शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

कथांश - 15.

*
  'माँ, आज जरा दोस्त के साथ व्यस्त हूँ.'
 स्कूटर ले कर  निकल पड़ा था ,अगले दिन .
कैंटीन से बाहर ही मिल गई वह, आ कर बैठ गई .
शहर के बाहर का रास्ता पकड़ा.
''इधर तो नदी है न ?' उसने पूछा .
'हाँ ,चल रहे है वहीं डूबने !'
'पागल हो गए हो ?'
'घबराओ मत ,तुम्हें कुछ नहीं होगा जब तक मेरे साथ हो .'

नदी किनारे  आ गए ,
स्कूटर खड़ा कर दिया एक ओर सीढ़याँ उतरने लगा,वह भी साथ में
 पानी में पैर डाल कर बैठ गए पास-पास .
पानी बहा जा रहा है ,लहरों की हलचल  और आते-जाते हवा के झोंके  .
'तुम्हें अनुभव करना चाहता हूँ, बस ' -हाथ बढ़ा कर थाम लिया हाथ .बैठी रही चुपचाप .फिर कंधे से सिर टिका दिया उसने .  केशों की लटें उड़-उड़ कर मेरी ठोड़ी को ,गालों को सहला जाती  हैं .
'मीता''
रहा नहीं गया. अचानक आगे बढ़ कर मीता को समेट लिया . सीने से आ लगी है .मुख दिख नहीं रहा सघन केशराशि की मदिर गंध नासिका में समाई है . आँखें मुँद गईँ क्षण को.सीढ़ी से  गिर न पड़े कहीं, अपने से लगा लिया. कब से बहुत समीप अनुभव  करना चाहता था ,आज इतनी पास है .
 ''तुम से बहुत उलटा-सीधा कहा है -माफ़ करोगी मुझे ?
' कुछ मत कहो !'
'मीता ,तुम्हें कितना परेशान किया है मैंने !'
'रुलाओ मत बिरजू !'
समय बीत रहा है .
मैने कहा ,'प्रेम सुख नहीं है .'
मेरे मुख की ओर देखती रही फिर बोली
'प्रेम स्वार्थ नहीं है .'
उसका मुख देखना चाहता हूँ  पर सिर झुका हुआ है उसी सघन केश-राशि की ओट .
धीरे -से गोद में उसका सिर रख लिया . केशों पर हाथ फेरता हूँ.
मुख सीने आ लगा .
 मेरी  पीठ को समेटते हुए उसने दोनों हाथों की अँगुलियाँ फँसा लीं.
हम चुप हैं.
 केशों पर सिर टिका कर आँखें मूँद ली मैने.
लहरों की आवाज़ बीच-बीच में कानों से टकराती है .बहते पानी पर पड़ती धूप  की  झिलमलाहट परावर्तित हो घाट की सीढियों पर रोशनी के जाल बुन रही है. हवा के झोंके बिखरी अलकें उड़ा रहे हैं ,बार-बार अपने कानों, पर गालों पर डोलती उनकी रेंगती-सी छुअन. समेटता हूँ .बार-बार वही गुदगुदाती-सी सरसराहट ,अँगुलियों से फिर-फिर समेटता हूँ .
लगा वह धीरे-धीरे सिसक रही है ,'मीता, रोओ मत .'
कोई उत्तर नहीं.
चुपचाप थपक रहा हूँ .
नदी की लहरें उठती-गिरती बढ़ी जा रही हैं .
एक गहरी साँस निकल जाती है .
कुछ नहीं है कहने-सुनने को .
हम दोनों चुप, परस्पर अनुभव करते हुए.

धूप खिसकती हुई इधर तक आ गई  .
उठो मीता, छाँह में चलें उधऱ .'
उसका औँधा मुख  दोनों हाथों से ऊपर करता हूँ .
दोनों हथेलियाँ आँखों पर रखे रहती है ज़रा देर. खोलती है लाल-सी लग रही हैं ..
मुझे देखती है कुछ क्षण - कैसी स्निग्ध दृष्टि !
वह उठ गई है बिखर गए  केशों को एक हाथ से झटक  दूसरे से पिन निकाल कर दाँतों में दबा लिया ,दोनों हथेलियों से बिखरापन समेट फिर लगाने में व्यस्त  ,दोनों  साइड्स में बारी-बारी से .लहराती सी किरणों की सुनहरी दमक केशों में  भर गई है  .बहुत गोरी नहीं  पर मुख पर एक दीप्ति जो सहज आकर्षित कर लेती है.  
दाँतों में दबा पिन निकाल रही है .इसका इधर का ऊपर का एक दाँत टेढ़ा है  और बहुत पैना -छुओ तो चुभता है ..हँसती है या  बोलती है तो दमक जाता है .निर्निमेष देखता रह जाता हूँ .
 उठ कर खड़ी हो गई .'चलो! '

