मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

कृष्ण-सखी - 35.& 36.


35
*
सुभद्रा का पुत्र ,कृष्ण का भागिनेय - अभिमन्यु !
रह-रह कर पार्थ का हृदय  तड़प उठता है, उन सात महारथियों ने कैसे  घेर कर मारा होगा अभिमन्यु को !
सोच-सोच कर विकल हैं अर्जुन .वह जघन्य कृत्य अंतर में शूल सा चुभा है .पीड़ा अधिक या क्रोध -विचलित हैं पार्थ !
दो-दो प्रतापी पुत्र युद्ध की भेंट चढ़ गये -पहले इरावान, उलूपी की एकमात्र संतान ,और आज अभि !
शोक-मग्न चारों भाई धीर बँधाना चाहते हैं ,पर जो मन को कुछ शान्त कर सकें वे शब्द  कहाँ से लायें  !
व्याकुल अर्जुन बार-बार स्मरण करते ,बोलने लगते हैं -
'भीम भैया ने कहा था उस अंतिम द्वार को मैं अपनी गदा से तोड़ दूँगा पुत्र, तू निचिंत रह .आचार्य द्रोण ने उसके लिये पहले ही कह दिया था जब तक इस बालक के करों में धनुष-बाण हैं कोई उससे जीत नहीं सकता ,..'
'उन सात महारथियों ने अनीति और अन्यायपूर्वक  उसे अकेला पा कर घेर लिया  .उनकी छलभरी चाल से  जूझता रहा मेरा पराक्रमी पुत्र.उस धूर्त जयद्रथ ने किसी पांडव को टूटे व्यूहमें घुसने नहीं दिया .अकेला पड़ गया था वह. और सारी रीति-नीति -औचित्य  को भुला वे इकट्ठे उस बालक पर टूट पड़े .वह निहत्था हो गया ,रथ से नीचे गिर गया तब भी वे वार करते रहे .मेरा वीर पुत्र रथ के टूटे पहिये से अंत तक लोहा लेता रहा पर....ओह. ..विद्या और पराक्रम में वह सबसे बढ़ कर था... .अंतिम  क्षण तक ....' .अर्जुन का कंठावरोध हो  आया .
आवेश में आ कर खड़े हो गये पार्थ ,'उस पापी जयद्रथ का वध कल सूर्यास्त तक नहीं कर दिया तो मैं स्वयं को चिताग्नि में भस्म कर डालूँगा !'
पाँचाली अवाक् ,चारों भाई हतप्रभ ,'अरे यह क्या किया ?'
'बस, अब कल यही होना है .'.भाइयों की सांत्वना काम नहीं कर रही , पितृ-हृदय की वेदना  किसी प्रकार शान्त नहीं होती.
आर्द्र-नयन पांचाली पास आ बैठी .
अब सँभाल लेगी ,चारों बंधु इधर-उधर हो गये .
बार-बार ध्यान आ रहा है -
वह चक्र-व्यूह के छः द्वार तोड़ चुका था . हाँ, सातवाँ द्वार तोड़ना उसे नहीं आता था ,'ओ,सुभद्रे तुम क्यों सो गईँ ?वही नींद मेरे अभि का काल बन गई ...'
'समझ रही हूँ मैं ,.'याज्ञसेनी बोली,'  हमारा पुत्र कोई साधारण बालक नहीं था .
कर्ण ,दुर्योधन, शल्य, अश्वत्थामा,शकुनि दुर्योधन सब उससे परास्त हुये थे.प्रतिशोध की अंधी आग में जल रहे थे वे ...'
'ओह, कैसा कारुणिक अंत..वधू उत्तरा गर्भवती और ....' अर्जुन फफक पड़े .
पति का हाथ पकड़ लिया पांचाली ने .बार-बार भर आये अपने नयन पोंछ लेती है .
*

'अभि..की.- एक बात पार्थ ,मैंने तुम्हें नहीं बताई थी...' ,
'हाँ,हाँ ,क्या? कहो पांचाली ,' विह्वल से बोल उठे ,'क्या बात ..?'
'वासुदेव का भागिनेय तुम्हारा अंश.उसके जन्म की बात ...मैं बता नहीं सकी थी ..चाह कर भी अब तक नहीं कह सकी ..'
'क्या .कहो तो ...'
' सब देवों ने अपने पुत्रों के अवतार रूप में अभिमन्यु को धरती पर भेजा था .तब चन्द्रदेव ने कहा वे अपने पुत्र का वियोग अधिक सहन नहीं कर सकते .अतः वह मानव- योनि में 16 वर्ष पर्यंत ही रह सकेगा.'
दोनों चुप !
'और उसके उतने जीवन का अधिकांश भी  ननिहाल में बीता !'
'वही क्यों ,हमारी सारी संतानें !केवल जन्म देने की दोषी हूँ मैं तो , लालन-पालन किसने किया ?सुभद्रा ने ...अभि के साथ शिक्षा-दीक्षा  वहीं ननिहाल में हुई .यहाँ वनवास में क्या होता .उनके पालनहार कृष्ण रहे .उधर इरावान और बभ्रु .अपने ननिहालों में ..'
'ओह, अपनी संतानों को भी समुचित संरक्षण न दे सका कैसा अभागा ..'
'चुप.चुप .अभागे तुम नहीं ,अपनी ही दुर्बलता से बनाई गई परिस्थितियाँ  हैं ये ...तुम्हारा किया  नहीं ...'
लंबी सांस खींची द्रौपदी ने .
' अपनी सपत्नियों की ऋणी हूँ .मेरे पति, और पुत्रों को भी उन्होंने अपना दायित्व बना लिया ...'
अर्जुन ने स्वीकारा ,'हाँ उनके बिना क्या होता, हमारी अगली पीढ़ी का ? उन सबकी तो योजना यही थी कि हम सब वनों में पड़े रहें .'
पति के मन का आवेग बाहर निकलवाना चाहती है वह ,'हां ,पार्थ,अपनी सुभद्रा ,हमारे पुत्रों को उसी ने तेरह वर्षों तक स्नेह संरक्षण दिया -बाल्यावस्था से युवा हो जाने तक .
सखा कृष्ण की भगिनी  -उन्हीं के अनुरूप निस्स्वार्थ ,स्नेहमयी , हम सुभद्रा के ही नहीं उस पूरे परिवार के ऋणी हो गये,जहाँ हमारी संतानों को ठौर मिला .समुचित शिक्षा-दीक्षा से संपन्न किया ,भ्राता अभि ने उन्हे पग-पग पर संरक्षण दिया .
और आज हमारा दुर्भाग्य ...मैं नौ पुत्रों की माता थी .वीर घटोत्कच ने बंधु-वध सुन कौरव सेना में प्रलय मचा दिया था . दो को खोने का महादुख है .,..पर गर्व भी ...
सचमुच धनंजय, मेरी सपत्नियाँ मेरा सहारा रहीं  .मेरी अकेली के बस का कहाँ था तुम्हें सँभाले रखना ..'
' किसे सुखी रखा मैंने , क्या दे सका किसी को ?उलूपी, चित्रा दोनों एकाकी जीवन बितातीं रहीं ...और तुम्हें आजीवन विभाजित रहने का  का संताप !'
उसके नेत्र झुक गये , ' शिकायत नहीं कर रही फिर भी .तुम्हारे लिये  जितना चाहती हूँ नहीं कर सकती .'
'समझता हूँ  ..कह नहीं सकता प्रतिबंध है मेरे ऊपर, पांचाली ,अपने ढंग से नहीं जी सकता मैं ! '
' कोई तो समझता है ,यही बहुत है  मेरे लिये .'
'तुम्हें पुत्र-वध का बदला चुकाना है ,हताश हो कर मनोबल हत न होने दो .'
बातों-बातों में द्रौपदी ने अर्जुन के सम्मुख धीरे से पक्वान्न और पेय प्रस्तुत कर वार्तालाप के क्रम में ही उदरस्थ करा दिया .
'अपना प्रण पूरने के लिये ,दुख सहन करने के लिये, शरीर की  सामर्थ्य होना भी आवश्यक है ! '
***
 इरावान की मृत्यु पर भी व्याकुल हुये थे अर्जुन .पर आज उनकी पीड़ा सारे बाँध तोड़ बह निकली थी .
पाँच ही दिन तो हुये , राक्षस अलंबुश ने उलूपी-पुत्र का वध कर दिया था .
पुत्र-शोक के पहले अनुभव ने  उन्हें झकझोर दिया था.
युधिष्ठिर धैर्य देने का प्रयत्न कर रहे थे ,पार्थ के कान कुछ नहीं सुन रहे थे .भीम ,नकुल-सहदेव क्या कहें, क्या करें .हत्बुद्ध हो अपने आपको दोष देने लगते थे .
पार्थ चुप हो गये थे बिलकुल !

