मंगलवार, 25 नवंबर 2014

कथांश - 26 .

*
वसु माँ के पास रुक गई थी.
तनय का कहना था ,भइया अधिक छुट्टियाँ नहीं ले सकते .तुम्हीं रुक जाओ .माँ कुछ ठीक हो जायँ तो मैं ले जाऊँगा .मैंने कह दिया ,'उसकी चिन्ता न करो ,बाबू ,मैं ख़ुद पहुँचा आऊँगा.'
 राय साब सारी  खोज-खबर लेते रहते थे.उनसे बहुत सहारा था.
 सुमति के जाने के पहले ही उसके पिता से मिलने गया था. चार पुत्रियों का पिता, जिसकी आय का स्रोत साधारण क्लर्की हो, वही हाल था.
पहले स्पष्ट किया मैंने ,'मेरी  बहिन और और आपकी बेटी में   पॉलिटेक्नीक की सर्विस के दौरान मित्रता हुई थी.
उन्हीं ने आपसे कुछ कहने को  मुझे भेजा है. आपकी बेटी जीजा से विवाह करने को तैयार नहीं. उस पर ज़ोर डालने का नतीजा बुरा भी हो सकता है .'

  उनने अपनी विवशताएँ बताईं .बोले,' उसके मन का वहम है ,बड़ा जमाई ठीक-ठाक है .लड़की का दिमाग़ ही चढ़ा हो  तो मैं क्या कर सकता हूँ  ?'
  मेरे समझाने पर  पर कि थोड़ा इंतज़ार करें ,सारे लोग लालची नहीं होते .
वे बोले,

'कहने को सब कह देते हैं ,मौका आने पर कोई  कोई तैयार नहीं होता .तीन-तीन ब्याहने को बैठी हैं उनका भी सोचना है मुझे .लड़केवाले सीधे मुँह बात नहीं करते ..'
'ऐसी बात  नहीं है ...'
वे कुछ तेज़ी पकड़ गये ,मेरी बात काट कर  बोले-
'तो आप ही बताइये साहब,आप तैयार हो जाएँगे ?'
'मैं ..मैं, ' एकदम से मैं क्या बोलता?
'बस करने लगे न मैं-मैं ,..कोई  कमी है मेरी बेटी में ..?
' कोई कमी नहीं, पर मुझे अभी थोड़ा समय है .कम से कम साल भर ..'
 'वह कोई बात नहीं आप  तैयार हों तो  काफ़ी है हमारे लिए . तब तक हम विनीता रिश्ता खोज लेंगे -दो बेटियाँ एक साथ ब्याह देंगे.'
और फिर बात रास्ते पर आ गई
पहले तो उन्हें विश्वास  नहीं हुआ, फिर एक दम विनम्र हो गए .
मैंने कहा ,'  मैं  इससे पहले नहीं कर सकता ,तब तक आपको कोई और मिल जाय तो ...'
'कैसी बातें करते हैं हमारे लिए तो भगवान बन कर आए आप .अगर कोई और मिल भी जाय तो दो और बैठी हैं अभी..'
'जैसा आप चाहें.'
 उस समय इतनी ही बात हुई .
*
सुमति को कुछ  नहीं बताया था मैंने .
बाद में माँ से मिलने उसके पिता ही आए थे .
मिठाई ले कर आए थे ,माँ को नज़राने में इक्यावन रुपये दे गए  . 
उन्होंने मना किया तो कहने लगे ,' अरे हम ग़रीब लोग, समधिन जी ,आपके लिए कर ही क्या सकते हैं .ये तो मान का पान है. हमें उबार लिया आपने .'
बड़े खुश  हो कर गए .माँ संतुष्ट थीं .
 पिता की देखभाल भी मीता की जुम्मेदारी थी  -छुट्टी में  आ पाती थी .
तनय ने वहाँ जाकर सबसे यहाँ की सारी बातें  फूँक दीं थीं.
विनय खुश थे, चलो अच्छा हुआ ,उन्हें लगा सारा कुछ मीता का किया धरा  है
बोले थे ,' ब्रजेश की  माँ को वचन दिया था न  उसने ....'
 *
अकेले में बैठे कभी-कभी बड़ी ऊब लगती है .
 मन बड़ी उलझन में पड़ा रहता है .अचानक ही इतनी घटनाएँ घट गईं .बिना सोचे-समझे बाहरी परिस्थितियों  को साधता मैं, जैसा बना, करता गया .  अब उस पर सोचने बैठा हूँ .माँ ,मीता और वसु तीनों  एक  मत . . चढ़ा दिया सब ने और  मैं बेवकूफ़ियाँ  करता गया.  मेरी बड़ी बुरी आदत है  अपनी ही चलाने लगता हूँ  मीता के साथ तो करता ही था उस दिन उसे  भी अपनी अनुकूलता  में घसीट लिया .वह तो लाचार थी ,मैंने अपनी धुन में  कुछ सोचा-विचारा नहीं .बस माँ को तुष्ट करना चाहा था.  निराशा न हो ,वे उदास न हों उस समय यही पूरा प्रयत्न रहा था.


