शुक्रवार, 9 मार्च 2012

कृष्ण-सखी - 27 & 28.


27.
श्री पंचमी - वसंतागम का संदेश !
माघ बीता जा रहा है सूर्य उत्तरायण हो गये. दिवस का विस्तार देख रात्रियाँ सिमटने लगीं. दिवाओं में नई ओप झलकने लगी , दिशायें कोहरे का का झीना आवरण उठा  अपनी मुस्कान छलका  देती हैं .
मौसम  ने  हलकी-सी करवट ली है - वनस्पतियाँ नव-रस संचार से रोमांचित  ,शाखाओं पर नन्हीं अरुणाभ कोंपलों की पुलक . पर ठंडी हवाओँ का स्वभाव अभी  बदला नहीं.बिदा होती  शीत अपने रंग दिखा रही है , हेमंती झोंके पुराने  पात झकझोरते निकलते चले जाते हैं.
पांचाली की श्यामल देह पीली चूनर से आवेष्टित देख भीम ने पूछा  ,'वसंत पंचमी भी कहलाता है आज का दिन .पर अभी सरसों नहीं फूली,वनों में पलाश की दहक  नहीं छाई. न आम बौराये  न कोयल कूकी .कहाँ है वसंत कहीं दिखाई तो नहीं देता  ? .'
अपनी विद्वत्ता का परिचय देते नकुल बोल उठे ,'राजा के आने से पहले उसकी धमक छा जाती है ,देखो न भीम भैया ,वसंत ऋतुराज है ,प्रजाओं से कर वसूलता है ,सब से एक-एक सप्ताह - . तभी न  आगमन की घोषणाएँ मास भर पहले से गूँजने लगती हैं. '
'क्यों षड्ऋतुएँ होती हैं ,चलों एक वसंत को छोड़ दें तो शेष बचीं पाँच. फिर सवा मास पहले क्यों नहीं  ..'
'अरे भैया ,राजा है तो रानी भी है ,रानी से कर लेगा क्या राजा ?वर्षा तो मन मानी है,राजा की रानी है  .जब जितना मन हो घेर लेती है- कभी लंबी कभी छोटी . तुम भीम भैया, हिडिंबा भाभी से कर वसूलोगे ?'
सब खिलखिला कर हँस पड़े .
युठिष्ठिर गंभीर थे .
क्या हुआ बड़े भैया .आप इतने चुप-चुप क्यों हैं ?अब तो आज-कल में अर्जुन भैया भी  आ जायेंगे ,'
'ठीक है कि हमारे भाई ने बहुत सामर्थ्य बढ़ा ली है .हमारे साधन बढ गये हैं .अनेक  शस्त्रास्त्र प्राप्त कर लिये हैं .पर ..'
'पर क्या ?अब अपने राज्य-प्रवेश की  तैयारियाँ करें .'
'सबके मन का संशय अनायास सहदेव के शब्दों में मुखर हो उठा है .
'मुँह धो रखो .मुझे नहीं लगता इतनी आसानी से हमें अपना इतने  दिनों का छूटा राज-पाट मिल जायेगा !'
पांचाली एकदम मौन .
*
कैसी विचित्र स्थितियों में पूरा युग बीता .मन अधीर हो उठता है .
मन में घुमड़ता रहता है कुछ . द्रौपदी लगता है कैसी विचित्र है जीवन की पद्धति! धर्म इतना रूढ़ क्यों हो जाता है .-यह करना है यह नहीं करना .सब बँधी-बँधाया .जैसी स्थिति हो उसके अनुकूल क्यों नहीं कर सकते हम. एक सहज-स्वाभाविक आचरण को इतना उलझा क्यों देते हैं लोग?इतना रूढ़ कि स्वस्थ मानसिकता संभव न रह जाय .एक निर्धारण हर व्यक्ति ,हर काल हर, स्थान पर ,हर परिस्थिति में कैसे उचित हो सकता है? हर जगह एक औचित्य  संभव ही नहीं .
और इसकी आड़ में जब अनैतिकतायें धर्म-सम्मत कहलायें तो पाप क्या कहा जायेगा ?
पर किससे कहे पांचाली ! बस ,वासुदेव के सामने मन के द्वंद्व खोल पाती है .
उस दिन अनायास कह उठी थी -
'क्यों मीत,कोई अपनी वस्तु दाँव पर लगा कर हार जाय  तो उसका अधिकार तो उस पर से गया .अब दूसरा उसे रखे , चाहे छोड़े. फिर से उसकी तो होने से रही .'
खिलखिला कर हँस पड़े जनार्दन ,' पहेली बुझा रही हो या सचमुच गंभीर हो ?.'
'दोनों रूपों में बात वही है. '
'उस समय मुक्त होने का तुम्हें पूरा अवसर था ,उस जीवन से बाहर निकल सकती थीं .'