 अनायास उसाँस !
उठ कर चल दिये दोनों.
'चलो, उधर चलें ,दूर तक छाया फैली है,' उस दिशा में हाथ फैला कर  कर दिखाया उसने  .
'पर मरघट है उधर ..'
'इससे क्या ,जीवन की नश्वरता भी एक सच है, उससे कहाँ भाग सकते हैं !'
सच में दुनिया से कितना दूर चले आए हैं हम !
आगे बढ़ कर पीपल के नीचे एक पत्थर पर बैठ गई  ,मैं भी वहीं उसके पास .
 दोनों चुप बैठे हैं -
सूरज की  तिरछी हो गई किरणें , छायाओं के साथ  गलबाँही डाले थिरक रही हैं . हवाए ताल दे रही हैं ,पीपल के पत्ते झर-झऱ झूम-झूम ताली बजा रहे हैं.डोलते तरुपातों के अंतराल से झरते धूप के सुनहरे  छल्ले  चारों ओर बिखर-बिखर कर नाच रहे हैं -गालों पर केशों पर,कान की लौ वाला नग दमक जाता है बार-बार ! 
*
मरघट सुनसान पड़ा है.
'आज हम हैं कल नहीं होंगे -फिर प्रेम क्यों इतना तपाता है ?'
कुछ बोली नहीं सोचती रही वह .
फिर शब्द निकले,' देह में नहीं आत्म में समाता है .'
'प्रेम डुबा देता है  अंधा होता है' - मैं चुप न रह सका
'थाहता भी है. '
दोनों चुप .
वही बोली, 'छाँह भी बन जाता है - प्रेम अनश्वर है .कभी समाप्त नहीं होता !'
लगा तपते रेगिस्तान में शीतल बयार बह आई .
'मैं कृतज्ञ हुआ, मीता .' 
भीतर उठता  अंधड़ कुछ शान्त हो चला . 
 उसी ने कहा - 'प्रेम विश्वास है ,एक अटूट डोर!'
फिर पूछा ,'विश्वास है न ?'
'हाँ !'
असीम शान्ति चारों ओर ! बस, नदी की कल-कल और हवा में डोलते पत्तों की झर-झर .रह-रह कर पक्षियों की चहक वातावरण को वास्तविक-सा बना देती है .
कुछ देर में उठने का उपक्रम किया उसने ,...
'बैठी रहो यों हीं. '
मैंने हाथ पकड़ कर वहीं बिठा दिया 
 चुप रही वह, हाथ सहला रही है अपना .
फिर कस कर पकड़ लिया मैंने - उफ़ !
'आजकल बड़े ताव में रहते हो न , तुम? '
ठीक कहा उसने .मन का आवेग, हाथों में उतर आता है .
 'आज मेरे साथ बैठ लो ,फिर नहीं कहूँगा .. कुछ नहीं करूँगा .बस, मेरे पास  बैठी रहो तुम !'
चपुचाप बैठी रही .
 'बहुत उल्टा-सीधा सुनाया है मैंने ,भूल जाना ,मीता .'
'बस करो ,बिरजू.  रुलाओ मत.'
'अपने पर  नियंत्रण रख नहीं पाता .क्या करूँ मीता .ऐसा ही हूँ मैं ,बहुत कमियाँ हैं न..? '
 मेरे कंधे से  सिर टिका लिया उसने  .
 'मत सुनाओ यह सब  .. ...ज़िन्दगी बिता लेने दो मुझे!'
  'मीता, अब मैं वह नहीं जो था.'
'मैं भी नहीं , बिरजू .'
फिर आगे उसने कहा,'मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि आनेवाला  जीवन कैसा होगा .'
मेरे कहने को कुछ नहीं .
उसी के शब्द सुने ,' ज़िन्दगी बिताना है ,सोचने से क्या होगा !'

 मेरे कंठ में कुछ उमड़ा आ रहा है - गटक लिया.
लौटना पड़ेगा ही .
मैं उठा. वह समझ गई, खड़ी हो गई .
मन  बोल उठा आज के बाद ...बस!
 दोनों हाथ बढ़ा कर अपने में समेट लिया.
तन का परस अपने तन में बसा ले रहा हूँ ,केशों की गंध नासिका समा लेगी .  विकल करता उन्माद चैन पा जाएगा .
 एक हाथ से उसका मुख ऊपर किया आँखें मुँदी -सी .
 गाल,भाल, नयन,नासिका होठों से छू लिए.अधर बंद ही रहे मन में आया टेढ़े दाँत की चुभन इस समय कैसी लगती ?उसने मुँह मेरे सीने में गड़ा लिया है .दोनों हाथ पीठ पर लिपटे .कहीं गिर न पड़े -कस कर  साधे  हूँ .
मैं मौन. केवल बोध ग्रहण करता हुआ .
आज मैंने तुम्हें अनुभव कर लिया. बाहों में ले कर जान पाया कि तुम मात्र कामना या भावना नहीं हाड़ मांस की वास्तविक देह हो ,जिस के स्पन्दन बार-बार  मुझमें प्रतिध्वनित होते हैं .तन के पूर्ण परस में लीन मन शान्त हो चला है .
 देह और मन एक दूसरे के बिना अधूरे लगते थे . एक ही सिक्के के दो पहलू  -एक के बिना दूसरे का अधूरापन रिक्तता को और गहरा देता रहा. मैंने  ,देह और मन से तुम्हारा संपूर्ण परस पाया, शीतल हो गया हृदय .
आज समझ पाया शंकर ने प्रिया को अर्धांग में किस हेतु धारण किया !
        मन में गहन आश्वस्ति ! शब्द पर्याप्त नहीं है , व्यक्त कर सकूँ -यह सामर्थ्य नहीं मेरी  .

अचानक कहीं कुछ ,टकराने की  आवाज़ , वह चौंक कर हिल गई, अलग कर खड़ा कर दिया मैंने . .
एक गाय की खुजली शान्त करने के उपक्रम में स्कूटर गिरते-गिरते मेड़ से सध गया था ,गाय अब भी उससे कंधा रगड़ रही थी.  एक दूसरे को देखा - आशय समझ लिया .
 उधर ही चल दिये हम.
*
लौटते पर मैंने कहा था ,'चलो कहीं चाय पी लें .'
बड़ी श्लथ लग रही थी  बोली,' नहीं ,कुछ करने का मन नहीं, बस, अब घर जाऊँगी '.
फिर उसने पूछा था, 'शादी में आओगे?
 'नहीं आ सकूँगा .'
कुछ पल एक-दूसरे को देखा .
'ठीक है .माँ की ,वसु की चिन्ता मत करना मैं हूँ .'
'जानता था तुम हो ,तभी निश्चिंत हो पढ़ सका .'
खड़ी थी वह  - चलने को तैयार .
स्कूटर को किक लगाई . हलका झटका - वह पीछे आ बैठी है. कुछ  उड़ते से परस बार-बार पीठ सहलाते  वस्त्रों में उलझ कर हवाओं में खो जाते हैं.
कितना सारा जीवन एकदम बीत जाता है !
*

(क्रमशः)

रविवार, 17 अगस्त 2014

कथांश - 14.