  मीता का कहा ध्यान में था ,'माँ के संस्कार पाये हैं तुमने .'
एक सुन्दर परिवार- जो  माँ को नहीं मिल सका  उनका सपना था ,जो बिखरे नहीं ,मन जिसमें रह कर प्रसन्न हो . 

उन्होंने कहा था ,' आगे इसी धरती पर तो आना है ,तुम्हें और मुझे भी.
 मुन्ना,  अपने पुरखों के श्राद्ध हम करते हैं ,उनकी सारी अच्छाइयों का फल  हम भोगते हैं तो अपराधों का प्रायश्चित कौन करेगा ?'
इतने दिन से बीमार माँ को दुख न पहुँचे ,उस दिन बस  इतना ही ध्यान  था.

*
  मन कहीं  टिक नहीं रहा.
ध्यान आ गया मीता के पारिवारिक जीवन का .

मैंने व्यस्त हो जाने के बारे में पूछा था , 'नौकरी करके कैसा लगता है ?'
'शरीर की थकान आसानी से दूर हो जाती है ,पर मन ऊबने लगे तो जीवन का उत्साह कम होने लगता है .इस हिसाब से पॉलिटेक्नीक का जॉब  बहुत अनुकूल है . ' 
 हाँ ,जॉब ले कर अच्छा किया उसने .संबंधों  और परिवार की सीमाओं से कहीं थोड़ा   छुटकारा  बहुत ज़रूरी है ,मन के कुछ अकेले कोने ,कभी-कभी अपने लिए एकान्त चाहते हैं . कोई जगह जहाँ कुछ निजीपन बचा रह सके , जहाँ कभी अपने में ही रहने का अवसर रहे ,जहाँ अचानक छा जाते  अनमनेपन का कोई  कारण देना ज़रूरी न हो .कुछ साँसें ,दूसरे वायुमंडल से खींची जा सकें जहाँ .

मैं तुम्हारी स्थिति समझता हूँ ,कितना कठिन होता है घर में रह कर ही अपने को खपा देना ,मुक्ति का कोई रास्ता नहीं दिखता हो जहाँ .

 अब मैं भी सचेत हो गया हूँ .  सोच रहा हूँ .कितना मुश्किल हो जाता है हर समय अपनी मनस्थिति के लिए कोई समाधान किसी के सामने रखना .हमेशा सबके आगे प्रत्यक्ष होना. कभी अपने आप में रहने की सुविधा न हो जहाँ , कितना असह्य हो जाता होगा !
 तभी मेरा मन विवाह के लिए तैयार नहीं होता .
उस दिन लिखते-लिखते  बीच में छोड़ दिया था , डायरी सामने पड़ गई .
खोल कर देखने लगा.

पेन उठा लिया -
नाम लिख दिया था उस दिन तुम्हारा, पर  वक्तव्य मेरा है.
बार-बार तुम्हारा  वह प्रश्न  सामने खड़ा हो जाता है  - किसी से प्रेम करने से क्या अंतर का भंडार रीत जाता है ?प्रेम स्वभाव है .माँ बहन और बेटी में सोचो ज़रा.एक का प्यार दूसरे का हिस्सा कम कर देता है, क्या ?

 हाँ,पारमिता .माँ, माँ रहेंगी ,जो तुम हो तुम रहोगी ,वसु वसु रहेगी .जो,  जो है वही रहेंगा-भाव की भिन्नता है, बस!
अंदर ही अंदर बहुत कुछ उठता  है - संबद्ध-असंबद्ध . जिसका पूरी तरह  व्यक्त हो पाना कठिन  होता है  .थोड़ा चैन पड़ता है जब ,कुछ अपने मन का लिख लेता हूँ  ,पर एक बार में थोड़ा -सा ही  .मैं लेखन पटु नहीं हूँ .पर इससे क्या ?कौन सा किसी के सामने रखना है .अपनी बात अपने तक ही तो - बिलकुल निजी!
 माँ की बीमारी में कितना कुछ घट गया , मैं तब सोचने -समझने  की स्थिति में नहीं था.अब असुविधा अनुभव कर रहा हूँ . ठीक हुआ या ग़लत समझ में नहीं आता .ख़ुद अपना समाधान नहीं कर पा रहा,
 अचानक ऐसा कुछ कर गया कि  अब उससे बचने का उपाय  नहीं . सब को संतोष है ,किसी को क्या फ़र्क पड़नेवाला है ?झेलना अकेले मुझे .मैं ही  रह गया बीच में अकेला.कैसे निपटूँगा ?
 अनमना मन  भटक जाता है   कुछ और नहीं लिख पा रहा . पेन और डायरी  किनारे कर दी.
माँ की चिन्ता लग रही है .उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो रहा  .
वसु है वहाँ, राय साब हैं ,उनका डाक्टर आता है .
 मेरी माँ अपनी ओर से बहुत लापरवाह हैं , हमेशा की आदत है .  कितनी बार कहो -चलो डाक्टर के पास .चट् मना कर देती हैं - ' मुझे वे दवाएँ नहीं पड़तीं ',
देसी दवाएँ और काढ़ों से काम चलातीं हैं .दवा के नाम ,वैद्य जी की पुड़िया उन्हें  ठीक लगती है .डाक्टर की दवाओं से उन्हें उलझन होती है .'
ऊपर से , अपनी जान को दस काम लगाये रखती हैं - किसी को ना कहने की आदत नहीं .
साथ की शिक्षिका की बेटी का विवाह था . ठंड लग  गई , किसी को बताया नहीं .हल्का ज्वर रहा तब भी ध्यान नहीं दिया. कमज़ोर तो थीं ही . अधिक शीत-घाम नहीं झेल पाईँ .खाँसी आने लगी थी  .बाद में 15 दिन बिस्तर पर पड़ी रहीं .
 समझ में नहीं आता  क्या करूँ कि उनका दुख  कम हो .क्या करूँ जिससे वे सुख का अनुभव करें . मेरा  मन बहुत विचलित हो जाता था पर कहता किससे ,और  कहने को था भी क्या/ बहुत चुप्पा-सा हो गया था. मन करता था उनके आँचल में मुँह छिपा लूँ ,आँसू बहा कर हल्का हो लूँ .पर कभी  नहीं कर पाया  .उन्हें दुखी करने का विचार भी गवारा नहीं होता.
माँ की गोद में सिर रख कर कभी रो नहीं सका .उन्हें अपना  दुख दिखाता कैसे ? बहुत बातें , पर कह नहीं पाता था.लोगों के बहुत से व्यवहार बता नहीं पाता था . वह  सब बीत गया , सब बदल गया लेकिन अब भी मन कैसा हो जाता है कभी-कभी .

 मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है -बहुत दिनों तक मन भारी रहता है फिर  अचानक अनायास कुछ याद आता है और अपने आप हँसी आ जाती है .
प्रकृति का यही विधान होगा कि मन का मौसम कुछ बदल जाए , संताप का सातत्य बिलकुल विषण्ण न कर दे.
और कुछ हुआ कि मुझे बैठे-बैठे हँसी आ गई   .कोई देखे तो सोचेगा कैसा मूर्ख , अकेला बैठा हँस रहा है.
जाने कहाँ से भटकती एक पुरानी याद मन-मस्तिष्क में उदित हो गई  -
उस दिन लाइब्रेरी  गया था .पारमिता किसी लड़की के साथ बैठी पढ़ रही थी.
लड़की  उठ कर किसी काम से बाहर गई ,पढ़ते-पढ़ते उसका मुँह कुछ खुला और टेढ़ा दाँत दिखाई देने लगा .इस ओर बैठे मैंने हाथ बढ़ा कर छूना चाहा  उसने  चौंककर सिर घुमाया, बोली ,' ये क्या ? जाने कहाँ का कैसा गंदा हाथ मेरे मुँह में लगा रहे हो ..'
'अच्छा ये बात है .अभी धो कर आता हूँ .फिर तो..'
''चलो हटो...'
 हँसी आई थी उसे भी .मुँह फेर कर छिपाने की कोशिश कर रही थी.
कितने दिन बीत गये.तब हम लोग कॉलेज में थे.
वेतन ले लूँ बस ,मुझे माँ के पास जाना है .
 *
(क्रमशः)

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

हे कृष्ण , यहाँ मत आना तुम !


*
ओ कृष्ण ,तुम मत आना  !
यहाँ मत आना तुम !!
गला फाड़-फाड़ कर  टेर रहे हैं जो पाखंडी ,अपन- स्वार्थी ,उनके शब्दों पर मत जाना.
ये  लोग अपने स्वार्थ और सुख के लिए पगलाए जा रहे हैं .  न्याय और सत्य के पक्ष में जिन कायरों की वाणी मौन हो जाती है ,खड़े होने का दम नहीं रहता  ,मत सुनना उनकी पुकार , वासुदेव , तुम मत आना !

