*
'माँ, आज जरा दोस्त के साथ व्यस्त हूँ.'
स्कूटर ले कर निकल पड़ा था ,अगले दिन .
कैंटीन से बाहर ही मिल गई वह, आ कर बैठ गई .
शहर के बाहर का रास्ता पकड़ा.
''इधर तो नदी है न ?' उसने पूछा .
'हाँ ,चल रहे है वहीं डूबने !'
'पागल हो गए हो ?'
'घबराओ मत ,तुम्हें कुछ नहीं होगा जब तक मेरे साथ हो .'
नदी किनारे आ गए ,
स्कूटर खड़ा कर दिया एक ओर सीढ़याँ उतरने लगा,वह भी साथ में
पानी में पैर डाल कर बैठ गए पास-पास .
पानी बहा जा रहा है ,लहरों की हलचल और आते-जाते हवा के झोंके .
'तुम्हें अनुभव करना चाहता हूँ, बस ' -हाथ बढ़ा कर थाम लिया हाथ .बैठी रही चुपचाप .फिर कंधे से सिर टिका दिया उसने . केशों की लटें उड़-उड़ कर मेरी ठोड़ी को ,गालों को सहला जाती हैं .
'मीता''
रहा नहीं गया. अचानक आगे बढ़ कर मीता को समेट लिया . सीने से आ लगी है .मुख दिख नहीं रहा सघन केशराशि की मदिर गंध नासिका में समाई है . आँखें मुँद गईँ क्षण को.सीढ़ी से गिर न पड़े कहीं, अपने से लगा लिया. कब से बहुत समीप अनुभव करना चाहता था ,आज इतनी पास है .
''तुम से बहुत उलटा-सीधा कहा है -माफ़ करोगी मुझे ?
' कुछ मत कहो !'
'मीता ,तुम्हें कितना परेशान किया है मैंने !'
'रुलाओ मत बिरजू !'
समय बीत रहा है .
मैने कहा ,'प्रेम सुख नहीं है .'
मेरे मुख की ओर देखती रही फिर बोली
'प्रेम स्वार्थ नहीं है .'
उसका मुख देखना चाहता हूँ पर सिर झुका हुआ है उसी सघन केश-राशि की ओट .
धीरे -से गोद में उसका सिर रख लिया . केशों पर हाथ फेरता हूँ.
मुख सीने आ लगा .
मेरी पीठ को समेटते हुए उसने दोनों हाथों की अँगुलियाँ फँसा लीं.
हम चुप हैं.
केशों पर सिर टिका कर आँखें मूँद ली मैने.
लहरों की आवाज़ बीच-बीच में कानों से टकराती है .बहते पानी पर पड़ती धूप की झिलमलाहट परावर्तित हो घाट की सीढियों पर रोशनी के जाल बुन रही है. हवा के झोंके बिखरी अलकें उड़ा रहे हैं ,बार-बार अपने कानों, पर गालों पर डोलती उनकी रेंगती-सी छुअन. समेटता हूँ .बार-बार वही गुदगुदाती-सी सरसराहट ,अँगुलियों से फिर-फिर समेटता हूँ .
लगा वह धीरे-धीरे सिसक रही है ,'मीता, रोओ मत .'
कोई उत्तर नहीं.
चुपचाप थपक रहा हूँ .
नदी की लहरें उठती-गिरती बढ़ी जा रही हैं .
एक गहरी साँस निकल जाती है .
कुछ नहीं है कहने-सुनने को .
हम दोनों चुप, परस्पर अनुभव करते हुए.
धूप खिसकती हुई इधर तक आ गई .
उठो मीता, छाँह में चलें उधऱ .'
उसका औँधा मुख दोनों हाथों से ऊपर करता हूँ .
दोनों हथेलियाँ आँखों पर रखे रहती है ज़रा देर. खोलती है लाल-सी लग रही हैं ..
मुझे देखती है कुछ क्षण - कैसी स्निग्ध दृष्टि !