'बहका रहे हो तुम भी .एक बार विवाह के बाद नारी के लिये कहीं ठौर बचता है क्या ?और एक के कारण दूसरे चारों को दंडित करना अन्याय होता. सोचो तो मीत,.मेरे पाँच पुत्र कैसा जीवन जीते - त्यक्त ,अपमानित !जीवन भर तिरस्कार झेलते हुये .मात्र मेरे कारण ? नहीं , नहीं कर सकती .'
कृष्ण को याद आया मथुरा में कंस के राजदरबार में जाते समय देखा था .कुछ लोग एक बछड़े को अपने शकट पर ले जा रहे थे और गाय उसके पीछे रँभाती-भागती चली आ रही थी .ऊँचे-नीचे पत्थरों से टकराती ,व्याकुल कहीं साथ न छूट जाय. बिना प्रयास  उसे ले जाने के लिये उपाय ढूँढ निकाला था लोगों ने .
मातृत्व ? नारी का सबसे बड़ा वरदान और सबसे बड़ी विवशता भी .
एक गहरी साँस छोड़ी जनार्दन ने .
जानते हैं, दैन्य प्रदर्शन पांचाली के स्वभाव में नहीं.
'सखी ,पत्नी पति की हर दुर्बलता को जानते हुये भी कभी कहती नहीं उससे ?'
'हाँ ,नहीं कहती .पति है वह . रहना उसी के साथ है  .जो संबंध है वह कुंठित हो जाय तो गृहस्थी की गाड़ी खिचखिच करती चलेगी .'
'और पत्नी के लिये, ?.'
'उसके मन की जानने की क्या आवश्यकता ?उसकी निष्ठा पर पति का अधिकार है और सारी क्षमतायें भी उस  के निमित्त..उससे कैसा भय?'
' पांचाली .शान्त हो कर विचार करना .बड़े भैया का अपना स्वभाव है ,किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होते वे. ,वन के अभाव और भवन की सुख-सुविधा में  समभाव रहता है उनका.' .
पांचाली के मन में उठा - देहसुख तो उन्हें भी चाहिये ,उससे कब विरत रहे वे ?
पता नहीं मधुसूदन समझे या  जान कर  चुप लगा गये !.
जानते हैं अपनी बांधवी को - कभी नहीं कहेगी 'मुझसे नहीं होगा यह' .
सब चुपचाप करती चली जायेगी!
*
28
बीत गई अज्ञातवास की भी अवधि .
कैसी-कैसी विषम स्थितियाँ !पूरे बरस एक महारानी, परिचारिका बनी वे सब व्यवहार सहन करती रही .
सुदेष्णा के केश-प्रसाधन का दायित्व रहा सैरंध्री नामधारिणी पांचाली का .और यों तो परिचारिका थी अन्य प्रकार से भी सहायक की भूमिका भी अनायास - आवश्यकता आ पड़ने पर .
 नीलोत्पल की सुवास से गंधित एक आभा-मंडल पांचाली के साथ चलता है ,आश्रयदात्री के कौतूहल को शान्त कर दिया था यह कह कर कि पाँच गंधर्व उसके पति हैं .उन्हीं से कमलगंध का उपहार पाया है .मेरे हित की चिन्ता उन्हें सदा रहती है .अनजाने ही कुछ अपराध हो गया  सो शापित जीवन व्यतीत कर रही हूँ .एक  अवधि के पश्चात मेरे पति मुझे साथ ले जायेंगे .
विश्वास कर लिया सुदेष्णा ने -व्यक्तित्व ही ऐसा जो अनायास प्रभावित कर ले. उसकी बुद्धि और कौशल पर मुग्ध , प्रखरता से चमत्कृत , मन ही मन थोड़ा भय खाती है  . पर सुदेष्णा का व्यवहार संतुलित रहता है -लगभग सखीवत् . किसी विपरीत परिस्थिति में, उसके गंधर्व पति सहायक सिद्ध होंगे इसलिये उससे बनाये रखना चाहती है .
 सैरंध्री की निजी  दिन-चर्या पर कोई आपत्ति नहीं उसे.
कीचक के प्रसंग में भीम के अतिरिक्त किसी को  कानों-कान सूचना नहीं होने दी .जानती थी,बड़े पांडव  शान्त रहने को कहेंगे .और कहीं दासी-धर्म निभाने को उचित ठहराने लगे तो ?..नहीं ..नहीं .उन के निर्णय पर आश्रित नहीं रहना है  .भीम पर विश्वास था ,किसी भी मूल्य पर वह अपनी पत्नी को सुदेष्णा के भाई द्वारा घर्षित नहीं होने देगा .और कामांध कीचक का वध संभव हो सका .
युधिष्ठिर और कुछ  करते-न-करते पर  भीम को कीचक-वध नहीं करने देते .
उनका का मन अगम है . क्या निर्णय लेंगे कोई नहीं जानता .