*
अजीब होती हैं ये महिलाएँ भी . कितनी भी देर बैठी बतियाती रहें - चलने के लिए  के लिए  दरवाज़ा खुलते ही  भीतर से कुछ ऐसा उमड़ता है कि  कहे बिना चैन नहीं पड़ता . देहरी पहाड़ और ,मन पर गरुआ बोझ.  पाँव कैसे उठें ? सो चौखट के आर-पार से मुँह  जोड़े आलाप में डूब जाती हैं.
 वही मीता और कौन ! 
तब बड़ी जल्दी थी,जाने के लिए उठ गई .अब पन्द्रह मिनट हो गए , बाहर  दरवाज़े पर खड़ी वसु से गप्पें लड़ा रही है .
पता नहीं क्या बातें हैं जो खतम होने का नाम नहीं लेती ! कोई  किसी से कम नहीं.... सब एक सी  .
और मैं यहाँ  बेवकूफ़ों जैसा इंतज़ार कर रहा हूँ .
एक और खीझ - कल  राय साब ने फिर गज़ब किया. मेरी माँ से बहिन का रिश्ता जोड़ , इधर  पूरी पैठ बना ली !
अब तो  मन बिलकुल उचट गया है . कहाँ निकल जाऊँ, जहाँ ये सब देखना न पड़े ! रात बड़ी मुश्किल से गुज़ारी .आगे क्या करना है  , तभी सोच लिया था ,और अब यहाँ खड़ा हुआ हूँ .
मोड़  से, उझक-उझक कर झाँक लेता हूँ -उसका अता-पता नहीं.
बड़ा अजीब लग रहा है कोई देखे तो क्या सोचे ! ....क्या करूँ ? कुछ इधर-उधर करने लगता हूँ ,पर दृष्टि पर बस नहीं , बार-बार उधर  चली जाती है .
चलो ,अब बंद हुआ दरवाज़ा , वह बढ़ रही है . मैं मोड़ से आगे की ओर चल दिया .
इधर ही से तो निकलेगी
'अरे ब्रजेश, तुम यहाँ ?'
'हाँ ,ज़रा इधर जा रहा था , अच्छा हुआ मिल गईँ ,तुमसे एक बात कहनी है .
वह रुक गई 'क्या ? कहो .'
­परसों शाम मैं जा रहा हूँ ,..फिर तुम जा चुकी होगी .सब बदल जायेगा .कल मेरे साथ चल सकती हो ?
'कहाँ ?'
कहीं भी,जहाँ कोई डिस्टर्ब न करे  .
' हाँ .'
मुझे लगा कुछ सोच में है.
'डरो मत. परायी अमानत में ख़यानत नहीं करूँगा ...
'वह बात नहीं ,कल बाबूजी का चेकप है न , अभी कुछ करती हूँ जाकर..बताओ कहाँ ?'
कॉलज कैंटीन आ जाना ,दस के करीब .फिर देख लेंगे .'
'ओ.के .'
वह आगे बढ़ गई.
*
राय साब के बारे  में  सोच कर मन और खटा  जाता है . कर गए न नया तमाशा !
 क्या किया वो भी सुन लीजिये -

उनके यहाँ  तिलक की तैयारियाँ ज़ोरों पर  - कौन आयेगा ,कौन जा जाएगा   ,कब- कैसे -कहाँ  और तमाम बातें -  उनकी समस्या वो जाने !
राय साब चिंतित हैं , रहें, हमें क्या !
 पर माँ से सलाह करने चले आए  .
माँ ने कहा, 'घरवालों को बुला लीजिए ..सहारा रहेगा.'
'अरे जिज्जी,सहारा होता तो बात ही क्या थी .एक बिंदो जिज्जी थीं जिनका आसरा था सो स्वर्ग सिधार गईँ .'
माँ बिचारी क्या कहें !
पर वो बोले जा रहे ,'अब क्या बताऊँ..घर की बातें हैं ..'
और  बिना पूछे , बताए भी  जा रहे -
'... सब को लगने लगा था घर में घरनी का  होना बहुत जरूरी  है ,एक बेटा तो  चाहिये ही .मैंने दुबारा ब्याह को मना कर दिया .  
भाई लोग चाहें उनका लड़का गोद ले लूँ , छोटी बहिन के पति की नीयत का क्या कहूँ ? पहले वे लोग आते-जाते रहे -अरे, अपना मतलब रहा सबका ... पैसे का लोभ ! जब मैंने चाहा कोई आ कर बिटिया को सँभाल ले ,उनकी शर्तें लगने लगीं  .ये बिन्दो जिज्जी  विधवा थीं सो चली आईँ . निभाया भी खूब आज को होतीं तो...'
'सबूरी करो भइया, सब ठीकै-ठाक हो जाएगा ..'
'आप इतना कर रही हैं दिन-रात एक कर रही हैं . बिटिया भी आपके पास भागी रहती है -गुन-ढंग  सब आप ही ने सिखाये .जिज्जी को कहाँ ये सहूर ! मेरे लिए आप बहिन से बढ़ कर..'
'बिटिया हमें पराई कब लगी ? शुरू से अपनापा हो गया था .'
वे चुप सोचते रहे ..अचानक बोले ,'जिज्जी, कितने समय से ये कलाई सूनी है . आप इतना करती हैं तो एक धागा लपेट कर हमें भी सनाथ कर दें ..'
'अरे, पर ...' वे  अवाक् रह गईँ .
राय साब फिर बोले ,'जिज्जी कहता ही नहीं, आपकी उतनी ही इज्ज़त दिल से करता हूँ ..'
'आप परेशान न, हों हम लोग सब तरह आपके साथ हैं ...आपके सगे रिश्तेदार भी आते होंगे ..'
 पर राय साब ने बहिन बना ही लिया उन्हें .बोले ,' सगे होते तो आड़े बखत  में साथ होते ... सब अपने स्वारथ के हैं .'
और हमारा घर भी विवाह क्षेत्र बन गया .

उन्होंने फिर  मेरे लिए पूछा ,' बरख़ुरदार कहाँ है ?'
वसु जब बुलाने आई ,मैंने इशारा कर दिया -नहीं.
 'माँ ,भैया तो कहीं गए हैं .'
'हाँ, परसों जा रहा है ट्रेनिंग पर .तैयारी में लगा है.' 

बहुत हो गया सगापन !  मुझे लग रहा था ये टलें किसी तरह .
 उधर वे माँ से सहानुभूति प्रकट कर रहे थे ,'कैसा अभागा इन्सान है - देवी जैसी पत्नी को ठोकर खाने छोड़ दिया ..'
'भइया प्लीज़ ,इस बारे में कोई बात मत करो !'
अच्छा किया माँ ने .इन्हें हमारे घर से क्या मतलब ?फ़ालतू बातें करते हैं .  मैं तो चुपके-से बाहर निकल गया था.
*
(क्रमशः)

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

कथांश - 13.