वह उठ गई है बिखर गए केशों को एक हाथ से झटक दूसरे से पिन निकाल कर दाँतों में दबा लिया ,दोनों हथेलियों से बिखरापन समेट फिर लगाने में व्यस्त ,दोनों साइड्स में बारी-बारी से .लहराती सी किरणों की सुनहरी दमक केशों में भर गई है .बहुत गोरी नहीं पर मुख पर एक दीप्ति जो सहज आकर्षित कर लेती है.
दाँतों में दबा पिन निकाल रही है .इसका इधर का ऊपर का एक दाँत टेढ़ा है और बहुत पैना -छुओ तो चुभता है ..हँसती है या बोलती है तो दमक जाता है .निर्निमेष देखता रह जाता हूँ .
उठ कर खड़ी हो गई .'चलो! '
अनायास उसाँस !
उठ कर चल दिये दोनों.
'चलो, उधर चलें ,दूर तक छाया फैली है,' उस दिशा में हाथ फैला कर कर दिखाया उसने .
'पर मरघट है उधर ..'
'इससे क्या ,जीवन की नश्वरता भी एक सच है, उससे कहाँ भाग सकते हैं !'
सच में दुनिया से कितना दूर चले आए हैं हम !
आगे बढ़ कर पीपल के नीचे एक पत्थर पर बैठ गई ,मैं भी वहीं उसके पास .
दोनों चुप बैठे हैं -
सूरज की तिरछी हो गई किरणें , छायाओं के साथ गलबाँही डाले थिरक रही हैं . हवाए ताल दे रही हैं ,पीपल के पत्ते झर-झऱ झूम-झूम ताली बजा रहे हैं.डोलते तरुपातों के अंतराल से झरते धूप के सुनहरे छल्ले चारों ओर बिखर-बिखर कर नाच रहे हैं -गालों पर केशों पर,कान की लौ वाला नग दमक जाता है बार-बार !
*
मरघट सुनसान पड़ा है.
'आज हम हैं कल नहीं होंगे -फिर प्रेम क्यों इतना तपाता है ?'
कुछ बोली नहीं सोचती रही वह .
फिर शब्द निकले,' देह में नहीं आत्म में समाता है .'
'प्रेम डुबा देता है अंधा होता है' - मैं चुप न रह सका
'थाहता भी है. '
दोनों चुप .
वही बोली, 'छाँह भी बन जाता है - प्रेम अनश्वर है .कभी समाप्त नहीं होता !'
लगा तपते रेगिस्तान में शीतल बयार बह आई .
'मैं कृतज्ञ हुआ, मीता .'
भीतर उठता अंधड़ कुछ शान्त हो चला .
उसी ने कहा - 'प्रेम विश्वास है ,एक अटूट डोर!'
फिर पूछा ,'विश्वास है न ?'
'हाँ !'
असीम शान्ति चारों ओर ! बस, नदी की कल-कल और हवा में डोलते पत्तों की झर-झर .रह-रह कर पक्षियों की चहक वातावरण को वास्तविक-सा बना देती है .
कुछ देर में उठने का उपक्रम किया उसने ,...
'बैठी रहो यों हीं. '
मैंने हाथ पकड़ कर वहीं बिठा दिया
चुप रही वह, हाथ सहला रही है अपना .
फिर कस कर पकड़ लिया मैंने - उफ़ !
'आजकल बड़े ताव में रहते हो न , तुम? '
ठीक कहा उसने .मन का आवेग, हाथों में उतर आता है .
'आज मेरे साथ बैठ लो ,फिर नहीं कहूँगा .. कुछ नहीं करूँगा .बस, मेरे पास बैठी रहो तुम !'
चपुचाप बैठी रही .
'बहुत उल्टा-सीधा सुनाया है मैंने ,भूल जाना ,मीता .'
'बस करो ,बिरजू. रुलाओ मत.'