पूछो ,उनने स्वयं अब तक  क्या किया ?युगों से अन्याय होता देखते रहे ,सहते रहे. प्रतिरोध क्यों नहीं कर पाये?
ये कायर , पलायनवादी हैं. अन्याय के ये हिस्सेदार  चीख-पुकार मचाने के सिवा और कर क्या सकते हैं !
गोविन्द, तुम तुम द्वारकाधीश हो कर भी दीनबंधु बने रहे ,यश-निन्दा से निरपेक्ष ,सुख-दुख में समभाव जीवन भर अविश्रान्त भावेन कर्मशील रहे ?ये सब  अकर्मण्य हैं अपनी हैं लिप्साओं के अधीन ?तुम्हें भी रिश्वत देने पर उतारू हैं -प्रसाद चढ़ायेंगे,रोये-गायेंगे ,नाचेंगे मंदिरों मे छप्पन भोग लगा कर अपनी जिह्वा तृप्त करेंगे. तुम्हारा नाम ले कर  भोग के सारे साधन जोड़ेंगे  ,केवल अपनी तृप्ति के लिए .  किसका भला हो पाया है आज तक उससे ?
 पूछो इनसे किस दीन की सहायता की ?क्या लोक-सेवा की, किस दुखी का दर्द दूर किया?गहन विषाद में डूबे  परम सखा को  कर्तव्य पालन हेतु जो ज्ञान दिया वह मानव-मात्र को दिशा-बोध देता सार्वकालिक संदेश  बन गया , उसका पाठ करनेवाले बहुत होंगे , बाल की खाल  निकालनेवाले व्याख्याकार  भी कम नहीं  पर उसे जीवन में धारण करनेवाले कितने हैं ? आचरण में उतार लिया होता तो न द्विधा-ग्रस्त होते ,न ग्लानि-गलित आत्महीनता के भाजन  होते . मन का समत्व- भाव उन्हें हर विषम स्थिति में साध लेता ,दैन्य-प्रदर्शन की नौबत ही न आती.पर  ये बौद्धिक कलाबाज़ियों वाले लोग धर्मराज बने ,अपने पक्ष में तर्क ढालने में निपुण हैं .
इन आस्था विश्वास हीनों का क्या उपचार करोगे ?
क्या करोगे ,यहाँ आ कर ?
*
इन लोगों के  करे-धरे कुछ नहीं होता .तुमने मानवीयता का जो सहज-पावन रूप  निरूपित किया था ,इन्हीं लोगों ने उसे इतना विकृत कर दिया .तुमने दिखा दिया था.नारी-नर का  संबंध इतना स्वस्थ और उन्नयनकारी भी हो सकता है ,वह उनकी उनकी मानसिकता से  परे रह गया , वह  इनकी   मनोवासनायें जगाने का माध्यम बन गया  .  केवल  विकृत रूप ही इनके पल्ले पड़ते  हैं .  नारी की लाज ढाँकनेवाले को ,विवस्त्राओं के बीच चित्रित कर रहे हैं .तुम्हारे सारे अर्थ अपनी वासनाओँ के आरोपण से  गँदला दिये इनने . नारी शरीर पर मनमाना अधिकार मान कर चलने लगे . इनकी  मानवीय संवेदनाएँ कुंठित हो गई हैं  इनकी कुतर्की मति के आगे जीवन के यथार्थ  और सारे  आप्त वाक्य  बेकार हो गये  हैं . और तो और तुम्हारी बाल सखी राधा ,इन के विकृत  मनोरंजन का साधन बन गई - सह पाओगे तुम ?इस वातावरण में रह पाओगे तुम ?नारी-विहीन कर दो संसार को और इस विकृत नर-वंश को   मनमानी करने के लिए छोड़ दो, वैसे ही जैसे अभिशप्त यदुकुल को अपनी परिणति पाने के लिए   छोड़ दिया था .
तुम्हें बरजते मन बहुत दुखता है गोविन्द ,यह दोहरी चुभन   मेरी  वाणी में तीखापन और,शब्दों में  कटुता भर रही  हो तो  क्षमा करना, क्योंकि तुम अंतर्यामी हो ,किसी के मनोभाव तुमसे छिपे  नहीं!
इन्हें क्यों लगता है कि तुम चले गये हो ? अंतर के शुभ संकल्प जगा कर  मन का कलुष धो लेंगे जिस दिन ,उस दिन स्वयं जान  लेंगे कि तुम निरंतर साथ रहते आए हो .इन्हें स्वयं अनुभव करने दो वासुदेव ,अपने से प्राप्त अनुभवों की गाँठ बहुत मज़बूत होती है ,खुलती नहीं कभी .इसलिए हे  नटवर , तुम इन  के दंद-फंद में पड़े बिना इन्हें सच का साक्षात्कार करने दो .
रे कलाधर , इनकी कलाकारियों पर रीझ कर सामने आने का सोचना भी मत .
 मत आना मुरली धर ,तुम यहाँ बिलकुल  मत आना !
*

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

कथांश - 25.

*
सुबह आँगन से आवाज़ दे कर मुझे चाय का कप पकड़ा दिया था सुमति ने .
कोई विशेष बात-चीत नहीं हुई .
दोपहर में मुझे थाली परोस कर दे गई .
एक रोटी और माँगी थी मैंने. सब्ज़ी सिर्फ़ आलू की थी ,माँ का सारा काम सँभाले है और क्या करती .यही बहुत है .
सुमति रसोई से बाहर चली गई थी .मुझे लगा खाना नहीं खाया है .
'आपने खाना नहीं खाया ?
वह एकदम चौंक गई
,'खाना ..हाँ खा लूँगी .'
ऊपर कपड़े सुखाने गई थी वह ,माँ की दवा के लिए गिलास लेने गया .
रसोई में बर्तन खाली पड़े थे.रोटी का डब्बा  मँजने के लिए  रखा था .सब्ज़ी की कढ़ाई कटोरे भी .
'अरे ये क्या ! खाने को कुछ है ही कहाँ?'
इधर-उधर  ताक-झाँक करने लगा -
 आटे के डब्बे में मुट्ठी भर आटा ,और दो छोटे-छोटे आलू सब्ज़ी की टोकरी में .
 हद है ,  अपने आप  भूखी रही ,मुझे खिला दिया .
वो सीढ़ियाँ उतर रही थी ,'आपने खाना नहीं खाया ?'
'खाऊँगी थोड़ी देर में ..अभी भूख नहीं है. '
' क्या खायेंगी, वहाँ कुछ है भी? माँ बीमार पड़ी हैं,कौन लाता घर का सामान? मुझे खिला दिया आपने और ... कल भी लगता है यही किया .,मुझे बताया भी नहीं ..!'

