बुधवार, 3 दिसंबर 2014

कथांश - 27 .

 सबकुछ ठीक करने का जी-जान से प्रयत्न करता हूँ ,और  एक झोंक में सब पर पानी फिर जाता है .समझ में नहीं आता कहाँ कसर रह जाती है .
 अंतर की शून्यता को झकझोरता  गहन चीत्कार उठता है - माँ , ओ  माँ कहाँ हो ? मन बार-बार उन्हें  ही टोहता है . 

आह ,वे अब कभी नहीं मिलेंगी !
इतने दिन हो गये हो गए -. विश्वास नहीं होता माँ कहीं नहीं है ,बार-बार  लगता है वे यहीं कहीं है
कैसे हो गया यह सब ?
मेरी लापरवाही!
मैं स्वयं वहीं रहता ,ठीक से इलाज कराता तो उन्हें कुछ नहीं होता -दारुण पछतावा रह-रह कर मन को मथता है.
 मैंन  पहले ध्यान क्यों नहीं दिया ? पर तुम ऐसे कैसे चली गईं ,ओ माँ !
 मैं अपने आप में नहीं   ,  चलता-फिरता यंत्र-मात्र रह गया हूँ - अवाक्,स्तब्ध,जड़ीभूत!
अब  मैं क्या करूँ ?
तुम तो चली गईं कि बेटा सँभल गया .अब अपना जीवन सुख से गुज़ार ले जाएगा ,सब कुछ ,सँभालकर चली गईँ पर सुख से गुज़रना होता तो प्रारंभिक पृष्ठों पर ही ऐसे काले अक्षरोंवाली भूमिका नहीं लिख दी जाती.
माँ , जिनने जीवन भर दुख सहे ,मेरे लिए खटती रहीं ... और मुझे  अपने पावों खड़ा कर दिया .जीवन से एकदम निकल गईँ
 चरम निराशा घेर लेती है ,परिवार,मित्र परिजन ,कभी फ़ोन कभी पत्र ,कभी सहानुभूति हेतु वही कहते-सुनते लोग ,उस शोक की डूब में फिर -फिर समा जाता हूँ .
ग़लती मुझसे हुई.मुझे लगा था वे  सँभल रही हैं -  छोड़ कर चला गया.

वैसे एक सप्ताह की छुट्टी और बढ़ाने को कहा मैंने, तो सब ने कहा  - ' तुम जाओ , हम हैं यहाँ.'
और इतना तो अनुमान भी नहीं  था .
राय साब ने कहा था ,'हम सब हैं डाक्टर हैं उनका ध्यान रखने के लिये    तुम
और क्या कर लोगे  ?'
 और मैं चला गया
सब यहीं थे ,सब उनके हिताकांक्षी थे .किसी ने क्या कर लिया ?
अंदर से प्रश्न उठा और तुम होते तो क्या कर लेते - मौत से जीत सका है कोई ?
वसु उनके पास थी. मीता भी उन दिनों वहीं थी ,दिन-दिन भर माँ के पास बैठी रहती थी.खाना प्रायः उसी के घर से बन कर आ जाता ,एक व्यक्ति का खाना .माँ  पथ्य ही लेती थीं . इस बार कुल पन्द्रह दिन ही बीमारी  झेल पाया उनका दुर्बल शरीर !
बीच-बीच में चरम निराशा के प्रहर ऐसा छा लेते हैं कि रोशनी का कोई सिरा नहीं दीखता.
मन करता है माँ के आँचल में मुँह छिपा ,जी भऱ कर रोऊँ .पर अब वह आँचल  नहीं है .आँगन पार करते अरगनी पर सूखती हुई उनकी साड़ी का आँचल सिर से छू जाता था .रुक जाता था मैं. हाथ में थाम आँखों पर रख  कर लगता था शान्ति मिल रही है .अब वह भी मुट्ठी से निकल गया वह छोर अब कभी हाथ नहीं आयेगा .
*
रातों का एकान्त दुःस्वप्न सा छा लेता है.
दो बार तनय अपने साथ बुला ले गया  पर मेरा मन नहीं लगता ,मैं वहाँ  नहीं रहना चाहता .