'अपने पर नियंत्रण रख नहीं पाता .क्या करूँ मीता .ऐसा ही हूँ मैं ,बहुत कमियाँ हैं न..? '
मेरे कंधे से सिर टिका लिया उसने .
'मत सुनाओ यह सब .. ...ज़िन्दगी बिता लेने दो मुझे!'
'मीता, अब मैं वह नहीं जो था.'
'मैं भी नहीं , बिरजू .'
फिर आगे उसने कहा,'मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि आनेवाला जीवन कैसा होगा .'
मेरे कहने को कुछ नहीं .
उसी के शब्द सुने ,' ज़िन्दगी बिताना है ,सोचने से क्या होगा !'
मेरे कंठ में कुछ उमड़ा आ रहा है - गटक लिया.
लौटना पड़ेगा ही .
मैं उठा. वह समझ गई, खड़ी हो गई .
मन बोल उठा आज के बाद ...बस!
दोनों हाथ बढ़ा कर अपने में समेट लिया.
तन का परस अपने तन में बसा ले रहा हूँ ,केशों की गंध नासिका समा लेगी . विकल करता उन्माद चैन पा जाएगा .
एक हाथ से उसका मुख ऊपर किया आँखें मुँदी -सी .
गाल,भाल, नयन,नासिका होठों से छू लिए.अधर बंद ही रहे मन में आया टेढ़े दाँत की चुभन इस समय कैसी लगती ?उसने मुँह मेरे सीने में गड़ा लिया है .दोनों हाथ पीठ पर लिपटे .कहीं गिर न पड़े -कस कर साधे हूँ .
मैं मौन. केवल बोध ग्रहण करता हुआ .
आज मैंने तुम्हें अनुभव कर लिया. बाहों में ले कर जान पाया कि तुम मात्र कामना या भावना नहीं हाड़ मांस की वास्तविक देह हो ,जिस के स्पन्दन बार-बार मुझमें प्रतिध्वनित होते हैं .तन के पूर्ण परस में लीन मन शान्त हो चला है .
देह और मन एक दूसरे के बिना अधूरे लगते थे . एक ही सिक्के के दो पहलू -एक के बिना दूसरे का अधूरापन रिक्तता को और गहरा देता रहा. मैंने ,देह और मन से तुम्हारा संपूर्ण परस पाया, शीतल हो गया हृदय .
आज समझ पाया शंकर ने प्रिया को अर्धांग में किस हेतु धारण किया !
मन में गहन आश्वस्ति ! शब्द पर्याप्त नहीं है , व्यक्त कर सकूँ -यह सामर्थ्य नहीं मेरी .
अचानक कहीं कुछ ,टकराने की आवाज़ , वह चौंक कर हिल गई, अलग कर खड़ा कर दिया मैंने . .
एक गाय की खुजली शान्त करने के उपक्रम में स्कूटर गिरते-गिरते मेड़ से सध गया था ,गाय अब भी उससे कंधा रगड़ रही थी. एक दूसरे को देखा - आशय समझ लिया .
उधर ही चल दिये हम.
*
लौटते पर मैंने कहा था ,'चलो कहीं चाय पी लें .'
बड़ी श्लथ लग रही थी बोली,' नहीं ,कुछ करने का मन नहीं, बस, अब घर जाऊँगी '.
फिर उसने पूछा था, 'शादी में आओगे?
'नहीं आ सकूँगा .'
कुछ पल एक-दूसरे को देखा .
'ठीक है .माँ की ,वसु की चिन्ता मत करना मैं हूँ .'
'जानता था तुम हो ,तभी निश्चिंत हो पढ़ सका .'
खड़ी थी वह - चलने को तैयार .
स्कूटर को किक लगाई . हलका झटका - वह पीछे आ बैठी है. कुछ उड़ते से परस बार-बार पीठ सहलाते वस्त्रों में उलझ कर हवाओं में खो जाते हैं.
कितना सारा जीवन एकदम बीत जाता है !