उधर से कोई उत्तर नहीं.
'मैं भी कैसा बेवकूफ़ हूँ ,मेहमान का ध्यान नहीं रखा ..'
'मान न मान मैं तेरा मेहमान ..सिर पड़ गई  हूँ  मैं तो.. .'

 'प्लीज़ ऐसा न कहें आप ही तो सब कर रही हैं ,माँ की देख-भाल घर के सारे काम..मैं तो बाहरी जैसा होगया  ..' 
वह फिर भी चुप रही.
'आप जरा लिस्ट बना दीजिए  बाज़ार से क्या-क्या सामान आना है ..'
'मैं ?मैं बना दूँ .'
'प्लीज़ ,मैं तो यहाँ रहता नहीं .कभी हफ़्ते-दो हफ़्ते में एकाध दिन को आता हूँ ,वैसे भी सब माँ करती रहीं या वसु ,मुझे कोई अंदाज़ नहीं ...'
कुछ न कहने का मतलब 'हाँ' ही समझा जाता है .

बाद में लिस्ट पकड़ा दी थी सुमति ने-
चीनी -चाय,आटा चावल अरे, सब कुछ आना है .कुछ था ही नहीं ..कैसे चलाया होगा तीन दिन !'
फिर उसने कहा-
'सुनिये, अब मुझे भी जाना है आप सँभालिये यहाँ  ..'
'और माँ को ..?पारमिता  तो आप को सौंप गई हैं ..'
'तब आप नहीं थे .'
'पर इतना सब मैं कैसे..करूँगा  .और आप कहाँ जायेंगी ?'
'चली जाऊंगी ,माँ -बाप तो हैं न ..'
'फिर वे जीजा से शादी करने का... .'
'देखी जायगी ..'
मुझे पता था नौकरी है नहीं ऊपर से वे लोग पीछे पड़े हैं जीजा से शादी कर लो.'
'आप साफ़-साफ़ क्यों नहीं कह देतीं ?"
'क्या साफ़ कह दूँ ?जितना कह सकती थी कहा. ,पर वे लोग ज़िन्दगी भर मुझे सिर पर बैठाये रखेंगे.?पढ़ लिख कर और मूंग दली है उनकी छाती पर ..'
'तो फिर  आप उनसे ..'
'मैं करूँगी या नहीं ,आप क्यों परेशान है .मेरी अपनी बात है ..'
 इसी ने पारमिता से कहा था ,ऐसे आदमी के साथ घुट-घुट कर मरने से अच्छा एक बार सुसाइड कर ले.मैंने चट् कह दिया 
'अरे वाह ,यहाँ से जाकर सुसाइड किया तो फँसेंगे तो हम! .पुलिस इन्क्वायरी और जाने क्या-क्या...नहीं..नहीं ,.. मैं नहीं जाने दूँगा ऐसे .'
'जाने कैसे नहीं देगें ?.

'ठीक है. तो मैं भी चलता हूँ साथ .आप उन से नहीं कहेंगी तो मुझे कुछ कहना है उनसे
'क्या कहना है ?
'जो कहना है खुद बात कर लूँगा .'
 'नहीं, फ़ालतू में किसी को बीच में नहीं डालना है मुझे.'
'तो  मैं चला जाता हूँ ,यहाँ  आप आप सँभाल लीजिये ..'
'अरे वाह,ये अच्छी रही',
फिर बोली -
' आप भला  क्या कहेंगे,  सुनेगा कौन वहाँ आपकी ..?'
मुझे हँसी आ गई ,' खूब सुनेंगे मेरी बात , मैं लड़का हूँ न !आप नहीं जानतीं मुझे ....'
पता नहीं कब से खाना भी नहीं खाया होगा, मुझे खिला दिया ऊपर से मैंने सुना  दिया ' मैं लड़का हूँ.'