* 
कोशिश करता हूँ पर  संयत नहीं रह पाता. अंदर -अंदर कुछ उफनता है .कहीं नहीं टिकता मन, बार-बार उखड़ता है .कुछ सोचता हूँ ,कुछ कह जाता हूँ - फिर उस  आँच  में दहता हूँ.
 अभी बारह दिन और निकालने हैं यहाँ .फिर तो ट्रेनिंग पर रहूँगा   .वातावरण बदलेगा ,व्यस्त हो जाऊँगा .
 वह आती है बीच-बीच में .जानता हूँ-  रह नहीं पाएगी , पर कुछ कहेगी भी नहीं.और किसी से कुछ कहे भी तो क्या ?
कहीं से लौटा था -
 टीवी चला दिया , बैठा रहा सामने .
'वसु, माँ कहाँ हैं ?इतनी देर से दिखाई नहीं दीं '
' रायसाब के घर से कहउआ आया था . मीता दीदी को रिश्तेदारों के  नाम दे कर भेजा है ,तिलक में क्या-क्या सामान होना है ,दोनों उस सबकी लिस्ट बना रही हैं .'
 'अच्छा !
'अब दिन ही कितने रह गए दस दिन बाद तिलक, महीने भर में शादी सब फटाफट निपटाना है .'
'तू भी कुछ कर रही है वसु ?'
'दीदी के लिए करना ही पड़ेगा. मेरे लिए कितना किया है उनने , पता है ? एक बार तो शहर में दंगे की ख़बर फैली तो तुरंत आईं, मुझे क्लास से बुला कर साथ ले गईँ . हमेशा ध्यान रखती हैं  मैं किसी मुसीबत में न फँस जाऊँ .
और जो उनके के ससुर हैं भइया, वे बहुत अच्छे हैं ,मुझे बुला कर भजन सुनते हैं.कहते हैं - तू तो मेरी बेटी है.मेरे लिए वहाँ की मेंहदी भी लाए थे  .'
'ओह ,बेटी कहते हैं ! '
मुझे याद आ गया को छुटपन से   'बेटी' सुनने  को और 'पापा' कहने को  लालायित रहती थी . एक बार तो मुकुन्द के पिता को पापा कहने के झगड़े में उसे ही नोच-खसोट  आई थी.
 'हाँ, और तू उनसे क्या कहती है ?'
'अंकल जी .मैं और क्या कहूँगी ?'
मन में कचोट उठी. इत्ती समझ आ गई है किसी को भी 'पापा' कैसे कहे , कांशस हो जाती है.
*
'अब रुक जाओ चाय पी कर जाना, ' माँ कमरे के बाहर बोल रहीं थीं .
' बहुत देर हो गई ,बाबूजी राह देखते होंगे .'
'अभी बस पाँच मिनट में चाय बनी जाती है .' उन्होंने  वसु..को आवाज़ लगाई .
 दोनों अन्दर आ गईँ .
'अरे ,तू आ गया मुन्ना ? कित्ती देर हुई ?'
 'तुम्हें छुट्टी कहाँ है माँ, कि मेरी सुध लो .दुनिया भर के काम तुम्हारे हवाले हैं .'
पर वे  कहते-कहते उत्तर सुनने से पहले ही  बाहर मुड़ गईँ थीं .
मीता कुछ अव्यवस्थित-सी हो उठी ,  दूसरी ओर देखने लगी .चोर-नज़र से वह उतरा चेहरा  देखा  मैंने- मन कसक उठा
 वसु उठ खड़ी हुई ,'चाय बना लाती हूँ .'
 'अभी कहीं जाने की ज़रूरत नहीं ,चार बजे पियेंगे चाय .अभी सिर्फ साढ़े तीन है '.
मैंने  वसु का हाथ पकड़ कर वहीं बैठा दिया .
मुँह बिगाड़ती वह चिल्लाई ,'अरे, मेरा हाथ मुड़ा जा रहा, छोड़ो .'
छोड़ दिया एकदम !
 सहानुभूति में मीता बोल गई ' ऐसे कस कर पकड़ता है ,चाहे दूसरे का हाथ मरुड़ जाय..'
'दीदी , तुम्हारा भी पकड़ा कभी ? ..'
अप्रत्याशित हड़बड़ा गई वह ,'नहीं रे ,ये लगता ही ऐसा रफ़ है .'
' माँ ,तुम कहाँ चली गईं थीं ?'
'वो ,बाहर चिंटू से कह आई हूँ ,समोसे ले कर आ रहा होगा .'
*
और पाँच दिन बाकी  , फिर तो ट्रेनिंग पर .
कल कुछ सामान खरीदने गया था . रंजन  मिल गया ,पुराना मित्र  है .  लौटने में देर हो गई .
 वसु नल पर खीरे धो रही थी  ,'भइया बड़ी देर कर दी . चलो ,खाना गरम करती हूँ .'
'तुम सबने खा लिया ?'
'कहाँ ? तुम्हारा इंतज़ार था .'
'माँ कहाँ हैं ?'
'ऊपर छतवाले कमरे में  .दीदी को कुछ सामान दिखा  रही हैं ..अभी बुलाती हूँ .'
'नहीं.नहीं ! तू खाना लगा , मैं बुला लाता हूँ .'
रसोई से नंगे पाँव निकला ,सीढ़ियों पर छाँह है ,चप्पल बिना भी चलेगा .
इधरवाली खिड़की खुली है ,बोलने की आवाज़ें आ रही हैं .
'... मीता, एक बात और समझे रहना औरत क्वाँरी हो ,ब्याही हो चाहे बच्चों की माँ बन जाए ,दुनिया  की नज़रें उसे छोड़ती नहीं ,  चैन से  नहीं रहने देतीं . मैं अकेली रह कर बहुत देख चुकी हूँ. '
वे कुछ रुकीं  -
'ऐसे आदमी हर जगह मिल जाते हैं ,तुम्हारी बात समझ रही हूँ मैं .सहानुभूति दिखाते हैं , मौके पर  सहायता को तैयार रहते हैं, कर भी देते हैं . और इसी क्रम में - अकेली औरत है ,अनुकूल हो जाय शायद . सो कोशिश  भी कर लेते हैं ....क्या पता लगे कौन कहाँ तक पहुँचेगा ! सो सँभल कर  रहना ही ठीक .  ... किसी के माथे पर तो लिखा नहीं है !'
आगे बढ़ते कदम रुक से गए .
मेरे दिमाग़ में घूम गए माँ के कुछ शब्द जो पिता की नाराज़गी पर वे बोलीं थीं,'मुझमें कोई चूक हो तो मुझे दोष दो , या किसी को प्रोत्साहित करूँ तो ...कोई यों ही बात करने में रुचि ले, तो मैं दुत्कार तो नहीं सकती ..फिर वह तो तुम्हारा  दोस्त  ठहरा...'
एक बार और-
मैं थोड़ा बड़ा हो गया था, नौवीं या दसवीं कक्षा में लड़कों के स्कूल में जाने लगा था .
ट्रेन्डग्रेजुएट ग्रेड में माँ की पोस्टिंग हो गई थी.
इन्टर कालेज के एक टीचर माँ को बात-चीत के लिए रोक कर बैठाने लगे थे. माँ के चेहरे से उनकी निगाहें हटती नहीं थीं .बड़ा अजीब लगता था मुझे!
