बुधवार, 1 मई 2013

हमारा सेंसर-बोर्ड.


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भारत में सिनेमा और टीवी सीरियलों को प्रदर्शित होने से पहले सेंसर से गुज़रना पड़ता है .पर ऐसा लगता है कि कोई सुविचारित अनुशासन- व्यवस्था,या कला.संस्कृति,भाषा आदि के मानदंड निर्धारित नहीं हैं, जन-सामान्य पर उसका प्रभाव क्या पड़ेगा इसका कोई विचार नहीं, क्या संदेश जा रहा है इस ओर से भी उदासीन. सड़क चलता मनोरंजन और वैसी ही भाषा .इनके गानो और संवादों की सस्ते मनोरंजन वाली छँटी हुई शब्दावली पूरे देश (और विदेशों तक भी)पहुँच कर व्यवहार में आने लगती है .ऐसे उत्तेजक और सस्ते गाने जो संगीत कला को भी कलंकित  कर रहे हैं . . 
आज के अधिकांश चल-चित्र सामाजिक जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव डाल रहे हैं .मनोरंजन के इन साधनों को नाट्यकला की आधुनिक परिणति मानें तो उसकी भी कुछ मान्यतायें और अपनी कुछ परंपराएं हैं जो समाज के हित-संपादन के लिए निर्धारित की गई हैं .लोक रुचि का विरेचन , परिमार्जन  और उन्नयन करने के साथ मानसिक आनन्द के स्थान पर उसे विद्रूप कर मर्यादाहीनता का पाठ पढ़ाया जा रहा है.भाषा भ्रष्ट हो रही है ,बज़ारूपन ,सस्तापन .क्रूरता और भोगवाद सब जगह हावी हो रहा है. यह मनोरंजन का साधन  न रह कर बाज़ारवाद का वाहन बन गया है .इन्द्रिय-बोधों को ऐसा  ग्रसता  हैं कि अनायास अपने प्रभाव में ले लेता है .परिणाम है संस्कार-हीनता और चारित्रिक- गिरावट ,जिसकी कोई सीमा नहीं .
अक्सर ही ऐसे चल-चित्र खूब चलते हैं जो स्वस्थ मनोरंजन देने और समाज में  जागरूकता लाने के बजाय मन की विकृतियों को हवा देते हैं  और भाषा-भूषा,आचार-विचार  पारिवारिक और सामाजिक व्यवहारों की जड़ें खोदते हैं.न सौन्दर्य ,न संदेश ,न सच ,बस उत्तेजित करना और इच्छाओं को हवा देना.
 इनके भोंडेपन और उद्देश्यहीनता पर नियंत्रण लगाना क्या सेंसर का काम नहीं है? .मनोरंजन के नाम पर कोई प्रस्तुतीकरण क्या ऐसा होना चाहिये जो सामाजिक और संस्कृतिक , मूल्यहीनता को प्रोत्साहन दे?  उसकी स्तरीयता और उद्देश्यपरकता  के साथ लोक जीवन पर उसके प्रभाव के आकलन  से सेंसर-बोर्ड का कोई वास्ता नहीं?यह भी कि इन्हें पास करनेवालों की  समाज और संस्कृति के क्षेत्रों में कितनी पैठ है जो इस पर गहराई से   विचार करें.
आखिर सेंसर काहे के लिये है?
 अगर आज हम यह प्रश्न नहीं उठायेंगे तो मूल्यहीनता के भंवर में डोलते आज के समाज को बाहर आने  में पता नहीं कितनी देर होती चली जायेगी .