  अज्ञातवास की दीर्घ अवधि इसी ऊहापोह में बीतती रही -किसी को आभास नहीं कि इस घटना-क्रम पर इन्हें कैसा लगा .हर समय शान्त-गंभीर - दुर्गम से .जिनके साथ हैं उन्हें समझना-समझाना इस सब से ऊपर रहे वे .उचित-अनुचित की उनकी नीति-धर्म सम्मत मान्यता पर किसी का विरोध  सामने नहीं आता.
जयद्रथ को छुड़वा दिया ठीक था ,संबंधी था वह,दुःशला का पति .नहीं चाहती थी वह कि परिवार की अकेली बहिन विधवा हो रहे ,केवल उसके कारण .दंड दे दिया गया  .पर्याप्त हुआ. .
वृहन्नला बने अर्जुन राजकुमारी के नृत्य-शिक्षक बन गये थे .इस रूप में उन्हें देखना द्रौपदी के लिये विचित्र अनुभव था . इस विषम काल में उर्वशी का शाप वरदान बन गया था.
कीचक-कांड पूरा हो जाने के बाद सबको पता लगा ,किसी ने टीका-टिप्पणी नहीं की.
अज्ञात-वास का वर्ष  पूरा हो चला था .
इसी समय कुछ बड़ी घटनायें घटीं जो पांडु-पुत्रों की वास्तविकता उद्घाटित कर गईं .और अर्जुन की शिष्या उत्तरा उनकी पुत्र-वधू बन गई .
अपने आश्रयदाता के उपकार का पूरा मूल्य इन लोगों ने चुका दिया .पांचाली का मस्तक गर्व से ऊँचा हो गया था.
 अब समस्या थी,अपने राज्य की पुनर्प्राप्ति किस विधि  संभव हो ?
कृष्ण का मत था कि वे सीधे हस्तिनापुर न जायँ कि लो ,हम आ गये ,शर्तें पूरी हुईं अब लाओ हमारा राज्य .
नीति यही कहती है कि पहले थाह ले लेनी चाहिये कि उनके मनों में क्या चल रहा है .हम सीधे पहुँच जायँ बिना उनकी मानसिकता जाने .पता नहीं कैसा व्यवहार हो उनका ,
यमुना में बहुत जल बह चुका इस बीच ,उनके विचार किस प्रवाह में हैं पहले इसकी थाह ले लेना चाहिये .
तेरह वर्ष का लंबा समय इस बीच भी कौरव बंधु अपने हथकंडों से चूके नहीं थे.कभी जयद्रथ ,कभी दुर्वासा , जाने कितने उपाय कर डाले  निष्कंटक हो जाने के लिये ,
अब उनके मन में क्या हो कौन जाने .
युधिष्ठिर ने कहा था,'जनार्दन यह कार्य तुम्हारे अतिरिक्त और कौन कर सकता है !'
'ठीक है भइया ,आपका संदेश ले कर जाऊँगा .'
 *
स्वागत-सत्कार के पश्चात् वयोवृद्धों की उपस्थिति में कृष्ण  ने  नीतिपूर्वक अपनी बात रखी.
सभा में सन्नाटा छा गया .सब एक दूसरे का मुख  देख रहे थे .
 उत्तर  दुर्योधन ने दिया ,बोला .'वासुदेव , गायें चराते-चराते अब हमें भी चराने लगे ...'
शकुनि मुस्करा रहे हैं .
'युवराज ,नीति की बात कह रहा हूँ .जो शर्तें निश्चित हुई थीं उन्हीं की बात कर रहा हूँ .'
राज्य के अधिकारी वे कैसे ?हम राजपुत्र हैं . सब  सौ ,बहिन दुःशला सहित एक सौ एक , एक ही पिता की औरस संतान हैं . वे राजा के अंश नहीं ,चाचा पांडु ने पहले ही राज्य त्याग दिया था .अभिशप्त जीवन पा कर वनवास ले लिया था  .संतानहीन थे वे .और वन में ही मर-खप गये .जिन पाँच पुत्रों को ले कर कुंती चाची आईँ उन  सब के अलग-अलग जनक  किसी एक की तो हैं नहीं -कितनों की संततियाँ हैं .
इन पांचों में कोई उनकी संतान नहीं .फिर कैसे अधिकारी हुये राज्य के ?'
कृष्ण बोले ,'कुरुराज महाराज धृतराष्ट्र ने स्वयं उन्हे जो भूमि सौंपी थी उस पर  इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया था उन्होंने ,कितना समृद्ध संपन्न राज्य रहा था ,अपनी सामर्थ्य से राजसूय यज्ञ कर सबका सम्मान और कीर्ति अर्जित की थी .'
'हाँ, की थी तब की थी .समय के साथ सब कुछ बदल गया.'