*
(क्रमशः)
'माँ, आज जरा दोस्त के साथ व्यस्त हूँ.'
स्कूटर ले कर निकल पड़ा था ,अगले दिन .
कैंटीन से बाहर ही मिल गई वह, आ कर बैठ गई .
शहर के बाहर का रास्ता पकड़ा.
''इधर तो नदी है न ?' उसने पूछा .
'हाँ ,चल रहे है वहीं डूबने !'
'पागल हो गए हो ?'
'घबराओ मत ,तुम्हें कुछ नहीं होगा जब तक मेरे साथ हो .'
नदी किनारे आ गए ,
स्कूटर खड़ा कर दिया एक ओर सीढ़याँ उतरने लगा,वह भी साथ में
पानी में पैर डाल कर बैठ गए पास-पास .
पानी बहा जा रहा है ,लहरों की हलचल और आते-जाते हवा के झोंके .
'तुम्हें अनुभव करना चाहता हूँ, बस ' -हाथ बढ़ा कर थाम लिया हाथ .बैठी रही चुपचाप .फिर कंधे से सिर टिका दिया उसने . केशों की लटें उड़-उड़ कर मेरी ठोड़ी को ,गालों को सहला जाती हैं .
'मीता''
रहा नहीं गया. अचानक आगे बढ़ कर मीता को समेट लिया . सीने से आ लगी है .मुख दिख नहीं रहा सघन केशराशि की मदिर गंध नासिका में समाई है . आँखें मुँद गईँ क्षण को.सीढ़ी से गिर न पड़े कहीं, अपने से लगा लिया. कब से बहुत समीप अनुभव करना चाहता था ,आज इतनी पास है .
''तुम से बहुत उलटा-सीधा कहा है -माफ़ करोगी मुझे ?
' कुछ मत कहो !'
'मीता ,तुम्हें कितना परेशान किया है मैंने !'
'रुलाओ मत बिरजू !'
समय बीत रहा है .
मैने कहा ,'प्रेम सुख नहीं है .'
मेरे मुख की ओर देखती रही फिर बोली
'प्रेम स्वार्थ नहीं है .'
उसका मुख देखना चाहता हूँ पर सिर झुका हुआ है उसी सघन केश-राशि की ओट .
धीरे -से गोद में उसका सिर रख लिया . केशों पर हाथ फेरता हूँ.
मुख सीने आ लगा .
मेरी पीठ को समेटते हुए उसने दोनों हाथों की अँगुलियाँ फँसा लीं.
हम चुप हैं.
केशों पर सिर टिका कर आँखें मूँद ली मैने.
लहरों की आवाज़ बीच-बीच में कानों से टकराती है .बहते पानी पर पड़ती धूप की झिलमलाहट परावर्तित हो घाट की सीढियों पर रोशनी के जाल बुन रही है. हवा के झोंके बिखरी अलकें उड़ा रहे हैं ,बार-बार अपने कानों, पर गालों पर डोलती उनकी रेंगती-सी छुअन. समेटता हूँ .बार-बार वही गुदगुदाती-सी सरसराहट ,अँगुलियों से फिर-फिर समेटता हूँ .
लगा वह धीरे-धीरे सिसक रही है ,'मीता, रोओ मत .'
कोई उत्तर नहीं.
चुपचाप थपक रहा हूँ .
नदी की लहरें उठती-गिरती बढ़ी जा रही हैं .
एक गहरी साँस निकल जाती है .
कुछ नहीं है कहने-सुनने को .
हम दोनों चुप, परस्पर अनुभव करते हुए.
धूप खिसकती हुई इधर तक आ गई .
उठो मीता, छाँह में चलें उधऱ .'
उसका औँधा मुख दोनों हाथों से ऊपर करता हूँ .
दोनों हथेलियाँ आँखों पर रखे रहती है ज़रा देर. खोलती है लाल-सी लग रही हैं ..
मुझे देखती है कुछ क्षण - कैसी स्निग्ध दृष्टि !