 एकाध बार घर भी आए ,मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा . लगा था माँ भी  उलझन में पड़ी हैं .फिर पता नहीं क्या हुआ उनका आना बंद हो गया .अभी भी मिलते हैं, कभी कोई काम हो तो करने तो तत्पर रहते हैं .पर हम लोगों ने उनसे कभी सहायता नहीं ली .
मन में उठा - यही है क्या औरत होने का पाप?
अपने सोच में ही डूब गया था . अरे, मैं तो उन्हें बुलाने आया हूँ  -आवाज़ लगाते-लगाते रुक गया .मीता बोल रही थी -
'उस समय एकदम  नहीं मना कर सकी  माँ,  पिता को अशान्ति दे कर,  सुखी होने का सोच भी नहीं सकती. ..'
खिड़की के अधखुले दरवाज़े से दिखाई दिया - मीता माँ के पास बैठी है .हाथ में एक डायरी और पेन .बीच-बीच में पन्ने पलटती है फिर बंद कर देती ह उसकी शक्ल दिखाई नहीं दे रही इस ओर पीठ है , बीच-बीच में  गोद में रख  हाथों पर गिरी बूँदें  पोछ लेती है  .आवाज से पता नहीं लगने देती ,पर स्वर बोझिल - सा   धीमा है .
उन्हें नहीं पता  उनके सिवा कोई और भी इधर है.
'दोषी तुम नहीं .हमें बनाया ही ऐसा गया है कि अपनी सुख-सुविधा से पहले अपनों के कुशल-मंगल का ख़याल आता है.अपना दुख दिखाई दे उसके पहले अपनों की पीर कलेजा चीरती है.'
माँ की सहानुभूति उसके साथ है .वे कहे जा रही हैं, 'राय साब ने अपना कर्तव्य निभाया.  अपनी संतान के लिए ,कोई और क्या देखता है  समाज में सम्माननीय भरा-पुरा समृद्ध परिवार ,लायक लड़का    , दूसरी  बात कोई  कैसे सोचता ?'
उधर से कोई आवाज़ नहीं  .
' बेटी, मैं तो ख़ुद कभी निश्चिंत नहीं हो पाई , अपने मन चोर आज तुम्हारे सामने खोल दूँ.
 पिता की बात आने पर दोनों कैसे  बच्चे बगलें झाँकने लगते हैं  ,कोई उत्तर न बन पड़ता .देख कर क्या बीतती है मुझ पर ! मीता, तब मुझे बड़ा पछतावा लगता  है ..बच्चों का उतरा चेहरा देख , मन में बड़ा मलाल आता है .प्रश्न उठता है - क्या अपनी ही ज़िद के लिए चली आई हूँ ? अपने को कभी दोष-मुक्त नहीं मान पाती. अंदर ही अंदर कोंचन  उठती है कि वहाँ रुक जाना ठीक होता या जो मैंने किया ?
 'माँ , आपने बिलकुल ठीक किया  .''
मेरे मन में भी यही आया था, अच्छा हुआ उसने कह दिया .
वे अपनी कहे जा रहीं थीं,' . ... यही चाहा था मैंने  ,यही कोशिश की थी कि मेरी संतान में  वह ऋणात्मकता न उतर आए ..,जान लड़ा दूँगी उसको एक संपूर्ण व्यक्ति रचने के लिए ,संस्कारित ,संतुलित,समर्थ और उत्तरदायी - देह से  और मानस से भी....' 
'उस स्थिति में आपने इतना सोच लिया ,मुझे ताज्जुब होता है माँ ' 
अरे, इसे तो  बिलकुल मेरी तरह लगता है !
 मुझे भी आश्चर्य है,उच्च शिक्षा नहीं पाई  उन्होंने , फिर कैसे इतना सोच गईं ? पढाई-लिखाई बाद में की है.माँ का मन इतना सचेत कैसे रहा ?उनकी सोच-विचार ,भाषा,व्यवहार से कोई भी उन्हें सुशिक्षित समझता था यह तो मैंने शुरू से देखा है.अनायास ही लोगों का ध्यान  उनकी ओर खिंच जाता था .
बाद में मैंने एक बार पूछ लिया था,' माँ ,तुम्हारी बातें बेपढ़ी स्त्रियों जैसी कभी नहीं रहीं .यह सब तो तुमने बाद में किया ..'
वे हँस पड़ीं थीं ,' समझ गई , इतनी कुबड्ड नहीं थी मैं .नागरी-प्रचारिणी की परीक्षाएँ दी थीं ..'
'अच्छा!'
'हाँ ,विद्या-विनेदिनी ,मध्यमा वगैरा .. विशारद की भी तैयारी थी पर तभी शादी हो गई  और तुम्हारे पिता को लगा  ये भी कोई पढ़ाई है ,घर बैठकर उल्टा-सीधा पढ़ लो और पास !'
'...और जानते हो बाद में जब नौकरी की तो उनका भी  लाभ मिला .
तुम्हें पता है मुन्ना ,मुझे पढ़ने का बहुत चाव था .नानी के घर पड़ोस के कॉलेज प्रवक्ता की दो पुत्रियों का खूब आना -जाना था. हमारी अच्छी पटती थी किताबों का लेन-देन और दुनिया भर की बातें चलती थीं .'
हाँ , माँ बँगला के उपन्यासों की बहुत शौकीन थीं.स्कूल में किसी के पास दिख जाय ,वे अब भी चूकती नहीं - माँग कर  दो दिन में लौटा देती हैं - मैने उन्हें हिन्दी के उपन्यासों की चर्चा करते भी सुना है.
   अब समझ गया हूँ ,डिग्रियों और विश्ववि्द्यालयों से कुछ नहीं होता .अगर व्यक्तित्व में परिष्कृति और ग्रहणशीलता हो तो उनके बिना भी बहुत कुछ हो सकता है .और हाँ , मामा कहते थे वे लिखती भी थीं ,उनके स्कूल की डिबेट के लिए कई माँ ने बार लिखा था जिस पर वे जीते थे 
रात में मैंने  उन्हें कभी-कभी अकेले बैठे सोचते और बीच-बीच में कुछ लिखते देखा है .
उनकी साथिनें अक्सर कहतीं थीं,' ललिता ,तुम बोलती हो तो लगता है किसी ने रेडियों खोल दिया हो ,सधे हुए शब्द ,प्रवाह में निकलते चले आते हैं.'
वहीं खड़े-खड़े किस अतीत में पहुँच गया . अचानक कुछ शब्द सुन कर सजग हुआ .मीता कह रही थी,
  ' तब मैंने कहा था - मैं अड़ने को तैयार थी ,तब ब्रजेश तैयार नहीं हुए . वे  कुछ बन कर दिखाना चाहते थे .  नहीं तो फ़ैसला तभी हो जाता. और बाद में वह मौका नहीं  आया कि योग्यता का प्रमाण ले कर खड़ी हो जाऊँ ?'