'सारी शर्तें पूरी कर ली हैं उंन्होने .अब क्या बाधा है ?'
दुर्योधन का स्वर तीव्र हो उठा ,'बाधा ? जो पाया था उसे निभा सके वे ?अपने को उसके योग्य सिद्ध कर सके वे?क्यों नहीं राज कर सके ?.इतने दुर्बल कि राज  द्यूत के पाँसों के अधीन   कर दिया  .विवाहिता सहधर्मिणि को मोहरा बना कर खेलनेवाले कब क्या कर बैठें .कौन दायित्व लेगा उनका? अब बारह बरस जंगलों में  रह कर और  वनवासी हो गये  ,राज को सँभालने का कौशल बचा है उनमें ?.अक्षम सिद्ध कर दिया अपने को  ?अज्ञात-वास में रह कर सब की आँखों से ओझल रहे ,किसीने याद किया उन्हें ? कौन जानता है अब उन्हें,कौन राजा मानता है ?.हम चला रहे हैं शासन .सुव्यवस्था बनाये हैं .अब उनका कुछ नहीं यहाँ .'
धारा-प्रवाह  बोलते-बोलते कुछ रुका  दुर्योधन.सभा पर दृष्टि डाली .
सर्वत्र मौन .सब विचारमग्न !
'सुयोधन ,वे तुम्हारे भाई हैं .पाँच गाँव ही दे दो .उसी से संतोष कर लेंगे वे .'
' भाई ?किस नाते से ?अरे उनका बस चले तो हमें भी अपनी बाज़ी पर दाँव लगा दें वे .राज्य का शासन चलाना कोई खेल नहीं है . द्यूत की क्रीड़ा नहीं है कि बैठे-बैठे दाँव लगाते चले गये .
 भिक्षा माँग रहे हैं पाँच गाँवों की .सामर्थ्यवान ही धरा का भोक्ता होता है .साहस है तो ले लें लड़ कर .इतने वर्षों में सबसे दूर रह कर सारे सहायक खो चुके हैं  .अब कौन उनके साथ खड़ा होगा ?न धन .न लोक-समर्थन ,न सेना .क्या कर सकते हैं वे .जहाँ इतने दिन रहे,वहीं वनों में शान्ति से रहते रहें .'
सब चुप हैं .दुर्योधन के आगे कोई तर्क नहीं चल रहा .कोई सद्भावना काम नहीं कर रही .
'व्यर्थ में युद्ध क्यों चाहते हो सुयोधन .लड़ कर लेने की बात क्यों ?'
वह हँसा .,'हाँ, आयें, हमसे लड़कर ले लें .जो जीत जाये सब कुछ उसका .नहीं तो सुई की नोक बराबर भूमि भी उनकी नहीं .'
 अति गंभीर  कृष्ण के मुख से निकला ,
'किसी प्रकार  कौरव-पांडवों का संघर्ष टाला नहीं जा सकता ?'
महाराज धृतराष्ट्र की ओर देखा  ,पितामह भीष्म पर दृष्टि डाली.
सब मौन !
गहन वाणी में कृष्ण बोले ,'तो युद्ध अवश्यंभावी है .'
*
(क्रमशः)



6 टिप्‍पणियां:

  1. प्रवाहमयी प्रस्तुति .... यह शृंखला बहुत रास आ रही है ... आभार

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  2. महाभारत की कथा कालजयी है।
    इसके प्रसंगों में छिपे संदेश जीवनोपयोगी हैं।

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  3. शकुन्तला बहादुर15 मार्च 2012 को 8:27 pm बजे

    पांचाली और कृष्ण के चुटीले संवादों ने कथा के प्रवाह को गतिमान
    किया है। पांचाली के मन की कुंठा,ममत्व और परिवार के प्रति दायित्व-निर्वाह का भाव अनायास ही परिलक्षित हो जाता है।महाभारत
    युद्ध के पूर्व भीष्मादि का मौन मन को विस्मित भी करता है और विक्षुब्ध भी। रोचक एवं ज्ञानवर्धक प्रस्तुति के लिये साधुवाद!!

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  4. मुग्ध हो कर पढ़ते चले जाना, बस यही किया करता हूँ इसमें।
    साधु!

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  5. ab tak tv serial se jo is vishay par jana tha us se bhinn, rochak aur aashchary chakit kar dene wala hai. aabhar ham tak tathyon ko satyapit roop me pahuchane k liye.

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