वह उठ गई है बिखर गए केशों को एक हाथ से झटक दूसरे से पिन निकाल कर दाँतों में दबा लिया ,दोनों हथेलियों से बिखरापन समेट फिर लगाने में व्यस्त ,दोनों साइड्स में बारी-बारी से .लहराती सी किरणों की सुनहरी दमक केशों में भर गई है .बहुत गोरी नहीं पर मुख पर एक दीप्ति जो सहज आकर्षित कर लेती है.
दाँतों में दबा पिन निकाल रही है .इसका इधर का ऊपर का एक दाँत टेढ़ा है और बहुत पैना -छुओ तो चुभता है ..हँसती है या बोलती है तो दमक जाता है .निर्निमेष देखता रह जाता हूँ .
उठ कर खड़ी हो गई .'चलो! '
अनायास उसाँस !
उठ कर चल दिये दोनों.
'चलो, उधर चलें ,दूर तक छाया फैली है,' उस दिशा में हाथ फैला कर कर दिखाया उसने .
'पर मरघट है उधर ..'
'इससे क्या ,जीवन की नश्वरता भी एक सच है, उससे कहाँ भाग सकते हैं !'
सच में दुनिया से कितना दूर चले आए हैं हम !
आगे बढ़ कर पीपल के नीचे एक पत्थर पर बैठ गई ,मैं भी वहीं उसके पास .
दोनों चुप बैठे हैं -
सूरज की तिरछी हो गई किरणें , छायाओं के साथ गलबाँही डाले थिरक रही हैं . हवाए ताल दे रही हैं ,पीपल के पत्ते झर-झऱ झूम-झूम ताली बजा रहे हैं.डोलते तरुपातों के अंतराल से झरते धूप के सुनहरे छल्ले चारों ओर बिखर-बिखर कर नाच रहे हैं -गालों पर केशों पर,कान की लौ वाला नग दमक जाता है बार-बार !
*
मरघट सुनसान पड़ा है.
'आज हम हैं कल नहीं होंगे -फिर प्रेम क्यों इतना तपाता है ?'
कुछ बोली नहीं सोचती रही वह .
फिर शब्द निकले,' देह में नहीं आत्म में समाता है .'
'प्रेम डुबा देता है अंधा होता है' - मैं चुप न रह सका
'थाहता भी है. '
दोनों चुप .
वही बोली, 'छाँह भी बन जाता है - प्रेम अनश्वर है .कभी समाप्त नहीं होता !'
लगा तपते रेगिस्तान में शीतल बयार बह आई .
'मैं कृतज्ञ हुआ, मीता .'
भीतर उठता अंधड़ कुछ शान्त हो चला .
उसी ने कहा - 'प्रेम विश्वास है ,एक अटूट डोर!'
फिर पूछा ,'विश्वास है न ?'
'हाँ !'
असीम शान्ति चारों ओर ! बस, नदी की कल-कल और हवा में डोलते पत्तों की झर-झर .रह-रह कर पक्षियों की चहक वातावरण को वास्तविक-सा बना देती है .
कुछ देर में उठने का उपक्रम किया उसने ,...
'बैठी रहो यों हीं. '
मैंने हाथ पकड़ कर वहीं बिठा दिया
चुप रही वह, हाथ सहला रही है अपना .
फिर कस कर पकड़ लिया मैंने - उफ़ !
'आजकल बड़े ताव में रहते हो न , तुम? '
ठीक कहा उसने .मन का आवेग, हाथों में उतर आता है .
'आज मेरे साथ बैठ लो ,फिर नहीं कहूँगा .. कुछ नहीं करूँगा .बस, मेरे पास बैठी रहो तुम !'
चपुचाप बैठी रही .
'बहुत उल्टा-सीधा सुनाया है मैंने ,भूल जाना ,मीता .'
'बस करो ,बिरजू. रुलाओ मत.'
