57.
सबसे आग्रह था कथा के श्रवण हेतु ऊंच-नीच ,धनी-निर्धन,पंडित-अपढ़ का कोई भेद नहीं. सब समकक्ष हो कर श्रवण करें .
उछाह भरे प्रजा- जन उमड़ आये .सम्राट् को अपने पास ,समान आसन पर पा कर अभिभूत हो गये .
सबकी सुख-सुविधा हेतु चारों भाई सजग हैं,
कोई किसी को बता रहा है -' इस आयोजन में भोग हेतु प्रसाद साम्राज्ञी को स्वयं बनाना है '
विस्मय से सुनते हैं लोग.
व्यास देव की मनोरम शैली ,श्रोताओं का औत्सुक्य - क्या सुन्दर ताल-मेल !
*
कथा चल रही है ,अध्याय पर अध्याय खुलते जा रहे हैं -
युद्ध की विभीषिका ने आर्यावर्त की धरती पहले ही वीरों से विहीन कर दी,अनेक महान् वंश समाप्त हो गये .माँ और पितामही ,की बातों से जो जाना है युवराज ने आज कथा-क्रम में सब सुन रहे हैं .
यदुकुल के लोगों का बहुत स्नेह पाया परीक्षित ने ,उनके वार्तालाप से लाभान्वित होता रहा है,बोले,
'हाँ ,मुझे ज्ञात है ,कृतवर्मा पितामह को बहुत दुख रहा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया .'
'जाने दो पुत्र ,उनकी बातें उनके साथ गईँ .'
'परीक्षित को जन के सम्मुख उपस्थित कर उसकी पात्रता सिद्ध करने का समय आ गया है.
उसे ही शासन सूत्र सँभालने हैं .यहाँ की स्थितियों से परिचित होता चले .'
भावी राजमाता है उत्तरा .अपने सामने ही सब से परिचित कराना उचित होगा .
तब युधिष्ठिर ने संशय किया था,'धार्मिक कार्यों में राजनीतिक उद्देश्य जोड़ना ,....'
'राजनीति ? कौन सी नीति हो रही है यहाँ? हमारा कर्तव्य ,हमारा धर्म .राजा-प्रजा में सामंजस्य का प्रयास, परस्पर सद्भावना और समझ उत्पन्न करने का ,इसमें राजनीति कहाँ से आ गई ?'
व्यास बोले थे, वाचक के आसन पर पर बैठ कर पोथी नहीं जीवन के अध्याय खुलते हैं . सत्य-वाचन किये बिना कैसे रहा जा सकता है . धर्म वैयक्तिक जीवन के साथ समाज को भी साधता है .
लोक को जानना ही उचित है कि वह किस ओर जा रहा है ,'
परिवार के सदस्य भागवत श्रवण करेंगे .उपस्थित जन से संपर्क तो होना ही है .'
पार्थ बोले ,'सही है .उसके जन्म का वृत्तान्त जान लें सारे जन .जीवन की आपाधापी में किसे याद होंगी वे पुरानी घटनायें ?'
क्या-क्या घट चुका अपने उस इतिहास को यह पीढ़ी समझ ले .'
*
पांचाली स्वयं स्वागत करती है ,आवश्यक शिष्टाचार का निर्वाह करती है .
कोई संकुचित न हो कहती है,' मेरे बाँधव कृष्ण ने स्वयं अतिथियों के जूठे पात्र उठाये थे ,और आप तो भागवत-कथा का श्रवण कर रहे हैं - मेरे आदरणीय हैं .'
गद्गद् हो जाते हैं जन .
गद्दी पर आसीन व्यास जी ,कथा के बीच स्पष्ट करते हैं ,ब्रह्मास्त्र से कोई बच नहीं पाया आज तक . पर श्रीकृष्ण ने देवी उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की रक्षा की अपने सत और तप से की .यही है वह परीक्षित .आपके सम्मुख .'
मर्मर ध्वनि उठती है -'परीक्षित ?'
'पुत्र सम्मुख आओ,ये सब तुम्हारे अपने ,मिलो इनसे ! '
कितना सुदर्शन ,गौर वर्ण युवक !
वह ,शीष झुका कर ,कर जोड़ देता है 'आप सब मेरा प्रणाम स्वीकारें !'
हर्ष की लहर दौड़ जाती है .
पांचाली ने पौत्र का सिर सूंघा ,हृदय से लगा लिया ,वात्सल्य उमड़ पड़ा .
