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मंगलवार, 30 दिसंबर 2014
बुधवार, 17 दिसंबर 2014
कथांश - 28.
*
दिन भर भागम-भाग मचाती हवाएँ कुछ शान्त हुई हैं.पेड़ों की लंबी परछाइयाँ खिड़की पर धीरे-धीरे हिल रही हैं .व्यस्त दिन के बाद अपार्टमेंट का ताला खोल कर चुपचाप बैठ गया हूँ. अब तक छुट्टी होते ही माँ के पास दौड़ जाता था.अब कहीं जाना नहीं होता .
तनय हमेशा कहता है - ' भइया,हम भी आपके अपने हैं , हमारे पास आ जाया कीजिए.'
अम्माँ जी ने भी समझाया ,' छोटी बहन के घर न रहें ,ये पुराने ढकोसले हैं ,कौन मानता है, अब यह सब ?'
पर मुझे वहाँ उलझन होती है.मैं स्वाभाविक नहीं रह पाता
यहाँ मेरी अधिक लोगों से पहचान नहीं, किसी से खास दोस्ती नहीं. एक शेखर है ,ट्रेनिंग में साथ ही था .वसु की शादी में भी बहुत सहायता की थी . तब उसकी ससुराल में भी आना-जाना हुआ था .वही अक्सर अपने घर बुला लेता है .
पिछले रविवार को तनय अपने साथ खींच ले गया कि आपकी बहिन बहुत याद कर रही है .
वहीं चर्चाएँ होने लगीं -
सुमति को दो बार आना पड़ा था.यहाँ साल भर नौकरी की है उसने ,इधर का कुछ लेन-देन, लिखा-पढ़ी का काम बाकी था .पारमिता से मित्रता रही थी, परस्पर सूचनाओं का लेन-देन,चिट्ठी-पत्री अब भी चल रही है.
पिछली बार उस के पिता साथ आये थे.उन्हें लग रहा था पता नहीं आगे कैसे क्या होगा .सीधे मिलकर लड़के से बात करने की हिम्मत नहीं पड़ी . चाह रहे थे यहाँ से कुछ कोशिश हो जाय . उनकी चिन्ता थी पता नहीं कब तक ये लोग अटकाए रखेंगे.मन में शंका भी कि समय बीतने के साथ कब किसी का मन बदल जाय - क्या ठिकाना .
वे बार-बार सुमति से भी ,वही सब कहने लगते था.उसने कहा भी - दो महीने को भीतर जिसे माता-पिता दोनों का अंतिम संस्कार करना पड़ा हो उसके मन पर क्या बीतती होगी .उससे ऐसी बात करना ठीक है क्या ..?ज़रा तो सोचिए.
उसने तो यह भी कहा था -मैंने तो सुना है मौत के बाद एक साल कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता . इतने अविचारी कैसे हो सकते हैं आप लोग ! आवेग में यह भी कह गई - सिर्फ मुझसे छुटकारा चाहते हैं या कि मेरा सुख ?
फिर उससे कुछ कहना उन्होंने बंद कर दिया .
'सब अपनी-अपनी सोचते हैं,' विनय बोले ,' अभी विनीता के लिए भी लड़का मिला कहाँ है?'
जानता हूँ परोक्ष में मुझसे जानने की कोशिश हो रही है कि मेरा इस विषय में क्या विचार है .
मुझे सुन-सुन कर ऊब लगती है.
रहा नहीं जाता बोल बैठता हूँ -
' सब तुम्हारा किया धरा है पारमिता,मुझे, दुविधा में डाल दिया तुमने .'
'अरे ,मुझे तो पता भी नहीं था ,वो तो माँ बीमार थीं . उनका प्रबंध किया था .लेकिन तुम कैसे पहुँच गए वहाँ.. ?'
' रहा नहीं गया,' विनय ने खींचा, 'बेकार सफ़ाई दे रहे हो दोस्त, उम्र का तकाज़ा ठहरा,'. .
ऊपर से और ,
'लड़की देख कर मन मचल गया तुम्हारा और दोष बेचारी मेरी बीवी को .'
तनय हँसता हुआ बढ़ आया,' अरे भाभी ,मुझसे पूछो .हाथ पकड़ कर खींचा था भैया ने उन्हें, ऊपर से चुपके से..-रुपए पकड़ा रहे थे .देख लो सारी झलकियाँ हैं मेरे पास !'
सब मज़ा ले रहे हैं .
मौका चूकती नहीं पारमिता भी,
'क्यों ,तुमने किस मुहूर्त में ब्रजेश की शादी की बात कही कि कैंडीडेट चट् हाज़िर हो गया ?'
' इसे कहते हैं वाक्-सिद्धि ?" विनय ने चटका लगाया
वे लोग तो हँसेंगे ही पर मुझे खिसियाहट लग रही है.
'बीमार माँ का ख़याल न होता तो रुकता भी नहीं वहाँ ,फिर वह इतना कर रही थी मेरी माँ के लिए .एहसान का बोझ मेरे ही सिर पर तो...'
' अच्छा तो है यार .लड़की की परख हो गई. हिल्ले से लग जाओगे .'
मेज़ पर चाय लगाती वसु के मुख पर मुस्कराहट छाई है.
*
नहीं ,मुझसे नहीं होगा !
इतना उचाट मन ले कर शादी करना बहुत मुश्किल है.सब के साथ होकर भी सबसे अलग रह जाता हूँ .किसी को क्या दे पाऊँगा.अन्याय नहीं करना चाहता,माँ का जीवन देखा है .पहले अपने मन को साध लूँ. समय चाहिये मुझे ..
मेरी उदासीनता भाँप ली पारमिता ने -
'बस..बस ज्यादा वैरागी मत बनो ईश्वर ने जो दिया ग्रहण करते चलो ब्रजेश !'
'अरे ,तो उनने मना थोड़े ही किया है .'
मेरे लिए और चारा ही क्या है, अपना बस कहाँ है !
ओशो का कथन पढ़ा था कहीं -
'जीवन में कुछ भी छोड़ने जैसा नहीं है। छोड़ने जैसा होता तो परमात्मा उसे बनाता ही नहीं.'
और भी -
“तुम कुछ भी ठीक से नहीं देख पाते, क्योंकि हर चीज़ के बीच में तुम्हारी धारणाएँ खड़ी हो जाती हैं।”
मन में प्रश्न उठता है तो क्या इंसान की धारणाएँ बिलकुल व्यर्थ हैं ,ये भी समय के पाठ हैं .जीवन के अनुभव और क्या हैं ? सीखना - समझना सहज प्रक्रिया है . कुछ बातों पर उलझन में पड़ जाता हूँ .पूछूँगा विनय से उन्होंने ओशो को काफ़ी पढ़ा है.