'यही कमी तो औरत में है, जो अपनों की कीमत अपने से चुकाती है .'
दो स्त्रियाँ एक दूसरी से अपने अंतर का दुख बाँट रही हैं - मैं साक्षी बन कर क्या करूँगा !
वे भले हलकी हो जायँ , मेरे मन का भार  और बढ़ जायेगा !
नीचे उतर आया.
 'वसु, वे लोग बहुत बिज़ी हैं ,मैंने डिस्टर्ब नहीं किया.दस मिनट और रुके जाते हैं .'
*

बुधवार, 6 अगस्त 2014

कथांश - 12.

*
माँ की भी बुरी आदत है -ये नहीं कि स्कूल से आकर ज़रा आराम कर लें .अभी आईं और रसोई में जुट गईँ .फिर रात में जाग कर कापियाँ जाँचेंगी .
'माँ, थकी हुई आई हो ,थोड़ा आराम कर लो .'
'वर्मा आंटी बीमार हैं खाना भेजना है उनके यहाँ .'
'बस तुम्हीं एक हो सबकी खैरख्वाह !काहे को इतना चढ़ा रखा है कि  सब अपनी जुम्मदारियाँ देने चले आते हैं ? मतलब साधते हैं सब, कोई मौसी कह कर कोई बहन कह कर .. .'
तुम नहीं समझोगे ,मेर भी शरीर चाहता है आराम करूँ ,इच्छा भी होती है पर जो बनाए हैं वे रिश्ते निभाना बहुत ज़रूरी है ..दौड़-दौड़ कर उनके काम न आऊँ तो कौन  मुझे पूछेगा? वक्त-जरूरत यही लोग साथ खड़े होते हैं. सबसे निभा कर चलना यही मेरी कमाई है.देखते नहीं अकेली औरत के साथ क्या-क्या होता है ?लड़की को ले कर यहाँ अकेले रहना..आसान है क्या ?'     
 'पर तुम आते ही उन सब के लिए खाना बनाने बैठ गईं .और लोग नहीं हैं क्या ?'
'माँ, तो हफ़्ते भर से उनके यहाँ नाश्ता-खाना भेजती हैं ,आंटी अस्पताल में हैं तभी से ...'
तौलिये से हाथ पोंछती वसु आ कर खड़ी हो गई थी.
'मैं आटा सानने जा रही हूँ...'कहती हुई चली गई .
' अपनी तबीयत का तो ख़याल करो . औरों के लिए इतनी अच्छी मत बनो कि अपना बिगाड़ कर लो .'
'तुम समझते क्यों नहीं? मुझे इन्हीं लोगो के साथ रहना है. बना कर न रखूं तो कौन बैठा है मेरा सगा !
दूसरों की निगाह में भली बने बिना मेरा गुज़ारा कहाँ ?'
'तुम्हारी पुरानी आदत है किसी को ना नहीं कह सकतीं ,बहाना भी नहीं बना सकतीं.दिन रात जुटे रहने का शौक है '.
'शौक है कह लो ! सब जानते हैं सिर पर कोई नहीं. .तुम सालों से बस आते-जाते बने हो .जानकर भी क्या कर लोगे?...एक दिन जब मयंक रास्ते में वसु का पीछा रहा था यही वर्मा अंकल ,उस की सुरक्षा बन गए .'
ओह,यह तो कभी दिमाग़ में ही नहीं आया था .
'...और कॉलेज में ऐसे-वैसों की कमी है क्या? दोस्ती करने चले आते हैं ,तब सौरभ इसके साथ खड़ा होता है .मन्दा इसकी सहेली है उसके  भाई को राखी बाँधती है .'
मैं  सुने जा  रहा हूँ . 
'...और लड़कियों की बात दूसरी है उनके बाप भाई  स्कूटर से पहुँचा कर आते हैं लोग लिहाज़ करते हैं...इससे  तो कहते हैं हमारी  दोस्त बन जाओ. फिर देखें कोई तुम्हारी तरफ़  आँख
भी उठाए  .
मुझे तो सबसे नब कर चलना पड़ेगा .दुनिया देखती हूँ . दूसरों से अपनापा जोड़ती हूँ ,यह सब न करूँ तो कौन पूछेगा, कौन साथ देगा ? सबको अपना अच्छापन दिखाना मेरी मजबूरी है.'