*36

उस दिन भी भाइयों के जाने के बाद पांचाली ही सँभाले रही थी.
सबसे बड़ी चिन्ता थी '  कैसा लग रहा  होगा उलूपी को !सांत्वना  देने भी नहीं जा सकता ..'
पांचाली  समझ रही है -उलूपी के प्रति अपराध-बोध जाग उठा है .
'इरावान , चंद्र-वंश और नागवंश का विलक्षण संयोग था उसमें. माँ हूँ मैं भी उसकी.'
शोक-ग्रस्त पत्नी का मुख कृतज्ञता से देख रहे हैं पार्थ !
अब तक कभी सपत्नियों के विषय में विस्तार से नहीं पूछा ,पर आज  वह सब कुछ कहलवा लेना चाहती है .चाहती है वे मन खोल कर अपनी बात कहें  .
उलूपी के साथ बीते पलों की स्मृति ताज़ा कराना चाहती है.कुछ तो आवेग शान्त हो मन का !
' सदा उत्सुकता रही थी जानने की कि कैसे तुम्हारा नाग-कन्या से मिलन हुआ ? वह तो ऐरावत वंश के कौरव्य नाग की अनुपम सुन्दरी पुत्री थी?तुम्हें कैसे हृदय समर्पित कर बैठी?'
विगत के पृष्ठ खुलने लगे -
'हाँ , उसका पिता कौरव्य , तक्षक नाग के अधीन था , वह कभी उलूपी को मुझ से  विवाह की सहमति नहीं देता. उलूपी यह समझती थी.
  पिता का विरोध जानते हुये भी उसने मुझे ,पाताल लोक ले जा कर  विवाह रचा लिया . ....और उस मानिनी ने कभी साथ रहने का आग्रह नहीं किया .अनुमान था उसे  पिता  किसी प्रकार  अनुमति नहीं देंगे .पांचाली ,काश ,अपने बाहु-बल से उसे ला सका होता .'
'स्वयं को दोष मत दो प्रिय, समय अनुकूल होता तब न !
हम लोग स्वयं ही वनवासी ,अज्ञातवासी रहे ....सोच भी कैसे सकते थे ,फिर तुरंत युद्ध की हलचल .. '
'सच में तो तुम गये ही थे शस्त्र और सहयोग की प्राप्ति हित .तुम्हारा यह बारह वर्ष का तप था.'
'फिर भी उसके साथ अन्याय हुआ ,उसका पहला विवाह निष्फल रहा था . पति की गरुड़ों ने हत्या कर दी थी.युवावस्था में एकाकिनी .और  फिर मेरे साथ  भी... कहाँ रह सकी ! '
'ओह,तो क्या कभी दाम्पत्य सुख न पा सकी उलूपी !' द्रौपदी करुणा से द्रवित .
आज सब कुछ पूछ लेगी ! पार्थ के मन की गहराइयों में दबी स्मृतियों को
उभारे बिना आवेग शान्त नहीं होगा .
कैसे मिलन हुआ था.उससे ,तुम तो तीर्थाटन पर थे ?'
 ' मैं तीर्थाटन करता हुआ गंगासागर पहुँचा था ,विश्रान्त ,अकेला ,इतना थकित-विभ्रमित कि गंगासागर तक पहुँच कर कहाँ बैठ गया या निद्रालीन हो गया मुझे कुछ सुध नहीं .
उस  अवसन्न स्थिति से उसने उबारा .
जब चेतना सजग हुई तो पाया किसी अद्भुत , विलक्षण सौंदर्य से युक्त, निराले सुख-सुविधापूर्ण कक्ष में पर्यंक पर .चारों ओर विलक्षण शान्ति ,संगीत लहरियाँ ,कैसे दृष्य और रंग जो कभी इस धरती पर नहीं देखे .चकित विस्मित मैं .तभी उसे देखा .वह सब कहने का विषय नहीं .नहीं ,नहीं व्यक्त कर पाऊंगा ,पांचाली ...'
उसने कहा ,'मैं तुम्हें यहाँ लाई हूँ ,वहाँ मगर-मच्छों ,या वन्य-पशुओं के ग्रास बन जाते ,या ..किसी वनचरी , निशाचरी ..को भा गये तो... '
पांचाली मुस्कराई  ,'भा तो तुम उसे गये थे .'
'बहुत मादक सौंदर्य था उसका .इतने दिन तपोवनों- पर्वतों की धूल फाँकने बाद ,विश्राम मिला था .मैं मुग्ध देखता ही रह गया .'
'बहुत स्वाभाविक है. कोई अपने आप को कितना बाँध कर रखेगा !'
मेरे प्रति प्रेम के कारण उसने सारे विरोध झेले ,मेरे मार्ग की बाधा कभी नहीं बनी  .अपने पिता के विरोध और तक्षक के कोप  को जानते हुये भी मुझसे विवाह किया .जानती थी कहीं से समर्थन नहीं मिलेगा ....कभी नहीं कहा कि वह क्या चाहती है.निस्स्वार्थ   !.अपने लिये कुछ नहीं चाहा..उसने कहा था ' यह मत समझना पार्थ, मैं तुमसे प्रेम का प्रतिदान मांगूँगी . कुछ नहीं चाहती तुमसे मैं ,बस मेरा मान रखना ...नागलोक के कितने वरदान सहज ही उपलब्ध कराये उलूपी ने .कभी भूल सकता हूँ ?'
'मैं प्रसन्न हूँ ,कोई तो है तुम्हारे प्रति पूर्ण समर्पित ..'
'बस अपने से तुलना नहीं, परोक्ष रूप में भी नहीं .मेरे ही कारण ..'
बीच में  बोल बैठी ,'इतना  संतुलन और संयम किसी पुरुष में दुर्लभ है  ,
'भाग्यशाली हो धनंजय .,तुम में  सामर्थ्य है वह सब धारण करने की ,' गहरी सांस लेकर बोली , ' तभी तो तुम्हें  सुलभ हो सका . '
धीर बँधाते बोली ,'तुम्हारे संकट काल में तुम्हारी रक्षा की ,तुम्हारी पत्नी थी ,मेरी भगिनी तो हुई .उस समय वह नहीं होती तो मेरा पार्थ..भटकते-भटकते कहीँ खो न जाता ..'
कुछ देर चुप ही रह गये वे फिर द्रौपदी बोली,
' चित्रा ने वभ्रुबाहन को वहाँ भेजा था , स्वागत के लिये ?
'हाँ वभ्रुवाहन ,मेरा पुत्र.मणिपुर नरेश  का उत्तराधिकारी वभ्रु ,उलूपी ने उसका मातृवत् सत्कार किया  .जननी के रूप मे उसकी जो देख-रेख की चित्रा भी उपकृत हुई .और वभ्रु उसे मातृवत् ..उतना ही मान देता है.'
वार्तालाप के बीच बार-बार  इरावान की चर्चा आती है ,द्रौपदी विह्वल हो उठती है.
आँखों के आँसू रुक नहीं पा रहे .पोंछती हुई कहती है
'नहीं  रोऊँगी , नहीं दुर्बल होने दूँगी तुम्हें .विश्वास करो उलूपी को यहाँ लाना है मुझे वीर-पुत्र की  जननी ..'.
 अंतस का हर भार बँटा लेना चाहती है . हाँ , कुछ भी गोपन न रह जाये !
 देर तक वह पूछती रही ,वह बताते रहे.
 पता नहीं कितनी रात बीत गई.
अंत में  पांचाली ने ही कहा,' कल का संग्राम सम्मुख है .उसका घात करनेवालों को पाठ पढ़ाना है.,अब शयन करो, सव्यसाची .'
*
(क्रमशः)