उत्तरा के पुत्र में कृष्ण और पार्थ दोनों की झलक पा ली .
अपने पुत्र के संपर्क से पयोधर उमड़ आये हों ज्यों ,वही अनुभूति परीक्षित को पहली बार गोद में लेने पर जाग उठी थी ,सजल होते नेत्रों को छिपा गई थी वह .
अभी ऊँचे-पूरे युवक-पौत्र को निहार अंतर उसी भाव से भर उठा .
मेरी ही टोक न लग जाय कहीं . उसने दृष्टि-दिशा बदल दी.
'वत्स तुम्हारे पिता के मामा-श्री के तप और सत् से आज तुम हमारे सामने हो.नहीं तो हमारा वंश ही डूब गया था. प्रयत्न करना उनके शुभ्र चरित्र पर कोई आँच न आये . '
'आपका आशीष साथ रहे, पितामही .'
सब देख रहे हैं दक्षिण बाहु पर यह नील-लोहित चिह्न - यह क्या ?
'हाँ, और हृदय के समीप भी .जैसे उस समय की मुद्रा में था ,अस्त्र शिशु के हृदय में प्रविष्ट हुआ हो .'
''हाँ यही है उस ब्रह्मास्त्र का शेष चिह्न जो अश्वत्थामा ने इस के लिये छोड़ा था .''
किसी की उत्सुकता जागी है .
'तुम्हें क्या अनुभव हुआ था वत्स, उस समय?"
कुछ स्मरण करता-सा बोला ,'बहुत धुँधली स्मृति .अभी भी कँपा देती है !इतना तीव्र ताप जैसे पल में वाष्प कण बन जाऊँगा .तभी कानों में कुछ ध्वनित होने लगा. लगा मेरे चारों ओर अत्यंत वेग से कुछ घूम रहा है- घनघनाता चक्कर काट रहा. इतना समीप कि अभी स्पर्श कर लेगा ....हाँ, फिर ताप घटने लगा ,' कहते-कहते उसकी वह बाँह हिल गई ,'यहाँ तीव्र पीड़ा,असहनीय.अभी भी लगता है जैसे सनसनाहट हो रही हो .
तब भी यह बाँह काँपी थी फिर माँ के कर का स्पर्श अनुभव किया,'
उसने समीप बैठी राजवधू उत्तरा की ओर देखा,
' माँ ने मेरे उदर पर अपना हाथ धरा था .कुछ निश्चेष्ट सा हो गया मैं.
धीरे-धीरे शीतलता व्यापने लगी..आगे कुछ याद नहीं .'
महिलाओं के समूह में किसी ने उत्तरा से सहानुभूति प्रकट की ,'इन्हें कैसा लगा होगा उस समय ,हे भगवान !'
'पुत्री ,तुम पर क्या बीती होगी !'
सुभद्रा पास खिसक आईं आश्वस्त करती बोलीं .
'कुछ बोलोगी वत्से ? कहने-सुनने से हृदय का भार हल्का हो जाता है . '
कुछ क्षण सिर झुका रहा ,मुख पर कुछ भाव आये-गये , जैसे स्वयं में कुछ समेट रही हो .
बोली उत्तरा ,' हाँ ,मुझे लगा अचानक एक भयंकर ताप मेरे उदर को दग्ध करने लगा ,इतनी व्याकुल हो गई ...
हाथ उदर पर धर लिया ,मुख से चीत्कार निकल गया तभी जैसे किसी ने कहा हो ,चेत मत खोना वधू ,परीक्षा का समय है , अचेत हुईं कि गर्भस्थ पुत्र गया ..'
और मैं दूसरे हाथ से अपनी देह नखों से खरोंचने लगी कि इस पीड़ा के आगे वह ताप ध्यान न आये , .'
मुझे याद आ गया माँ की अनजाने में उस निद्रा से कितना बड़ा अनर्थ हो गया था .'
दृष्टियाँ सुभद्रा की ओर चली गईं.
उन्होंने ने सिर हिलाया .
विशाल कक्ष .अपार जन-समुदाय .वधू का मृदुल-सा स्वर एक सीमा तक ही पहुँच रहा था, पर विलक्षण शान्ति .स्तंभित से हो गये थे सब .
'ओह,कैसे बीता वह समय ?जैसे क्षण-क्षण कोई शत-शत अग्नियों से दहा रहा हो . जैसे पल भर में वाष्प में बदल जाऊँगी .कैसा दारुण ,विष-बुझे सैकड़ों तीरों के चुभन की पीड़ा .असह्य !ओह .'