हाँ, विचारों की खिड़कियाँ खुली रहना तो ठीक..पर मेरी तो समस्या ही दूसरी है .दिमाग़ चकराने लगता है .
कहाँ तक सोचूँ ,नहीं सोचना चाहता यह सब !
कुछ समय के लिए इस सबसे दूर जाना चाहता हूँ .सच में थक गया हूँ ,....अवकाश चाहिए मुझे !
पर इससे बचत कहाँ ?रहना तो इसी दुनिया में है .
एक वक्ष जिसकी आड़ में संसार के तापों से छाँह पा लेता था ,एक और साहचर्य मन को गहन शान्ति प्रदान करता हुआ - एक झटके में सबसे वंचित हो गया.बस, इतना ही हिस्सा था मेरा?
स्म़तियों के भँवर में डूबता चक्कर खा रहा हूँ.
माँ ,तुमने मुझे उस अनिश्चित जीवन की भटकन से निकाल कर सही मार्ग पर लगाने को अपना जीवन होम दिया,मैं तुम्हारे लिए कुछ भी न कर सका. निरुद्देश्य जीवन को दिशा दे कर कोई एक जन्म नहीं सुधारा तुमने,कुछ संस्कार ऐसे, जो कितने आगत जन्मों की पूँजी बन जाते हैं .आधार-शिला रख दी तुमने, आगत की भी पीठिका रच दी . किस तल से उबार कर नई मानसिकता दी ,कि अब उन सतहों का विचार ही मन में विरक्ति जगा देता है.तुम्हारा दिया मनोबल विषम प्रहरों में मुझे साधे रहता है ,ओ माँ !
सोचता था समय के साथ यह भटकन शमित हो जाएगी .अब लगने लगा है बढ़ती आयु की पकन के साथ एकाकीपन का बोध और तीक्ष्ण हो जाता है.
आज मैं जो हूँ उसकी रचयित्री एक नारी रही है ,मैं डंके की चोट पर कह सकता हूँ : उस नारी का एकान्त सृजन हूँ मैं -तन से, मन से आचार-विचार और संस्कार से भी.उसी ने रचा और सँवारा, विकसने की सुविधाएँ दीं . मुझे गढ़ने में कोई पुरुष भागीदार नहीं रहा था. जो पाया है उसी की महती साधना का फल है . जहाँ वंचित रहा उसका कारण पुरुष रहा ,जिसने केवल अपना अहं पोसने को मेरा जीवन स्वाभाविकता से रहित कर डाला .एक मनोग्रंथि का बीज रोप दिया मुझ में और वहीं मैं निरुत्तर हो कर रह जाता हूँ .वे प्रश्न ,यत्न से सुलाई हुई अशान्ति को जगा देते हैं ,वहाँ मैं कमज़ोर रह गया हूँ. एक और पुरुष जिसने एक अंकुराते जीवन को वांछित छाँह से वंचित कर दिया .दुनिया की तीखी धूप ने उसकी सहज स्निग्धता सोख ली .पारमिता के पिता के साथ मैं सहज नहीं रह पाता .मन का तीतापन ऊपरी सतह तक उमड़ने लगता है .
सोचता था वे दिन बीत गए,अब आगे का जीवन अपने हिसाब से जीने को मिलेगा . वह भी नहीं हो सका , नींव खिसक गई . उस दूसरे ने कर्मक्षेत्र में उतरने से पहले ही मनोरथ विरथ कर दिये .
और अब ,जब सब सँभलता लग रहा था तभी दो महीनों के भीतर माँ और पिता दोनों की अंत्येष्टि .कैसे -कैसे विषम अनुभव .दूर-दूर तक कोई नहीं ,कि ज़रा-सा सहारा मिल जाय. मेरा मन अब कहीं नहीं लगता .कुछ नया करने की इच्छा नहीं रह गई .
कुछ शब्द याद आते हैं-
हर कार्य का क्रम निश्चित है.अपनी सुविधा के लिये बचा कर कहाँ रखोगे ब्रजेश ?.जीवन के हवन-कुंड में अपने हिस्से की समिधा डाले बिना छुटकारा कहाँ ?
डाल ही तो रहा हूँ समिधाएँ !
औरों को द्विधा में नहीं रखना चाहता.
बस ,कुछ दिनों को इस सबसे दूर चला जाना चाहता हूँ .
*
.चुपचाप बैठा देख उस दिन उसने पूछा था ,' इतनी कम अवधि में बहुत-कुछ घट गया ,तुम पर क्या बीती होगी ? तुम्हें कैसा लगा होगा?'
' बस एक खालीपन,अंदर से बिलकुल रीत गया होऊं जैसे ! कभी-कभी समझ नहीं पाता क्या करना है मुझे .....'
वहाँ से चलत समय वसु मठरी का एक पैकेट पकड़ा गई थी ,'दीदी ने और मैंने तुम्हारे लिए बनाईं हैं, भइया ...'
थोड़ी-सी निकाल कर प्लेट में रख लाया और गिलास में पानी भी.
मेरी वही डायरी मेज़ पर पड़ी है - पंखे की हवा में पन्ने फड़फड़ा रहे हैं.बढ़ कर उठा लिया .
पेन उठा कर बिना लाग-लपेट अपनी उद्विग्नता शब्दों में उँडेलने लगा -
सच में बहुत थक गया हूँ ,अवकाश चाहिए .अलग रहूँ कहीं
इस धरातल से दूर ,जहाँ रोज़मर्रा की खींच-तान न हो .कोई दूसरा तल हो जहाँ ये सारे प्रश्न न खड़े हों,जहाँ मन को चैन मिले , ,यहाँ का कुछ भी जहाँ मेरा पीछा न करे .
पर कहाँ ?
ओह ,कहाँ जाऊँ !
रुक कर सोचने लगता हूँ -दुनिया बहुत बड़ी है .एक स्थिति किसी दूसरे छोर तक पीछा नहीं करती होगी .यहाँ से भिन्न ,सब कुछ बदला हुआ जहाँ मिले!
पर कहाँ ?
.. माँ की इच्छा नर्मदा-परिक्रमा की थी .वे भी ऊबी होंगी , मन का विश्राम चाहती होंगी ,जो मृत्यु से पहले उन्हें कभी नसीब नहीं हुआ!
मेरे लिए है कोई जगह .. कुछ दिन ..रह सकूँ !