शनिवार, 14 अप्रैल 2012

कृष्ण-सखी - 33 & 34 .

33

*
साक्षात् काल- रूप धरे हैं भीष्म !
तुले हुये ,जैसे ललकार रहे हों पार्थ को .कब तक संयत रहोगे ? आज मुझसे निपटना ही पड़ेगा .पांचाल और मत्स्य सेना का भयंकर संहार .
दुर्योधन ने कहा था ,' पितामह, आप सेनापति हैं पर उनमें से एक का भी बाल बाँका नहीं हुआ अब तक..अगर आप के बस के बाहर हैं वे लोग, तो कर्ण को अनुमति दीजिये .कम पराक्रमी नहीं है वह ,साथ आने पर एक-एक ग्यारह हो जायेंगे .'
पितामह की मुद्रा बदल गई .
अनायास तीव्र हो उठे वे ,'बस अधिक मत बोलो ,सुयोधन .कोई आवश्यकता नहीं कर्ण की.या तो वे  पाँचो नहीं बचेंगे आज या स्वयं कृष्ण को अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने को विवश होना पड़ेगा .'
और वही कर दिखाया था पितामह ने .अद्भुत पराक्रम से भयानक संहार मचा दिया. पांडव सैन्य का अधिकांश नष्ट कर डाला .
रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं .जाने कहाँ की विद्युत्-गति समा गई है, जैसे आज ही सब कुछ निबटा देंगे .
कृष्ण विस्मित हैं !
अर्जुन को  प्रबोधित किया . वह पूरी  तत्परता और समग्र एकाग्रता से  नहीं डट सका.
 विवश कृष्ण उत्तेजित हो उठे 'ठीक है तुम नहीं तो मैं ही ..' और सुदर्शन धारण कर प्रस्तुत हो गये  .
अर्जुन को चेत आया ,अभिमंत्रित पाँच शरों का ध्यान आया .
'नहीं ,वासुदेव .विरत हो जाओ तुम रण से .मैं तत्पर हूँ . बस अब आगे नहीं , कोई सोच नहीं अब ....  पितामह का वचन पूरा हो .'
उनके तीर से छूटा एक बाण पितामह के चरण परसता सर्र से निकल गया .
जाग गये  जैसे ,मुख से निकला 'ओह ,तो आ गया पार्थ !'
सिर उठाकर देखा -
शिखंडी को आगे किये वो रहा अर्जुन !
शिखंडी सामने - उन्हें लगा अंबा खड़ी है .
कुछ स्वर कानों में गूँजने लगे -
'तुमने मेरे दो जन्म निष्फल कर दिये.मेरा नारीत्व दो कौड़ी भर भी नहीं तुम्हारे लिये .बड़ा अभिमान है अपने पौरुष का ?'
विगत घटनाक्रम नयनों के आगे घूम गया .
उसने कहा था ,'नारी तुम्हारे इंगितों पर नाचनेवाली कठपुतली नहीं है .स्त्री-पुरुष का संबंध क्या है ,तुम क्या जानो ! विरक्ति ओढ़नेवाले ,तुम क्या जानो प्रेम क्या होता  है !'
हाँ ठीक तो .कहाँ सफल होने दिया था स्वयंवर !
ऐसे ही तो अंधे धृतराष्ट्र के लिये सुदूर देश की विवशा गांधार-कुमारी  खोज ली.
 ये कन्यायें क्या चाहती हैं कभी जानने का प्रयत्न किया ?
 वे अध्याय सदा को अंकित हो गये, छप गये कथा की एक शृंखला बन कर .
पर अब जीवन से  बीत चुका है वह सब .
अनायास हाथ उठकर हिल गया जैसे पट पर अंकित अंक मिटा रहे हों !
असार है यह संसार ,माया के आवरणों से घिर कर कैसी  परिणति हो गई ,
 -सूर्यपुत्र ग्रहण-ग्रस्त .अग्निसंभवा- धूम्राच्छदित.श्यामांगिनी !
 स्वयं को  कौन जान पाता है -प्रभास नामी वसु की देवव्रत में परिणति और आगे निरंतर  बदलती  भूमिकायें !
  उन्होंने  क्षण भर कृतज्ञ नेत्रों से  देखा - तो कुन्ती-पुत्र मुक्ति दिलाने आ गये तुम !
ईषत् हास्य झलका अधर-कोरों पर .
*
पार्थ और शिखंडी तत्पर हैं .
पितामह ने संधान हेतु कोई प्रयास नहीं किया .
'सावधान !'
स्वर कानों से टकराये, उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ा . जस के तस.
 किसी ने पूछा ,'क्यों तात?'
'एक स्त्री  पर शस्त्र प्रयोग करे भीष्म ऐसी अनीति नहीं कर सकता .इतना.नीचे नहीं गिर सकता वह !'
शांत खड़े रहे पितामह .
फिर उन्होंने अस्त्र-शस्त्र रथ में डाल दिये  .
पार्थ और शिखंडी घनघोर  शर- वर्षा कर रहे हैं
शिखंडी आगे कवच बना-सा .
निरंतर आघातों से क्षत-विक्षत होता शरीर!
 भीष्म खड़े हैं ,प्रहारों के वेग से ,हिल जाते हैं बार-बार .झुक जाते हैं कभी दायें कभी बायें .
बस, अब अपने कर्मों का दण्ड ग्रहण कर ,शाप-मुक्त होने जा रहे हैं , तन के घोर कष्ट और मन की अशान्ति में भी एक अजाना-सा संतोष व्याप गया है.
रक्त-स्रवित व्रणों से श्लथ जीर्ण काया ! रण-भूमि में गिरने लगे वे ,किन्तु भू- लुंठित नहीं हुए  ,पार्थ के  संधान से अविरल शरों के पृष्ठों पर सध गये , मानो अर्जुन के धनुष से छूटे निकले शरों ने धरती में गड़ कर  उन्हें  शैयावत्  आधार दे दिया हो !
आठवें वसु  का नर-रूप !
वे सातों मुक्ति  पा गये ,माँ-गंगा ने उन्हें तुरंत शाप-मुक्त कर दिया .पिता शान्तनु ने मोह-डोर में बाँध जिसे  रोक लिया .वही अष्टम् वसु -देवव्रत !
 दीर्घ काल तक भीष्म बने , पितामह कहाते कुल के सूत्र सँभाले रहे . आज उस  अभिशप्त जीवन की अवधि पूरी होने जा रही है .
लगा नेत्रों में गंगा का जल लहरा आया  .
निश्चेत-से भीष्म शरों की नोकों पर पर टिके हैं.
हा-हाकार मच गया .
सेनापति विहीन कौरव सेना हतोत्साह  तितर-बितर होने लगी .
दुर्योधन को सूचना मिली .
जो कान सुनने को उत्कंठित थे कि पांडव मारे गये,उन्होंने सुना सेनापति पितामह घायल हत-चेत पड़े हैं.  कैसी अनहोनी!
 दुर्योधन  स्तब्ध !
*
34
युद्ध-क्षेत्र की संध्या -
पक्ष-विपक्ष के रथी-महारथी ,उपस्थित हैं -
रक्त-क्षीण भीष्म शर-शैया पर टिके हुये बार-बार शीष उठाते हैं कंठ उस भार से थकित बार-बार झुक जाता है .प्रयास पूर्वक साध लेते हैं वे .