और चिढ़ कर बोल गई ,' हुँह ,लड़के ?  हाँ, समाज के विधायक तो वही हैं .सारा कर्मकांड, लड़कियों के मत्थे ठोंक ,हाथ झाड़ कर चल देते हैं.' 
मैं चुप रह गया .
वैसे माँ की सेवा खूब कर रही है . देखा था कुर्सी पर बैठे-बैठे  सो गई .
पर उससे क्या कहूँ लिस्ट ले कर बाज़ार निकल  गया .
*
 लौट कर देखा वसु तनय के साथ आई है . मीता से माँ की बीमारी का सुन रुक नहीं पाई .
'अरे भैया तुम यहीं हो ! अच्छा हुआ मैं राखी यहीं ले आई.'
 जब राखी बँधवाने जा रहा था  ट्रेन का एक्सीडेन्ट हो गया था 12 घंटे लेट.. तब जा ही  नहीं पाया .
वह कह रही थी,'मुझे तो रोना आ गया  उस दिन ,फिर  अम्माँ ने कहा भगवान को धन्यवाद दो  तुम्हारे भाई कुशल से हैं , राखी यहीं मंस कर रख लो जब  मिलें बाँध देना ..'
'तनय कहाँ हैं?'
' दीदी के घर गए हैं बाबूजी से मिलने .'
अपने बैग में से एक पैकेट निकाला उसने एक नारियल-गरी का गोला ,उस पर तिलक किया हुआ ...'
'ये क्या ?'
  तब इस पर तिलक किया था  भइया के नाम का ...वैसे आज भी करूँगी...'
सुमति खड़ी हँस रही है , पहली बार उसे यों देखा -  कितना कम हँसती है,कह रही थी 'ये अच्छा !भाई का माथा नहीं तो   टीका गोले पर कर लिया . अच्छा उपाय !'
' और आप क्या करती हैं ?'
'भाई नहीं है मेरे ,' वह उदास हो गई . 
माँ जैसे सोते से जागी हों,
'अब  मेरे सामने बाँध दे राखी वसु ,अभी -अभी  राखी बीती है.'
' तो फिर पूरी विधि से बाँधूँगी .'
कुछ लेने रसोई में गई ,खाली थाली लिए चली आई
'वहाँ आटा चावल कुछ नहीं, आप कैसे क्या करती हैं ..'
'मेरा पेट भरती रहीं ये,  ख़ुद अनखाये रह कर ...आज तो बिलकुल ..'
अचानक बीच में टोक दिया गया ,तीखी आँखों देखते उसका हाथ हिला ,जैसे बरज रही हो, 'ऐसा कुछ नहीं ..'
मैं विस्मित देखता रह गया.
'ये सब सामान आ गया है अब .' और कहता भी क्या?
वसु ने बाकायदा ज़मीन पोंछ कर चौक पूरा ,कलश भर लाई ,बड़ा-सा पटा रख दिया
'लो भैया बैठो.. .'
'पैंट पहने हूँ इस पर नहीं बैठ पाऊँगा.'
'चल खड़े-खड़े बाँध दे ' माँ इन सब मामलों में बिलकुल रिजिड नहीं हैं.
मैं पटे के आगे खड़ा हो गया
'तू अकेला ?भाई-भाभी जोड़े से राखी बाँधते हैं अपने  यहाँ तो  .'
 सब चौंक कर माँ का मुँह देख रहे हैं .
'रिवाज़ तो यही है हमारे वहाँ भी ' वसु धीमे-धीमे हँस रही है.
 क्या करता ,माँ से कुछ कहते नहीं बना. हाथ पकड़ कर ..सुमति को साइड में खड़ा कर लिया.
वह झिझकी ,पर चुपचाप वैसी ही खड़ी रही ,बस पल्ला खींच कर सिर ढँक लिया था.
 इतने में तनय आ गया ,'अरे, यहाँ तो अच्छा-खासा ड्रामा चल रहा है ,वसु ,रुको ज़रा, ...अपना कैमरा ले आऊँ .'
वसु खुशी के मारे 'अरे एक राखी और लाती हूँ , ' कह कर अंदर दौड़ गई ,'

वसु को आगाह कर दूँ ,सो उसके पीछे-पीछे चला गया.
रेशम की डोरी निकाल रही थी वह ,' देखो वसु ,सीरियसली मत लेना ,माँ के कारण करना पड़ रहा है.'
,'भइया ...अपना काम निकाल कर हाथ झाड़ लोगे? वह भी हम लोगों जैसी है ,और  इस समय बहुत बेबस .' .
कहते-कहते उसकी मुद्रा  रुबासी हो आई थी.
अपने पर बड़ी शर्मिन्दगी लगी ,'ऐसा कैसे सोच लिया तूने .?.' कहते-कहते अपना ही स्वर कमज़ोर  लगने लगा था .
मैं, फ़ौरन जहाँ से आया था जा कर वहाँ वैसा ही  खड़ा हो गया.
'भइया, आप भी न..,'अपना रूमाल निकाल कर  तनय ने मेरा  सिर ओढ़ा दिया '
'तुझ से तो वो समझदार है ,' सिर ढँके सुमति को देख ,माँ का कमेंट आया था ,'सब लापरवाह हैं बकसे में से अच्छी साड़ी निकाल कर इसे काहे नहीं पहना दी ?'

देने के लिए और कुछ तो था नहीं ,मैंने जेब में से रुपये निकाल कर आड़ से उसकी ओर बढ़ाये ,सुमति ने हाथ बढ़ा कर पकड़ लिए ..
(बाद में पता लगा ये भी तनय ने कैमरे में कैद कर लिया).