माँ को गए पूरा महीना भी नहीं बीता कि,एक  धक्का और.
सुना था मुसीबत कभी  अकेली नहीं आती,    देख भी लिया. एक से  उबर भी न पाया  कि फिर सिर पर आकाश फट पड़ा .
उस दिन डाकिये से तार लेते हाथ काँप रहे थे .
  धुँधलाती आँखों  तार पढ़ा ,लिखा था . 'फ़ादर सीरियस .कम इमीजियेटली'
  वे  अस्पताल में एडमिट थे - अचानक आई सूचना सन्न कर गई.
जिनके कारण पग-पग पर कंटकों की चुभन मिली  उन पिता के अंतिम दिनों का साक्षी बनना बाकी था. .वे शराब क्या पीते वही  उन्हें पी गई  ..डाक्टरों की चेतावनी बेकार गई सारा लिवर जर्जर हो गया था खून की उलटियाँ होने लगी थीं.
.वसु की शादी में उन्होंने किसी को बताया नहीं  . विवाह की हलचल में उस ओर किसी का ध्यान भी  नहीं गया .
जा कर देखा व.हाँ का हाल -
बाद में वे उसी पुराने घर में अकेले लौट आए थे . पड़ोसी से चाबी ले कर चुपचाप घर खोला और एक कमरा अपने लिए ठीक कर लिया ..
 कुछ आशा रही होगी  .चाबी दे कर गए थे कह गये थे , ' मेरी पत्नी आये तो दे देना.'
आते ही पड़ोसियों से पूछा था  पूछा था उन्होंने ,'वो  आई थी क्या?'
इतने वर्षों तक उपेक्षित  ,घर की हालत जर्जर  थी .जर्जर वे भी  थे.
पर सब कुछ होते हुए भी जिसकी कभी  कदर नहीं कर पाये उससे वंचित होने का दोष  देते भी किसे  ?
 समझ तो गये ही थे ,पीने की लत ने खोखला कर दिया है अब कुछ दिन के मेहमान हैं बस.
मैं आया तो फिर भी पहचान रहे थे .
'वो भी आई है ?'माँ के लिए पूछा था .
'वे अब नहीं हैं .'
उनकी मुख-मुद्रा अजीब सी हो उठी  .
फिर  वे कुछ नहीं बोले ,जड़ से हो कर रह गए .
बस ,इससे आगे और कुछ नहीं .
पुरुष का भाग्य कौन जानता है .यह भी किसे पता था  पिता के अंतिम दिन इस प्रकार बीतेंगे-.अकेले ,लाचार ,परित्यक्त !
हमारे यहाँ से लौट कर भी वे हास्पिटल में एडमिट हुए थे यह भी पता लगा ,डाक्टरों ने चेतावनी भी दी थी .
 पर वे पीना नहीं छोड़ पाये और अब.डाक्टरों ने जवाब दे दिया तब  तार दिलवाया .
*
मैने वसु को बुला  लिया था ,' पिता से मिलना हो तो फ़ौरन चली आओ .'
अब तक  पिता से कहाँ मिल पाई थी .आये थे तब भावाकुल मन और नयन दोनों भर आए थे.न देख पाई, न पहचान बन पाई .कन्यादान  के समय  देखना संभव कहाँ और बिदा समय की विह्वलता में कहाँ था अवकाश कि पिता से पहचान कर पाती !
  उसके मन का  कोमल वत्सल भाव बना रहे- मेरा प्रयत्न था .बिछुड़न का दुख इतना दारुण नहीं होता जितना उपेक्षापूर्वक  छोड़ दिये जाने का .
वह आई बिस्तर पर पड़ी काया को देखा .
कुछ-कुछ होश रहा होगा उन्हें .  दीवार पर उनकी एक फ़ोटो लगी थी -शादी के कुछ ही दिन बाद की -माँ के साथ खड़े थे,ध्यान से देखती रही.
कहाँ वह और कहाँ यह  - एकदम काला पड़ गया चेहरा,धुँधलाई आँखें. विकृत काया  जैसे-एकदम सिमट- सिकुड़ गई हो -पिता तो अच्छी कद-काठी के रहे थे ..
कहीं कोई समानता नहीं -कोई पहचान नहीं पाई उसने  ,बस हाथ जोड़ कर प्रणाम कर लिया  .
यह घर ?चारों ओर दृष्टि पसार कर देखा था .क्या सोच रही होगी ?
दीवार पर लगा फ़ोटो देखती  रही थी  .'भइया और कुछ नहीं मेरे पास .ये  फ़ोटो ले लूँ.'
'चिन्ता मत कर वसु .इसकी कॉपी मैं तुझे दे दूँगा.'
फिर उसे आश्वस्त करने को कहा ,'ये वाला फ़ोटो यहाँ  लगा रहेगा जब तक यह घर है.और माँ की वह फ़ोटो भी जो मैंने अलग खिचवाई थी इन्लार्ज करवा कर यहाँ  लगानी है ' .
'हाँ भइया , सच में तभी यह घर लगेगा ...'
