलमान लोग अल्लाह और काली माई दोउन को पूजत हैं और उनके बियाह-सादी भगवती के मंदिर में होवत हैं .

वृद्दा -और अल्लोपनिषद् की बात काहे न कहो !हमारे पंडितन ने अल्लाह को अपना मान के अल्लोपनिषद बनाय दिया .

पुत्तन -लेकिन इस्लाम धर्म तो बहुत बाद में आया रहे .

वृद्धा -नाहीं भइया ,ऊ तो संकराचार्य से भी पहले दच्छिन भारत में आय गया रहा .और फिन तो सूफी  लोग भी आवत रहे .

सुमि -हाँ ,ऊ बताये रहे कि सूफी फकीर और भारतीय साधक खूब मिलत-जुलत रहे .

वृद्ध -कोरे मिलत जुलत न रहे एक दूसर की अच्छी बातें मानत रहे और लोगन को सिखावत भी रहे .

स्त्री - हां ,जायसी की पदमावत हम पढ़े हैं .लगतै नहीं कि लिखनवाला मुसलमान है .का कहत हैं 'आपुन आपुन भासा लेहिं दैउ कर नाँव '

लल्लू - काहे ताऊ ,ई किरस्तान अँग्रेजन के साथ आये रहे ?

वृद्ध - ईसा की पहलीे सताब्दी में अपने धरम का परचार करन के लै इनके पादरी आय गये थे .सुनी तो यहै जात है कि ईसामसीह खुद हिन्दुस्तान  आये रहे.

वृद्धा - काहे नाहीं हुई सकत है .हमारे इहाँ तो सब धरमन को सुआगत होत रहो है .पारसी लोगन की अगिन पूजा तो वेदन के काल से होवत रही ..हमारा तो जीवन सकारथ हुइ गवा भारत माता के दरसन से .

स्त्र -का उनका भी कौनो मंदिर रहै ताई ,भारत माता का ?

वृद्धा - उनहिन के मंदिर में तो हम-तुम सब रहत हैं .हिमालय से कन्याकुमारी और बंगाल से गुजरात तक उन्हई को रूप व्यापित है .हम तो उनके आँचल मे पलनवाली उन्हई की संतान हैं ..जरा बाहर निकरि के देखो कैसो रूप है उनको कैसो नेह ,कैसी ममता .कोई उरिन हुइ सकत है का ?

सुमि -हाँ भौजी , इहै बात सब समुझ लें तौन सारो झगरौ खतम होय. ?

वृद्धा -हाँ ,कहत तो रहे ....याद आइ गवा .अगर तुम सीधे सुरग को मारग चाहत हो तो जगन्नाथपुरी को बेंत लै जाय के बद्रीनाथ में चढाओ ,और गंगोत्री का जल रामेश्वर मे अर्पित करो .

 वृद्ध -उज्जैनवारन ने खुलासा बात कही -कि जे अपनी जनमभूमि सुरग से बढ़ कर है .जहाँ उत्तर से दक्खिन और पूरव से पच्छिम मिल जायें समुझ लेओ स्वर्ग वहीं उतर आवत है .

लल्लू -बड़ी ज्ञान की बातें हैं ताऊ ,इनके कहे सुने से बडो पुन्न होवत है .

वृद्धा -कोरे कहिबे-सुनिबे से नहीं , अमल करै ते पुन्न मिलत है .

सुमि- लल्लू भैया -अब दद्दा भौजी का कौनो विसवास नहीं .ई तो सन्यासी हुइ जान को तैयार बैठे हैं .

पुत्तन -काहे ताऊ ,सच्ची ताई ?

वृद्ध -अब तक मोह परपंच में दिन काटे अब मन चेत गवा है .ई सुमिरनी हैं तो ननद हैंपर बिटिया अस पाली हैं . इनको ससुराल पठाय के मकान इनके नाम करके माया से मुक्त होवे की इच्छा है .तुम सबै लोग देखन सुनन के लै हो .हमार मन में अब इहै आवत है .

वृद्ध -हाँ अब ई घेरा से निकल के सच्ची पूजा ,मतलब  दीन-दुखियारन की सेवा  में लगाय के  पूरे देस की धरती को आपुन घर बनाय लें -ई मनुज तन सकारथ हुइ जाय.

लल्लू - हमका छोड के मत ना जायो ताई .

वृद्धा -कौन अभै निकरे जाय रहे हैं .अभी तो जात्रा का परसाद और जल  सबका बाँटे का है .
पुत्तन -   अब चलित हैं ,. निचीते हुइ कै अश्नान ध्यान करौ ताई ,भोजन के लै हमार घर पधारे का परी .
(पटाक्षेप)
(क्रमशः)