ट्रेनिंग पीरियड् के एक टूर का ध्यान आया - ट्रैकिंग के लिए हम हिमालयी क्षेत्र में गए थे.वनों-पर्वतों की वह छाप स्मृतियों में अंकित हो गई है .बहुत सुना था ,प्रत्यक्ष देख लिया. पर्वतराज कुछ न कुछ देता ही है ,मन को शान्ति ,चेत को विश्राम और सांसारिक तापों से छूट ..सघन वन, नीरव-निर्जन घाटियाँ ,निरंतर ऊपर उठती गिरि-शृंखलायें. अवर्णनीय भव्यता और दिव्यता की साकार कल्पना , अधिभौतिक जगत की विलक्षण व्यवस्था , जैसे जगत की संकुलता से परे कोई भिन्न लोक हो.
अंतर्मन से कोई पुकार उठा -चलो, वहीं चलो !
यहाँ से दूर चलो. इस तल से ऊपर किसी दूसरी शीतल हवाओंवाली उन ऊँचाइयों पर चलो ... .मन का बौरायापन वहीं शान्ति पायेगा !
बस, तय कर लिया यहाँ से जाना है .. हाँ,जाना है मुझे !
फिर बता दिया मैंने उन सब को - छुट्टी ले कर जाना है . अभी कुछ मत पूछो ,व्यवस्थाओँ में थोड़ा समय लगेगा .
बाकी सारे प्रश्न बाद में !
*
(क्रमशः)
गुरुवार, 11 दिसंबर 2014
'हेलो ,हेलो,' - क्यों करते हैं ?
*
'हेलो ,हेलो,' क्यों करते हैं ?
टेलिफ़ोन के आविष्कारक एलेक्ज़ेंडर ग्राहम बेल की मार्गरेट नाम धारिणी एक मित्र थीं जिनका पूरा नाम था मार्गरेट हेलो . पर बेल साहब उन्हें 'हेलो' कह कर पुकारते थे.
ग्राहम बेल ने फ़ोन का आविष्कार सफल होने पर पहला संवाद किया तो यही नाम उनके मुख से निकला. कहा यह भी जाता है कि बेल साहब ने जल-यात्रा में प्रयोग किये जाने वाला Ahoy शब्द बोला था लेकिन थामस एडिसन को वह 'हेलो' सुनाई दिया.
एडिसन महोदय ने सही सुन पाया ,या उनके कान ने कुछ गड़बड़ कर दिया कहा नहीं जा सकता . कारण कि छोटी उम्र से ही उन्हें बहरेपन की समस्या से जूझना पड़ा था (बचपन में स्कारलेट फ़ीवर और बार-बार के कान के संक्रमण का दुष्प्रभाव) . लेकिन ऐसी स्थिति में वे कुछ और भी तो सुन सकते थे . उन्हें बेल साहब द्वारा पुकारा जानेवाला उन महिला का 'हेलो ' नाम ही क्यों सुनाई दिया ? - आश्चर्य !).
एक संभावना यह भी कि बेल ने Ahoy कहने का विचार किया हो पर अवचेतन में 'हलो' होने के कारण मुख से वही उच्चरित हो गया , और बेल साहब को ,स्वयं ही भान न हो कि क्या बोल गये !
हम लोग तो बस ,अनुमान ही कर सकते हैं. अस्तु ,जिसे, जैसा ठीक लगे !
तब से यही 'हेलो' फ़ोन-संपर्क का अवधान बन गया.यह घटना 1876-77 की है. टेलिफ़ोन के प्रचलन के साथ बेल साहब का यह संबोध भी यथावत् प्रयोग में आ गया . 'हेलो' शब्दोच्चार द्वारा स्वागत किये जाने के कारण 1889 तक वहाँ की केन्द्रीय फ़ोन ऑपरेटर्स 'hello-girls' कहलाने लगीं थीं.
भाषा-गत उपयोग देखें तो 1833 में Hello शब्द का प्रयोग अमेरिका की एक पुस्तक ( The Sketches and Eccentricities of Col. David Crockett, of West Tennessee) में मिलता है जो उसी वर्ष 'लंदन लिटरेरी गज़ेट' में पुनर्मुद्रित हुई थी .लेकिन इस शब्द के व्यावहारिक उपयोग के और उदाहरण नहीं मिलते. कुछ प्रयोग कहीं दबे-छिपे पड़े हों तो कुछ कहा नहीं जा सकता .इसलिए इस 'हेलो' को फ़ोनवाली 'हेलो' से जोड़ कर देखना तर्क-संगत नहीं लगता.
बेल साहब की 'हेलो' का व्यापक प्रसार हुआ और इसके अनेक संस्करण हो गये- किसी से मिलने पर ,आश्चर्य व्यक्त करने के लिए ,किसी को सचेत करने के लिए ,इत्यादि.
बाद में 1960 तक यह शब्द लेखन में भी भरपूर प्रयोग में आ गया और अनेक प्रयोगों में चल गया. भिन्न देशों के परिवेशानुसार 'हेलो' के कई रूप सामने आए -
वियतनाम,तुर्की,तमिल -A lo!,
थाई (hān lǒ),
स्वीडिश - hallå !,
स्पेनिश- hola !,
फ़्रेन्च, रोमानियन,पुर्तगीज़,पर्शियन फिनिश-अरेबिक- alo,
एस्परेंतो,जर्मन,पुर्तगीज़,पर्शियन,फ़िनिस, अरेबिक,कन्नड़ - haloo?
ख़्मेर,वियनामी - allô
जब चार कोस पर बानी बदल जाती है, तब देशों के अंतराल में ध्वनियों का इतना सा हेर-फेर महत्वहीन है. भाव वही, अर्थ वही, प्रयोग वही और आत्मा भी वही - बेल साहब की 'हेलो'वाली !
इस प्रयोग से पहले 40 वर्षों से भी अधिक अनजान-सी रही 'हेलो' को बेल साहब की मित्रता ने स्वर देकर सार्वदेशिक व्याप्ति प्रदान की - अपने आविष्कार के लिए ग्राहम बेल महोदय को कोई भले ही न याद करे ,उनकी 'हेलो' सबकी ज़ुबान पर चढ़ी रहेगी !
अपनी मित्र के लिए कोई और, कर सका है इतना ?
*
'हेलो ,हेलो,' क्यों करते हैं ?
टेलिफ़ोन के आविष्कारक एलेक्ज़ेंडर ग्राहम बेल की मार्गरेट नाम धारिणी एक मित्र थीं जिनका पूरा नाम था मार्गरेट हेलो . पर बेल साहब उन्हें 'हेलो' कह कर पुकारते थे.