'अब शीष साधे नहीं सध रहा. उसे भी अवलंब चाहिये .'
दुर्योधन ने आज्ञा दी उसके शिविर से  तुरंत  राजसी शिरोपधान लाया जाये .'
'नहीं !रण-क्षेत्र है यह.जैसी मेरी शैया है उसी के अनुरूप ....'
अर्जुन की ओर दृष्टि डाली .'मेरे शिर को भी साध दो , वत्स ,'
तुरंत धरती की ओर तीन शर छोड़े पार्थ ने ,और धरती में धँसे उन शरों के पृष्ठों पर  भीष्म ने शीष टिका दिया .
' बस अब कुछ नहीं चाहिये .'
सब धीमे स्वरों में अपनी-अपनी कह रहे हैं .
सुन रहे हैं वे ,स्वयं भी जानते हैं सेनापति के बिना सैन्य -संचालन असंभव है .दुर्योधन की दृष्टि कर्ण पर गई .कर्ण ने कुछ कहा .उसने आचार्य द्रोण की ओर संकेत किया - कुछ वार्तालाप मंद स्वर में .
द्रोणाचार्य सेनापति  बन उनके सम्मुख आये ,हाथ उठा कर आश्वस्त,किया पितामह ने .
शिविर में नहीं जायेंगे पितामह,वैद्य की भी कोई आवश्यकता नहीं .
इच्छा-मृत्यु का वर पाया है ,बस अब प्रतीक्षा -सूर्य के उत्तरायण होने की .
*
यहाँ आ कर किसे स्मरण रहता है कि वह क्या है !संसार के आवरण चारों ओर से लपेट लेते हैं और वह कर्तव्य समझ कर निर्वाह करने लगता है .
उन्हें कैसे ध्यान आयेगा पूर्व का वह घटना क्रम जब द्यौ, प्रत्यूष,प्रभास आदि आठों वसु भ्रमण करते करते ,वशिष्ठ मुनि के आश्रम पहुँच गये थे .
वहाँ की मनोरम दृष्यावली ने मन मोह लिया .
'कितनी सुन्दर गौ ,' द्यौ की पत्नी अचानक कह उठी .
 उस श्वेत सौम्य सुन्दर गौ को अपलक निहार रही थी वह.
'यही तो है ,मुनि की नन्दिनी ,जो भी माँगो प्रस्तुत कर देती है .मनोकामना पूर्ण करती है .'
'कैसी लुभा गई है ,'पत्नी को निर्निमेष उसे ही देखते पा द्यौ ने छेड़ा.
'हाँ लुभा गई हूँ !तुम ,वसु कहलाते हो ,ऐसी गौ मुझे नहीं दे सकते और वे मात्र मानव , उदासीन मुनि होकर भी उसके अधिकारी बन गये !'
 प्रभास सहानुभूतिपूर्वक बोले ,'तुम्हें चाहिये ?'
सातवें  प्रत्यूष का साहस बढ़ा ,'वनवासी, उदासी मुनि को इससे क्या काम ? चलो, हम लिये चलते हैं इसे .'
शेष पाँचो का हँसते हुये समर्थन - मुनि हैं,ऐसी ऐश्वर्यदायिनी,कामदा  गौ का क्या करेंगे !
प्रभास ने आगे बढ़ नंदिनी की पीठ थपथपाई ,कंठभाग पर हाथ फेरते ,पुचकारते रहे .फिर उसे आगे हाँक ले चले.
शेष सब उनके साथ चल पड़े .
जब मुनि को नंदिनी के ले जाने का समाचार मिला ,वे व्याकुल हो गये .
जानकारी मिली कि आठों वसु आये थे, हाँक ले गये . तब क्रोधित हो कर शाप दिया ,' जाओ,अब तुम सब जा कर मृत्युलोक में  जन्म लो.'
वसुओं को  शाप की बात पता लगी ,घबरा गये .दौड़े मुनि के पास .
बहुत अनुनय-विनय, क्षमा-याचना  करने पर उन्होंने  समाधान दिया - 'यदि कोई नारी तुम्हें गर्भ में धारण कर जन्म लेने के बाद  जल में बहायेगी तब तुम्हारी मुक्ति होगी .पर सबसे उत्पाती वसु प्रभास को मृत्यलोक में बहुत दिन रहना होगा .'
वही प्रभास .गंगा के आठवें पुत्र !
सात वसुओं को जन्म देकर वे प्रवाहित कर चुकी थीं .आठवीं बार ,राजा शान्तनु सह न सके .अधीर हो  मार्ग रोक कर खड़े हो गये,' नहीं .इसे नहीं .छोड़ दो इसे .पुत्र है मेरा, नहीं ,जल-समाधि नहीं देने दूँगा .'
रुक गईं गंगा और वचन-भंग के परिताप के कारण  पुत्र को ले  उन्हें त्याग कर चली गईँ.
कुछ समय बीता ,शान्त होने पर शान्तनु के बहुत अनुनय करने पर गंगा ने  पुत्र उन्हें प्रदान कर दिया -यही देवव्रत!
देवव्रत ,घोर प्रतिज्ञा-बद्ध  भीष्म !
उन्हें कहाँ कुछ  भान होगा कि वे अष्टम् वसु हैं ,अभिशप्त जीवन व्यतीत करने धरातल पर आये हैं .
 जिस आठवें वसु को गंगा-माँ ने देवव्रत अभिधान दिया था ,संसार  की रीति-नीति और आदर्शों से आवेष्टित होने लगा .पितृ-मोह ने उसे भीष्म बना दिया और अगली पीढ़ियों ने पितामह - तथाकथित  कुरु-कुल के सिंहासन का संरक्षक !
वही आज शर- शैया पर  पड़े हैं ,
सबसे बोलते-बात करते हैं ,लेकिन मन का एक भाग कहीं खोया रहता है .
कभी अचानक चौंक उठते हैं .
*
इस लोक में आकर देवव्रत को संबंधों का भान हुआ. सांसारिक कर्तव्यों का चेत जागने लगा,वंशानुक्रम और वातावरण के निरंतर लगते ढबकों से ढलने लगे वे.यहाँ तो व्यवस्था-व्यथा ही व्यक्ति की निर्धारक हो जाती है.सोच भी उसी अनुरूप बनने लगता है .
एक बार प्रारंभ हो जाये परिवर्तन का क्रम, तो रुकता कहाँ है.अपनी  ही मान्यताओं में रमा , अपनी औचित्य-नीति  से संचलित कार्य-व्यापार बढ़ता चला जाता है .
कोई बड़ा झटका अंतरात्मा को झकझोर दे तो चौंक कर चेतने लगता है प्राणी !
 वही हुआ गंगापुत्र के साथ .
पांचाली के शब्द -उन्हें याद आ रहे हैं -
 'कठिन व्रत पाला उन्होंने ,लेकिन किसका हित संपादित हुआ ?कौन से उच्च उद्देश्य की पूर्ति हुई ? वृद्धावस्था में पिता की भोग-लिप्सा पूरी करना यही महत् उद्देश्य !उस तृप्ति के लिये कितने निरपराधों को वंचित किया ....'
उसी ने कहा था -
 'एक के महानता -अर्जन के लिये कितनों को अपनी स्वाभाविकताओं की आहुति देनी पड़ती हैं ,.कितने पात्रों को रिक्त रह जाना पड़ता है .कितनों को बलि का बकरा बनना पड़ता है. ''
और आज शर-शैया पर ..
प्रायश्चित करते पितामह पड़े हैं - सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में .
*
(क्रमशः)