 मेरे कहने को कुछ नहीं-सच तो स्वीकार करना ही पड़ेगा.
 माँ ,ओ माँ ! क्या करूँ मैं?
अंतर्मन धिक्कार उठा है?
 *
'इज़्ज़तदार ,प्रतिष्ठित परिवार ' मन  में बार-बार खटकता है .
मुझ पर जैसे कोई भूत सवार हो जाता है .नॉर्मल नहीं रह पा रहा .मुँह से कटु वचन निकल जाते हैं.
माँ का मन दुखी होता होगा पर चुप हो जाती हैं.
राय साब अकेले
हैं. माँ से सलाह-मशविरा के बिना उनका काम नहीं चलता. एक बार मेरे सामने भी घर आए थे ,'बेटा-बेटा 'कह हाल-चाल पूछते रहे .नौकरी में सेलेक्शन सुन कर प्रभावित भी हुए बोले ,'अब जिज्जी की निश्चिंती के दिन आ गए.बहुत झेला  है इनने, मैं तो शुरू से देख रहा हूँ .'
गनीमत है पिता की कोई चर्चा नहीं की उन्होंने .   
उन के यहाँ से कुछ-न-कुछ सँदेसा आ जाता है ,और माँ जुट जाती हैं .मुझे ताव आता है .
'जाने-माने लोग हैं, बहुतेरे मिल जाएंगे काम करनेवाले  . माँ,तुम क्यों हलकान हुई जा रही हो .' मन का ग़ुबार अनायास ही निकल पड़ता है .
,'इन प्रतिष्ठित लोगों के लिए तुम ही काम करने को रह गई हो ?तुम्हारा भी कुछ ठिकाना नहीं. '
वे समझ गईं .
'बात तुम्हें लगी है .पर उनने ऐसा कुछ नहीं कहा था .उनकी बहिन थीं तब से मेरा आना-जाना है .उनने कहा था तुम देखना मेरे भाई और भतीजी का ध्यान रखना ये भी उन की जगह मुझे मानने लगे.टका सा जवाब कैसे दे दूँ ?  .और मीता उसके लिए तो मैं कुछ भी उठा  नहीं रख सकती.
हाँ, मीता के लिए ....
उनके मन की व्यथा फूट पड़ी -
 ' हमारा परिवार कम प्रतिष्ठित था ,कम सम्माननीय था ?सबके सामने   इज्ज़त बनी रहे -अपमान ,गालियाँ आरोप सब छाती पर पत्थर रख कर झेलती रही. डरती थी, बदनामी हो गई तो बच्चों को सिर उठाने को जगह नहीं रहेगी .इज़्ज़त घर की होती है. चार जने और क्या देखते हैं --आदमी का आचार-व्यवहार  .एक बार भाँडा फूटा तो सब गया . घर की मरजाद बनी रहे इसलिए उनकी सारी अतियाँ सहती रही. दुत्कारें खाकर भी घर से बाहर कदम नहीं रखा. पर  जब सबके सामने  सामने छोटे बच्चे के साथ मँझधार में छोड़ दिया  तो क्या करती ? भाई पर बोझ बन कर कितना रहती ?...और मैंने कोई घटिया काम नहीं किया . दो पाटों के बीच पिसती रही ,ऊपर से  दुनिया चैन न लेने दे ...

अब तू समझदार हो गया ..
 अब तक सिर्फ़ बेटा था मेरा, अब पढ़ लिख कर आदमी बन गया,बड़ी-बड़ी बातें बोलने लगा  .चलो ,मेरा काम खतम हुआ.'
'माँ ,तुम्हारी बात नहीं थी ,तुम अपने पर क्यों ले रही हो .'
'बराबर देख रही हूँ मुन्ना .तेरा मन समझती हूँ, पर दूसरे पर क्या बीतती है यह तू नहीं समझता .'
'तुम्हारी थकान देखी नहीं जा रही थी. ऊपर से मन खराब था कुछ भी बोल गया. मेरा यह मतलब नहीं था माँ .क्षमा कर दो मुझे !'
 बहुत पछतावा हुआ था उस दिन.
सोच लिया था और थोड़े दिनों की बात है अब तो मैं भी लग्गे  से लग गया .उन्हें कौन सा  यहाँ रहना है!

' नहीं अब यहाँ नहीं रहने दूँगा तुम्हें, माँ.' अब मेरे साथ   रहोगी'

पर बाद में जब उनसे कहा ,' माँ अब तुम्हें आराम चाहिए मेरे साथ रहो.  चलने की तैयारी करो .. .यहाँ क्या रखा है ?.'
वे तैयार नहीं हुईं बोलीं,
'कैसे चलूँगी रे , नौकरी के कुछ साल बचे हैं अध-बिच नहीं छोड़ूँगी  . पेँशन का भी तो  सवाल है  ..'
रिटायर होने से पहले नौकरी छोड़ने का उनका इरादा नहीं हुआ .छुट्टी ले कर चलने को भी कहा .
 पर कोई असर नहीं पड़ा.
' बेटा ,आदत जो पड़ी है . शान्ति से अपनी ड्यूटी पूरी करने में बड़ा चैन है. वहाँ नई जगह खाली बैठ कर ऊबती रहूँगी . चलूँगी ज़रूर तेरी जगह देख-सुन आऊँगी .थोड़ा वसु का भी चेंज हो जाएगा .

 '
बाद में उनके शब्द थे ,'अभी कहाँ छुटकारा !'
'क्यों ,अब क्या? मैं हूँ न !'
'तू तो करेगा ही ,पर अभी मेरे काम पूरे कहाँ हुए .मुझे लड़की की शादी की चिन्ता है.कहीं  तय तो हो ...  देखना  क्या-क्या सुनना-झेलना पडता है
अभी ?'
अचानक फफक कर रो उठा कोई .
ध्यान  गया उधर - वसु थी .दोनों हाथों से  मुँह दबाए  कमरे से  बाहर निकल रही थी. 
अचकचा गए हम लोग.
 ओह, वह यहीं थी - दोनो में से किसी का ध्यान नहीं गया .
  सब सुनती रही , एकदम चुप !
*

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

कथांश - 11.