'माँ के साथ रहा था इस घर में.कछ मीठी-कड़वी स्मृतियाँ गाँठ में बँधी हैं.. सब  ठीक रहा होता तो हम यहाँ पले होते '.
'मेरा मायका न ?'
 'बहन, जहाँ मैं  वहाँ तेरा मायका.इस घर को कैसे छोड़ूँगा .तू जब चाहे यहाँ आना .जब हम साथ होंगे मैं तुझे यहाँ के किस्से सुनाऊँगा.'
फिर मैंने पूछा ,'इस घर की चाबी मेरे पास है .तुझे चाहिए ?'.
'मैं क्या करूँगी ?'...फिर रुक कर बोली ,'
सब कहते हैं लड़की के  दो घर  होने चाहियें -जीवन में ऊब कभी न लगे .
इस घर में मेरे माँ- पिता  रहे थे ..कभी यहाँ आकर दो-चार दिन बिता जाऊँगी .'
' मेरा घऱ तेरा मायका होगा बहन,तेरा मान सदा रहेगा .'
मुझे  बाद में   वहाँ कुछ दिन और रुकना पड़ा था -  घर-बाहर के कुछ काम निपटाना ज़रूरी हो गया था..
*
  पिता के अंतिम संस्कार के बाद लौट कर आया था.
चुपचाप ताला खोला .
सारा घर खाली पड़ा  भाँय-भाँय कर रहा था .अंदर तक घुसता चला गया .कहीं कोई नहीं. सबकुछ अनचीन्हा-सा लगने लगा.बढ़ कर तख़्त पर बैठ गया.
बाहर कुछ आहट
ओह ,दरवाज़ा बंद करना भूल गया.
अरे, वसु आ गई  !
कह रही थी,' पता लगा लिया था कि  तुम वहाँ का काम निबटा कर आ रहे हो .'
वसु को आना ही था , पीछे मीता चली आ रही थी .
'...वहाँ सब की राय हुई इस विषम घड़ी में  वसु  अकेली न रहे .मैं साथ आई   हूँ . बाबूजी को भी देखना था.
 उधर से तनय भी आ रहे होंगे. '
तनय ने राय साब को बताया था -
 ,' अम्माँ ने भाभी को भेजा कि, जाओ वसु अकेली होगी , कोई बड़ा नहीं सँभालनेवाला .इस बार सीधे वहीं जाना..'
उनके मुँह से निकला  था -
'पिता ने सुध नहीं ली पर उसने उनके प्रति  दायित्व पूरा कर दिया .'
'भइया, नहा-धो लो .फिर यहाँ क्या करोगे ?.वहीं चलो बाबूजी ने कहा है यहीं ले आना .'
'अभी कहीं जाने का मन नहीं मेरा.'
'दीदी मैं भी यहीं रहना चाहती हूँ .'
अब तक  इस घर में मुझे कभी परायापन नहीं लगा था.,कहीं बाहर से  भाग-भाग कर यहाँ आने का मन होता था .अब जी बिलकुल उचाट हो गया है
वसु कितनी उदास है . किस प्रकार सांत्वना दूँ .उसे लगता है ,माँ के बिना वह निराधार हो गई .मैने और पारमिता ने बड़ी मुश्किल से सँभाला.
पारमिता को भी माँ  का बहुत  आसरा था.हम तीनों हो बेसहारा हो गए  .
*
केश रहित मुंडित सिर झुकाए बैठा है बिरजू .
उस गहन मौन की घनीभूत उदासी पारमिता का हृदय विदीर्ण किए दे रही है.
'ब्रजेश, मुझसे तुम्हारा चेहरा नहीं देखा जाता .'
'तो तुमसे देखने को कहा किसने ?'
'ऐसे क्यों बोलते हो?.जानबूझ कर क्यों दुखी करते हो?'
'क्या करूँ मैं ?'-एकदम बिखऱ पड़ा,' मैं क्या करूँ . ..अब मेरे करने को बचा क्या .अब तो कुछ नहीं मेरे पास ...'
उसके सामने एकदम हत हो गया.सिर झुकाए  फफक उठा .
पाँव लटका कर तख़्त पर बैठ गई वह भी .
हाथ कंधे पर ले जा कर सांत्वना देना चाहती है,मुँह से शब्द नहीं निकलते ,आँसू की बूँद ब्रजेश के हाथ पर टपक गईँ , उसका  झुक आया सिर .काँधे पर ठीक से साध लिया मीता ने .हाथ से हौले से थपक देती है.
वसु  पास पड़ी कुर्सी पर गहरी उदासी में एकदम चुप पर
अंतर से उठता  आवेग नहीं सँभल रहा उससे. रुक न सकी, बढ़ आई .भाई और मीता दोनों से आ लिपटी. मीता ने गोद में समेट लिया ,
कहने को कुछ नहीं .बीच-बीच में सिसकी से सिर हिल जाता है   निश्शंक  शान्तभाव से मीता हलके-हलके थपकी दे देती  है .
 अंतर से टकराता आकुल रोदन कुछ  शान्त हो चला है...