सोमवार, 9 अप्रैल 2012

सावधान ,वे सड़कों पर घूम रहे हैं


*
फ़िल्में और उनके गीत ,हमारे शयन-कक्षों और ड्राइँग रूम्स का हिस्सा बन चुके हैं .मुंबइया हिन्दी  हमारी भाषा में छौंक लगाने लगी  है (बिंदास ,मवाली,काय कू आदि  ). देर-सवेर .स्वीकारना पड़ेंगे ही
एक और वर्ग है जो अंदर घुस आनेकी फ़िराक में सड़कों पर पर घूम रहा है .खीसें निपोरते बार-बार अंदर तक चक्कर लगा भी  जाता है  ,वो तो हमीं लोग हैं जो पैठ बनाने नहीं देते ,टरका देते हैं .
इनकी  रूप-रचना  का काम हमारी कामवालियों ने किया है .घर में झाड़ू-पोंछा ,चौका बर्तन ,कपड़े धोना आदि काम ही नहीं सब देखती -समझती हैं .उनकी निरीक्षण क्षमता गज़ब की है और टीवी की कृपा से उनका मानसिक स्तर और विकसित होता जा रहा है ,रहन-सहन बोल-चाल सब पर दूरगामी प्रभाव !
आपने 'फर्बट' शब्द सुना है ?
हम तो इनके मुख से बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं .
अपनी कोई साथिन जब उन्हें अपने से अधिक चाक-चौबस्त लगती है तो चट् मनोभाव प्रकट करती हैं ,'अरे, उसकी मत पूछो ,क्या फर्वट है !'
इस युवा पीढ़ी का अर्थ-बोध और मौलिक उद्भावनाएं गज़ब की हैं
फर्वट - इसका मतलब है फ़ारवर्ड !
और फिरंट का मतलब जानते हैं ?
जो अपने से आगे बढ़ी हुई लगे उसे कहेंगी 'फिरंट'(फ़्रंट से बना है)-इसमें थोड़ा तेज़-तर्राक होना भी शामिल है.
'टैम' ने समय को विस्थापित कर दिया है ।और माचिस ! दियासलाई है भी कहीं अब ?
सलूका ,अँगिया आदि वस्त्र ग़ायब हो गये उनका स्थान ले लिया है ,ब्लाउज ,आदि ने।
हमारे एक परिचित हैं अच्छे पढ़े-लिखे उनका कहना है स्टोर्स में लेडीजों का माल भरा पड़ा है. एक दिन बोले हमारा पप्पू शूज़ों का बिज़नेस करेगा .
शूज़ों का बिज़नेस - यह भी सही है! शू का मतलब तो एक पाँव का एक जूता जब कि जूते हमेश दो होते है- शूज़ : और उसका बहुबचन शूज़ों ठीक तो है .
लेडीज़ों भी सही -अकेली स्त्रियाँ कहाँ मिलती हैं अब? दो-तीन साथ में. एक झुण्ड में लेडीज़ और  झुण्डों का बहुवचन लेडीज़ों ही तो .
थालियों में कौन खाता हैं सब पलेट में खायेगे ,चाहे फ़ूलप्लेट हो या छोटी पलेट .
अपनी हिन्दी  बदलती जा रही है  अब तो.
अंग्रेज़ी भाषा की तो बात ही मत पूछो ।अनपढ़ लोग, गाँव के वासी यहाँ तक कि महरी ,जमादारिन मालिन सबके सिर चढ़ कर बोल रही है ।
हमारे यहां एक प्रकार का मिल का कपड़ा होता है (लट्ठा).
अंग्रेज़ लोग तब लांग्क्लाथ कहते थे ,अपने देसी लोग 'लंकलाट' कहने लगे . चल पड़ा शब्द.
इसी प्रकार कैंपों में जब अंग्रेज़ संतरियों को किसी के उधर होने का संदेह होता था तो
ज़ोर की  आवाज़ लगाते  ,'हू कम्स देअर ?'
हमारे चौकीदार ने अपने हिसाब से शब्द पकड़ लिये 'हुकम ,सदर !'
एक बार मुझसे किसी ने  कहा - ये 'फ़ालतू' ''अफ़लातून' से बना है ..'
मेरे तो ज्ञान-चक्षु खुलने लगे .
अपने बचपन की बातें भी कोई भूल सकता है
हमें भी याद है - सुनते रहते थे उर्दू और हिन्दी में खास अंतर नहीं है. म.प्र में थे हम . वातावरण में हिन्दी अधिक थी ,उर्दू से दूर का वास्ता और संस्कृत पूजा-पाठ और विशेष अवसरों मंत्र पाठ स्तुतियों आदि में सुनने को मिल जाती थी..तो हमने समझने का  आसान तरीका निकाला था.--क,ख,ग,ज फ वगैरा के नीचे बिंदी (नुक़्ता) लगा दो ,और गले से ग़रग़रा कर बोलो तो उर्दू होती है .
स्कूल में कोई तर्जनी दिखा कर  कह दे आइन्दा ...'तो दम खुश्क हो जाता था. कि जाने कितनी खतरनाक बात कही गई .
और संस्कृत ! हिन्दी शब्द के अंत में म या न लगा कर उस पर हल लगा दो हो गया काम  (सुन्दरम्,आनंदम् ,वरम्,निकंदनम् सब हलन्त हैं).और उन्हें गा-गा कर पढ़ो तो संस्कृत हो गई .
पर ये तो पुरानी बातें है.
अब देखिए , अच्छे-पढ़े लिखे लोग सफ़ल लिखते हैं ? सफल लिख-बोल कर  कोई अपनी हेठी क्यों कराये ?
अब मालिनें भी फूल नहीं 'फ़ूल' बेचती हैं -फ बोलने से जीभ में झटका लगता है फल नहीं फ़ल खाना सभ्यता का लक्षण है.
अभी से सुनना-समझना शुरू कर दीजिए. नहीं तो पिछड़ जाएंगे .कुछ दिनों में ये शब्द साहित्यिक प्रयोगों में आने लगेंगे .क्योंकि पुराने तो विस्थापित होते जा रहे हैं ,लोगों को दुरूह लगने लगे हैं ,उनकी अर्थवत्तापर संकट आता जा रहा है .और ये नये टटके शब्द जनभाषा के हैं ,साहित्य को जनभाषा में ला कर उसे जनता के लिए अति बोध-गम्य बनाने का प्रगतिशील विचार इन्हीं को सिर-आँखों धरेगा .आपके आस-पास भी कुछ  घूम रहे होंगे, ध्यान दीजिये पकड़ में आ जायेंगे ..
मेरी समझ में एक बात आती है जब तक इस वर्ग की उपस्थिति समाज में बनी रहेगी .भाषा उनके अनुकूल ढलेगी .ढलेगी तो चलेगी ,और चलेगी तो इधर-उधऱ पहुँचेगी .घरों में, बाज़ारों में  वर्ग के साथ वह भाषा आयेगी ज़रूर .
जनता बोले वही असली भाषा - आगे तो वही चलबे करेगी !
*
- प्रतिभा सक्सेना.

