लोकमन - काल की धारा बहती रही .जीवन का क्रम आगे बढ़ता रहा.
सूत्र - आर्यों ने जो वर्ण व्यवस्था समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिये बनाई थी उसमें पारस्परिक भेद-भाव ,और ऊँच-नीच की भावना नहीं थी,पर बाद में उसका रूप विकृत होता गया -यह मैंने पढ़ा है पर .....
नटी -कवि ने यह अध्याय भी रचा होगा ,है न कवि ?
सूत्र -क्यों, मित्र लोकमन ?
लोकमन - (मुस्कराता है ) धारा बहती जाये ...
धीरे-धीरे जटिल हो चली उनकी वर्ण-व्यवस्था ,
चल निकलीं जातियाँ और फिर बढ़ने लगी विविधता .
ब्राह्मण-जन विद्वान तपी थे ,इसीलिये सम्मानित ,
शस्त्र धार कर रक्षण करते क्षत्रिय शासनकर्ता.
बढ़ा राजमद क्षत्रिय में तो ब्राह्मण भी अकुलाये. धारा बहती जाए ..
ऋषिपुत्रों का हत्याप्रकरण आज याद कर लो तुम ,
परशुराम का महाभयंकर नाद याद कर लो तुम .
माँ इक्कीस बार जब छाती पीट-पीट रोई थी -
क्षत्रिय कुल का तब नृशंस संहार याद कर लो तुम .
किन्तु राम ने सोच समझ कर अपनी नीति बनाई
विप्र पूज्य हैं उनका मान न घटने पाये भाई .
दृष्य - [राम और लक्ष्मण ]
लक्षमण -हाथों में शस्त्र लिये मुनियों का वेश धरे ,
वे कौन आ रहे हैं भ्राता अति दंभ भरे ?
राम -वे परशुराम हैं लक्ष्मण ,महा प्रतापी मुनि .
अति क्रोधी हैं ,विनयी हो इन्हें प्रणाम करो .
[परशुराम का रक्तरंजित परशु लिये प्रवेश ,दोनों प्रणाम करते हैं ,वे स्वस्ति का हाथ दिखाते हैं पर मुखमुद्रा कठोर रहती है ]
इक्कीस बार क्षत्रियकुल को संहारा है ,,
स्वर्गस्थ पिता ,देखो प्रतिशोध लिया मैंने
इनके शोणित से तर्पण किया तुम्हारा है .
[शिव का टूटा हुआ धनु देख कर ..]
मेरे आराध्य शंभु का धनु किसने तोड़ा ?
राम -[विनय पूर्वक ]वह एक चुनौती थी, मैंने स्वीकारी थी ,
मुनि, धनुष-यज्ञ की शर्त यही, लाचारी थी .
परशु -रे मूर्ख ,शौर्य की गाथा मेरी भूल गया ?तेरा साहस मेरे गुरु का अपमान करे !
इक्कीस बार चुनचुन संहार किया जिनका ,
वे कायर क्षत्रिय फिर इतना अभिमान करें ?
लक्ष्मण -हाँ ,हमें याद है .वही शूरता की गाथा
अपनी जननी का शीष स्वयं जिनने काटा ?
परशु -पापी लक्ष्मण ,यह परशु अभी भी प्यासा है ,
दशरथ के कुल का अभी नाश हो जाता है .
छिप गया तुम्हारा गुरु वह विश्वामित्र कहाँ ,
पाखण्डी क्षत्रिय हो, ब्राह्मण कहलाता है .
लक्ष्मण - अपने को तो देखिये ज़रा ,[राम आँखें दिखाते हैं ],ब्राह्मण होकर भी क्षत्रिय का बाना धारे .
अपना बखान हर जगह करें ,हर जगह युद्ध को ललकारें .
परशु -ओ, राम रोक ले भाई को ,
या इसे काल का ग्रास अभी बनना होगा .
राम -[लक्ष्मण से] तुम शान्त रहो ,
निन्दा करने से पूर्व स्वयं देखें भृगुवर ,
विद्या में ,तप में ,धैर्य ,क्षमा ,निस्पृहता में ,
कल्याण विश्व का करने को हर पल तत्पर ,
गुण से ही मानव को पहचाना जाता है .
हो शान्त-चित्त आप ही विचार करें मुनिवर .
परशु -हे राम बंधु पर तेरा आग उगलता है ,
उसका उद्धतपन देख हृदय यह जलता है .
राम -उसको प्रणाम का मिला नहीं समुचित उत्तर ,
आते ही आते हम पर बरस पड़े मुनिवर ,
शस्त्रों से सज्जित देख और भ्रम हुआ उसे ,
बालक है ,अनुभवहीन, क्षमा कीजे भृगुवर .
भूसुर हैं आप और हम भू के मनुज मात्र ,
इसलिये हमें कर लीजे अपना कृपापात्र .
परशु -हूँ .शिष्टता तुम्हारी ,मुझे प्रभावित करती है .