ग्राहम बेल ने फ़ोन का आविष्कार सफल होने पर पहला संवाद किया तो यही नाम उनके मुख से निकला. कहा यह भी जाता है कि बेल साहब ने जल-यात्रा में प्रयोग किये जाने वाला Ahoy शब्द बोला था लेकिन थामस एडिसन को वह 'हेलो' सुनाई दिया.
एडिसन महोदय ने सही सुन पाया ,या उनके कान ने कुछ गड़बड़ कर दिया कहा नहीं जा सकता . कारण कि छोटी उम्र से ही उन्हें बहरेपन की समस्या से जूझना पड़ा था (बचपन में स्कारलेट फ़ीवर और बार-बार के कान के संक्रमण का दुष्प्रभाव) . लेकिन ऐसी स्थिति में वे कुछ और भी तो सुन सकते थे . उन्हें बेल साहब द्वारा पुकारा जानेवाला उन महिला का 'हेलो ' नाम ही क्यों सुनाई दिया ? - आश्चर्य !).
एक संभावना यह भी कि बेल ने Ahoy कहने का विचार किया हो पर अवचेतन में 'हलो' होने के कारण मुख से वही उच्चरित हो गया , और बेल साहब को ,स्वयं ही भान न हो कि क्या बोल गये !
हम लोग तो बस ,अनुमान ही कर सकते हैं. अस्तु ,जिसे, जैसा ठीक लगे !
तब से यही 'हेलो' फ़ोन-संपर्क का अवधान बन गया.यह घटना 1876-77 की है. टेलिफ़ोन के प्रचलन के साथ बेल साहब का यह संबोध भी यथावत् प्रयोग में आ गया . 'हेलो' शब्दोच्चार द्वारा स्वागत किये जाने के कारण 1889 तक वहाँ की केन्द्रीय फ़ोन ऑपरेटर्स 'hello-girls' कहलाने लगीं थीं.
भाषा-गत उपयोग देखें तो 1833 में Hello शब्द का प्रयोग अमेरिका की एक पुस्तक ( The Sketches and Eccentricities of Col. David Crockett, of West Tennessee) में मिलता है जो उसी वर्ष 'लंदन लिटरेरी गज़ेट' में पुनर्मुद्रित हुई थी .लेकिन इस शब्द के व्यावहारिक उपयोग के और उदाहरण नहीं मिलते. कुछ प्रयोग कहीं दबे-छिपे पड़े हों तो कुछ कहा नहीं जा सकता .इसलिए इस 'हेलो' को फ़ोनवाली 'हेलो' से जोड़ कर देखना तर्क-संगत नहीं लगता.
बेल साहब की 'हेलो' का व्यापक प्रसार हुआ और इसके अनेक संस्करण हो गये- किसी से मिलने पर ,आश्चर्य व्यक्त करने के लिए ,किसी को सचेत करने के लिए ,इत्यादि.
बाद में 1960 तक यह शब्द लेखन में भी भरपूर प्रयोग में आ गया और अनेक प्रयोगों में चल गया. भिन्न देशों के परिवेशानुसार 'हेलो' के कई रूप सामने आए -
वियतनाम,तुर्की,तमिल -A lo!,
थाई (hān lǒ),
स्वीडिश - hallå !,
स्पेनिश- hola !,
फ़्रेन्च, रोमानियन,पुर्तगीज़,पर्शियन फिनिश-अरेबिक- alo,
एस्परेंतो,जर्मन,पुर्तगीज़,पर्शियन,फ़िनिस, अरेबिक,कन्नड़ - haloo?
ख़्मेर,वियनामी - allô
जब चार कोस पर बानी बदल जाती है, तब देशों के अंतराल में ध्वनियों का इतना सा हेर-फेर महत्वहीन है. भाव वही, अर्थ वही, प्रयोग वही और आत्मा भी वही - बेल साहब की 'हेलो'वाली !
इस प्रयोग से पहले 40 वर्षों से भी अधिक अनजान-सी रही 'हेलो' को बेल साहब की मित्रता ने स्वर देकर सार्वदेशिक व्याप्ति प्रदान की - अपने आविष्कार के लिए ग्राहम बेल महोदय को कोई भले ही न याद करे ,उनकी 'हेलो' सबकी ज़ुबान पर चढ़ी रहेगी !
अपनी मित्र के लिए कोई और, कर सका है इतना ?
*
बुधवार, 3 दिसंबर 2014
कथांश - 27 .
सबकुछ ठीक करने का जी-जान से प्रयत्न करता हूँ ,और एक झोंक में सब पर पानी फिर जाता है .समझ में नहीं आता कहाँ कसर रह जाती है .
अंतर की शून्यता को झकझोरता गहन चीत्कार उठता है - माँ , ओ माँ कहाँ हो ? मन बार-बार उन्हें ही टोहता है .
आह ,वे अब कभी नहीं मिलेंगी !
इतने दिन हो गये हो गए -. विश्वास नहीं होता माँ कहीं नहीं है ,बार-बार लगता है वे यहीं कहीं है
कैसे हो गया यह सब ?
मेरी लापरवाही!
मैं स्वयं वहीं रहता ,ठीक से इलाज कराता तो उन्हें कुछ नहीं होता -दारुण पछतावा रह-रह कर मन को मथता है.
मैंन पहले ध्यान क्यों नहीं दिया ? पर तुम ऐसे कैसे चली गईं ,ओ माँ !
मैं अपने आप में नहीं , चलता-फिरता यंत्र-मात्र रह गया हूँ - अवाक्,स्तब्ध,जड़ीभूत!
अब मैं क्या करूँ ?
तुम तो चली गईं कि बेटा सँभल गया .अब अपना जीवन सुख से गुज़ार ले जाएगा ,सब कुछ ,सँभालकर चली गईँ पर सुख से गुज़रना होता तो प्रारंभिक पृष्ठों पर ही ऐसे काले अक्षरोंवाली भूमिका नहीं लिख दी जाती.
माँ , जिनने जीवन भर दुख सहे ,मेरे लिए खटती रहीं ... और मुझे अपने पावों खड़ा कर दिया .जीवन से एकदम निकल गईँ
चरम निराशा घेर लेती है ,परिवार,मित्र परिजन ,कभी फ़ोन कभी पत्र ,कभी सहानुभूति हेतु वही कहते-सुनते लोग ,उस शोक की डूब में फिर -फिर समा जाता हूँ .
ग़लती मुझसे हुई.मुझे लगा था वे सँभल रही हैं - छोड़ कर चला गया.