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

कृष्ण-सखी .31 & 32 .



31.
 व्यग्रता  से  पांचाली के पीछे बारादरी में निकल आये थे पितामह.
 जनार्दन को देख विस्मयाभिभूत  से  कुछ  पल  खड़े रह गये . आगे के  घटनाक्रम की भावाकुलता में अभिव्यक्ति का लोभ संवरण न कर सके .
कृष्ण के साथ पांचाली बाहर निकल गई,यंत्र-चालित से वे द्वार तक आ पहुँचे .
प्रहरी द्विधा में .
'विश्राम करें ,पूज्यवर ,'
'हूँ ऊँ ,' वे खोये-से बाहर देख रहे हैं .
पितामह की देह-यष्टि सीधी ,प्रलंब भुजायें ,केशों का रजतवर्ण और स्थिर नेत्र-दृष्टि .अभी भी इतने सबल कि दो योद्धाओं को एक साथ पटक दें .
वे दोनों  आगे मोड़ पर ओझल हो गये  .
पितामह .कुछ क्षण चुप रहे ,फिर बोले ,'बड़ी घुटन है शिविर में ,ज़रा बाहर खुले में भ्रमण करना चाहता हूँ.''
'मैं साथ चल रहा हूँ पूज्यवर ,अंधकार बढ़ रहा है .'
'नहीं तुम  रुको .,मैं यहाँ आस-पास ही हूँ .'
वे निकल गये.
बाहर तारों का मद्धिम उजास .
वे मंद  स्थिर पग धरते बढ़ चले .
युद्धक्षेत्र से हट कर पगडंडी ,आगे दूसरे शिविर की ओट से घूम कर आगे बढ़े .कुछ वार्तालाप की ध्वनियाँ कानों से टकराईं .
मन का कौतूहल जाग उठा .
  वृक्षों की छाँह से भरा  अँधियारा और  सघन हो आया था .युद्ध-भूमि में रात्रि का सुनसान प्रहर .कभी-कभी  किसी घायल के कराहने की ध्वनि पवन के झोंकों के साथ तैर आती थी .
पास ही मानव-स्वर सुनाई दे रहा है -मध्यम ध्वनि में अस्पष्ट से संवाद .
 वे सतर्क हुये - इस बेला यहाँ क्या चल रहा है ?
संशय में  तेज़ी से पग बढ़ाते वे उधर बढ़े .
मुकुन्द और पांचाली ,वार्तालाप में लीन मंद गति से बढ़े जा रहे थे .ध्वनियाँ पहचान में आने लगीं .
..'नहीं..नहीं तो ,मैं  महान् नहीं बनना चाहती ! सहज- सामान्य नारी  रहने दो मुझे ....'
 हवा के झोंकों में हिलते पत्तों की झर-झर में आगे की कुछ बातें बात अस्पष्ट रह गई .
फिर कृष्ण के  स्वर --
'...क्या कुछ नहीं करना पड़ा  ! पितामह की  निष्ठा ...उनका कठिन व्रत !'
'पितामह' सुन कर वे चेत गये .उत्सुकता से कान उधर ही लगा दिये .
कृष्णा बोल रही थी ,' कठिन व्रत पाला उन्होंने ,लेकिन किसका हित संपादित हुआ ?कौन से उच्च उद्देश्य की पूर्ति हुई ? वृद्धावस्था में पिता की भोग-लिप्सा पूरी करना- यही महत् उद्देश्य !उस तृप्ति के लिये कितने निरपराधों को वंचित किया ....'
 'वंचित किया. किसकी बात कर रही हो ?'
'माधव !अधिक कहलवाओ मत ,प्रकृति के नियमोल्लंघन का यही परिणाम होता है .'
परिणाम से क्या तात्पर्य है तुम्हारा..?'
'बुढ़ापे की बढ़ती असंयमित वासना पूर्ति-हित युवा पुत्र का ब्रह्मचर्य व्रत !  प्रकृति के प्रतिकूल जाने से  विकृति ही पनपेगी ! इसी अस्वाभाविकता में आगत संतानें तन-मन दोनों से अस्वस्थ रहीं .अनिष्ट की भूमिका तो वहीं से बनने लगी.उस के साथ जुड़ते   कितनों के आचरण कलुषित हुये, बुद्धि भ्रष्ट हुई , इस सबका दायित्व किसका ?'
चुपचाप सुने जा  रहे हैं भीष्म !
'...और अब ,पीढ़ियाँ उस महानता का मूल्य चुका रही हैं.
नारी पर अन्याय होते देख तुम्हारा हृदय विचलित हो जाता है गोपेश ,.तुम्हें कभी नहीं लगा कि यह अनुचित है अन्याय है ? उन तीन कुमारियों का स्वयंवर  विद्रूप बन कर रह गया. नारी की बात आती है तो तात किस किस सीमा तक संवेदनाहीन हो जाते हैं .'
कुछ क्षणों की चुप्पी असह्य लगने लगी भीष्म को, वे अस्थिर हो उठे.
' अब मौन क्यों हो ,पार्थसारथी .'
'वहाँ मेरा कोई वश नहीं था पांचाली .पर देखो  न आज वही नारी पितामह से प्रतिशोध लेने आई है . अब उनका पौरुष उसके सम्मुख लाचार है .'
द्रौपदी ,चुप नहीं रही -
' न  स्वयं स्वीकार किया ,न किसी के योग्य रहने दिया .निष्फल नारीत्व. देख लो ,क्या  बन बैठा .किसके कारण ?'
पितामह का शीष झुका है . दीर्घ निश्वास छोड़ा उन्होंने .
मन किया लौट चलें .पाँव मन-मन भर के हो गये .
नहीं,सुन लूँ ,ये कटु सत्य भी ..
गिरिधारी ने कुछ कहा  ,हवा के झोंकों और तरु पातों की मर्मर में स्वर डूब से गये  .
' महानता का लोभ !मुझे लगता है जीवन की  स्वाभाविकता ही सबसे बड़ा वरदान ..
सृष्टि संचालन के   ऋत नियम का उल्लंघन करके क्या मिलेगा !'
तात विचार मग्न थे -ऋत नियम!