स्मृति-मात्र से वह कंपित हो उठी थी .
'बस,बस ,अब कुछ मत बोलो ,'
' मत याद दिलाओ उन्हें उस दारुण क्षण की .अंत भला सो सब भला !
नारियाँ चर्चा कर रहीं थीं,
'चेत बनाये रखा फिर भी..' कोई कह रहा था.
और एक नारी स्वर -
.'सुख और आनन्द के सब भागीदार , दारुण पीड़ा और जतन केवल माँ का भोग .'
वह फिर भी कहती रही,
'...नहीं ,अब ठीक हूँ. मैं बताती हूँ पूरी बात..फिर , लगा मामा-श्री ने घेर लिया है ,लपटों से जूझ रहे हैं मुझे आश्वस्ति देते हुये .कहते जा रहे थे
कुछ क्षण और ,कुछ क्षण और .पर मुझे लगता पता नहीं समय कितना लंबा खिंच रहा है.और फिर , मैं एकाग्र होने लगी. ध्यान केन्द्रित हो गया .ताप का भान भूल गई .
उन्होंने कहा',बस ,शान्त हो ,सो जाओ पुत्री .'
और मैं विचित्र निद्रा में लीन हो गई .लगता रहा अमिय-कणों की फुहार रह-रह कर दग्ध तन को शीतल कर रही है..'
'जब जागी तो उदर पर एक ऐसा ही नील-लोहित व्रण था जो बाद में चिह्न शेष रह गया . .' सुभद्रा बोलीं, उनकी अभिभूत दृष्टि वधू के सुकुमार मुख पर.
पांचाली करुणा से भरी चुप देखती रहीं.
पार्थ की नेह-भीगी दृष्टि का अनुभव हो रहा है उसे .
उनके शब्द शीतलता का प्रलेप करते हैं..'उत्तरे ,मैने प्रारंभ से तुम्हें पुत्री वत् माना . तुम्हें नृत्य की शिक्षा देने में उसी वत्सल आनन्द का अनुभव किया .वैसा ही स्नेह बहिन दुःशला के लिये मेरे हृदय में था .'
तभी तो मुझे अपने पुत्र के लिये स्वीकारा सोच कर तप्त हृदय शीतल हो हो गया .जनार्दन की भागिनेय-वधू ,उत्तरा के नैन भर आये .उस विशाल सभागार में कितने नेत्र सजल हो उठे थे.
,पांचाली भी जानती है ,दुःशला के प्रति कितना ममत्व था पार्थ के हृदय में - और इन पर वह भी अपना विशेष अधिकार समझती थी . तभी वन में जब जयद्रथ ने उसका हरण किया तो उसे जीवित छोड़ दिया कि बहिन विधवा न हो जाय.
भावाकुल होकर श्वसुर के हृदय से आ लगी उत्तरा .'इस घोर दुख में आप दोनों का ही सहारा.नहीं तो कौन बचा है मेरा !'
कृष्ण-भगिनी सुभद्रा सामने खड़ी हैं ,भाई का मुख झलकता है ,व्यवहार झलकता है उनके हर विन्यास में .
'ऐसा न कहो पुत्री ,' पांचाली ने शीष पर हाथ धर दिया.'यह सभी तुम्हारा है !'.
58.
बीच-बीच में होनेवाला ऐसा कथान्तर व्यास की कथा में व्यवधान नहीं उसका प्रत्यक्षीकरण लगता है .
काल के पृष्ठों को सामने रख रहे हैं व्यास -
अतिप्राकृतिक अस्त्रों का प्रयोग धरती का अंतस्थल दहला गये, उर्वरता रूखी रेत बन गई.महा-समर का अपशिष्ट सरस्वती और उसकी सहयोगिनी सरिताओं मे विसर्जित कर दिया गया था, पोषण के स्थान पर दूषणदायी हो गया सारा जल.
कोई बोल उठा ,'अब कहाँ जल ?संपूर्ण वैदिक संस्कृति को जन्म से पोषण देने वाली सदानीरा सरस्वती में जल बचा ही कहाँ !'
'जल कहाँ, अब केवल कीच और विषम गंध !'
दूसरा स्वर ,'पशु-पक्षी आते हैं, बिना पिये लौट जाते हैं.'