बहन ने दोनों के भाल पर  रोली-अक्षत का शुभांकन और कलाइयों पर राखी बाँधी. उसने सिर झुकाए हाथ बढ़ा कर  चुपचाप बँधवा ली.
वसु जब हम दोनों पर वार-फेर कर रही थी  उड़ती-सी दृष्टि  सुमति पर गई उसकी आँखें भरी-भरी सी लगीं ..मन जाने कैसा होने लगा.
 उसकी ऐसी माधुर्य से पूर्ण,  सौम्य मुख-मुद्रा पहली ही बार देखी .भीतर   से कचोट - उठी पता नहीं दुनिया में सजह रूप से रहने के अवसर इतने दुर्लभ क्यों हो गए हैं !
पग-पग पर प्रताड़ना झेलती, हमेशा 'तुम लड़की हो' की चेतावनियाँ पाती लड़की को जब अचानक  सहज स्वीकृति और स्नेह सत्कार मिले  तो अंतर के आवेग की उमड़न  कैसे रुके  !
मेरे पकड़ाये रुपये उसने थाली में रख दिये ,तो हम दोनों को देख वसु मुस्करा उठी थी.
विधान संपन्न होने पर उसने वसु के चरणों में झुकना चाहा .
उसे  गले लगाते वसु -धीरे से कान में बोली ,' अभी नहीं.'
आज मेरी समझ में आया बहन छोटी भी मान्य होती है - ठीक ही है.

'वसु, उसमें बिस्किट के पैकेट हैं और कुछ नमकीन मिठाई भी .देखना इनने पता नहीं कब से कुछ खाया नहीं ,मेरा ही पेट भरती रहीं ....' मैंने उसकी ओर देखे बिना कह ही डाला.
 पटाक्षेप में माँ ने कहा था ,,'लेटे-लेटे किसी के पाँव नहीं छूते ,मैं उठ कर बैठ जाऊँ, तब छूना .'
सहारा दे कर बैठाना चाहा पर उनकी  हिम्मत नहीं पड़ रही थी.
*
( क्रमशः)

शनिवार, 1 नवंबर 2014

कथांश - 24.


*
रमन बाबू के 'माया-भवन' (माया उनकी पत्नी का नाम) में रौनक हो गई थी .विनय तो वहीं अपने स्नातकोत्तर कालेज में  खुश थे  अब  पारमिता भी  वहीं पॉलिटेक्नीक में पढ़ाने लगी . तनय का दो जगह  सेलेक्शन हो गया.-देखो कहाँ ज्वाइन करे .वसु सब के साथ वहीं थी.
 उसी से हाल-चाल मिलते रहते थे.
रमन बाबू और मायादेवी आराम से ज़िन्दगी गुज़ारने के आदी थे. गाँव का एक आदमी,आउट हाउस में रखा  था .घर का काम सँभालने को  महरी-महराजिन पहले से थीं .
मीता को पूरी फ़ुर्सत थी अपना काम करने की .
उस के ज्वाइन करने से पहले एक और नियुक्ति हुई थी -बिलकुल टेम्परेरी  . लाइब्रेरी एसिस्टेन्ट, मेटर्निटी लीव पर गईं  ,कह गईं  अब साल  पूरा कर के आऊँगी ,उनके स्थान पर , अस्थाई नियुक्ति कर ली गई  वह टर्म समाप्त होने को थी . लड़की थी सुमति .अकेली . अक्सर ही मीता साथ ले आती.
उस दिन चाय पर उसी की चर्चा चल रही थी .
 विनय पूछ रहे थे ,' पर ऐसा हुआ क्या  था ?'
'क्या करे बिचारी सुसाइड करने जा रही थी.'
वे  चौंके,'अरे क्यों .'
'बड़ी उलझी कहानी है ...'
'पर तुम्हें कैसे पता सुसाइड का?'
' इसकी टर्म खतम हो रही है .इधर कई दिन से परेशान थी मुझे पता था, तो कल इसके कमरे पर चली गई कि शायद कुछ मदद कर सकूँ.
दरवाज़ा खोला इसने. रोई-रोई लग रही थी . हड़बड़ी में उठी थी ,मुझे बैठा कर एकदम अंदर चली गई -एक कागज़ जल्दी से किताब में घुसा दिया था मेज़ के कोने पर टेढ़ी पड़ी  किताब साड़ी के पल्ले में फँस कर  नीचे जा गिरी. कागज़ निकल कर दूर जा पड़ा.उठाया तो  देखा -सुसाइड नोट !रो-रो कर यही लिख रही होगी .
'बाप रे !' विनय के मुँह से निकला
'पर बात  क्या ?'
 चार बहनों में दूसरे नंबर की है ये ,भाई कोई नहीं .माँ-बाप पढ़ाना नहीं चाहते थे .अपनी ज़िद में पढ़ा किसी तरह .
उनके तो बड़ी के लिए लड़का ढूँढने में ही तलवे घिस गए, जमा-पूँजी खर्च हो गई .ऊपर से तीन-तीन और .पढ़ा- लिखा लड़का देखो तो उसके दिमाग नहीं मिलते .
ये सोच रही थी अपने पाँव पर खड़ी हो जाऊँगी पर नौकरी कहाँ धरी आजकल?
 ब्याही बड़ी बहिन की  पिछले साल मौत हो गई ,  छोटा बच्चा छोड़ गईँ . वे सब चाहते हैं इसे जीजा से ब्याह दें - सारी समस्यओं का हल . वह  तो  तुला बैठा है . इसकी कोई नहीं सोचता
अब  ये घर जाने को बिलकुल तैयार नहीं .वो लोग जबर्दस्ती जीजा को पल्ले बाँध देंगे . ये कहती है घुट-घुट कर नहीं जीना,मर जाऊंगी पर उस आदमी से शादी नहीं करूँगी .
मैंने कहा - यहीं रुक जाओ .
बोली -यहाँ कहाँ रहूँ ,नौकरी खतम.कल से क्या करूँगी?'
घोर अरुचि के आदमी के साथ ज़िन्दगी भर गुज़ारूँ ,मुझसे नहीं होगा.हाँ बच्चा पाल दूँगी ,अलग से  .'
'तो..?', विनय ने पूछा था ..,'क्या करेगी अब ? ..'
वसु बताती रही थी - मैं श्रोता-मात्र .
याद पड़ता है एकाध बार वहाँ आते-जाते उस लड़की को देखा था