'अपने पर नियंत्रण रख नहीं पाता .क्या करूँ मीता .ऐसा ही हूँ मैं ,बहुत कमियाँ हैं न..? '
मेरे कंधे से सिर टिका लिया उसने .
'मत सुनाओ यह सब .. ...ज़िन्दगी बिता लेने दो मुझे!'
'मीता, अब मैं वह नहीं जो था.'
'मैं भी नहीं , बिरजू .'
फिर आगे उसने कहा,'मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि आनेवाला जीवन कैसा होगा .'
मेरे कहने को कुछ नहीं .
उसी के शब्द सुने ,' ज़िन्दगी बिताना है ,सोचने से क्या होगा !'
मेरे कंठ में कुछ उमड़ा आ रहा है - गटक लिया.
लौटना पड़ेगा ही .
मैं उठा. वह समझ गई, खड़ी हो गई .
मन बोल उठा आज के बाद ...बस!
दोनों हाथ बढ़ा कर अपने में समेट लिया.
तन का परस अपने तन में बसा ले रहा हूँ ,केशों की गंध नासिका समा लेगी . विकल करता उन्माद चैन पा जाएगा .
एक हाथ से उसका मुख ऊपर किया आँखें मुँदी -सी .
गाल,भाल, नयन,नासिका होठों से छू लिए.अधर बंद ही रहे मन में आया टेढ़े दाँत की चुभन इस समय कैसी लगती ?उसने मुँह मेरे सीने में गड़ा लिया है .दोनों हाथ पीठ पर लिपटे .कहीं गिर न पड़े -कस कर साधे हूँ .
मैं मौन. केवल बोध ग्रहण करता हुआ .
आज मैंने तुम्हें अनुभव कर लिया. बाहों में ले कर जान पाया कि तुम मात्र कामना या भावना नहीं हाड़ मांस की वास्तविक देह हो ,जिस के स्पन्दन बार-बार मुझमें प्रतिध्वनित होते हैं .तन के पूर्ण परस में लीन मन शान्त हो चला है .
देह और मन एक दूसरे के बिना अधूरे लगते थे . एक ही सिक्के के दो पहलू -एक के बिना दूसरे का अधूरापन रिक्तता को और गहरा देता रहा. मैंने ,देह और मन से तुम्हारा संपूर्ण परस पाया, शीतल हो गया हृदय .
आज समझ पाया शंकर ने प्रिया को अर्धांग में किस हेतु धारण किया !
मन में गहन आश्वस्ति ! शब्द पर्याप्त नहीं है , व्यक्त कर सकूँ -यह सामर्थ्य नहीं मेरी .
अचानक कहीं कुछ ,टकराने की आवाज़ , वह चौंक कर हिल गई, अलग कर खड़ा कर दिया मैंने . .
एक गाय की खुजली शान्त करने के उपक्रम में स्कूटर गिरते-गिरते मेड़ से सध गया था ,गाय अब भी उससे कंधा रगड़ रही थी. एक दूसरे को देखा - आशय समझ लिया .
उधर ही चल दिये हम.
*
लौटते पर मैंने कहा था ,'चलो कहीं चाय पी लें .'
बड़ी श्लथ लग रही थी बोली,' नहीं ,कुछ करने का मन नहीं, बस, अब घर जाऊँगी '.
फिर उसने पूछा था, 'शादी में आओगे?
'नहीं आ सकूँगा .'
कुछ पल एक-दूसरे को देखा .
'ठीक है .माँ की ,वसु की चिन्ता मत करना मैं हूँ .'
'जानता था तुम हो ,तभी निश्चिंत हो पढ़ सका .'
खड़ी थी वह - चलने को तैयार .
स्कूटर को किक लगाई . हलका झटका - वह पीछे आ बैठी है. कुछ उड़ते से परस बार-बार पीठ सहलाते वस्त्रों में उलझ कर हवाओं में खो जाते हैं.
कितना सारा जीवन एकदम बीत जाता है !
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(क्रमशः)