वैसे एक सप्ताह की छुट्टी और बढ़ाने को कहा मैंने, तो सब ने कहा - ' तुम जाओ , हम हैं यहाँ.'
और इतना तो अनुमान भी नहीं था .
राय साब ने कहा था ,'हम सब हैं डाक्टर हैं उनका ध्यान रखने के लिये तुम और क्या कर लोगे ?'
और मैं चला गया
सब यहीं थे ,सब उनके हिताकांक्षी थे .किसी ने क्या कर लिया ?
अंदर से प्रश्न उठा और तुम होते तो क्या कर लेते - मौत से जीत सका है कोई ?
वसु उनके पास थी. मीता भी उन दिनों वहीं थी ,दिन-दिन भर माँ के पास बैठी रहती थी.खाना प्रायः उसी के घर से बन कर आ जाता ,एक व्यक्ति का खाना .माँ पथ्य ही लेती थीं . इस बार कुल पन्द्रह दिन ही बीमारी झेल पाया उनका दुर्बल शरीर !
बीच-बीच में चरम निराशा के प्रहर ऐसा छा लेते हैं कि रोशनी का कोई सिरा नहीं दीखता.
मन करता है माँ के आँचल में मुँह छिपा ,जी भऱ कर रोऊँ .पर अब वह आँचल नहीं है .आँगन पार करते अरगनी पर सूखती हुई उनकी साड़ी का आँचल सिर से छू जाता था .रुक जाता था मैं. हाथ में थाम आँखों पर रख कर लगता था शान्ति मिल रही है .अब वह भी मुट्ठी से निकल गया वह छोर अब कभी हाथ नहीं आयेगा .
*
रातों का एकान्त दुःस्वप्न सा छा लेता है.
दो बार तनय अपने साथ बुला ले गया पर मेरा मन नहीं लगता ,मैं वहाँ नहीं रहना चाहता .
माँ को गए पूरा महीना भी नहीं बीता कि,एक धक्का और.
सुना था मुसीबत कभी अकेली नहीं आती, देख भी लिया. एक से उबर भी न पाया कि फिर सिर पर आकाश फट पड़ा .
उस दिन डाकिये से तार लेते हाथ काँप रहे थे .
धुँधलाती आँखों तार पढ़ा ,लिखा था . 'फ़ादर सीरियस .कम इमीजियेटली'
वे अस्पताल में एडमिट थे - अचानक आई सूचना सन्न कर गई.
जिनके कारण पग-पग पर कंटकों की चुभन मिली उन पिता के अंतिम दिनों का साक्षी बनना बाकी था. .वे शराब क्या पीते वही उन्हें पी गई ..डाक्टरों की चेतावनी बेकार गई सारा लिवर जर्जर हो गया था खून की उलटियाँ होने लगी थीं.
.वसु की शादी में उन्होंने किसी को बताया नहीं . विवाह की हलचल में उस ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया .
जा कर देखा व.हाँ का हाल -
बाद में वे उसी पुराने घर में अकेले लौट आए थे . पड़ोसी से चाबी ले कर चुपचाप घर खोला और एक कमरा अपने लिए ठीक कर लिया ..
कुछ आशा रही होगी .चाबी दे कर गए थे कह गये थे , ' मेरी पत्नी आये तो दे देना.'
आते ही पड़ोसियों से पूछा था पूछा था उन्होंने ,'वो आई थी क्या?'
इतने वर्षों तक उपेक्षित ,घर की हालत जर्जर थी .जर्जर वे भी थे.
पर सब कुछ होते हुए भी जिसकी कभी कदर नहीं कर पाये उससे वंचित होने का दोष देते भी किसे ?
समझ तो गये ही थे ,पीने की लत ने खोखला कर दिया है अब कुछ दिन के मेहमान हैं बस.
मैं आया तो फिर भी पहचान रहे थे .
'वो भी आई है ?'माँ के लिए पूछा था .
'वे अब नहीं हैं .'
उनकी मुख-मुद्रा अजीब सी हो उठी .
फिर वे कुछ नहीं बोले ,जड़ से हो कर रह गए .
बस ,इससे आगे और कुछ नहीं .
पुरुष का भाग्य कौन जानता है .यह भी किसे पता था पिता के अंतिम दिन इस प्रकार बीतेंगे-.अकेले ,लाचार ,परित्यक्त !
हमारे यहाँ से लौट कर भी वे हास्पिटल में एडमिट हुए थे यह भी पता लगा ,डाक्टरों ने चेतावनी भी दी थी .
पर वे पीना नहीं छोड़ पाये और अब.डाक्टरों ने जवाब दे दिया तब तार दिलवाया .
*
मैने वसु को बुला लिया था ,' पिता से मिलना हो तो फ़ौरन चली आओ .'
अब तक पिता से कहाँ मिल पाई थी .आये थे तब भावाकुल मन और नयन दोनों भर आए थे.न देख पाई, न पहचान बन पाई .कन्यादान के समय देखना संभव कहाँ और बिदा समय की विह्वलता में कहाँ था अवकाश कि पिता से पहचान कर पाती !
उसके मन का कोमल वत्सल भाव बना रहे- मेरा प्रयत्न था .बिछुड़न का दुख इतना दारुण नहीं होता जितना उपेक्षापूर्वक छोड़ दिये जाने का .
वह आई बिस्तर पर पड़ी काया को देखा .
कुछ-कुछ होश रहा होगा उन्हें . दीवार पर उनकी एक फ़ोटो लगी थी -शादी के कुछ ही दिन बाद की -माँ के साथ खड़े थे,ध्यान से देखती रही.
कहाँ वह और कहाँ यह - एकदम काला पड़ गया चेहरा,धुँधलाई आँखें. विकृत काया जैसे-एकदम सिमट- सिकुड़ गई हो -पिता तो अच्छी कद-काठी के रहे थे ..
कहीं कोई समानता नहीं -कोई पहचान नहीं पाई उसने ,बस हाथ जोड़ कर प्रणाम कर लिया .
यह घर ?चारों ओर दृष्टि पसार कर देखा था .क्या सोच रही होगी ?
दीवार पर लगा फ़ोटो देखती रही थी .'भइया और कुछ नहीं मेरे पास .ये फ़ोटो ले लूँ.'
'चिन्ता मत कर वसु .इसकी कॉपी मैं तुझे दे दूँगा.'
फिर उसे आश्वस्त करने को कहा ,'ये वाला फ़ोटो यहाँ लगा रहेगा जब तक यह घर है.और माँ की वह फ़ोटो भी जो मैंने अलग खिचवाई थी इन्लार्ज करवा कर यहाँ लगानी है ' .
