23.
कैसे भूल सकती है उन घटनाओं को जिनने जीवन की धारा को एकदम मोड़ दिया
उस गर्हित कांड के बाद सब कुछ अतीत कर जब वे इन्द्रप्रस्थ के लिये प्रस्थान करने लगे तभी महाराज धृतराष्ट्र के भेजे दूत उपस्थित हुये .
'आपके ताऊ-श्री ने बड़े नेह से आग्रह किया है जो पिछले दिनों हुआ .बहुत अनुचित हुआ ,उनका मन खिन्न है .चाहते हैं कुछ समय शान्ति -स्नेह पूर्वक साथ में बीते .अनुज का ध्यान आता है तो अंध-नेत्रों से अश्रु-पात होने लगता है .उनका चित्त बड़ा अशान्त है ,बहुत व्याकुल हैं. उनकी हार्दिक इच्छा है कि आप लोग ,अच्छे वातावरण में ,प्रसन्न मन से कुछ दिन उनका आतिथ्य स्वीकार कर उन्हें सुख दें .'
'कृपया रथ लौटा लें . ऐसी विषण्ण मनस्थिति में उन्हें छोड़ कर न जायँ .'
'वे युवराज दुर्योधन से विशेष असंतुष्ट हैं .'
'हमारा आग्रह नहीं मानेंगे तो स्वयं महाराज आपसे विनती करने पधारेंगे, श्रीमन् !'
पाँचो भाई एक दूसरे का मुँह देख रहे हैं .यह कैसा विचित्र व्यवहार !
युधिष्ठिर सोच-मग्न थे -उन चारों को फिर से रुकने की बात अरुचिकर लग रही थी .वे अनेक प्रकार से परस्पर अपने मत व्यक्त कर रहे थे .
और पांचाली स्तब्ध .इतना सब-कुछ हो गया और फिर वही प्रस्ताव !
वह तो पल भर नहीं रुकना चाहती .जाना चाहती है अपने पुर में .बहुत कुछ बीत चुका है उसके ऊपर से .अपने निवास में रहना चाहती है जहाँ केवल उसका परिवार हो .चुपचाप शान्ति से बैठकर कुछ विचार करना चाहती है .बार-बार अकुलाते मन को स्थिर करना चाहती है .आतिथ्य ग्रहण करने की मनस्थिति नहीं है उसकी .
अर्जुन ने कहा था ,''फिर वही आमंत्रण ! उनके छल-कपट से कौन अनजान है . कितनी बार उनकी चाल में आ चुके हम लोग .वो तो ये कहो सावधान करने वाले थे तो हम जीवित हैं आज .वे हमें अपने रास्ते हटा कर अपना अधिकार पूरी तरह निष्कंटक करना चाहते हैं .''
' हर प्रकार से हमें वंचित कर अपना वर्चस्व स्थापित करने की उनकी योजना है .'
चारों भाई विविध प्रकार से अपनी अनिच्छा-आपत्ति व्यक्त करते रहे ,
युठिष्ठिर सबकी सुनते रहे .
'कुछ लोग हैं ऐसे ,पर सब नहीं .हमारे प्रति सद्भाव भी तो है लोगों में ,विदुर चाचा तो कभी उनकी ओर नहीं झुके .ताऊ-श्री के हृदय में हमारे लिये नेह ने ही हमें इन्द्रप्रस्थ जैसे समृद्ध राज्य का अधिकार दिया .और पितामह ,उनके लिये तो मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता.. '
सबको लग रहा था ,जी नहीं भरा अभी तक बड़े भैया का .इतना देख-सह कर भी सावधान नहीं हुये .
पांचाली सोच रही है जो ग़लत है ग़लत ही रहेगा .जब बोलेंगे ही नहीं तो चलती रहेगी उनकी मनमानी .
वे लोग इनकी दुर्बलता को जानते हैं - ये उनका विरोध नहीं करेंगे .
