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उस दिन रागिनी जी से भेंट हुई बेटी के पास आई हुई थीं.पति का देहान्त हुए दस साल हो गये थे ..बच्चे अपनी नौकरियों पर पुत्री का विवाह सबसे निवृत्त ,अब तो कुछ करने को बचा भी नहीं
उनकी परेशानी है- बहुत ऊब लगती है .जहाँ जाओ नए सिरे से फिर अपने को ढालो ,
अकेले रह नहीं सकते हारी-बीमारी में किसे पुकारें .
न यों चैन न वों चैन !
एक और सीनियर बैठे थे बोले,क्या करें ,सब अपने काम में व्यस्त .हम अकेले क्या करें.सब का अपना ढंग हैं .कभी-कभार लोगों से मिल जुल लें, बस इतना ही .और करने को है ही क्या?".
'तो फिर आप भी व्यस्त हो जाइये .'
'अब हम, काहे में ?'.
'अपना कोई शौक.'
'खतम कर दिये सारे शौक अपने .घर-परिवार के पीछे .'
'नहीं,नहीं फिर से शुरू कर कर दीजिये .'
'अब क्या करना है? छोड़ दिया सो छोड़ दिया .अब तो दिन काटने हैं !"
ये कैसी ज़िद कि अब आगे कुछ नहीं करना!
ऐसे झींक-झींक कर ज़िन्दगी कटती है कहीं !
दो-तीन लोग और शामिल हो गये थे.
चर्चा चल रही थी. अपनी खुशी ख़ुद ढूँढनी पड़ेगी उसके लिए कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं ,जीवन इतना कांप्लेक्स हो गया है इतना चुनौती भरा ,ये बच्चे तो इसमें फँस गए हैं .हमारे जैसा निश्चिन्त और सुविधावाला समय इन्हें कभी कहाँ मिला .क्या करें ये लोग भी ?
'हाँ, हम तो खुद नहीं चाहते ,कि हमारे लिए अपना काम हर्ज करें .'
'तब तो और भी अच्छा क्यों किसी का आसरा ढूँढें !सच में इच्छा हो तो सब हो जाता है .'
मैंने अक्सर देखा है रिटायर हो कर लोगों की मानसिकता बन जाती है कि हमें कोई नहीं .समझता,हम अकेले पड़ गए .जब कि बच्चे भरसक साथ हैं सहायता को तत्पर हैं .अक्सर खुद ही को-ऑपरेट नहीं करते, उनकी मजबूरी नहीं देखते .
कहते हैं आखिर हम क्यों ज़िन्दा हैं?
ज़िन्दा तो रहना ही पड़ेगा जब तक ज़िन्दगी है .दिन रात मौत-मौत पुकारते ,मनहूसियत फैलाते ,दूसरे को परेशान करते रहिए ,या मन ही मन बिसूरते रहिये. ऊपर से जीवन की अवधि कितनी बढ़ गई है, अस्सी से ऊपर तो आम बात है . बीमार पड़ो कुछ हो भी जाए तो बच्चे लग जाएंगे जी-जान से. ,मरने थोड़े ही देंगे .बचा कर ही दम लेंगे .दवाएँ और बाकी तंत्र इतना विकसित हो गया है कि हर उपचार मौजूद.
समय का पहिया घूमता रहेगा अगर कोई एक जगह खड़ा रहे ,तो कैसा लगेगा .धीरे-धीरे सब बदल रहा है .आपके समय भी नई चीज़ें आईँ थीं ,अब विकास की गति ज़रा तेज़ है,साधन भी उतने ही बढ़े हैं .
रहना ही है तो ढंग से जिया जाय .कुछ ऐसे कि मन को खुशी और संतोष मिले.
इस के लिए ज़रूरी है अपने मन का कुछ करना.
एक जन बता रहे थे,' हमारी पड़ोसन ने पैंसठ साल की उम्र में म्यूज़िक की क्लास ज्वाइन की है .उनकी बहिन भी गाने का प्रेक्टिस करती है.'
'हिम्मत होनी चाहिए और फिर तो अपनी हॉबी शेअर करनवाले मिल जाते हैं .कंप्यूटर पर और आसानी से..'
'समान सोचवालों का ग्रुप बना लो.'
'हमेशा मिलने-बतियाने की सुविधा कहाँ?'
उसी के लिए कंप्यूटर है .जब चाहो अपनी बात कह दो, उनकी सुन लो- सोच कर
अचानक बोल उठी,
'और कुछ नहीं तो आप कंप्यूटर सीख लीजिए. दुनिया भर की नई बातें ,नई खबरें ,रेसिपीज़, कुछ पढ़ने-लिखने में रुचि हो तो भी भंडार भरा है हर तरह का. ,गाने भी और हाँ, यू-ट्यूब पर मनचाहे प्रोग्राम भी . अब तो तमाम ऊपरी काम भी उससे हो जाते हैं .हमारे यहाँ तो रेलवे, प्लेन आदि का रिज़र्वेशन भी उसी से होता हैं .घर बैठे .'
'हाँ, वो तो है ,पर अब हम क्या सीखें सीख चुके जो सीखना था.'
'पर इम्टी माइंड डेविल्स वर्कशाप! फ़ालतू बाते दिमाग़ में आयें ही क्यों?' अरे ,यह क्या कह गई, मैं!