'हाँ भइया , सच में तभी यह घर लगेगा ...'
'माँ के साथ रहा था इस घर में.कछ मीठी-कड़वी स्मृतियाँ गाँठ में बँधी हैं.. सब ठीक रहा होता तो हम यहाँ पले होते '.
'मेरा मायका न ?'
'बहन, जहाँ मैं वहाँ तेरा मायका.इस घर को कैसे छोड़ूँगा .तू जब चाहे यहाँ आना .जब हम साथ होंगे मैं तुझे यहाँ के किस्से सुनाऊँगा.'
फिर मैंने पूछा ,'इस घर की चाबी मेरे पास है .तुझे चाहिए ?'.
'मैं क्या करूँगी ?'...फिर रुक कर बोली ,'
सब कहते हैं लड़की के दो घर होने चाहियें -जीवन में ऊब कभी न लगे .
इस घर में मेरे माँ- पिता रहे थे ..कभी यहाँ आकर दो-चार दिन बिता जाऊँगी .'
' मेरा घऱ तेरा मायका होगा बहन,तेरा मान सदा रहेगा .'
मुझे बाद में वहाँ कुछ दिन और रुकना पड़ा था - घर-बाहर के कुछ काम निपटाना ज़रूरी हो गया था..
*
पिता के अंतिम संस्कार के बाद लौट कर आया था.
चुपचाप ताला खोला .
सारा घर खाली पड़ा भाँय-भाँय कर रहा था .अंदर तक घुसता चला गया .कहीं कोई नहीं. सबकुछ अनचीन्हा-सा लगने लगा.बढ़ कर तख़्त पर बैठ गया.
बाहर कुछ आहट
ओह ,दरवाज़ा बंद करना भूल गया.
अरे, वसु आ गई !
कह रही थी,' पता लगा लिया था कि तुम वहाँ का काम निबटा कर आ रहे हो .'
वसु को आना ही था , पीछे मीता चली आ रही थी .
'...वहाँ सब की राय हुई इस विषम घड़ी में वसु अकेली न रहे .मैं साथ आई हूँ . बाबूजी को भी देखना था.
उधर से तनय भी आ रहे होंगे. '
तनय ने राय साब को बताया था -
,' अम्माँ ने भाभी को भेजा कि, जाओ वसु अकेली होगी , कोई बड़ा नहीं सँभालनेवाला .इस बार सीधे वहीं जाना..'
उनके मुँह से निकला था -
'पिता ने सुध नहीं ली पर उसने उनके प्रति दायित्व पूरा कर दिया .'
'भइया, नहा-धो लो .फिर यहाँ क्या करोगे ?.वहीं चलो बाबूजी ने कहा है यहीं ले आना .'
'अभी कहीं जाने का मन नहीं मेरा.'
'दीदी मैं भी यहीं रहना चाहती हूँ .'
अब तक इस घर में मुझे कभी परायापन नहीं लगा था.,कहीं बाहर से भाग-भाग कर यहाँ आने का मन होता था .अब जी बिलकुल उचाट हो गया है
वसु कितनी उदास है . किस प्रकार सांत्वना दूँ .उसे लगता है ,माँ के बिना वह निराधार हो गई .मैने और पारमिता ने बड़ी मुश्किल से सँभाला.
पारमिता को भी माँ का बहुत आसरा था.हम तीनों हो बेसहारा हो गए .
*
केश रहित मुंडित सिर झुकाए बैठा है बिरजू .
उस गहन मौन की घनीभूत उदासी पारमिता का हृदय विदीर्ण किए दे रही है.
'ब्रजेश, मुझसे तुम्हारा चेहरा नहीं देखा जाता .'
'तो तुमसे देखने को कहा किसने ?'
'ऐसे क्यों बोलते हो?.जानबूझ कर क्यों दुखी करते हो?'
'क्या करूँ मैं ?'-एकदम बिखऱ पड़ा,' मैं क्या करूँ . ..अब मेरे करने को बचा क्या .अब तो कुछ नहीं मेरे पास ...'
उसके सामने एकदम हत हो गया.सिर झुकाए फफक उठा .
पाँव लटका कर तख़्त पर बैठ गई वह भी .
हाथ कंधे पर ले जा कर सांत्वना देना चाहती है,मुँह से शब्द नहीं निकलते ,आँसू की बूँद ब्रजेश के हाथ पर टपक गईँ , उसका झुक आया सिर .काँधे पर ठीक से साध लिया मीता ने .हाथ से हौले से थपक देती है.
वसु पास पड़ी कुर्सी पर गहरी उदासी में एकदम चुप पर
अंतर से उठता आवेग नहीं सँभल रहा उससे. रुक न सकी, बढ़ आई .भाई और मीता दोनों से आ लिपटी. मीता ने गोद में समेट लिया ,
कहने को कुछ नहीं .बीच-बीच में सिसकी से सिर हिल जाता है निश्शंक शान्तभाव से मीता हलके-हलके थपकी दे देती है .
अंतर से टकराता आकुल रोदन कुछ शान्त हो चला है...
याद आ रहा है किसी बात पर उस ने कहा था
' विवाह हो जाने से मायके के नाते टूट नहीं जाते .तुमने मुझसे अन्यथा कुछ नहीं चाहा ,मन का दर्पण स्वच्छ रहे तो अक्स कभी धुँधलाए नहीं .'
आकुल अंतर आश्वस्त हो चला है - आज तुम में माँ का आभास पा लिया मैंने .
ओ बहुरूपिणी , तुमसे कैसे उऋण हो पाऊँगा !
*
(क्रमशः)
अंतर की शून्यता को झकझोरता गहन चीत्कार उठता है - माँ , ओ माँ कहाँ हो ? मन बार-बार उन्हें ही टोहता है .
आह ,वे अब कभी नहीं मिलेंगी !
इतने दिन हो गये हो गए -. विश्वास नहीं होता माँ कहीं नहीं है ,बार-बार लगता है वे यहीं कहीं है
कैसे हो गया यह सब ?
मेरी लापरवाही!
मैं स्वयं वहीं रहता ,ठीक से इलाज कराता तो उन्हें कुछ नहीं होता -दारुण पछतावा रह-रह कर मन को मथता है.
मैंन पहले ध्यान क्यों नहीं दिया ? पर तुम ऐसे कैसे चली गईं ,ओ माँ !
मैं अपने आप में नहीं , चलता-फिरता यंत्र-मात्र रह गया हूँ - अवाक्,स्तब्ध,जड़ीभूत!
अब मैं क्या करूँ ?