याद आ रहा है किसी बात पर उस ने कहा था
' विवाह हो जाने से मायके के नाते टूट नहीं जाते .तुमने मुझसे अन्यथा कुछ नहीं चाहा  ,मन का दर्पण स्वच्छ  रहे तो अक्स कभी धुँधलाए नहीं .'
आकुल अंतर आश्वस्त हो चला है - आज तुम में माँ का आभास पा  लिया मैंने .
ओ बहुरूपिणी , तुमसे कैसे उऋण हो पाऊँगा  ! 

*
(क्रमशः)

 

5 टिप्‍पणियां:

  1. मन का दर्पण स्वच्छ रहे तो अक्स कभी धुंधलाये नहीं..सचमुच प्रेम किसी संबंध पर आश्रित नहीं होता वह इतना असीम होता है कि सारे संबंध उसमें समा जाते हैं...नवधा भक्ति का यही तो रहस्य है

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  2. कथांश के पहले अंक से जुड़े रहने के कारण इसके सभी पात्रों के साथ एक रिश्ता सा बन गया है. मेरा जुड़ाव इस शृंखला से मात्र पाठक के रूप में नहीं, बल्कि व्यक्तिगत रूप से भी जुड़ने जैसा अनिभव था. शायद यही कारण है कि पिछले अंक में मैंने इस अंक की घटना का पूर्वाभास व्यक्त किया था, जो सही साबित हुआ.
    अब लगता है कथांश समाप्ति की ओर बढ चला है. लेकिन इस अंक में घटनाओं को इतना जल्दबाज़ी में दिखाया है आपने माँ कि लगता है आप स्वयम इसे समाप्त कर डालना चाहती हैं. जिस प्रकार एक नृत्य में लय और ताल पर झूमते शरीर और अंग प्रत्यंग के अतिरिक्त पैरों को ज़मीन पर लयात्मकता से रखना महत्वपूर्ण होता है, वैसे ही एक उपन्यास का अंत भी एक नृत्य से कम नहीं.
    माँ, इस कथा के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ का टूटना तथा एक अदृश्य स्तम्भ का भी साथ ही ढह जाना, मुझे आहत कर गया. ये तो नहीं कहूँगा कि यह तो होना ही था. लेकिन अन्दाज़ा तो था ही मुझे!
    देखें शायद अगले अंक में यह "क्रमश:" समाप्त में परिवर्तित हो जाए!
    ऐसा लगेगा कि कुछ अपनों का साथ छूट गया!! बेहतरीन किस्सागोई, माँ!

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  3. माँ का जाना कितना दुखद है यह ब्रजेश के उद्गारों द्वारा इतनी मार्मिकता से व्यक्त हुआ है की दिल भर आया . लेकिन कहानी में अगर कोई और मोड़ , कोई और संघर्ष नहीं लाना था तब यह घटना सहज व आत्मसात हो जाने वाली है .अपने सारे दायित्त्व पुरे कर दिए . बेटी और बेटे का घर बस गया . जिससे डोर बंधी थी और बुढ़ापा जिसके सहारे आराम से कटता वह तो युवावस्था में ही छोड़ गया .अब माँ के लिए करने को क्या था . वह जैसे दायित्त्वों को पूरा करने ही जी रही थी . व्यावहारिक व भावनात्मक रूप से यह आदर्श अंत है .
    ब्रजेश के पिता का दुर्दांत उनके अंदर कही छुपी सम्बेदना व् इंसानियत का प्रतीक है जो उन्हें अपनी भूल समझ आई और फिर उसे भूल कर वे जी नहीं पाए . भूल को देखते हुए यह पश्चाताप कोई मायने नहीं रखता सिवा इसके कि उन्हें बच्चों से स्नेह व आदर तथा पाठकों से सहानुभूति प्राप्त होगई . अगली कड़ी की प्रतीक्षा है .

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  4. अंतस को छूती बहुत प्रभावी कड़ी...

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  5. शकुन्तला बहादुर30 दिसंबर 2014 को 4:12 pm बजे

    मुझे लग रहा है कि मैं एक पाठिका नहीं, कथा की ही पात्र हूँ और स्वयं इन मार्मिक स्थलों को देख तथा जी रही हूँ ।इन जीवन्त दृश्यों ने मुझे अपनी माँ और पिता के महाप्रयाण के क्षणों की अनुभूति पुन: करा दी । मन अन्तर्वेदना से भर गया । मार्मिक और सशक्त विवरण मन पर छा गया है । ये लेखनी का कौशल है ।।

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