पांचाली के बोल हैं या तात का अपना अंतर गुंजित हो रहा है -
'हाँ  सृष्टि के रक्षण-पोषण और विकास के लिये  .जीवन की निरंतरता  के साथ उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करने के लिये   .उनके विपरीत हठ , सहज  प्रवाह में व्यतिक्रम तो आयेगा ही.. '
 बुद्धिमती है याज्ञसेनी.
यह बात मन में उठी थी क्या पहले कभी ?
'एक के महान् बनने का मूल्य कितनों से वसूला जाता है .और क्या उपलब्धि रहती है उस  की ?
कृष्णा कहे जा  रही थी -
'.अविकृत वंश-बेल चलाने का दायित्व किसका था ?पुत्र का कर्तव्य निबाहते.
पिता के प्रति निष्ठा थी तो माता की बात मान कर स्वयं नियोग करते. मैंने तुमसे ही सीखा है रणछोड़ ,किसी बड़े कल्याण के  हेतु वचन-भंग  में अहं को आड़े न आने देना  ?...कभी अपने यश-अपयश की चिन्ता की तुमने ? सचमुच , उनकी महानता से बड़े मुझे तुम लगते  हो .'
'मैं और यश ! ' लगा कृष्ण हँस रहे हैं,
' मेरे लिये तुम्हारा पक्षपात बोल रहा है .'
'नहीं खरी बात.'
भीष्म भीतर तक हिल गये !
 हवा चलते ही पत्तों की मर्मर  में शब्द खो जाते हैं.
सुनने में बार-बार व्यवधान आ जाता है .
' दोनों लाचार  अभागी वधुयें प्रसन्नता से स्वागत करतीं ,समर्थ संतान जन्म लेती .कुल की रक्षा होती .पर वहाँ प्रण आड़े आ गया . महानता  बाधित हो जाती न !'
ओह पांचाली !
वह बोल रही थी-
'कौरवों के लिये भी तो पितामह का संरक्षण ,चाहे विवशतावश ही किये हों, उनके अनुमोदन , उन्हें किन राहों पर ले गये ?'
कृष्ण चुप हैं .नहीं कुछ बोल रहे हैं .
वार्तालाप की ध्वनियाँ अति  मंद हो गईं .
अंधकार सघन हो उठा था
दूर से आती श्वानों और सियारों की आवाज़ें रह-रह कर सुनसान  को भयावह बना रहीं थीं.
किसी पाहन  से पग टकराया,.पितामह सँभले,.कुछ पल खड़े रहे अंधकार तकते,
फिर लौट पड़े .
*
32.
'आपने स्मरण किया था  तात ?'
 शिविर में प्रवेश कर अभिवादनपूर्वक प्रणत हो धनंजय ने पितामह को संबोधित किया.
 'हाँ पुत्र .जब भी अपने हित का कुछ करवाना चाहता हूँ तुम्हें स्मरण करता हूँ... .
और सब तो यहाँ  अपने-अपने में लीन ,किसे अवकाश है इस वृद्ध की सुध लेने का !'
'आज्ञा दें पितामह .'
भीष्म उन्मुख हो कर भी मौन, कुछ द्विधा में .'
प्रतीक्षा कर रहे हैं अर्जुन .
कल रात्रि ही  द्रौपदी ने  सूचना दी थी कि पितामह ,स्मरण कर रहे थे .
रात्रि को बिदा लेते समय कृष्ण  ने भी कहा था, 'मित्र,पितामह तुमसे कुछ कहना चाहते हैं .'
उन्हें आभास था द्रौपदी को दिये गये वचन की डोर में बँधे  पितामह अब स्वयं पार्थ को उचित उपाय बतायेंगे .
'अच्छा हो कि कल प्रातः ही... .'
और अर्जुन उपस्थित थे पितामह के शिविर में
भावाकुल शब्द पितामह के मुख से निस्सृत होने लगे -
'बहुत बड़ा भार  है मन पर .किसी से बाँट नहीं सकता ,कह नहीं सकता .पुत्र, मैं तो किसी के सामने अपना पछतावा भी व्यक्त नहीं कर सकता .'
 विस्मित-से अर्जुन .
'आप जैसे ,दृढ़ संकल्पी इस प्रकार विचलित न हों .आपने कब अपना स्वार्थ  साधा ?  सब के हित-संपादन में जीवन लगा दिया  .यह सोच आपके  उपयुक्त नहीं .'
'किसका हित संपादित कर पाया ?...क्या सार्थक किया मैंने ?जब  विचार करता हूँ तो निराशा ही हाथ आती है .'
'सब-कुछ आपका ही किया हुआ है तात,किस में इतनी सामर्थ्य थी कि इतना शक्तिशाली ,सुदृढ़ साम्राज्य खड़ा करता .कोई आँख टेढ़ी कर देख नहीं सकता .सब आप का ही प्रताप .'
'मेरा प्रताप?मैं विगत पीढी़ ,अगली पीढ़ी अधिक समर्थ और तेजस्वी हो यह व्यवस्था कर पाया क्या ?..जिसके हाथों  सब सौंप जाने का विचार करता हूँ वह इस योग्य है क्या --अब तो यही प्रश्न बारंबार कुरेदता है .मेरी  सारी दृढ़ता भरभरा कर ढह जाती है, वत्स.'
पार्थ का शीष झुका रहा.
'मेरे संरक्षण में कितने कार्य मर्यादा के अनुकूल हुये कितने प्रतिकूल !सब में मेरी मौन सम्मति .दायित्व मेरा था .किस दिशा में घटना-क्रम ले गया . मैं रोक सकता था .मैं अड़ जाता .मैं साक्षी नहीं बनता .कह देता अन्याय नहीं देख सकता .चला जाऊंगा.  तो औरों का साहस कितना था ? पर ..
पर ,अब कुछ नहीं .अब घटना-क्रम मोड़ना मेरे हाथ में नहीं.फिर भी अनर्थ रोकना चाहता हूँ .'
गला कुछ भर- सा आया  ,गीलापन घुटक कर बोलने लगे ,
' तुमसे विनती करता हूँ... , '