*
फिर पारमिता ने ही सजेस्ट किया था -
' मैं जा रही हूँ  .पिता अकेले हैं महीने-पन्द्रहवें देख-सुन आती हूँ -एकाध दिन रह लेती हूँ.  चलोगी  मेरे साथ ?'
' कहीं नहीं जाना, एक फ़ालतू का बोझ हूँ सब के लिए .'
'अरे ,मेरे पिताजी हैं बस,बड़े ख़ुश होंगे . न अच्छा लगे तो ज़हर की शीशी तो  रखी है आकर पी लेना .'
कह-सुन कर मीता उसे लेकर मायके आई थी.
वहाँ पता चला माँ की तबियत खराब .देखने गई  सुमति के साथ ,
 दिन निकल गया .फिर मीता बोली ,'कैसे अकेली छोड़ूँ इन्हें.तुम घर जाओ सुमति ,मैं यहीं रहूँगी .बाबूजी जी को बता देना .'
'नहीं दीदी ,आप जाइये मैं रह जाती हूँ .सँभाल  लूँगी यहाँ का.'
थोड़ी बहस के बाद तय हुआ कि मीता लौट जाय सुमति माँ को पास रहे.
क्या करती पारमिता भी? न उन्हें ऐसा अकेले छोड़ सकती न रुक सकती  ..नई नौकरी  छुट्टी भी नहीं.
वह बोली, ' ठीक है, मैं रुक जाऊँगी .'
मीता ने चैन की साँस ली.माँ को भी जाने क्या समझा दिया उसने .'
*
मैं तो यों ही चक्कर लगाने आया था ,माँ के हाल-चाल लेने.
उस लड़की को देखा ,समझ गया वही है.
कुछ अजीब उसे भी लगा होगा .पर सँभाल लिया था उसने .
रसोई से उसने कहा,
'माँ को  दवा देनी है वहीं सिरहाने रखी है.'
मैं  शीशियों के लेवेल देख रहा हूँ प्रेस्क्रिप्शन देख कर गोली निकाली
आहट पा कर माँ ने आँखें खोलीं ,'ले आया ,मुन्ना तू ?'
'हाँ, लाया हूँ न ' मैंने गोली आगे बढ़ाई ,वे तो कुछ और देख रही थीं हाथ नहीं बढ़ाया ,'
 'माँ तुम्हारे लिए ..'

'मुझे लगा  सपने में हूँ  ,पर तू सच में लाया है . आज  खुश कर दिया तूने ... '
उनका चेहरे पर चमक  आ गई थी.

'अरे, पानी के बिना दवा कैसे लेंगी ,' गिलास पकड़े सुमति चलीआ रही थी.

'मुन्ना, तू भी ऐसा ही है किसी को बताया तक नहीं ,'देखती रहीं फिर बोलीं ,'अच्छी है ,पढ़ी-लिखी तो होगी ही.'
पता नहीं माँ कैसी गफ़लत में हैं -बुख़ार चढ़-उतर रहा है.
बोल रहीं थीं-'कैसे  सादे कपड़ों में घूम रही है ..मैंने वसु के साथ ही गोटे की साड़ी बनवा ली थी .वही निकाल दे .अरे ,लगे तो नई नई है ...
.. मुझे तो कोई कुछ बताता ही नहीं .दो दिन से मीता थी घर में उसने भी कुछ नहीं कहा..' फिर सोचती सी बोलीं ,'..शादी कब हुई ?'.
 मैं हड़बड़ा गया मुँह से निकला-
 'हुई कहाँ ?'
' ओ, तो दिखाने लाया है .अच्छी है. बहुत प्यारी .बिलकुल  घर मिलताऊ ..'
वह चकराई-सी वहीं रुक गई - तो ये मुझे कल तक मीता समझती रहीं थीं.
मैंने बढ़ कर ताप अनुभव किया ,'बुखार कम लग रहा है अभी  !"
'हाँ, ठीक से बोल भी रही हैं ..'
'पर इन्हें कुछ कन्फ़्यूज़न हो रहा है ..'
वे कहे जा रहीं थीं ,'मेरी तो आधी बीमारी भाग गई मुन्ना ,तूने खुश कर दिया ! मैं अब ठीक हूँ .'
'आराम करो माँ .दवा खा लो .'
वह रसोई में चली गई.
मैं गया तो चुपचाप खड़ी थी.
'असल में मेरी माँ को कुछ पता-अता है नहीं .उनकी बात का बुरा मत मानियेगा..'
'सो तो मैं भी देख रही हूँ . '
*
(क्रमशः)