उसे लग रहा था पता नहीं आगे क्या खेल रचेंगे वे लोग ,और ये धर्मराज बड़े आज्ञाकारी बने ,उन की चाल में आ जायेंगे .
उन लोगों से, जिनने सदा बैर साधा ,चालें खेलीं ,नीचा दिखाया उन्हीं से घिरे रहेंगे वहाँ .हमें क्या करना है ,सब मिल कर निर्णय क्यों नहीं लेते .सहधर्मिणी से,नहीं तो भाइयों से ही बात कर लें उनका मत ,उनके विचार भी जान लें .
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24.
सहधर्मिणी ? अचानक ही कुछ चुभ उठा अंतर में .
जब दाँव पर लगा कर हारे तभी पति होने का अधिकार छोड़ दूसरों को सौंप दिया था .
धर्मराज बताओगे .दाँव जीतनेवालों से जब स्वतंत्र कर दिया गया मुझे, तब क्या दुबारा .,अब मैं तुम्हारी क्या लगती हूँ ?
कभी पूछ सकेगी क्या ?
वे चारों तो इस प्रश्न के घेरे में आते ही नहीं.
किससे कहे अपनी बात ? बस एक है जिसके सामने मन की द्विधा व्यक्त कर सकती है .
कृष्ण की बहुत याद आ रही है .
भीम के स्वर कानों में पड़े ,''सद्भावना पूर्ण मन-रंजन नहीं, खेल नहीं , कुचालें है उन सब की ,दुर्भावनाओं का खुला खेल ,और हमें वंचित करने का पूरा षड्यंत्र . और सब जान कर भी वहाँ हमारे गुरु-जन चुप रहते हैं .'
अर्जुन भी चुप न रह सके ,' पितामह की तेजस्विता पर ग्रहण-सा लग जाता है .मुद्रा से आभास होता है पर उनका असंतोष कभी मुखर नहीं होता .ताऊ-श्री को अपने श्यालक,शकुनि के आगे कभी मुँह खोलते नहीं देखा ,और दुर्योधन की चौकड़ी के प्रमुख तो उनके मामा-श्री हैं ही .' '
'ताऊ -श्री धृतराष्ट्र पुत्र-मोह में किसी की सुनते लहीं ,न तात विदुर की न पितामह की ,खेल खेल नहीं ,चाल है उन सब की .जान कर भी चुप .'
'कपट-बुद्धि कार्य कर रही हो.फिर भी प्रतिरोध न करें .नीति यह तो नहीं कहती .'
हाँ ,यही हुआ था - आशंका होते हुये उससे विरत होने का प्रयास नहीं किया गया .शान्तिपूर्वक रीति-.नीति-धर्म का पल्ला पकड़े सब कुछ घटने का माध्यम बने रहे .धर्म में बुद्धि का प्रयोग वर्जित है क्या .रीति-नीति क्या लीक पर चलते जाने से निर्वहित होती हैं ? पांचाली सोच रही थी ,बोलने का अवसर ढूँढती-सी .
अंत में बोल ही दी ,' अगर चुपचाप अनर्थ घटते देखना समर्थ पुरुष का धर्म है तो पाप क्या है ?'
'पाप-पुण्य की गूढ़ व्याख्यायें करने का यह अवसर नहीं ,अभी दूतों की बात पर निर्णय करना है .'
और कुशल दूत कहते रहे -
'महाराज का कहना है ,आपके साथ जो व्यवहार हुआ कदापि उचित नहीं था ,उसी का निराकरण करना चाहते हैं .'
वे चारों वयोवृद्ध व्यक्ति दूत बने बहुत विनय दिखाते हुएवाग्पटुता से युठिष्ठिर को मना रहे हैं .
एक ओर भाइयों की आपत्तियाँ ,दूसरी ओर दूतों के विनम्र निवेदन ,तात-श्री के आग्रह -अनुरोध का बखान .
