शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

कथांश - 11.

*
मन नहीं लग रहा था,ऊपर छत पर चला गया.
 खड़ा रहा इधर-उधर देखता रहा कुछ देर . समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ .
 ध्यान आया अभी अपने जॉब के विषय में यहाँ किसी को बताया नहीं.
नीचे उतरा .
'माँ, ओ माँ !'
वे आ कर खड़ी हुईँ ,'अब क्या हुआ ?'
' खुश होओ माँ ,मुझे जॉब मिल गया और बहुत अच्छा ,वैसा ही जैसा तुम चाहती थीं .'
सब भूल गईँ वे ,'अच्छा कहाँ ?कब ज्वाइन करना है ?
'पहले ट्रेनिंग पीरियड उसके बाद . दो महीने तो लग जाएँगे .'
'कौन सी जगह?'
' शायद बँगलौर.'
चलो अच्छा है .
आगे बढ़ कर माँ के पाँव छुए , सिर पर हाथ रख दिया उन्होंने
'हमेशा खुश रहो !'
'अरे वाह, भइया !'
ओह, वसु को तो मैं भूल ही गया था ,आगे बढ़ कर उसे लिपटा लिया .
' कौन सी ड्रेस चाहिये थी तुझे ?'
'उस  फ़ंक्शन के लिए भैया ... माँ तो तैयार ही नहीं हो रहीं, कहती हैं एक दिन, ज़रा देर के लिए फ़ालतू का खर्च .'
' कल  चलना मेरे साथ .' माँ की ओर घूम कर बोला,
पोस्टिंग कहीं भी हो सकती है वैसे, बेंगलोर नहीं तो हैदराबाद..'
'चलो अच्छा है !'
*
बाहर का दरवाज़ा खटका .
'अब कौन आया है?
दोनों की प्रश्नवाचक नज़रें उठीं.
वसु उठ कर खोलने चली गई
पता नहीं कौन आ गया .शर्ट नहीं पहने था सो उधर के कमरे में चला गया .
आवाज़ आई -
'अरे ,मीता दीदी..'
' हाँ ,ये लौंज बनाई थी तुम भाई-बहन को अच्छी लगती है तो ले आई 'फिर आवाज़ लगाई - 'माँ, मेरे लिए भी खाना बनाया कि नहीं?'
'तुम्हें कभी कहने की जरूरत पड़ी है क्या ?'
इतने दिनों बाद वही आवाज़ सुनी ,अनायास कदम कमरे से बाहर बढ़ आए.
वह चली आ रही थी.
देख कर कुछ अव्यवस्थित हो उठी.
'अरे तुम... क्या अभी आए ?'
'क्यों गलत आ गया? अभी नहीं आना था..?'
'मेरा वह मतलब नहीं ,मुझे लगा था रात तक आओगे  ..'
उस का चेहरा उतर गया था, आगे बोल न सकी, मैं कड़ी निगाहों से देखता रहा .
 माँ पहले ही रसोई की ओर चल दीं थीं
फिर उनकी आवाज़ आई ,'वसू , क्यारी में से अदरक की गाँठ खोद ला ,मुझे अभी चाहिए .'
'ब्रजेश ,मैं लाचार थी  एकदम ऐसा हो  गया कि मैं कुछ न कर पाई.' मेरी वही निगाहें उसके मुख पर जमी रहीं .
 'गलती मेरी है ,पर उतनी मेरी भी नहीं .अचानक यह सब हो गया, मुझे कुछ पता नहीं था ..'
'तुम औरतें नाटक बहुत बढ़िया कर लेती हो .इससे इसके मन की, उससे उसके मन की .असली मंशा क्या है किसी को पता नहीं चलता. '
वह कुछ नहीं बोल पा रही . चेहरा देख तरस आ गया पर मन में भरी कटुता मुझे सहज  कैसे होने देती !
'..बहाने भी बहुत खोज लेती हो तुम लोग. किसी न किसी पर बात डाल देना. सबको धोखे में डाले रखने में बड़ा मज़ा आता है .बस अपनी सोची . दूसरे का ध्यान किसे आता है! ..लाओ, मिठाई लाई हो क्या मेरे लिए? ' आवाज़ आवेश में भर्रा-सी गई.
वह सिर झुकाए खड़ी ,हाथ में लौंज का डब्बा अब गिरा-तब गिरा.
अदरक की गाँठ लिए वसु चली आ रही थी ,झट से बढ़कर डिब्बा साध लिया ,' अरे गिरा जा रहा है . लौंज लाई हैं दीदी ,तुम्हें अच्छी लगती है न !'
मैं शर्ट हाथ में पकड़े-पकड़े कमरे में लौट गया.
*
माँ से कहा था मैंने ,'तुम्हीं तो थीं सब करवाने वाली ,रीत-भाँत बताने वाली...'
मुझे ख़ुद अपनी ही आवाज़ अजीब लग रही थी .
उनने मेरी ओर देखा .
'हाँ, करवाया..मैंने ! वहाँ पहुँची तब सब तैयार था बल्कि हो रहा था .मुझसे तो बाद में  जो होना चाहिए वह पूछा.'
  कैसे क्या हुआ यह भी पता चल ही गया -
जाते ही रमन बाबू से परिचय और विनय की पुकार हुई . तुरंत कार्यक्रम संपन्न और आशीष से संपुष्टि .  
 बाद में जरूर अकेले में राय साब ने पूछा था - 'इन लोगों के साथ अब क्या होना चाहिये ? '