*
मन नहीं लग रहा था,ऊपर छत पर चला गया.
 खड़ा रहा इधर-उधर देखता रहा कुछ देर . समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ .
 ध्यान आया अभी अपने जॉब के विषय में यहाँ किसी को बताया नहीं.
नीचे उतरा .
'माँ, ओ माँ !'
वे आ कर खड़ी हुईँ ,'अब क्या हुआ ?'
' खुश होओ माँ ,मुझे जॉब मिल गया और बहुत अच्छा ,वैसा ही जैसा तुम चाहती थीं .'
सब भूल गईँ वे ,'अच्छा कहाँ ?कब ज्वाइन करना है ?
'पहले ट्रेनिंग पीरियड उसके बाद . दो महीने तो लग जाएँगे .'
'कौन सी जगह?'
' शायद बँगलौर.'
चलो अच्छा है .
आगे बढ़ कर माँ के पाँव छुए , सिर पर हाथ रख दिया उन्होंने
'हमेशा खुश रहो !'
'अरे वाह, भइया !'
ओह, वसु को तो मैं भूल ही गया था ,आगे बढ़ कर उसे लिपटा लिया .
' कौन सी ड्रेस चाहिये थी तुझे ?'
'उस  फ़ंक्शन के लिए भैया ... माँ तो तैयार ही नहीं हो रहीं, कहती हैं एक दिन, ज़रा देर के लिए फ़ालतू का खर्च .'
' कल  चलना मेरे साथ .' माँ की ओर घूम कर बोला,
पोस्टिंग कहीं भी हो सकती है वैसे, बेंगलोर नहीं तो हैदराबाद..'
'चलो अच्छा है !'
*
बाहर का दरवाज़ा खटका .
'अब कौन आया है?
दोनों की प्रश्नवाचक नज़रें उठीं.
वसु उठ कर खोलने चली गई
पता नहीं कौन आ गया .शर्ट नहीं पहने था सो उधर के कमरे में चला गया .
आवाज़ आई -
'अरे ,मीता दीदी..'
' हाँ ,ये लौंज बनाई थी तुम भाई-बहन को अच्छी लगती है तो ले आई 'फिर आवाज़ लगाई - 'माँ, मेरे लिए भी खाना बनाया कि नहीं?'
'तुम्हें कभी कहने की जरूरत पड़ी है क्या ?'
इतने दिनों बाद वही आवाज़ सुनी ,अनायास कदम कमरे से बाहर बढ़ आए.
वह चली आ रही थी.
देख कर कुछ अव्यवस्थित हो उठी.
'अरे तुम... क्या अभी आए ?'
'क्यों गलत आ गया? अभी नहीं आना था..?'
'मेरा वह मतलब नहीं ,मुझे लगा था रात तक आओगे  ..'
उस का चेहरा उतर गया था, आगे बोल न सकी, मैं कड़ी निगाहों से देखता रहा .
 माँ पहले ही रसोई की ओर चल दीं थीं
फिर उनकी आवाज़ आई ,'वसू , क्यारी में से अदरक की गाँठ खोद ला ,मुझे अभी चाहिए .'
'ब्रजेश ,मैं लाचार थी  एकदम ऐसा हो  गया कि मैं कुछ न कर पाई.' मेरी वही निगाहें उसके मुख पर जमी रहीं .
 'गलती मेरी है ,पर उतनी मेरी भी नहीं .अचानक यह सब हो गया, मुझे कुछ पता नहीं था ..'
'तुम औरतें नाटक बहुत बढ़िया कर लेती हो .इससे इसके मन की, उससे उसके मन की .असली मंशा क्या है किसी को पता नहीं चलता. '
वह कुछ नहीं बोल पा रही . चेहरा देख तरस आ गया पर मन में भरी कटुता मुझे सहज  कैसे होने देती !
'..बहाने भी बहुत खोज लेती हो तुम लोग. किसी न किसी पर बात डाल देना. सबको धोखे में डाले रखने में बड़ा मज़ा आता है .बस अपनी सोची . दूसरे का ध्यान किसे आता है! ..लाओ, मिठाई लाई हो क्या मेरे लिए? ' आवाज़ आवेश में भर्रा-सी गई.
वह सिर झुकाए खड़ी ,हाथ में लौंज का डब्बा अब गिरा-तब गिरा.
अदरक की गाँठ लिए वसु चली आ रही थी ,झट से बढ़कर डिब्बा साध लिया ,' अरे गिरा जा रहा है . लौंज लाई हैं दीदी ,तुम्हें अच्छी लगती है न !'
मैं शर्ट हाथ में पकड़े-पकड़े कमरे में लौट गया.
*
माँ से कहा था मैंने ,'तुम्हीं तो थीं सब करवाने वाली ,रीत-भाँत बताने वाली...'
मुझे ख़ुद अपनी ही आवाज़ अजीब लग रही थी .
उनने मेरी ओर देखा .
'हाँ, करवाया..मैंने ! वहाँ पहुँची तब सब तैयार था बल्कि हो रहा था .मुझसे तो बाद में  जो होना चाहिए वह पूछा.'
  कैसे क्या हुआ यह भी पता चल ही गया -
जाते ही रमन बाबू से परिचय और विनय की पुकार हुई . तुरंत कार्यक्रम संपन्न और आशीष से संपुष्टि .  
 बाद में जरूर अकेले में राय साब ने पूछा था - 'इन लोगों के साथ अब क्या होना चाहिये ? '

उन्हें चुप देख कहने लगे -
'यहाँ तो आप ही बड़ी हैं .हमें सहारा रहेगा .तीज त्यौहार क्या करना होता है बताती रहियेगा .जिज्जी की जगह आप  हैं,वे बहुत मानती थीं आपको  ,और मीता तो आपको ही सगा समझती है .रिश्तेदारों से उसे कभी मतलब नहीं रहा .अब क्या करूँ, खाली हाथ तो न जाने दूँ ? '
'खाली नहीं ,मिठाई और वस्त्रादि देकर बिदा कीजिए .'
'जो भी करना हो बता दीजिए ...' 

'लड़के की माँ के मन में बहुत अरमान होते हैं ,उनके लिए कुछ भेंट अवश्य भेजिये .'
राय साब ने उन्हें बताया था .हमारा संबंध बहुत पुराना ,मेरी पत्नी का बनाया हुआ है .ये विनय शुरू से उनके आँचल में पड़ा  ,एक तरह से उन्होंने ही पाला .तब से इसकी माँ इसे अपना नहीं हमारा कहती हैं ...रमन बाबू का  इज़्ज़तदार ,प्रतिष्ठित परिवार है ,आप देखेंगी तो खुश हो जाएँगी .बस दो बेटे - दोनों लायक .और भाभी जी ,जैसे साक्षात् लक्ष्मी !रमन बाबू से आप मिल ही चुकी हैं. विनय ने पिता के संस्कार पाए हैं  .वो मसल है न -बाप पे पूत पिता ...घोड़ा, ऐसा ही कुछ, बहुत नहीं तो थोड़मथोड़ा - मुझे तो ठीक से याद भी नहीं ..'
मेरे मन में घूम गया- इज़्ज़तदार ,प्रतिष्ठित परिवार ?
हाँ ज़रूर होगा !

(क्रमशः)
*