मंगलवार, 10 सितंबर 2013

कुछ पंक्तियाँ.


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हमारे भारत में इधर मनुष्यों की नर-जाति में एक बदलाव नज़र आ रहा है.लगता है पुरुषत्व की परिभाषा ही बदल जाएगी .औसत में जो होता है उसी के आधार पर सामान्य विशेषताओं का निर्धारण होता है .उससे ऊपर-नीचे अनेक स्थितियाँ होना स्वाभाविक हैं .आज के युवा, बल्कि रसिक अधेड़ों की भी लालित्य-भावना और अपने पौरुष-  प्रदर्शन का एक ही क्षेत्र बचा है - नारी की देह . पैंतालीस या पचास पार के कितने ऐसे आदमी होंगे जो परायी लड़कियों को वात्सल्य भरी दृष्टि से देख सकें !और साथ की महिलाओं का  उल्लेख करते समय रस-वृत्ति या  विनोद-भावना से न भर उठें  (शब्द-चयन मनोभावों को उद्घाटित कर देता है.).मानसिकता ऐसी है कि बराबरी का सम्मान देना उनके लिए स्वाभाविक नहीं रहा .अब तो लगने लगा है पौरुष की सारी गरिमा और गाम्भीर्य चुकता  जा रहा है.
मनुष्य सभ्यता की दौड़ में जितना आगे बढ़ रहा है उतना ही उद्दंड  होता जा रहा है.अपने मन का  पुरा नहीं तो दूसरे को चैन से नहीं रहने देंगे .सब पर तो बस चलता नहीं ,अकेली लड़की निशाना बन जाती है.रोज-रोज सुनाई देता है किसी  लड़की पर तेज़ाब टाल दिया ,सड़क पर जला दिया . समाचार पढ़ कर लगता है आज का युवा अपनी इच्छा पूर्ति के लिए जानवर बना जा रहे हैं .बल्कि उससे भी गया -बीता.  वह जो चाहता है उससे लड़की को सहमत हो .नहीं तो जीने नहीं देगा .
 आठवीं कक्षा में एक कविता पढ़ी थी ,'यौवन', जिसकी कुछ पंक्तियाँ. हैं-

'सुन्दरता की जिस पर श्रद्धा,वैभव जिसके चरणों में नत ,
हो शक्ति भक्त जिसकी ,जिपर हो मुग्ध प्रशंसा तन-मन .
जो इन चारों से ऊँचा हो जो इन चारों से युक्त रहे ,
कवि के सपनों की साध वही ,कवि का आराध्य वही यौवन !'

(पता नहीं अब ऐसी कवितायें क्यों नहीं पढ़ाई जातीं?)
चलो, यह तो आदर्श है ,इससे कुछ कम भी  चलेगा .और कुछ नहीं तो इंसान की औलाद हो ,हैवानियत पर तो मत उतरो .
आजकल के युवा बेकार बातों में बहुत कुछ कर गुज़रते हैं इतना ही दम है तो सिर उठा कर कुछ उच्चतर साध्यों की ओर हाथ बढ़ाएँ- बहुत कुछ करने को है परिवार समाज देश  के लिए के लिए.अपनी इच्छा तृप्ति के लिए मरे जा रहे हैं और दूसरे का जीवन नरक बना रहे हैं .ऐसा  समर्थ और सक्षम बनने का दम नहीं बचा कि  नारीत्व स्वयं उनकी कामना करे !
विवाह की कुंकुम पत्रिका में  लड़की को 'सौभाग्यकांक्षिणी' लिखने की परंपरा है .नारीत्व की सफलता हेतु  कन्या अनुरूप वर की कामना करती है.उसके हृदय में जिसके प्रति रुचि नहीं , वह जबरन क्यों अपने को उस पर थोपना चाहता है? भारतीय काव्य-शास्त्र में शृंगार रस की पूर्णता तब होती है जब कामना नारी की ओर से व्यक्त हो.उसी में पुरुषत्व की गरिमा है, रसराज का सच्चा समाहार है, साथ ही जीवन में सुख-शान्ति तथा समाज की मर्यादा भी सुरक्षित है .
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नोट -  आगामी ,जनवरी 2014  तक ब्लाग-जगत से मेरी उपस्थिति बाधित रहेगी . भारत जा रही हूँ .वहाँ  मुझे पता नहीं इन्टरनेट की कितनी सुविधा उपलब्ध हो .आप सब को पढ़ सकूँ यह मेरा पूरा प्रयत्न रहेगा.