उन्हें कुछ बुरा लगा शायद ,बात को घुमाने लगी,' यह नहीं करना चाहें कोई तो कुछ ऐसा शौक पाल लें कि मन लगा रहे . वैसे दिमाग़ की तो आदत है ..'
रागिनी जी सचेत हुईं ,'
'हाँ, दिमाग की क्या आदत है जी?
'सारे खुराफ़ात, की जड़ है !इस उमर में तो बड़ी जल्दी जंक लगने लगती है ..साथ हाथ पाँव उसी के चेते चलते हैं फिर तो मन भी वैसा ही ढलने लगता है.'
वे कुछ सोच रहीं थीं ,वे महोदय चुप सुन रहे थे,मुँह बनाए जैसे कड़वी दवा पी ली हो .
'ऐसे में कितनी डल हो जाती है लाइफ, न ?'
कुछ सिर हिले.
मन में उठ रहा था सीखने में काहे की शरम ?कोशिश पहले.फ़ायदे बाद में पता लगेंगे .किसी पर निर्भर नहीं.पैसा खर्चना नहीं .
यहाँ तो पोता भी कंप्यूटर से चिपका रहना चाहता है,हम लोग मना करते रहते हैं .
'कंप्यूटर के लिए औरों का मुँह देखना पड़ेगा.'
'नहीं, नहीं , और खुश होंगे, .कहेंगे हमारे पापा गुज़रे ज़माने के नहीं आज को टक्कर देनेवाले हैं .'
'और सीखने में कुछ नहीं माउस पकड़ना शुरू करिये, वह सब सिखा देगा .बच्चे बड़ी खुशी से गाइड करेंगे .शुरू में दो-चार दिन ताल-मेल बैठाना पड़ेगा.इतनी तो कूवत है ,दिमाग भी अभी तो,भगवान की दया से अच्छा- खासा है. बस ऐसे ही सचेत बना रहे !'
समर्थन के भाव उजागर होगए भंगिमा से .
'...और ई-मेल करना आ जाये तो देखो क्या आनन्द आता है ,संदेशों के लेन-देन में .अब चिट्ठी-पत्री तो कोई करता नहीं ,फ़ोन पर वो बात नहीं आती जो अपने आप किसी का लिखा पढ़ने में आती है .'
वे चुप ही रहे,शायद कुछ चल रहा था अन्दर ही अन्दर .
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रिटायरमेंट के बाद कुछ लक्षण अपने आप उभरने लगते हैं-
एक रिक्तता-सी मन पर , फ़ालतू हो गये का बोध मन को तिक्त करता हुआ.,, ,शिकायतें किसी-न किसी से.बार-बार दोहराना कि हमारे समय में ऐसा नहीं था,बदली हुई स्थितियों को स्वीकारने से बचना.(ठीक तो है आपके पिताजी के समय जो जो होता था वह आपके समय में भी तो बदल गया ) , नई चीज़ों से बिदकना,अपने को बदलने को बिलकुल तैयार नहीं. ऐसे ही रहेंगे ,एकदम रिजिड,अपने को लाचार,असमर्थ अनुभव करते.कुछ जानने-सीखने की चाह ही खत्म. तटस्थ-सी.नकारात्मकता- बे-मन से जिये जा रहे हों जैसे .
प्राचीन काल में वानप्रस्थ का विधान इसीलिये किया गया होगा ,कि हमारा ज़माना गया ,तुम्हें संस्कार और शिक्षा दे दी , व्यक्तित्व विकस गया, समय आ गया अगली पीढ़ी को मान्यता देने का .जो सिखाया है उसे चरितार्थ होते देखने का ..अब भोक्ता की जगह दृष्टा बनने के दिन हैं.उस स्तर से कुछ ऊँचा जो उठ गये .सारे अनुभव साथ हैं,कितने उदाहरण सामने से गुज़र चुके कितनी उठा-पटक के साक्षी रहे,इतना कुछ कि मन की झोली भरी है .
अपने से आगे जाने के लिए शिक्षा और संस्कार देकर समर्थ बनाया है, अब उस संतान को निश्चिंत मन से, भविष्य सौंप दें . महत्व छोटों को मिले कि वे बड़े हो गये . और अपने लिए कुछ ऊर्ध्व स्तरों की खोज करें जहाँ ,संतोष और शान्ति हो . सब प्रसन्न रहें .
-कोशिश करने में क्या हर्ज है !
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20-25 दिन बाद फिर मिले थे.मेरे पास आये बोले ,' मैंने सीख लिया कंप्यूटर ...'
बड़े उत्साह में थे बोले .'कई लोगों से कांटेक्ट हो गया है ,अब खाली नहीं रहता .'
.'..अरे वाह !'
सुना है रागिनी जी भी व्यस्त हैं -मिलूँगी जा कर उनसे . .
वे खुश थे .मुझे अच्छा लगा .
'फिर तो आप दूसरों के लिए माडल हो गए .अब जुड़िये अपने जैसों से ,
सीनियर्स क्लब बना कर हीरो बन जाइये आप .'
उत्साहित थे वे.
ज़िन्दगी ज़िन्दादिली का नाम है!
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