पार्थ  बीच में बोले बिना न रह सके , 'नहीं तात आज्ञा .आपकी आज्ञा ..'
बोलने से पहले गले में फँसी साँस को सहज किया तात ने ,
'मैं स्वयं बताना चाहता था ,वत्स .'
मनोयोग से सुन रहे हैं अर्जुन .
'बहुत जीवन जी लिया...देख लिया बहुत कुछ ..मृत्यु अवश्यंभावी  है,'
 वे चुप हुये कुछ क्षण,
'प्रस्थान से पूर्व कुछ प्रायश्चित कर सकूँ, पांचाली के प्रति अपराध-बोध भी कम होगा ,और जिनके साथ अन्याय कर बैठा हूँ ,उन्हें भी कुछ शान्ति मिले ..'
अर्जुन स्तब्ध .ऐसा तो कभी नहीं देखा था.कुछ नहीं बोलते थे तो भी उनकी मुद्रा सभी के  नियंत्रण हेतु पर्याप्त होती थी  .वह तेजस्वी व्यक्तित्व कैसा निरीह-सा हो उठा है .क्या हो गया पितामह को ?
 आज स्वयं को संयत नही कर पा रहे ,क्या हो गया तात को ..?.
'बैठे रहो  पुत्र,..तुमसे बहुत कुछ कहना है आज.'
चुप बैठे हैं  पार्थ .
युद्ध के सेनापति ,ऐसे हताश-विवश  जब कि रण-भेरी बजते ही सन्नद्ध हो कर नेतृत्व करना ,संचालन की बागडोर सँभालना उन्हीं का दायित्व !
और फिर एकदम  याद आया पार्थ को , तात का प्रण .पाँच अभिमंत्रित  तीर और पाँच पांडव!
हत्बुद्ध हो देखते रहे .
  ..इतना म्लान और हत कभी नहीं देखा था उन्हें.
मन उमड़ पड़ा,चुप न रह सके -
'कुछ अस्वस्थ  हैं पितामह ?'
 दोनो हाथों की  अँगुलियाँ आपस में फँसाये वे  बार-बार चलाने लगते हैं .
बड़े अस्थिर लग रहे हैं .
अर्जुन उत्तर  सुनने की  प्रतीक्षा में.
'सुनो पुत्र ,आज तुमसे बहुत आवश्यक बात कहनी है ...मैं दोंनो ओर से  वचन बद्ध हूँ .'
मुझे क्या आज्ञा है पितामह?'
'सुनो अर्जुन .मेरा वचन तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक मैं युद्ध में डटा हूँ .
मुझे इच्छा-मृत्यु का वर प्राप्त है ..युद्ध से मेरा मन विरत हो गया है .
जीवन में बहुत से अकार्य किये अब कुछ प्रायश्चित करना चाहता हूँ .'
'तात ,अस्वस्थ हैं आप ?'
'पुत्र ,मन अत्यंत अस्वस्थ है .अब कुछ मत पूछो .मैं कहता हूँ वह सुनो .'
कुछ थम गये वे , फिर तत्पर हो आगे बोलने लगे-
' शिखंडी नारी है .अंबा अपना प्रतिशोध लेने जन्मी है .मुझे उसके नयनों में  वही भाव , वही दृष्टि दिखाई देती है ,मुझसे शिकायत करती  हुई ,,मुझे धिक्कारती हुई  ..मैं नहीं शस्त्र उठा सकूँगा उस पर .'
थक गये थे वे .विश्राम हेतु रुके ,
जीवन भर अंतरात्मा की पुकार दबाकर जिसके संरक्षण का व्रत लिया ,आज उसकी व्यर्थता समझ में आ रही है .अब मुक्ति चाहता हूँ .
'शिखंडी ..' उनने कहा फिर चुप हो गये कंठ को खखार कर साफ किया ,'शिखंडी पूर्वजन्म  में नारी था ,काशिराज की कन्या अंबा .मेरे कारण  उसका जन्म व्यर्थ गया .वही शिखंडी हो कर जन्मी है . मैं जानता हूँ , मुझे उसमें वही अंबा दिखाई देती है .मैं उस पर शस्त्रघात नहीं कर पाऊँगा . कल उसे सामने कर देना पुत्र ,तभी तुम ...तभी तुम मुझे गिरा पाओगे .अन्यथा ...'
व्याकुल से पार्थ बोल उठे ,'नहीं ,तात ,मुझसे नहीं होगा ...'
'तुम्हें करना होगा.मुझे मुक्ति दिला दो पार्थ.जीवन की अस्वाभाविकताओं से ऊब चुका हूँ .
और मुझे अपने उन ,माता सत्यवती को दिये, वचनों की रक्षा हेतु .जो  करना होता है  अंतरात्मा उसकी  गवाही नहीं देती .मुझे छुटकारा चाहिये अब .'
अर्जुन स्तब्ध .क्या बोलें समझ नहीं पा रहे .
'नहीं, अब सहन नहीं होता ..पुत्र...कल वही करना है तुम्हें जो मैंने कहा .'
चुप हैं अर्जुन .
'मौन रहने का समय नहीं है . बोलो , पार्थ,बोलो .'
वे जानते हैं अगर कल उन्होंने पांडवों को नहीं गिराया तो दुर्योधन का सामना कैसे कर पायेंगे ,.और इधऱ द्रौपदी को दिया अमोघ आशीष !
'अब मुझे मुक्ति चाहिये .बहुत बोझ है ,कुछ प्रयश्चित कर लेने दो  .मुझे कुछ तो हल्का होने दो! वचन दो मुझे ,तभी निचिंत हो पाऊँगा .'
तुम पाँचो को जीवित रहना है भविष्य के लिये , न्याय -नीति के संरक्षण के लिये ...मेरा आशीर्वाद फलेगा  तभी न..'
'तात..'
विवश से बोल फूटे ,'करूँगा पूज्य .आपकी आज्ञा पूरी करूँगा .'
उदास सी स्मिति भीष्म के अधरों पर झलकी .'
'विजयी हो पुत्र,चिरायु हो !'
*
 संध्या होते ही  परिचारिका के साथ भानुमती आई थी तात सरस्वती के तट पर संध्या-वंदन कर लौटे नहीं थे .कुछ देर शिविर में बैठी रही  फिर लौट गई .
दुर्योधन निश्चिंत था ,बस दो दिन की बात .
*
(क्रमशः)