व्याकुल हो कह उठते हैं व्यास -
'कहाँ हो रे अश्वत्थामा .आओ देखो .ये परिणाम कहाँ तक चला आया और आगे कहाँ तक पहुँचेगा !शताब्दियों की अनवरत साधना ने जो उपलब्ध किया था,उत्तेजना की एक घड़ी ने चौपट कर दिया !'
*
सब बड़े ध्यान से सुनते हैं -
कैसे आदि बद्री समीपस्थ हिमनद से प्रारंभ नदीतमा की प्रभास क्षेत्र तक की अथाह जल-यात्रा इसी अहंकारी अतिचार के महादानव ने पी डाली . विस्तीर्ण ,वनस्पति-सघन, खग-मृगाकीर्ण प्रदेश रुक्ष मरुथल बन कर रह गया .
तटवर्ती आश्रम ध्वस्त, निर्जन पड़े हैं -ज्ञान का प्रसार कहाँ से हो? चिन्तक मनीषियों और तपस्वियों के बिना वैदिक संस्कृति और सभ्यता लुप्त प्राय है. ज्ञान-विज्ञान की धारायें सूखी जा रही हैं '
आँखों देखा सच है -लोग सिर हिलाते हैं.
' सब इस युद्ध के कारण जो हम पर थोपा गया .'
'अति हो गई थी ,' सबको लगता है .परित्राण के लिये जो हुआ वह होना ही था .
उसी का तो परिणाम है - यज्ञों की व्यवस्था विस्मृत हो गई. लोग वेदों का शुद्ध उच्चारण भूल गये ,मंत्रों का दिव्य प्रभाव क्षीण हो गया .केवल दक्षिणा का लोभ रह गया दयनीय अर्थ-व्यवस्था एवं आर्थिक और सामरिक दृष्टि से दुर्बल आर्यावर्त को विदेशी आँखें टटोलने लगीं.
आदर्शों के भव्य प्रासाद ढह गये थे .उतार पर आ था गया सब .
एक संपूर्ण सभ्यता-संस्कृति को निरंतर जीवन-ऊर्जा से सींचती सरस्वती अब कहां है ?
उन्नति के शीर्ष पर पहुँची वैदिक संस्कृति के पतन का काल बन गया यह युग ,जिसमें दुष्कृतियों को हत करने के लिये कितनी सीमायें पार करनी पड़ीं .'
वर्तमान सम्राट् ने भावी सम्राट् से कहा,
'वत्स,सत्य को जान लो , जनार्दन की छाया में रहे हो ...तुमसे बहुत आशायें हैं जन को .'
मामामह ने मेरे बोधों को जाग्रत कर दिया है ,पूज्य .अश्वारोहण द्वारा विविध स्थानों का भ्रमण करवाते थे वे ,कि अपनी आँखों से देख लूँ .'
पार्थ ने कृतज्ञ दृष्टि सुभद्रा पर डाली ,'सुभद्रे, तुम्हारे भ्राता बड़े नीतिज्ञ थे .कितने आगे तक की सोच गये .'
'दाऊ जितने सहज विश्वासी रहे , मोहन भैया को कोई चरा नहीं सका,' उसने अपना अनुभव कह डाला . .
परीक्षित बोल उठा,'
'महान् नीतिज्ञ माना है ,तो फिर उनके दृष्टान्त ही आगे मार्ग दिखायेंगे .'
युधिष्ठिर का विश्वास मुखर हुआ ,' मुझे विश्वास हो गया वत्स ,तुम इस राज्य के योग्य उत्तराधिकारी हो .'
'तात,आपका मार्ग-दर्शन और आशीष पाता रहूँ .प्रयत्नशील रहूँगा .'
सुभद्रा पुलक उठी .सब ने संतोष से देखा.
ऐसा लगता था जैसे श्रीमद्भागवत का साक्षात निरूपण हो रहा हो .
'वे स्वर्णिम दिवस सदा को लुप्त हो गये ?' एक चिन्तित स्वर उठा.
' सदा को कुछ लुप्त नहीं होता वत्स .समय का चक्र ,और कर्म तुम्हारे !'
आरती हेतु, रजत पात्र में पातों का द्रोण धर कर कर्पूर की जोत जगाने लगे थे महर्षि द्वैपायन .
सुगंधों से गमकते प्रसाद के बड़े-बड़े गंगाल लाकर रख रख दिये सेवकों ने -साम्राज्ञी के करों से निर्मित भोग !
सब की उत्सुक दृष्टियाँ उधर घूम गईँ .