इन्द्रप्रस्थ के महाराज युठिष्ठिर दोनों पक्षों को तोलते परम शान्त .
'हम चरणों में विनत हो कर निवेदन करते हैं .महारानी आप तो साक्षात् करुणा की अवतार हैं .आप ही महाराज युठिष्ठिर को समझाइये .क्या अपने तात-श्री का यहाँ आ कर आपको मनायें आप चाहेंगी? हम बूढ़ों की विनती की लाज रख लीजिये .'
'हम बहुत श्रान्त हो गये हैं ,अपनी नगरी छोड़े कितना समय हो गया .ताऊ-श्री हमारी विवशता समझेंगे .अभी प्रस्थित होने की अनुमति दें ,निकट भविष्य में पुनः दर्शन करेंगे .''.
पति की ओर देखती द्रौपदी का उत्तर था
वाचाल दूत कहाँ माननेवाले ,' अभी महलों में चल कर पूर्ण विश्राम कीजियेगा महारानी ,और उधर ,आपकी नगरी के समाचार भी पहुँचते रहेंगे . सब सुव्यवस्थित .और महाराज के प्रताप से हर ओर शान्ति सुख छाया है .
भीम ने आगे बढ़ फिर चेताना चाहा ,'उनके लोभ का कोई छोर नहीं .वे हमें सहन नहीं कर सकते .'
युठिष्ठिर उलझन में, 'पर ये तो ताऊ -श्री ने कहलवाया है .उनसे तो हमारा बैर नहीं .हमारे पूज्य हैं वे .'
,इतना सब हो गया ,क्या रोक सके वे .अब हम क्यों जायें?.'
फिर यह उनकी चाल है -भीम का कहना था .
'जो ग़लत है ग़लत ही रहेगा ..जब बोलेंगे ही नहीं तो चलती रहेगा सबकी मनमानी .'
क्या अभी भी नहीं भरा जी ?नीतिज्ञ वही -जो समयानुकूल नीति निर्धारित करे .आखिर ये चाहते क्या हैं?
पांचाली प्रतीक्षा में थी कि वे मत जानने को जब उससे उन्मुख होंगे और वह स्पष्ट कह देगी ,मेरा मन यहाँ से बिलकुल उचट .गया मुझे विश्राम चाहिये- पूर्ण विश्राम. बहुत थक गई हूँ .अपने घर जाना चाहती हूँ .शान्ति चाहती हूँ .
पर उन्होंने उधर देखा भी नहीं .
अर्जुन हत्बुद्ध ,भीम नकुल -सहदेव ,बड़े भाई का मुख देखते रह गये थे जब उन्होंने महाराज धृतराष्ट्र का आमंत्रण स्वीकार कर, हस्तिनापुर में रुकने का आश्वासन ,दूतों को दे दिया .
ओह, कैसी दुराशा !
ये नहीं समझना चाहेंगे .अपने आगे किसी की कभी नहीं सुनेंगे.
जानते हैं न ,इनका क्या कर सकता है कोई ?
जब अपना ही माल खोटा ,तो परखैया का क्या दोष ?
एकदम विवश विमूढ़ पांचाली !
और फिर एक दिन क्रीड़ा के नाम पर जुए की फड़ जमी.
सब देखते रह गये शकुनि के पाँसे पड़ते रहे और बड़े पांडव वनवास और अज्ञातवास जीत लाये .
इन्द्रप्रस्थ जाने के बजाय पाँडव वन के लिये प्रस्थान कर गये .
राज्य का प्रबंध देखने को कौरव बंधु हैं ही .
द्यूत के पासों पर नचाया जा रहा है पांडवों को .
तभी से बीत रहा है इसी ढर्रे पर सबका जीवन .
सोच कर अस्थिर हो उठती है पांचाली .
कुछ याद नहीं करना चाहती , सारा कुछ विस्मृति के अतल में डुबो देना चाहती है .
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(क्रमशः)