तुम तो चली गईं कि बेटा सँभल गया .अब अपना जीवन सुख से गुज़ार ले जाएगा ,सब कुछ ,सँभालकर चली गईँ पर सुख से गुज़रना होता तो प्रारंभिक पृष्ठों पर ही ऐसे काले अक्षरोंवाली भूमिका नहीं लिख दी जाती.
माँ , जिनने जीवन भर दुख सहे ,मेरे लिए खटती रहीं ... और मुझे अपने पावों खड़ा कर दिया .जीवन से एकदम निकल गईँ
चरम निराशा घेर लेती है ,परिवार,मित्र परिजन ,कभी फ़ोन कभी पत्र ,कभी सहानुभूति हेतु वही कहते-सुनते लोग ,उस शोक की डूब में फिर -फिर समा जाता हूँ .
ग़लती मुझसे हुई.मुझे लगा था वे सँभल रही हैं - छोड़ कर चला गया.
वैसे एक सप्ताह की छुट्टी और बढ़ाने को कहा मैंने, तो सब ने कहा - ' तुम जाओ , हम हैं यहाँ.'
और इतना तो अनुमान भी नहीं था .
राय साब ने कहा था ,'हम सब हैं डाक्टर हैं उनका ध्यान रखने के लिये तुम और क्या कर लोगे ?'
और मैं चला गया
सब यहीं थे ,सब उनके हिताकांक्षी थे .किसी ने क्या कर लिया ?
अंदर से प्रश्न उठा और तुम होते तो क्या कर लेते - मौत से जीत सका है कोई ?
वसु उनके पास थी. मीता भी उन दिनों वहीं थी ,दिन-दिन भर माँ के पास बैठी रहती थी.खाना प्रायः उसी के घर से बन कर आ जाता ,एक व्यक्ति का खाना .माँ पथ्य ही लेती थीं . इस बार कुल पन्द्रह दिन ही बीमारी झेल पाया उनका दुर्बल शरीर !
बीच-बीच में चरम निराशा के प्रहर ऐसा छा लेते हैं कि रोशनी का कोई सिरा नहीं दीखता.
मन करता है माँ के आँचल में मुँह छिपा ,जी भऱ कर रोऊँ .पर अब वह आँचल नहीं है .आँगन पार करते अरगनी पर सूखती हुई उनकी साड़ी का आँचल सिर से छू जाता था .रुक जाता था मैं. हाथ में थाम आँखों पर रख कर लगता था शान्ति मिल रही है .अब वह भी मुट्ठी से निकल गया वह छोर अब कभी हाथ नहीं आयेगा .
*
रातों का एकान्त दुःस्वप्न सा छा लेता है.
दो बार तनय अपने साथ बुला ले गया पर मेरा मन नहीं लगता ,मैं वहाँ नहीं रहना चाहता .
माँ को गए पूरा महीना भी नहीं बीता कि,एक धक्का और.
सुना था मुसीबत कभी अकेली नहीं आती, देख भी लिया. एक से उबर भी न पाया कि फिर सिर पर आकाश फट पड़ा .
उस दिन डाकिये से तार लेते हाथ काँप रहे थे .
धुँधलाती आँखों तार पढ़ा ,लिखा था . 'फ़ादर सीरियस .कम इमीजियेटली'
वे अस्पताल में एडमिट थे - अचानक आई सूचना सन्न कर गई.
जिनके कारण पग-पग पर कंटकों की चुभन मिली उन पिता के अंतिम दिनों का साक्षी बनना बाकी था. .वे शराब क्या पीते वही उन्हें पी गई ..डाक्टरों की चेतावनी बेकार गई सारा लिवर जर्जर हो गया था खून की उलटियाँ होने लगी थीं.
.वसु की शादी में उन्होंने किसी को बताया नहीं . विवाह की हलचल में उस ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया .
जा कर देखा व.हाँ का हाल -
बाद में वे उसी पुराने घर में अकेले लौट आए थे . पड़ोसी से चाबी ले कर चुपचाप घर खोला और एक कमरा अपने लिए ठीक कर लिया ..
कुछ आशा रही होगी .चाबी दे कर गए थे कह गये थे , ' मेरी पत्नी आये तो दे देना.'
आते ही पड़ोसियों से पूछा था पूछा था उन्होंने ,'वो आई थी क्या?'
इतने वर्षों तक उपेक्षित ,घर की हालत जर्जर थी .जर्जर वे भी थे.
पर सब कुछ होते हुए भी जिसकी कभी कदर नहीं कर पाये उससे वंचित होने का दोष देते भी किसे ?
समझ तो गये ही थे ,पीने की लत ने खोखला कर दिया है अब कुछ दिन के मेहमान हैं बस.
मैं आया तो फिर भी पहचान रहे थे .
'वो भी आई है ?'माँ के लिए पूछा था .
'वे अब नहीं हैं .'
उनकी मुख-मुद्रा अजीब सी हो उठी .
फिर वे कुछ नहीं बोले ,जड़ से हो कर रह गए .
बस ,इससे आगे और कुछ नहीं .
पुरुष का भाग्य कौन जानता है .यह भी किसे पता था पिता के अंतिम दिन इस प्रकार बीतेंगे-.अकेले ,लाचार ,परित्यक्त !
हमारे यहाँ से लौट कर भी वे हास्पिटल में एडमिट हुए थे यह भी पता लगा ,डाक्टरों ने चेतावनी भी दी थी .
पर वे पीना नहीं छोड़ पाये और अब.डाक्टरों ने जवाब दे दिया तब तार दिलवाया .
*
मैने वसु को बुला लिया था ,' पिता से मिलना हो तो फ़ौरन चली आओ .'
अब तक पिता से कहाँ मिल पाई थी .आये थे तब भावाकुल मन और नयन दोनों भर आए थे.न देख पाई, न पहचान बन पाई .कन्यादान के समय देखना संभव कहाँ और बिदा समय की विह्वलता में कहाँ था अवकाश कि पिता से पहचान कर पाती !
उसके मन का कोमल वत्सल भाव बना रहे- मेरा प्रयत्न था .बिछुड़न का दुख इतना दारुण नहीं होता जितना उपेक्षापूर्वक छोड़ दिये जाने का .
वह आई बिस्तर पर पड़ी काया को देखा .
कुछ-कुछ होश रहा होगा उन्हें . दीवार पर उनकी एक फ़ोटो लगी थी -शादी के कुछ ही दिन बाद की -माँ के साथ खड़े थे,ध्यान से देखती रही.