राम - ब्रह्मण -क्षत्रिय संघर्ष न हो ,सुविचार करें ,
हम दोनों ही मिट जायेंगे .इसलिये ,पूज्यवर ,नीति सहित व्यवहार करें .
[परशुराम सोचते रहते हैं ]
नत-मस्तक हैं मुनिवर आशीष दीजिये अब ,हम आज्ञाकारी होंगे अति कृतज्ञ होंगे .
परशु -[कुछ क्षण रुक कर ]तू बहुत कुशल है राम ,विवेकी नीतिवान ,
मर्यादाओं का पालक हो आयुष्यमान !
हो राग-द्वेष से वीतराग मैं वन जाऊँ
धरती का भार उतार हाथ ले धनुष-बाण .
[परशु फेंक कर जाते हैं, दृष्य समाप्त होता है .]
सूत्र - कैसा भयंकर ! ब्राह्मण और क्षत्रियों की भयानक शत्रुता .इक्कीस बार भीषण नरसंहार .राम ने विवेक से काम न लिया होता तो न जाने क्या होता .
नटी -और उन्होंने ब्राह्मणों की श्रेष्ठता स्वीकार कर ली .उनके निर्देशन में चलने को धर्म मान लिया
सूत्र -हाँ ,मैंने पढ़ा है.इसके बाद नियमों के जटिल बन्धनों में समाज को जकड़ दिया गया .जन्म से मृत्यु तक कोई न कोई संस्कार .जो जरा हट कर चले, पापी कहलाये और प्रायश्चित के लिये तैयार रहे .
लोक - मार्ग रुद्ध कर दिया बुद्धि का, बाधित कर चिन्तन को ,
अहंकार से भरे मानते भू- देवता स्वयं को ,
पाप ,नरक का भय दिखला कर कुण्ठित कर डाला मन ,
विधि-निषेध के जटिल बंधनों में जकड़ा जीवन को .
सूत्र - बदलते परिवेश में , उपयोगिता खोती व्यवस्थाएँ भी रूढ़ होती गईँ ,
लोक . वह संक्रमण का काल था .अनेक संस्कृतियों की टकराहट . सच है कि दूसरे को नीचा दिखा कर कोई बड़ा नहीं हो जाता .
सूत्र. - ऊँच-नीच की यह भावना समाज का ताना - बाना ढीला करने लगी ,स्त्रियों का गौरव नष्ट हुआ वे भोग्या मात्र रह गईं .उच्च नैतिक आदर्शों का ह्रास होनो लगा .
,भोग-विलास की प्रधानता और उच्चादर्शों का हनन हो और मानव चरित्र का पतन परिणाम सामाजिक विग्रह
नटी - हाँ कवि ,रामायण काल में नारी की अस्मिता क्षीण हो गई थी, मन और आत्मा का नहीं , दैहिक शुद्धता का महत्व रह गया था .
लोक - नर-नारी की समानता के सारे मान बदलते गए. महाभारतकाल तक वह हरण और सेवन की वस्तु रह गई.वर्णाश्रम धर्म के दिन बीते .वृद्धावस्था में भी अबाध भोग लालसा वंश-बेलियों को डसने लगी , रोगी, निर्वीर्य संतानें और अपंग उत्तराधिकारी जो राज्याधिकार पाकर अपनी प्रतिद्वंद्विता में महाभारत का आवाहन कर बैठीं .महा भयंकर युद्ध जि सने देश के शक्ति-शौर्य और सुख-समृद्धि को निगल डाला परिणाम बाहरी लोगों को यहाँ घुस-घुस कर आँखें दिखाने की हिम्मत होने लगी .
पर एक उपलब्धि उस युग की रही श्रीकृष्ण का गीता-दर्शन और न दैन्यं न पलायनं का उद्घोष .
सूत्रधार - वह विनाशकारी महासमर जिसने विध्वंस मचा कर इस वसुंधरा की ऊर्जा और पोषण-क्षमता को भी दग्ध कर दिया . इसी दूषण का परिणाम रहा सदानीरा सरस्वती का लोप . एक भरी-पुरी सभ्यता की जीवनी शक्ति को ग्रहण लग गया ..
कैसा रहा होगा वह युग -वह राजा ,वह राज सभा जिसमें कुलवधू का वस्त्रहरण .. ,भ्रूण -हत्या ...
नटी - नहीं-नहीं रहने दो ( हाथ हिला कर बरजते हुए ), कवि नहीं .वे दारुण दृष्य मंचित न हों अब . बस हमें तो उस प्रेमावतार के दर्शन करा दीजिये . हमारे विषण्ण होते मानस को किंचित आश्वस्ति मिले .
( एक सांस भर कर सूत्रधार सिर झुका लेता है . लोकमन, मौन पृष्ठभूमि पर दृष्टि लगाए है. धीरे प्रकाश बढ़ता है और बाँसुरी की मधुर धुन )
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(क्रमशः)