कहते हैं - जिस मानसिकता से पाक होगा , भोक्ता में तदनुकूल भाव का परिपाक अनायास हो जाता है !
*
सात दिन की भागवत-कथा .सात दिन आचार-विचार से शुद्ध रहने का संकल्प !
हृदयों का संस्कार हो रहा है .ये सात दिवस,वर्ष भर अपना शुभ-प्रभाव बना रखेंगे .सात्विकता आंशिक स्वभाव बन जायेगी .
इतने समय पुनीत मनोमयता की यह डूब ,कितनी दूषित भावनाओं का शमन करेगी,धीरे-धीरे वही सात्विकता स्वभाव में परिणत होने लगेगी .
व्यास-पीठ पर आसीन ज्ञानी वाचक बोले थे -
' सारे जीवन तपे थे वे ,संसार को सुन्दरतर बनाने के लिये .उनके संदेश हम जीवन में उतार लें तो विश्व का कल्याण संभव है !'
अभिभूत है नर-नारी जैसे भागवत के अध्यायों का साक्षात् निरूपण देख रहे हों!
सकारात्मक ऊर्जायें जन-मानस में नव चेतना संचरित करने लगीं थीं .
*
(क्रमशः)----
टिप्पणियाँ
apni ankho ke aage sab kuchh gatit hua jab itihas banNe lage to khud ko hi ye dekh hairani hoti hai ki waqt kaise kaise karwat leta hai. pareekshit ka vritant padh kar gyan vriddhi hui. aabhar. पांचाली 55.& 56. पर
अनामिका की सदायें ......
8/17/12 को
अद्भुत! निशब्द करती प्रस्तुति....आभार पांचाली 55.& 56. पर
Kailash Sharma
8/17/12 को
मन को बांध लेने वाली कथा। पांचाली 55.& 56. पर
सामग्री निकालें | हटाएं | स्पैम
mahendra verma
8/15/12 को
अभिभूत हूँ! शकुन्तला जी के शब्द को दोहराने भर की ही योग्यता पाता हूँ स्वयं में। आपकी लेखनी को नमन! पांचाली 55.& 56. पर
सामग्री निकालें | हटाएं | स्पैम
Avinash Chandra
8/15/12 को
इस शृँखला में भी कई सुभाषित सदृश दार्शनिक उक्तियाँ हैं। जैसे-"माटी की रचना कभी मंद कभी तीव्र आँच नहीं खाएगी तो पकेगी कैसे?","देह के साथ विदेह को निभाना यही जीने की कला है।" तथा" सीमित बुद्धि जब गहन को व्याख्यायित करने पर उतर आती है,तो विवेक पर आवरण पड़ जाता है।"आदि अनेक सशक्त वाक्य हैं। पांचाली का करुण विलाप हृदयविदारक है।परीक्षित के राज्याभिषेक का प्रस्ताव भी पांचाली की विरक्ति और चरित्र की उदात्तता को ही उजागर करता है।युद्ध के परिणाम स्वरूप हुई सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधःपतन की स्थिति का चित्रण प्रभावी है।जीवनदर्शन की अद्भुत प्रस्तुति श्लाघनीय है।प्रतिभाजी की लेखनी को नमन!! पांचाली 55.& 56. पर
शकुन्तला बहादुर
8/14/12 को
गतिमान- अनुसरण कर रहा हूँ- अश्वश्थामा के सिर पर, इक ख़ूनी घाव बहा करता है | निरपराध बच्चों की हत्या, यह संताप सहा करता है | मामा श्री के कर कमलों से जीवन दान मिला था तुमको- ब्रह्मास्त्र का शेष चिन्ह है , जिससे व्यक्ति सदा मरता है || पांचाली 55.& 56. पर
रविकर फैजाबादी
8/13/12 को
अद्भुत रस है आपके लेखन में , मंत्रमुग्ध हो पढ़ते ही जाए और पौराणिक इतिहास से परिचित भी हो जाएँ ! पांचाली 55.& 56. पर
वाणी गीत
8/13/12 को
Sundar vichar. ............ कितनी बदल रही है हिन्दी ! पांचाली 55.& 56. पर
DrZakir Ali Rajnish
8/13/12 को
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १४/८/१२ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी आपका स्वागत है| पांचाली 55.& 56. पर
Rajesh Kumari
8/13/12 को
परीक्षित को शासन की बागडोर संभालवाने की सुंदर कथा .... पांचाली 55.& 56. पर
संगीता स्वरुप ( गीत )
8/12/12 को