उन्हें चुप देख कहने लगे -
'यहाँ तो आप ही बड़ी हैं .हमें सहारा रहेगा .तीज त्यौहार क्या करना होता है बताती रहियेगा .जिज्जी की जगह आप  हैं,वे बहुत मानती थीं आपको  ,और मीता तो आपको ही सगा समझती है .रिश्तेदारों से उसे कभी मतलब नहीं रहा .अब क्या करूँ, खाली हाथ तो न जाने दूँ ? '
'खाली नहीं ,मिठाई और वस्त्रादि देकर बिदा कीजिए .'
'जो भी करना हो बता दीजिए ...' 

'लड़के की माँ के मन में बहुत अरमान होते हैं ,उनके लिए कुछ भेंट अवश्य भेजिये .'
राय साब ने उन्हें बताया था .हमारा संबंध बहुत पुराना ,मेरी पत्नी का बनाया हुआ है .ये विनय शुरू से उनके आँचल में पड़ा  ,एक तरह से उन्होंने ही पाला .तब से इसकी माँ इसे अपना नहीं हमारा कहती हैं ...रमन बाबू का  इज़्ज़तदार ,प्रतिष्ठित परिवार है ,आप देखेंगी तो खुश हो जाएँगी .बस दो बेटे - दोनों लायक .और भाभी जी ,जैसे साक्षात् लक्ष्मी !रमन बाबू से आप मिल ही चुकी हैं. विनय ने पिता के संस्कार पाए हैं  .वो मसल है न -बाप पे पूत पिता ...घोड़ा, ऐसा ही कुछ, बहुत नहीं तो थोड़मथोड़ा - मुझे तो ठीक से याद भी नहीं ..'
मेरे मन में घूम गया- इज़्ज़तदार ,प्रतिष्ठित परिवार ?
हाँ ज़रूर होगा !

(क्रमशः)
*

7 टिप्‍पणियां:

  1. इज्जत और प्रतिष्ठा के आगे भला प्रेम की कैसे चलती...कहाँ इतने भारी भरकम शब्द और कहाँ ढाई आखर वाला...

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  2. ई-मेल से शकुन्तला जी -
    ''पारिवारिक सम्बन्धों के परिदृश्यों में आपके चुटीले संवाद प्राण फूँक देते हैं । उनकी स्वाभाविकता मन पर छाप छोड़ जाती है ।
    घटना-क्रम में पुरुष पात्र की प्रतिक्रिया और उनका कुशल चित्रण एक और पक्ष है -जहाँ पाठक देर तक सोचता ही रह जाता है ।
    हर पात्र की भाव-भंगिमा कथा का नाटकीय दृश्य प्रस्तुत करने में समर्थ है ।
    ये बात मैंने "पीला गुलाब " और "एक थी तरु" में भी देखी थी ।''
    शकुन्तला

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  3. रोचक लेखन है आपका , मगर प्रसाद की तरह थोडा सा ही मिल पाता है एक बार में . उत्सुकता बनी हुई है !

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  4. माँ, आज इस कड़ी में (बहुत जल्दी 10 के बाद 11वीं कड़ी आ गई) मेरी पुरानी शिकायत दूर हो गई.. या कहिये यही अवसर था मेरी शिकायत दूर करने का.. मैंने पहले कहा था न कि ब्रजेश ने अपनी माँ को समस्त नारी जाति का प्रतिनिधि बताते हुये बहुत सी बातें सोच ली थीं, मगर मीता को कुछ नहीं कहा!
    आज मीता से मिलकर उसने जो कुछ कहा शायद यही उचित अवसर था उन बातों के लिये!
    घर का माहौल सामान्य होने लगा है, देखकर अच्छा लग रहा है! मगर देखें आगे आपने क्या छिपा रखा है हमारे लिये!
    यह कथांश पढते हुये बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है, माँ!

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