कहाँ वह और कहाँ यह - एकदम काला पड़ गया चेहरा,धुँधलाई आँखें. विकृत काया जैसे-एकदम सिमट- सिकुड़ गई हो -पिता तो अच्छी कद-काठी के रहे थे ..
कहीं कोई समानता नहीं -कोई पहचान नहीं पाई उसने ,बस हाथ जोड़ कर प्रणाम कर लिया .
यह घर ?चारों ओर दृष्टि पसार कर देखा था .क्या सोच रही होगी ?
दीवार पर लगा फ़ोटो देखती रही थी .'भइया और कुछ नहीं मेरे पास .ये फ़ोटो ले लूँ.'
'चिन्ता मत कर वसु .इसकी कॉपी मैं तुझे दे दूँगा.'
फिर उसे आश्वस्त करने को कहा ,'ये वाला फ़ोटो यहाँ लगा रहेगा जब तक यह घर है.और माँ की वह फ़ोटो भी जो मैंने अलग खिचवाई थी इन्लार्ज करवा कर यहाँ लगानी है ' .
'हाँ भइया , सच में तभी यह घर लगेगा ...'
'माँ के साथ रहा था इस घर में.कछ मीठी-कड़वी स्मृतियाँ गाँठ में बँधी हैं.. सब ठीक रहा होता तो हम यहाँ पले होते '.
'मेरा मायका न ?'
'बहन, जहाँ मैं वहाँ तेरा मायका.इस घर को कैसे छोड़ूँगा .तू जब चाहे यहाँ आना .जब हम साथ होंगे मैं तुझे यहाँ के किस्से सुनाऊँगा.'
फिर मैंने पूछा ,'इस घर की चाबी मेरे पास है .तुझे चाहिए ?'.
'मैं क्या करूँगी ?'...फिर रुक कर बोली ,'
सब कहते हैं लड़की के दो घर होने चाहियें -जीवन में ऊब कभी न लगे .
इस घर में मेरे माँ- पिता रहे थे ..कभी यहाँ आकर दो-चार दिन बिता जाऊँगी .'
' मेरा घऱ तेरा मायका होगा बहन,तेरा मान सदा रहेगा .'
मुझे बाद में वहाँ कुछ दिन और रुकना पड़ा था - घर-बाहर के कुछ काम निपटाना ज़रूरी हो गया था..
*
पिता के अंतिम संस्कार के बाद लौट कर आया था.
चुपचाप ताला खोला .
सारा घर खाली पड़ा भाँय-भाँय कर रहा था .अंदर तक घुसता चला गया .कहीं कोई नहीं. सबकुछ अनचीन्हा-सा लगने लगा.बढ़ कर तख़्त पर बैठ गया.
बाहर कुछ आहट
ओह ,दरवाज़ा बंद करना भूल गया.
अरे, वसु आ गई !
कह रही थी,' पता लगा लिया था कि तुम वहाँ का काम निबटा कर आ रहे हो .'
वसु को आना ही था , पीछे मीता चली आ रही थी .
'...वहाँ सब की राय हुई इस विषम घड़ी में वसु अकेली न रहे .मैं साथ आई हूँ . बाबूजी को भी देखना था.
उधर से तनय भी आ रहे होंगे. '
तनय ने राय साब को बताया था -
,' अम्माँ ने भाभी को भेजा कि, जाओ वसु अकेली होगी , कोई बड़ा नहीं सँभालनेवाला .इस बार सीधे वहीं जाना..'
उनके मुँह से निकला था -
'पिता ने सुध नहीं ली पर उसने उनके प्रति दायित्व पूरा कर दिया .'
'भइया, नहा-धो लो .फिर यहाँ क्या करोगे ?.वहीं चलो बाबूजी ने कहा है यहीं ले आना .'
'अभी कहीं जाने का मन नहीं मेरा.'
'दीदी मैं भी यहीं रहना चाहती हूँ .'
अब तक इस घर में मुझे कभी परायापन नहीं लगा था.,कहीं बाहर से भाग-भाग कर यहाँ आने का मन होता था .अब जी बिलकुल उचाट हो गया है
वसु कितनी उदास है . किस प्रकार सांत्वना दूँ .उसे लगता है ,माँ के बिना वह निराधार हो गई .मैने और पारमिता ने बड़ी मुश्किल से सँभाला.
पारमिता को भी माँ का बहुत आसरा था.हम तीनों हो बेसहारा हो गए .
*
केश रहित मुंडित सिर झुकाए बैठा है बिरजू .
उस गहन मौन की घनीभूत उदासी पारमिता का हृदय विदीर्ण किए दे रही है.
'ब्रजेश, मुझसे तुम्हारा चेहरा नहीं देखा जाता .'
'तो तुमसे देखने को कहा किसने ?'
'ऐसे क्यों बोलते हो?.जानबूझ कर क्यों दुखी करते हो?'
'क्या करूँ मैं ?'-एकदम बिखऱ पड़ा,' मैं क्या करूँ . ..अब मेरे करने को बचा क्या .अब तो कुछ नहीं मेरे पास ...'
उसके सामने एकदम हत हो गया.सिर झुकाए फफक उठा .
पाँव लटका कर तख़्त पर बैठ गई वह भी .
हाथ कंधे पर ले जा कर सांत्वना देना चाहती है,मुँह से शब्द नहीं निकलते ,आँसू की बूँद ब्रजेश के हाथ पर टपक गईँ , उसका झुक आया सिर .काँधे पर ठीक से साध लिया मीता ने .हाथ से हौले से थपक देती है.
वसु पास पड़ी कुर्सी पर गहरी उदासी में एकदम चुप पर
अंतर से उठता आवेग नहीं सँभल रहा उससे. रुक न सकी, बढ़ आई .भाई और मीता दोनों से आ लिपटी. मीता ने गोद में समेट लिया ,
कहने को कुछ नहीं .बीच-बीच में सिसकी से सिर हिल जाता है निश्शंक शान्तभाव से मीता हलके-हलके थपकी दे देती है .
अंतर से टकराता आकुल रोदन कुछ शान्त हो चला है...
याद आ रहा है किसी बात पर उस ने कहा था
' विवाह हो जाने से मायके के नाते टूट नहीं जाते .तुमने मुझसे अन्यथा कुछ नहीं चाहा ,मन का दर्पण स्वच्छ रहे तो अक्स कभी धुँधलाए नहीं .'
आकुल अंतर आश्वस्त हो चला है - आज तुम में माँ का आभास पा लिया मैंने .
ओ बहुरूपिणी , तुमसे कैसे उऋण हो पाऊँगा !
*
(क्रमशः)